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________________ - ११२५: तत्याश्चात्यांजनमुखनगाग्नीन्दु संख्यालयस्थान् । देशधीशान्सलिल कुसुमैः, पूजयित्वा प्रमोद त् ॥ स्वस्थ भूत्वा जिनवर पुरो ध्यानमंगी करोति, भव्यो योसो भय निधि वरं याति सच्चन्द्रकीर्ति ॥ ॥ अर्धम् ॥ ॥ जयमाला ॥ ( इन्द्र बच्चा ) तत्पश्चिमाशांजन मुख्यशैल, श्चैव्यस्थितान्युद्ध सुवर्ग वर्णान् ॥ स्तुवे जिनेन्द्रान् जयमालयाहं, संसार पाथो निधिपारमाप्तान् ॥ १ ॥ निज दृष्टि विलोकित लोक हितं विचरे हरि शंकर काम सुतदं जन मुख्य जिनेश गृह स्थितवंत मनंत जिनेन्द्र महं ॥ २ । । सकलामल बोध सुसंगघरं, भविनां भव पाप विनाश करं सुख सागर मग्नमनंत सुखं, प्रणमामि मनोहर मुक्ति नखं ॥ निरहंकृतमंत विकास करं बहुवीर्यधरं तमकौध इरं । हत मोह तमोभर मान वलं, सुतपोवन मौत कुकर्म बलं शरदोज्वल दक्ष पवित्र मुखं, विरति द्रुम पल्लर रक्त नवं सदयं सदयं समयं समयं परमं पदपंकज संतुत देव नरें, वर । । परमं पर इंसमयं योग कदंबक लब्धिकरं । · सुत० ॥ ३ ॥ सुतदं ॥ ४ ॥ सुदं० ॥ ५ ॥ सु० T सुतदं० ॥ ७ ॥ सुर्द ० ॥८ सुतदं० ॥ ६ ॥ १२५ ।। --
SR No.090446
Book TitlePraching Poojan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Chandra Jain
PublisherSamast Digambar Jain Narsinhpura Samaj Gujarat
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size6 MB
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