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________________ १६॥ ॐ एकस्यामपि पश्चिमोत्तर दिशि, स्थानेसदा सर्वगं I वायुं तुंग कुरंग पृष्ठ गमनं हस्तस्य वृक्षायुधं * देवं संप्रचलच्छ शेर घटने, दाररुारे समं if सम्यक संप्रति बोधयामि भवता, पाद्यादिकं गृह्यतां " ॐ पश्चिमोत्तरस्यां दिशि चलाचल चरणामि घात स्फुटित घरावर शिवरदेशं, नव यौवन सुपद्रवं निज जब निर्जित मनोवेगं हरिया देहावयव हस्तप्राप्तं महीरुह महा युद्ध कृत ן बल समुद्भूत स्वेदोदविन्दु प्रसर प्रशमित मार्ग मारूद, सहज गमनाय संरंभ, प्रकंपमानं, समस्त रिपुबल प्रभंजनं, शशि भाजनंच, वायु देव समाह्वानुयामहे स्वाहा हे वायु श्रागच्छ २ वायवे स्वाहा, शेषं पूर्ववत् ॥ ॐ यक्ष रीक्षत सत्क्षेत्रे, क्षिपामि क्षणविज्ञम् ॥ याग दीक्षाक्षणे क्षेमं, विधित्सुदमं मुत्तमम् " यक्ष दर्भः ।। ॐ हंसी घेन समुह्यमान मनवें, प्रेस डिमानवः " पृथु पुष्पकं धनपतिः प्रोच्चैरुदीच्यादिश कान्तैरय्सरसां कुलैः परिगतं शक्त्यायुधं बोधये FI ॥ गंधरः प्रतीतुतरा, मत्रार्हतः पूजने ॥ पायार्थ : ॥२१६ ॥
SR No.090446
Book TitlePraching Poojan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Chandra Jain
PublisherSamast Digambar Jain Narsinhpura Samaj Gujarat
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size6 MB
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