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________________ ॥२३॥ श्री मनिाम संपवर युवति कालीढ कण्ठैः सुकण्ठ देवेन्द्रैवद्य पादो जयति जिनपतिः प्राप्त कल्याण पूना ॥१॥ ॐ ह्रीं भगजिनेन्द्र अत्र अन्तर अवतर मोपट अाहाननं । ॐ ह्रीं भगवजिनेन्द्र अत्र तिष्ठ विष्ठ ठः ठः स्थापनम् ॥ ॐ ही भगवजिनेन्द्र अनमम सन्निहितो मा भव वषट् सन्निधीकरणम् । देवि श्री श्रत देवते भगवति त्वत्पादपंकेरुह द्वन्द यामिशिलीमुखत्वमपरं भवतया मषा प्राध्यते । मातश्चेतसि तिष्ठ में जिन मुखोद्भुते सदा पाहि मां दृग्दानेन मयि प्रसीद भवती सम्पूजयामोऽधुना ॥ २ ॥ ॐ हीं जिन मुखोद्भूत द्वादशांग श्रुत ज्ञान अत्र अवतर अवतर संबौषट् । ॐ ह्रीं जिनमुखोवूभूत द्वादशांग श्रुतज्ञान मत्र तिष्ठ विष्ठ ठ ठ । ॐ ह्रीं जिन मुखोद्भूत द्वादशाङ्ग श्रुत हान भव मम सन्निहितो मर भव रपट । इत्युच्चार्य पुस्तकोपरि पुष्पांजलिंक्षिषेत् । सम्पूजयामि पूज्यस्य, पाद कदम युगं गुरोः । तपः प्राप्त प्रतिष्ठस्य, गरिष्ठप महात्मनः ॥ ३१ %3 -
SR No.090446
Book TitlePraching Poojan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Chandra Jain
PublisherSamast Digambar Jain Narsinhpura Samaj Gujarat
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size6 MB
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