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________________ १२३४॥ TS आर्या छंद-जल गंधादर पुष्पैश्चरू दीपैप सत्फलैः मर्थे । दर्शन बोध चरित्र, त्रितयं त्रेधा यजामहे भक्त्या ।। अर्घ्य । मोशदि संकट उटी विकट प्रपात, संपादिने सकल सब हिंत कराय रत्नत्रयाय शुभ हेवि सम प्रभाय, पुष्पांजलि प्रविमला ह्यातास्यामि ॥ पृष्पांजलि क्षिपेत् ।। है अथ सम्यग्दर्शन पूजा * पास्याभिमुखी श्रद्धा, शुद्ध चैतन्य रूपतः । दर्शनं व्याहारेण, निश्चयेनात्मनः पुनः ॥ १० द्रुतविलम्बितच्छन्दः पदाधिराज : शिला , मविता प्रतिपय अरेजिरे । तदिह मानसतामरसेलसद्विशतु दर्शनमष्ट विधं मम ॥ २ ॥ ॐ हां ही ह ही है। प्रप्टोमसम्यग्दर्शनावावतराववर स्वाहा ।। पुष्पांजलि क्षिपेत् ॥ अनंतानंत संसार सागरोत्तार कारणम् तीर्थतीर्थकतामत्र, स्थापयामि सुदर्शनम् ॥ ३ ॥ ॐ हा ही ह ह ह अष्टांगसम्यग्दर्शन अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्वाहा ॥ प्रतिष्ठान । अष्टाङ्ग रेष्टधापूत-मष्टक गुण संयुत । मदाष्टक विनिमुक्तं, दर्शनं समिधापये ॥ ४ ॥ ॐ हा ही ह ह्रौं है'; अष्टांगसम्पदर्शा अत्र भमसन्निहितं भव भव वषट् । समिधिकरणम् ।। दर्शन यंत्र स्थापनम् । शरदिन्दु समाकार , सारया जल धारया । सम्पादशनमष्टांग , संपजे संयवावहम् ।। जलं.१! % . . . ॥१३४॥
SR No.090446
Book TitlePraching Poojan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Chandra Jain
PublisherSamast Digambar Jain Narsinhpura Samaj Gujarat
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size6 MB
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