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ॐ ही उत्तम आर्जव धर्मा गाप महाय॑म् ॥ ३ ॥ असल्यं सर्वथा त्याज्यं, दुष्ट वा च सर्वदा ।
पर निन्दा' न कर्तव्या भव्येनापिच सर्वदा ॥ ४ ॥
ॐ ह्रीं उत्तम अन्य धर्मा गाय अय॑म् ॥ पत्ता-दय धम्म हु कारण, दोस णिवारण, इह भव पर भर सुक्खयरू ।
सच्चुजि क्यगुल्लउ, भुवणि अतुल्लउ, बोलिज्जइ वीसास यरू ॥ १ ॥ सच्चुजि सवह धम्म पहाणु, सच्चुजि महिषल गरुक विहाणु ।
सच्चुचि संसार समुह सेउ, सच्चुजि भब्बह भगा सुक्र हेउ ॥२॥ सच्चेणजि सोहइ मणुवजम्मु, सच्चेण पवितउ पुरण कम्मु ।
सच्चेण सपल गुण गण सहति, सच्चेण तियस सेवा वहति ।। ३ ॥ सन्चेश अणुन महन्वयाइ, सच्चेण विणासिय मावयाइ ।
हिय मिय बासिन्जइ शिच्च भास, णवि मासिज्जह पर दुइ पयाम ।। ४ ।। पर बर हायर भासद् ण भन्य, सच्चुणि छंड उ विपप गन्ध ।
सच्चु जि परमप्या भन्थि एक्कु, सो भावहु भत्र तम दलसा अक्कु ॥ ५ ॥ रूधिज्जा मुणिणा वयण गुत्ति, जखगा फिर संसार यति ।
पुण सच्चेए। पात्रइ सग्गखं, धम्मेण लहइ कम्मक्खय भोखं । ६ ॥
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