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________________ एसे बहुश्रुत साधु पुनीर जो मममें दोउ भाव जु आणे, ज्ञान कहे तस पाय नमू श्रुत पारग ये मन गर्व न आणे ॥१२॥ ॐ हीं बहुश्रुत भक्तोऽयम् ॥ १२ ॥ षट् द्रव्य पन्च कायत्वं सप्त तत्वं नवार्थता । को प्रकृति विच्छेदो पत्र प्रोक्तः स भागमः ॥ १३ ॥ द्वादश अग उपांग सदा गम ताकि निरन्तर भक्ति कराये । वेद अनूपम चार कहेतस अर्थ गले मन माहि ठराये । पढे! बहुमान लिखो निज अक्षर भक्ति कसबहु पूज रचाये । ज्ञान कहे जिन आगम भक्ति करो सद्बुद्धि बहु शुभ पाये । १३ ॥ ॐ ही प्रवचन मक्तयेय॑म् ॥ १३ ॥ प्रति क्रमस्तनूत्सर्गः समता वन्दना स्तुतिः । अध्यायः पठ्यते यत्र तदावश्यक मुच्यते ॥ १४ ॥ भाव धरे समता सब जीवन स्तोत्र पढे मनः सुखकारी । कायोत्सर्ग करे मन प्रीतसों बन्दन देव तणी भवहारी । ध्यान धरि मद चूर करी दोउ वेर करे पडिकम्मथ भारी । ज्ञान कहे मुनि सो धनवंत जु दर्शन ज्ञान चरित्र उधारी ॥ १४ ॥ - . . .
SR No.090446
Book TitlePraching Poojan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Chandra Jain
PublisherSamast Digambar Jain Narsinhpura Samaj Gujarat
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size6 MB
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