________________
| २० ||
अगर लुत्रान धूप फल फलिया, फणस रसाल मधुर रस मरिया ॥ सुरपति० ॥ कुसुमांजलि सांजुलि समुजल्लिया, पंडितरस्य अभ्र वच कलिया " सुरपति० ॥ त्रिभुवन कीर्ति पदक वरिया, रत्न भूषण सूरी महापद कहिया ब्रह्म कृष्ण जिन राजस्तरिया, जय जय कार करि मन हरिया कुम्भ कलश भरी जय जिन वरिया, शाश्वत शर्म सदा अनुसरिया
॥ सुरपति
पत्ता - यावंति जिन चैत्यानि विद्यते भुवनत्रये । तादेति सततं भक्त्या, त्रिः परित्य नमाम्यहं ॥
॥ सुरपति =
la
॥ अथ देव पूजा प्रारभ्यते ॥
(भः सुमति कीर्ति के शिष्य यशवन्त सागर कृत ) ॐ जय जय जय नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु | णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं गमो रियायां ॥ णमो उवज्झायाणं खमो लोए सव्व साहूणं ॥
0
नोट:- ऊपर की जयमाला श्रभिषेक के समय में भी पड़ी जाती हैं एवं उस समय इन्द्र
धारा करे तथा गुजरात प्रांत में प्रचलित है ।
||
सुरपति ० ।
॥
जल या दूध की अखंड रख कर भगवान की आरती उतारे। यह प्रथा स्वास कर
चचारि मंगलं, अरहंता मंगलं, सिद्धा मंगल, साहू मंगलं, केवलिपखत्तोपो मंगलम् । चत्तारि लोगुत्तमा, अरहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलि परतो.
॥२०॥