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________________ जे छह श्रायस्लाई वित्त देय, सो सिद्ध पंथ सरत्थ लेय। जेभग्गा पहावण I इति ते अभिदुदंसण संभवति ॥ ८ ॥ जे पण कन्ज समत्य हंति तह करम निदद खवया मंत्रि जे वच्च लच्छ कारण वहति ते तित्ययश्च पुह लर्हति ॥ ६ ॥ बत्ता - इह सोलहकारण कम्म शिवारण जे घरति सील घरा । ते दिवि अमेरसुर पहुमि पारेसुर सिद्धवरंगण दिया हरा ॥ १० ॥ ॐ ह्रीं दर्शन विशुध्यादि पोडश कारखेभ्यो पूर्णा र्ध्यम् ॥ एता: षोडश माना यतिवराः कुर्वति ये निर्मला, स्ते वै तीर्थकरस्य नाम पदवीमायुर्लभंते कुलं । वित्त' कांचन पर्वतेषु विधिना स्नानानं देवतां राज्यं सौख्यमनेकधा वर तपो मोक्षं च सौख्यास्पदं ॥ ॥ इशीर्वादः || *अथ दशलक्षण धर्म पूजा भवाम्भोधि निमग्नानां जन्तूनां वारण चमम् I उत्तमादि क्षमाद्यन्तं यज्ञे धर्म समूहम् ॥ १ ॥ ॐ ही उत्तम क्षमादि दशलादखिक धर्म वातर अवतर संवषट् । 1601: 444
SR No.090446
Book TitlePraching Poojan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Chandra Jain
PublisherSamast Digambar Jain Narsinhpura Samaj Gujarat
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size6 MB
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