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________________ आकिंचणु चउसंग खिदिति, श्राकिंचरतु चउ सुझावति । प्रकिणु च विय लियमभति, ग्राकिंचणु रमणाचय पवित्त श्रचिणु आउ चि एहिचित्त, पसरंतर इंदिववणि विचित्त ॥ afia देह चिरा, माकिंचणु तं मत्र सुद्द विरच ॥ ३ ॥ तिणमत्त परिग जत्थात्थि; मणिराठ विहिज्जड़ तक अवस्थि । अप्पा र जन्थ वियारसति, पर्याडज्जइ जहि परमेट्ठि भति नह इंडिज्जर संकप्प छ मोयख हिज्ज ना अपिट्ठ । आणि वम्म बि एम होइ तं ज्याइब बंठ इत्य लोई ॥ ५ ॥ घताः - ए हुज्जि पहावे, लद्ध सहावे, तित्थेसर तिव नयरि गया । 112 21 आलस दूर करि कर, नाम आकिंचन चांग घरावो । चाल पंपाe aat घटतें मन शुद्ध करी समता घर भादो ॥ जप तीर्थ करी फल इच्छित होत समूल #2 1 वे पुरिति सारा, मया बियारा, बंद बिज्ज एतेष्ठ सय ॥ ६ ॥ ॥ भाषा सवैया ॥ भये फल किंचित पावो । ज्ञान कहे नर को सुख दायक, शुद्ध मर्ने परमारथ घ्याशे ।। ६ । ॐ ह्रीं उत्तम आकिंचन धर्मा गाय महार्घ्यम् ॥ ६ ॥ ॥ ८३॥
SR No.090446
Book TitlePraching Poojan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Chandra Jain
PublisherSamast Digambar Jain Narsinhpura Samaj Gujarat
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size6 MB
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