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________________ ६५५ पाप पखाल भये प्रति निर्मल कर्म कठोर किो अति यूरा । दिव्य अन्त चतुष्टय सोभित घोर मिथ्यात्व निवारण शूल, ज्ञान कहे जिन राज पाराधो निरन्तर जे गुण मन्दिर पूर! : १० ॥ ॐ ही अहंभक्तये अर्यम् ॥ १० ॥ निथ भुक्तितो भुक्ति स्तम्य द्वारावलोकनम् तद्भोज्या लभते वस्तु रसत्यागोपनासता ।। तत्पाद बन्दना पूजा प्रणामो विनयो नतिः एतानि यत्र जायन्ने गुरू भक्तिमतेतिसा ॥ ११ ॥ देक्त हैं उपदेश अनेक सु आप सदा परमारथ धारी, देश विदेश विहार करें दश धर्म धरै भर पा उतारी । एसे प्राचार्य को भावधरी भजि जे शिव चाहत कर्म निवारी, ज्ञान कहे जिन भक्ति कीनों नर देखतहों मनमाही विचार || ११ । ॐ ह्रीं प्राचार्य भक्तये अय॑म् ॥ ११ ॥ भस्मृतिरनेकान्त लोकालोक प्रकाशिका ।प्रोक्ता यत्राईता वाणी वय॑ते सा बहुश्रुतिः ॥ १६ ॥ आगम छन्द पुराण पढ़ाबत साहित्य तर्क वितर्क पखाणे । साव्य कथा नव नाटक चूमत ज्योतिष वैद्यक शास्त्र प्रमाणे। .11६५il
SR No.090446
Book TitlePraching Poojan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Chandra Jain
PublisherSamast Digambar Jain Narsinhpura Samaj Gujarat
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size6 MB
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