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शील सदा सुख कारक है, अतिचार विवर्जित निर्मल कीजे,
दानव देव करें तम सेव विषाद ने मूल पिशाच पसीजे । शील बडो जपमें हथियार जु शील को प्रोपमा काहे की दीजे
ज्ञान कहे नहीं शील बरावर तात सदाद शील धरीजे ॥ ३ ।
ॐ हीं शील व्रतेप्धनतिचार मावनाये अर्ध्वम् ।। ३ । काले पाठस्तवो ध्यानं शास्त्र चिन्ता गुरोनुतिः । यत्रोपदेशना लोके शास्त्रज्ञानोपयोगता ॥ ४॥
ज्ञानसदः जिनराज को भाषित, आलस छोड़ि पढ़े जु पढावे ।
द्वादश दोऊ अणेकह भेद सु नाम मति श्रुत पंचम पावे । चारह वेत्र निरन्तर भाषित ज्ञान अभिक्षा शुद्ध कहावे,
ज्ञान कहे श्रुत भेद अनेकजु लोक अलोक प्रत्यक्ष दिखावे ॥ ४ ।
ॐ ही अभीक्ष्णज्ञानोपयोगाय अय॑म् ॥ ४ ॥ पुत्र मित्र फल भ्य संसार विश्यार्थनः विरक्तिर्जायते यत्र स संवेगो बुधैः स्मृतः ॥ ५ ॥
मात न तात न पुत्र कलत्र न संपत्ति सज्जन यह सब खोटो,
मंदिर सुन्दर काय सखा सब कोई कहे इम अन्तर मोटो । भाबहु भावधरी मन मेदन नाहि संघम पदारथ छोटो ।
ज्ञान कहे शिव साधन को जैसे साह को काम करेजु रनोटो ।। ५ ।।
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