________________
1६४॥
पाद समाधि को भनि नाक पुए बड़े उपजे अयमाजे ,
साधु की संमबि धर्म को कारण भक्ति करै परमारथ भावे । साधु समाधि अरे भव छूटत कीति छटात्रय लोक में गाजे । ज्ञान कहे जग साधु बड़ी गिरि श्रृंग गुका विच जाय बिराजे ॥ = ||
ॐ ह्रीं साधु समाधये अय॑म् ॥८॥ कुष्टोदर व्यथा शूलधांत वित्त शिरोतिभिः ।।
कास खास ज्वरा रोगैः पीडिता ये मुनीश्वराः ॥ तेषां भैपज्यमाहारं शुश्रुपापथ्यमादरात । यत्र तानि प्रवर्तन्ते वैयावृत्त्यं तदुच्यते ॥ ६ ॥
कर्म के योग विथा उपजे मुनि पुंगव को तस मैपल की,
पित्त कफानल तास भगन्दर तापको शूल महागद छीजे । भोजन साथ बनाय के औषध एथ्य कुपथ्य विचार के दीजे
ज्ञान कहे नित एसी बैयावृत्ति जेहिकरें तस देव भी पूले । ६ ॥
___ ह्रीं वैयापुतिकरणाय मळम् ॥ ६ ॥ मनसा कर्मणा वाचा जिन नामाक्षर द्वयं । सदैव मयते यत्र सार्हन्तिः प्रकीर्तिता ॥ १० ॥
देवसदा अरहन्त भजो जिन दोष अठारह किया अतिदूग ।