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________________ ॥६७) ॐ ही भावश्यकापरिहाणये अयम् ॥ १४ ॥ जिन नान अवाख्यानं पीत पाचच नर्तनम् । यत्र प्रर्वतते पूजा सा सन्मार्ग प्रभावना ॥ १५ ॥ श्री बिन पूजा र परमारथ अागम नित्य महोत्सब ठान : गावत गीत यजावत ढोल मृदंग के नाद सुथान पखाने । संघ प्रतिष्ठा स्चै जल जातरा सद्गुरु को साहो कर पाने, बान कहे जनमागें प्रभावन भाग्यविशेष सुजानहि जाने ॥ १५ ।। ___ॐ ही मार्ग प्रभावनाय अर्घ्यम् ॥ १५ ॥ चारित्र गुण युस्ताना मुनीनां शील धारिणी गौरवं क्रियते यत्र सद्वासन्यं च कथ्यते ॥ १६ ॥ गौरव भाव धरि मन में मुनि पुंगव को नित वसल कीजे , शील के धारक भव्य के तारक तासौं निरन्तर स्नेह धरीजे । धनु यथा निज बालक को अपने निय छूटन और पसीजे ॥ बान कहे भनि लोक सुनो जिन बस्सल भाव धेरै अध छीजे ॥ १६ ॥ ॐ हीं प्रबचन वत्सलवाय अयम् ॥ १६ ॥
SR No.090446
Book TitlePraching Poojan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Chandra Jain
PublisherSamast Digambar Jain Narsinhpura Samaj Gujarat
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size6 MB
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