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________________ द्वापंचाशच्चैत्य गेहीय सन्शुिनागढे कातिके फाल्गुनाख्ये । स्वष्टाम वै पूजयन्त्यष्टधा ये, भव्यास्ते वै मुक्ति माना: भवति ।। ॥१२६ . ॥ श्रयम् ॥ - ॥जयमाला ॥ घत्ता-सकल सुह कारणु, दुग्गइ वारण, पुजा गंदातर दीव । प्रासादह मासउ, कातिय मासउ फागुण अवमी जिण सेवं ॥१॥ ( मणुयणाइन्द की चाल) सुहम कप्पादिया, मिलति सबि सुदरा, चालिया अनुमं दीव पंदोसुरा । चित्त संरत्तिा सच्च भत्ति भरा, देव देवी जुश्रा जोइसा वितरा ।। २ ।। इन्द एराण्यं चढ़िय सोहाषणं, घंट स किंकिणि चामरा ढोलणं । कुन्थ संभार सिन्दूर संलेपणं, गच्यए आप्छरा देव देवी मणं ॥ ३ ॥ वज्जए ताल कंसाल वर महला, मजए, ढोल नीसाण वीणा दला । मेरी संताड़िया संख कोलाला, सद्दए सोहिया काहला भंगला ॥ ५ ॥ काविधि नए वससिरि मंडला, कात्रिनि गायए मीत रामा कुला । कावित्रि शच्चए धरीय एकाउला कामिवि द्धावए रम्म मुत्ताहला ॥ ५ ॥ हार चंदामला जिण गुणा संयत्वा, बोलए कामिणि करिय मण णिम्मला। - - - - - १२६ - -
SR No.090446
Book TitlePraching Poojan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Chandra Jain
PublisherSamast Digambar Jain Narsinhpura Samaj Gujarat
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size6 MB
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