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________________ यहायदोप वासारयुकपर्यते तदातदा 1 मोक्ष सौख्यस्य कतणि कारखान्यपि पोडश ।। । पुष्पांजलि क्षिपेत् ॥ ॐ अथ प्रत्येकार्य छ भसत्य सहिता हिंसा मिथ्यात्वं चन दृश्यते । अष्टाङ्ग यत्र संयुक्तम दर्शनं तद्विशुद्धये ॥ ६ ॥ कत्रित्त-दर्शन शुद्ध न होवत जा लगि, तो लगि जीव मिश्या-वी कहावे । काल अनंतफिरे भवमें, महा दुःखनको फहीं पारन पाये । दोप पच्चीस रहित गुणाम्बुधि सम्यक दर्शन शुद्ध अराधे । ज्ञान कहेनर सोही बड़ो जो मिथ्याव तजि जिन मारग साधे ।। १ ।। ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्धयै अय॑म् ॥ दर्शन ज्ञान चारित्र पसां यत्र गौरवम् मनो वाक्काय सशुद्धया सारख्याता विनय स्थितिः ।। २ || देव तथा गुरूराय तथा तप संयम शील व्रतादिक धारी । पापके हारक कामके मारक शल्य निवारक कर्म निवारी । धर्म के धारक पाके भेदक पंच प्रकार संसार के द्वारी ज्ञान कहे विनयो सुख कारक माघधरी मन राखी विचारी । २ ॥ ॐ ह्री विनय सम्पश्चताय अर्धम् ॥ २ ॥ अनेकशील सम्पर्ण व्रत पंचक संयुतम् । यच विंशति क्रियायत्र उच्छील व्रतमुच्यते ॥ ३ ॥ -
SR No.090446
Book TitlePraching Poojan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Chandra Jain
PublisherSamast Digambar Jain Narsinhpura Samaj Gujarat
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size6 MB
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