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________________ उत्तर दक्षिण पूरन पश्चिम. चहुँ दिशि जिन चैत्यालय । अतीत अनागत वर्तमान, तीन चौबीसी हो कल्याण कीजिये, पर जोड़ि जिये । जिन बहोत्तर होय चंग प्रथमिजे पुरुषा,विषठ सलाखा । नित्य नवा होई रंग । भारती हुई चौबीस जिनेश्वर, तणे भुवने हुई निद । तिहां झालर घण्टा, धोमधोमन्ना, श्री गंगा प्र- गाणंद ॥ देवताविसर्जनमःआहूता ये पुरा देवाः लब्धमागा यथाशमम् ।। ते बिनापर्चनं दृष्ट्वा मर्चेयांतु यथास्थितिम् ॥ स्वस्थानं गच्छतु गच्छतु सा । इति दिक्पाल क्षमापनम् । निर्मलं निर्मलाकार पवित्र पाप नाशनम् । जिन गन्धोदकम् कन्दे प्रष्ट कर्म मिनाशनम् ॥ गंधोदक वंदनम् । अनंतर निम्न श्लोक पढ़कर धूप वेयन करे:वरूत्थ काला गुरू चन्दनाद्य प्रपूरिता शेष दिगन्तरालम् । सधूमवृत्या घनन्द कात्या यजामिधूप प्रारं जिनाय ॥ तत्पश्चात् केशर चढ़ा कर घण्टादि वाजित बजाते हुए भगवान को यथास्थान विराजमान करें।
SR No.090446
Book TitlePraching Poojan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Chandra Jain
PublisherSamast Digambar Jain Narsinhpura Samaj Gujarat
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size6 MB
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