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________________ ११६॥ 對 ध्वस्तांधकारनिकरैः कनकावदात दोष: प्रदीपित समस्त दिगन्तरालैः || नन्दी || दीपम् धूपै रमन्दवर सौरभ बाल गुंजद, मृगाकुलैरगुरु चन्दन चन्द्रमिश्रः । नन्दीश्व || धृ कादाडिम मनोहर मातुलिंग, जाती फल प्रभृति सौरभ सत्फलाद्यः ॥ नदीश्व ॥ फलम् ॥ द्वीपे नन्दीश्वरेस्मिन् विविधमषिमा क्रान्तकान्ताङ्ग कान्ति | प्राग्भारप्राप्त चन्द्रद्युतिकर निकर ध्वस्त मिथ्यान्धकारम् ॥ चैत्यं चैत्यालयांश्चोज्वल कुसुम फलाद्यैरनिन्द्य प्रभावै । भक्त्यायेभ्यर्चयन्ति स्फुटमसम सुखरं ते लभन्ते त्रिमुक्तिम् अर्घ्यम् । || जयमाला || आर्या- कम्पिल्ला गवरी मन्दणस्स विमलस्स मिलणारस । आरतियवर सप्रये, राच्चति अमर || छन्द || अमर रमणीयच्चेति जिर्णमंदिरं, विविध बर ताल तेरहिं संगमपुरं । रमणीयो रुडंकारणे वरघचल गुडिया, मोतिया दामवच्छच्छले संठिया | 1 १ ॥ जयि पहु रयण चामीयरं यत्तयं, जोइयं सुन्दरं जिस आरनियं ॥ २ ॥ गीय गावंति राच्चति जिशमंदिर, जोइयं तुन्दर जिराव आरतियं ॥ ३ ॥ ॥ ११६॥४ -
SR No.090446
Book TitlePraching Poojan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Chandra Jain
PublisherSamast Digambar Jain Narsinhpura Samaj Gujarat
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size6 MB
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