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श्रोसह दिज्जइ रोय विणासणु, मह विश पित्थह वाहि पपासणु ॥ ४ ॥ माहारे घण रिद्धि पविट्टइ, चउविहु पाउ जि एह पविट्टइ ।
हवा दुट्ट वियप्पह चाए, पाउ जि एहु मुणहु समवाए ॥ ५ ॥ भार्या-दुहियहिं दिज्जइ दाण , किज्जइ पाणु जि गुण यणहि ।
दर सानिए अभंग, दसण चिंतिज्जई माई ॥ ६ ॥
(भाश सबैया ) दान सो जगमें नर दान से मानको पावत है अग मानव , . भूप दयाल भये सबकू अरि मित्र भये अरू सेवत दानव ।
दान ते कीर्ति बढे जग भीतर दान समान न भऔर कहावे ।
शान कहै मन पार उता न दान चतुर्विध सार कहावे ॥८॥ * ही उत्तम त्याग धर्मा गाय 'महाय॑म् ॥ चतुर्विशति संख्यातो, यो परिग्रह ईरितः ।
तस्य संख्या प्रकर्तव्या तृष्णा रहित चेतसा ।।
ॐ ह्रीं उत्तमाञ्चिन्य धर्मा गाय अमम् । धत्ता:-आकिंचणु भाबड, अप्पा ज्झावहु देह भिएण उज्झाण मऊ ।
निरुवम मयरएणउ, सुह संपण्णउ, परम अतींदिय विगप मउ ॥१॥
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