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________________ श्रामण्यं समनाप केवल मयं, ज्योतिः परं प्राप्तवान्, हंगो हुमति प्रयच्छतुतरी तीर्थेश्वरः पोऽधुना ॥ १ ॥ गुण गण भूषितज्ञान करंडं, संसाराम्बुधितरणतरंउं । पन्दे प्रशमित कुनय समूह, सुमतिंप्रदलित कर्म समूह ।। २ ।। मर्भाधानेहरिशत सेयं, दिक्कुमारिकृतमातृनिपे । बन्दे प्रश० ॥ ३ ॥ मेरूशिखरकृतजनुरभिषेक, रोधः प्रसरित कीति निषेकं । वन्दे० ॥ ४ ॥ विभुवन जन नयनोत्पल चन्द्र, ध्यानाध्ययन विनिर्जित तन्द्रं ।। धन्दे० ॥ ५ ॥ रूधिर दुग्धचित धर्मसुशात्र व्यंजन लक्षण लक्षित मात्र ॥ सन्दे० ॥ ६ ॥ वज पभ नासच शरीरं, समचतुरस्राकार गंभीरं ॥ चन्दे ॥ ७ ॥ मलवर्तित सममात्र स्वरूपं, निस्वेदं ज्ञानामृत कूपं ॥ चन्दे० ।॥ फ्ट चत्वारिंशद्गुण गौर, कौसलपुर परिपूरित पोरं ॥ चन्दे० ।। || दुर्धर योग चरित्रसुधरणं, कृतसम्मेदाचल शिववरणम् ॥ बन्दे० ॥ १० ॥ मालिनीच्छेद-अनुषम सुखकर्ता, दःख संत बहता, प्रहत जनन कालः, स्फोटित घटान्त जालः । स जयतु जिन नाथः पंचमः प्राञ्जितात्मा, सकल विमल मृतिः, श्री जयायत कीर्तिः ।। महापं ।। ॥१७२
SR No.090446
Book TitlePraching Poojan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Chandra Jain
PublisherSamast Digambar Jain Narsinhpura Samaj Gujarat
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size6 MB
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