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उन्होंने भ० हेमचन्द्र को लिखा कि आप भी मेरे भाई ही हैं, मैं नहीं आ सकता हूँ अतः यह प्रतिष्ठा आप करा दें। श्री हेमचन्द्राचार्य ने आमंत्रण स्वीकार कर लिया और प्रतिष्ठा के सर कार्य निर्विननया सम्पन्न कराये पर प्रतिमाज को वेदी में विर जमान करने का मौका आया रब मालूम हुआ कि प्रतिमाजी बड़ी है और द्वार छोटा है सब लोग विचार में पड़ गये कि प्रातमाजी को अन्दर कैसे लेजाया जाय समाज में चिन्ता की लहर छा गई उस समय एक श्रीवक ने कह दिया कि प्रतिष्ठाचार्य को प्रविष्टा कराने के पहले इसका विचार करना चहिये था इस पर महाराज श्री तीन दिन तक आहार जज्ञ का याग कर प्रतिमा के समक्ष ध्यानरक्ष बैठ गये । तीसरे दिन समज के मुखियाओं को बुला कर कहा कि उठायो प्रतिमाजी को अन्दर ले जायें। लोग विचार में पड़ गये कि छोटे द्वार में से प्रतिमाजी को कैसे अन्दर लेजाया आयगा महाराज श्री ने कहा कि आप लोग चिन्ता न करें सबठक होगा। लोगों ने प्रतिमाजी को पठाया तो प्रतिमा का वजन बहुत हल्का हो गया था और ज्योंही द्वार के पास पहुँचे कि प्रतिमा छोटी होकर वासानी से भन्दर चली गई और जाने के बाद फिर उतनी ही बड़ी हो गई ईस घटना को जान कर सारी समाज ने हेमचन्द्राचार्य की महती प्रसंशा की आज भी शांतीनाथ में उसी मंदिर में षही प्रतिमाजी विराजमान है सैंकड़ों यात्रा वहां की बन्दना करने जाते रहते है। सं १९१८ में खाधु में आपका स्वर्गवास हो गया आपके स्मारक के रुप में खांधु मंदिर जिस्मै दाहिनी तरफ छतरी बनी हुई है जिसमें आपके चरण प्रतिष्ठापित किये गये है आपके शिष्य पं. दौलतराम पं० पनालाल और पं0 गिरधारीलाल में से भापके आदेशानुसार आपके आदेशानुसार अापके पट्ट पर पं० गिरधारीलाल का भ० क्षेमकीर्ति के नाम से भट्टारक स्थापित किये थे।