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________________ ॐ ही संधगाए प्रयम् ॥ ५ ॥ जघन्य मध्यमोत्कृष्ट पात्रेग्यो दीयते भृशंम् शक्तया चतुर्विधं दानं साख्याता दान संस्थितिः ॥ ६ ॥ पात्र चतुर्विध देख अनुराम दान चतुर्विध मावनों दीजे । शक्ति समान अभ्यागत को यह आदर सो प्रणिपत्य रीजे । देव तजै नर दान सु पत्तहिं ताक्षौं अनेकह कारण मीजे ॥ बोलत ज्ञान देहु शुभदान जु भोग सु भूमि महासुख लीजे । ६ || ॐ ही शक्तितस्यागाय अय॑म् ॥ ६ ॥ तपो द्वादश भेदं हि क्रियते मोत लिप्सया । शक्तितो भक्तितो पत्र भवोरसा तपसः स्थितिः ॥ ७ ।। कर्म कठोर गिराधन को निज शक्ति समान उपोषण कीजे । बारह भेद तपोतय सुन्दर पाप तिलांजलि काहे न दीजे ॥ भाव धरी तप घोर करी नर जन्म सदा फल काहे न लीजे । ज्ञान कहे ना जे तपत्रे तप ताके अनेकह पातक छीजे ॥ ७ ॥ ॐ ह्रीं शक्तितस्तपसे अयम् ॥ ७ ॥ मरणोपसर्ग रोगादिष्ट वियोगा दनिष्ट संयोगात्, न भयं यत्र प्रविशति साधु समाधिः सविज्ञेय ।। ॥३३॥
SR No.090446
Book TitlePraching Poojan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Chandra Jain
PublisherSamast Digambar Jain Narsinhpura Samaj Gujarat
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size6 MB
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