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२४.।
नासाक्षिकंठ मनसां प्रिवधूम वर्ति, धूपं जिनेन्द्र पुरवो बहुधा दिपेह ॥ धूपं । वर्णं नवानि नयनोसवमानईति, यानि प्रियाणि मनसोरस संपदा च ॥
गंधेन सुष्टु रमयति चयानि नासा, तस्तैः फलैजिनपते विदधामि पूज। । फलं ॥ एवं यथाविधिमनागपि यः सपर्या महत्तवरता पुरस्सर मातनोति ॥
काम सुरेन्द्रनर नाथ सुखानि भुकवा, मोबासमप्यमयनंदि पद सयाति ॥ मध ॥ पत्ता-सिसिव निम्मलु हाजा, सियछ प्रभामंडलु पिहन, जस करु असोने सुर कुसुम वरसिणु,
घर चामर धूप द्वय पंसरू । दुदुहि पुरे इन हमणु, केसरि मासण दिव्य धुखि, अदुई पयह नाह । इह कुसुमांजलि दिन्नमई, मत्तिय अरहताह । जेहि दहई ग्रह कम्माई, परकाल विकलीमलई ॥ अपहि मुह आणि निम्मल बाई एकट बहुगुण पहिउ
अछि नाणु सु पसिद्ध, केबलु ताई शरीर विवज्जियई । सासय मुख वजुयाह, राय समुद्दय दिनमई ॥ कुसुमांजलि सिहाय जलीय जगणं मलाणम् । दसम्भाव छत्तीस गुण, परिवार संगम्य जलाह पारय ॥ सि आगम कुसल । नवययाछ सम्भावभावय ॥
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