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ॐ उत्तरस्यां दिशि रंभाष साकर चरमाभर मणिगण भणकार श्रवण रिहित सुर गण रमा माकं, हा विणा पट पाहिति; जीमत पटलं, रसना बंधन प्रबल मुक्तामय, दाम शोभमान हेम दंडोपेतं, पुष्पक विमानमारूद, अनादर मुक्त शक्ति प्रहारोपार्जित, समर संघट्ट विजय मुकुट संघटित रत्नाकरण, विरचित्ता संडल चाप प्रपंच धन देव्यादि दिव्य महा पुण्य, परिवारो पेतं, किं कुबेर देवमाह्यानयामहे स्वाहा, हे कुभर, आगच्छ २, कुवेराय स्वाहा । शेष पूर्ववत ।
ॐ सर्वस्य शौतये शांतं, नत्या श्री घृत लक्षितं ।
वर्धमाने समैशानं, विदधे दर्भिणी दिशा ॥ ईशान दर्भः ॥ ॐ ईशान वृष षष्ट गणशतै, रावध मागलि ॥ हस्तो दस्त कराल शल मयदं, पूर्वोत्तरस्यां दिशि ॥ नागैराभरणै रलकृत मलं. काले हयामि स्व ॥
पात्र द्राक्प्रति गृह्यतामिहमहै, पुष्पादि काम्यर्चनम् ॥ पाद्याः ॥ ॐ पूर्वोत्तरस्यां दिशि दपीद्धारित मंदाकिनी पंकज मंडित विशंकट कुटिल विपाण कोटि उत्कृष्ट हाटक पटित कल, कूणित किंकणी सनाथ प्रलकमान गल कंबलोनतैः पूर्णकं धरं, धराश कैलाश धवलिमा लंघयंत, वृषभमारूद, भुजंगराज रज्जू संयुतं, केतकी कुसुमदस दाम सुरभि मौलि सरल शुमा युद्धोत्पादित प्रतिकुलवर्ति सर्वांग शूलं दिग्य कुल योषित् अशेष विभूषित समाजन समेतं ईशानदेयं समाइशनयामहे ॥ स्वाहा हे ईशान आमच्छ २ ईशानाय स्वाहा ॥ शेर्ष पूर्ववत् ॥ . . .
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