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________________ १६२४ । ॐ नैऋत्यां दिशि सप्तकामुक सनु, भिन्नन्द्र नील द्युतिः साष्टाशीति मुताष्ट संख्य शतके, स्पार्ध कोश प्रभं ॥ sti दिव्य हरी गोश्वनि करै, भौमोक्त संख्येः रथैः पन्याद्वायुर कन्मपां बहुविधां बुद्धिं सदेयाद्बुधः वारणाम्बर लसच, ज्ञोपवीतध्वजैः नीलैरावप नीलाम्मोरुह दाम चारु चमरे शराजितः सर्वतः सशाज्योदनैः सत्क्षीरः स्वर मंजरी भव सभीeपवनैः " 11 || धूपैर्खजुर सान्धि बुधमहं, लागाधिरूढ़ पजे ॥ D 11 बुध आगच्छ २ बुधाय स्वाहा शेर्ष पूर्ववत् ॐॐ पश्चिमायां दिशि संस्थितं वाक्पतिग्रहं पंकजाख्यं बलिनाक्षमालाकरं गंवं शान्य चव पुष्प धूपप्रियं चार्च हतो महास्मिन्महेशं शब्द ये गुरुदर्भः समडि ईंधन नील ध्वन सहितं नैवेयम् । करोत्सेधं सुवर्ण प्रभ F ॐ पन्यैकायुधमष्टविंशति, धात्रीतोर सबर्जिते नवशते, शत योजनानां दिवि " ज्ञेयं पश्य रथं सुमेरुमभित, स्तोकेन क्रोश प्रभं । मुष्टांगरि इस्ति गोऽश्वनि करें, दिव्यौ सहस्राष्टक ॥ इस्तं व्यस्त सु पुस्तकं बहु मविं, यज्ञोपवीतां कि तं पीतैरंशुक पुष्पदाम चमरे, क्षत्रध्वजै भूषितं ॥ ॥२२४॥
SR No.090446
Book TitlePraching Poojan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Chandra Jain
PublisherSamast Digambar Jain Narsinhpura Samaj Gujarat
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size6 MB
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