SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४ दिक्पाला पालयां, विरिधि श्रवणे, पतवां वर्धमानः ॥ इति दिक्पाल क्षमा पन मंत्रः । ... ( अथ लवणोत्तारणम् ) रयणायरितं लेवेसि, अंकिषि सिंघ हितणुछति ॥ कंपि सई भरी सुगन्धऊ, अपरिदि भागी बउ विवह स्सहं ॥ जममि बंगउंनि जगजियो सरसंति फर उत्तारहिं च. लूगा । उपावदी द्विपार चंपलीय, फीट्टई लवणि खणिणा जन्मोत्सबे जिनवरम्य सुमेरु अंगे । शांत सुरै लेवय तोब निधैगृहीमा । प्रारभ्यते सकल दोष निवारणार्थ , मुचारणं भव हरं लवणस्य सद्यः ॥ (अथ जलोत्तारणम्) स्वीर सायरनं जिसु पवितु, जान्नम्मल सुरमरहिं जजितु कंपी अमियस्स तुन्ल उत श्राणीऊ अमराहिव इह छकल सऊ . खित्तभन्नऊ जोतिय लेहिं पुज सति सुहु' करवीरु तिणिवार जिण सामिएई उतारीह बर नरू ।
SR No.090446
Book TitlePraching Poojan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Chandra Jain
PublisherSamast Digambar Jain Narsinhpura Samaj Gujarat
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy