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________________ ११३८॥ ॐ ह्रीं निर्विचिकित्सितांगाय नमः ॥ ४ ॥ ॐ ह्रीं निमौंत्याय नमः । ५ ।। ॐ ह्रीं उपगृहनाय नमः ॥ ६ । *ही स्थितिकरणाय नमः ७ ॥ ॐ ह्रीं वात्सल्याय नमः ॥ ८॥ ॐ ह्रीं प्रभावनांगाय नमः ॥ ६ ॥ एमिमर्जाप्यं कुपादघंचापि समरेत् ॥ ॥ जयमाला ॥ श्रग्घराचन्दः तत्वानां निश्चयो यस्तदिह निगदितं दर्शनं शुद्ध बुद्ध, तस्मादानष्ट कर्माष्टकघनतिमिरो जायते ज्ञान नरः । जानासिद्धि प्रसिद्धि शषि वचनमिदं शाश्क्तं सिदि साख्यं । चंचच्चन्द्रांशु शुद्धं तदहमिहमहे दर्शनं पूजयामि ॥ १ ॥ जय सम्पग्दर्शनदर्शिताश, कमचार्चितहतवनकर्मपाश । ____ जयनिःशंक्ति निश्चित सुतत्व, शतपत्र शतार्चित मुदितसत्य ॥ १ ॥ जय निकांक्षित वर्जित किार कुन्दाचितकृतसंसारपार । ___ जय निर्विचिकित्सित भाव भंग, पद प्रसून पूजित सुसंग ॥२॥ व्य निमूढांग महाप्र टु, शुभ चम्पक चर्चित चारू रूद । जय २ उपगूहन परभ पक्ष, पर मल्लिकार्चदर्शिब सुलक्ष ॥ ३ ॥ ॥१३८)
SR No.090446
Book TitlePraching Poojan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Chandra Jain
PublisherSamast Digambar Jain Narsinhpura Samaj Gujarat
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size6 MB
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