Book Title: Main Hu Apne Bhagya ka Nirmata
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਵੀ ਪਰ ਰਹ ਹਰ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग्य की लिपि वैद्युतिक संकेतों से निर्मित होती है । भावधारा की निर्मल सरिता में निमज्जन करने वाला ही विद्युतीय जगत् में प्रवेश पा सकता है | व्यक्तित्व की बहुआयामी प्रवृत्तियों में समरसता का सूत्रण करने वाला अनेकता में एकता की । अनुभूति कर लेता है । जीवन की सफलता का रहस्य है अनुभूति के उत्स की उपलब्धि । उपलब्ध में जो अनुपलब्ध है, वह रहस्य है । सूक्ष्म है, इसीलिए ज्ञात के सागर में रहे हुए अज्ञात का एक द्वीप है । शब्दों, बिन्दुओं, रेखाओं और अंकनों से परे जो है, उसे उपलब्ध करने की दिशा ही भाग्यनिर्माण की दिशा है । प्रस्तुत पुस्तक में उसी दिशा की ओर प्रस्थान का प्रयत्न है। Jain Education Interatie Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श साहित्य संघ प्रकाशन Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता आचार्य महाप्रज्ञ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादक मुनि दुलहराज © आदर्श साहित्य संघ, चूरू (राजस्थान) श्री भंवरलालजी ख्यालीलालजी पारसमलजी जितेन्द्रकुमारजी तातेड़ धानीन (राजस्थान) एवं मुम्बई के सौजन्य से प्रकाशित प्रकाशक : कमलेश चतुर्वेदी, प्रवन्धक : आदर्श साहित्य संघ, चूरू (राजस्थान) मूल्य : साठ रुपये / तृतीय संस्करण : २००० / मुद्रक : पवन प्रिंटर्स, दिल्ली-३२ MAIN HOON APANE BHAGYA KA NIRMATA Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राथमिकी अपने उत्तरदायित्व का अनुभव करना अपने भाग्य का निर्माण करना है | दायित्व के प्रति जागरूक होना अपने भाग्य का निर्माण करना है । बहुत लोग भाग्य की निष्पत्ति चाहते हैं पर उसका निर्माण नहीं चाहते । पुण्य का फल चाहते हैं पर उसका आचरण नहीं करते । पाप का फल नहीं चाहते पर उसका आचरण करते हैं । यह विरोधाभास जीवन की अद्भुत कहानी है | भाग्य की लिपि वैद्युतिक संकेतों से निर्मित होती है | भावधारा की निर्मल सरिता में निमज्जन करने वाला ही विद्युतीय जगत् में प्रवेश पा सकता है । व्यक्तित्व की बहुआयामी प्रवृत्तियों में समरसता का सूत्रण करने वाला अनेकता में एकता की अनुभूति कर लेता है । जीवन की सफलता का रहस्य है अनुभूति के उत्स की उपलब्धि । उपलब्ध में जो अनुपलब्ध है, वह रहस्य है । सूक्ष्म है, इसीलिए ज्ञात के सागर में रहे हुए अज्ञात का एक द्वीप है । शब्दों, बिन्दुओं, रेखाओं और अंकनों से परे जो है, उसे उपलब्ध करने की दिशा ही भाग्यनिर्माण की दिशा है । प्रस्तुत पुस्तक में उसी दिशा की ओर प्रस्थान का प्रयल है | स्थूल के कलेवर में समाया हुआ एक सूक्ष्मतम प्रयत्न जिसे अप्रयत्न का प्रयल कहा जा सकता है । कहने को मेरे पास कुछ नहीं है । न कहने के पीछे जो कहने की प्रेरणा है, वह पूज्य गुरुदेव की है । असंकलित को संकलित करने की चेष्टा मुनि दुलहराज ने की है । अपठनीय को पढ़ने का बोझ पाठकों ने उठा रखा है | मैं खोज रहा हं, इन सबके बीच मैं कहां हूं? आचार्य महाप्रज्ञ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम १. जीवन क्या है ? २. जीवन का उद्देश्य. ३. स्थूल शरीर का आध्यात्मिक महत्त्व ४. विद्युत् का चमत्कार ५. प्राणशक्ति का आध्यात्मिकीकरण ६. चेतना का रूपान्तरण : १ ७. चेतना का रूपान्तरण : २ ८. अंधकार से प्रकाश की ओर ९. साधना किसलिए? १०. मन की शान्ति ११. कुंडलिनी-जागरण : अवबोध और प्रक्रिया १२. दर्शन वही, जो जिया जा सके १३. बौद्धिक ज्ञान जीवन-विज्ञान बने १४. तत्त्वज्ञान या जीवन-दर्शन ? १५. वर्तमान युग में योग की आवश्यकता १६. सत्यनिष्ठा १७. मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता १८. धर्म और विज्ञान १९. व्यक्ति और समाज २०. सम्प्रदाय और धर्म २१. नैतिकता : क्या ? कैसे ? २२. शक्ति-संवर्धन का माध्यम : अणुव्रत २३. व्यक्ति और विश्व-शान्ति १०१ ११४ १२६ १३१ १३८ १४५ १५७ १६६ १७० १८० १८९ २०२ २१३ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ २४. चैतन्य-जागरण का अभियान २५. साधन-शुद्धि का सिद्धान्त २६. असिा सार्वभौम और अणुव्रत २७. स्वास्थ्य और प्रसन्नता २३४ २४६ २५५ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन क्या है ? दुनिया में कुछ बातें अद्भुत हैं । प्राचीन काल से ही आश्चर्यों की लम्बी श्रृंखला हमारे सामने आती रही है । अनेक आश्चर्य माने जाते रहे हैं। वर्तमान की दुनिया में कुछ आश्चर्य माने जाते हैं । स्थानांगसूत्र में दस आश्चर्यों का निरूपण मिलता है | महाभारत में एक प्रसंग है—पूछा गया, 'किमाश्चर्यम्' प्रत्येक कार्य में मनुष्य आश्चर्य को खोजता रहा है । पर मुझे लगता है कि सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि आदमी जीवन जीता है, पर जीवन को जानता नहीं। जीना एक बात है और उसे जानना दूसरी बात है । हमारी दुनिया में दो तत्त्व हैं—एक जीवन का तत्त्व और दूसरा वह जिसमें जीवन का स्पंदन नहीं । यह स्पष्ट वर्गीकरण है । इसमें कोई मतभेद नहीं । एक जीवन तत्त्व और एक जीवनेतर तत्त्व | आत्मा के विषय में मतभेद हो सकता है । कुछ लोग आत्मवादी हैं तो कुछ अनात्मवादी । किन्तु जीवन के बारे में कोई मतभेद नहीं। बहुत स्पष्ट है । उसके बारे में कोई मतभेद हो नहीं सकता। यह खंभा चलता नहीं, बोलता नहीं, इसलिए नहीं चलता और नहीं बोलता कि इसमें जीवन नहीं है । इसके पास ये पतंगे उड़ रहे हैं । ये खंभे की तुलना में बहुत छोटे हैं, पर जैसे चाहें उड़ सकते हैं | कभी नीचे और कभी ऊपर, क्योंकि इनमें जीवन है । ये दोनों तत्त्व हमारे सामने बहुत साफ हैं। फिर भी आश्चर्य की बात है कि हम जीवः के बारे में जानते नहीं । हमारा जीवन कैसे बना ? जीवन क्या है ? जीवन कैसे समाप्त होता है ? हजारों-हजारों खोजों के बाद भी ये प्रश्न आज भी उलझे हुए हैं । इनका अंतिम समाधान शायद मनुष्य को नहीं मिला और जिनको मिला, उनकी बात में हमारी शायद आस्था नहीं होगी और जिन्हें नहीं मिला वे बीच में अभी भी लटक रहे हैं। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता .. हम शरीर को जानते हैं, इस स्थूल शरीर को जानते हैं । यह शरीर जो पुरानी भाषा में सात धातुओं का शरीर | आज की वैज्ञानिक भाषा में कुछ रसायनों का बना हुआ शरीर । इस शरीर, स्थूल शरीर को हम जानते हैं, किन्तु इस स्थूल शरीर के भीतर सूक्ष्म शरीर है, उसे हम नहीं जानते | जीवन का पाठ तब अधूरा रह जाता है जब केवल इस शरीर को जानते हैं और इस शरीर के भीतर जो शरीर है उसे नहीं जानते । लोग कहते हैं आत्मा को हम नहीं जानते, आत्मा को हम नहीं मानते । कोई आश्चर्य नहीं होता । आत्मा जैसे सूक्ष्म तत्त्व को कोई नहीं जानता तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है । आश्चर्य की बात तो यह है कि जो सूक्ष्म शरीर को निरंतर सक्रिय बनाए हुए है, उस शरीर को भी हम नहीं जानते । जहां से प्रकाश, गति, सक्रियता आ रही है, हर श्वास का स्पंदन, हर हृदय की धड़कन इसके माध्यम से हो रही है और मस्तिष्क की हर कोशिका जिसके कारण सक्रिय बनी हुई है, उसको हम नहीं जानते । उस मूलधारा को नहीं जानते, यह हमारे लिए बहुत आश्चर्य की बात है | जब सूक्ष्म शरीर को नहीं जानते तो फिर आत्मा को जानने का प्रश्न ही नहीं होता । मैं तो मानता हूं कि आत्मा को जानने वाले लोग तो कम होंगे, कम होते हैं और कम हुए होंगे किन्तु मानने वाले लोग ज्यादा हैं । वे मानकर चलते हैं, जानते नहीं हैं । आत्मा की बात छोड़ दें । विज्ञान ने जो यह खोजें की उससे पहले धार्मिक लोग भी सूक्ष्म शरीर के बारे में बहुत रस नहीं लेते थे, नहीं जानते थे । विज्ञान की खोजों के द्वारा, उस सूक्ष्म संवेदनशील फोटोग्राफी के द्वारा, हाईफ्रिक्वेंसी कैमरों के द्वारा जब भीतर में से कुछ रश्मियों के विकिरणों को पकड़ा गया तो एक कल्पना हुई कि जिसे हम शरीर मानते हैं यह शरीर ही नहीं, शरीर के भीतर भी कुछ और बात है । तब सूक्ष्म शरीर को पकड़ा गया । परामनोविज्ञान के क्षेत्र में यह बहुत स्पष्ट हो गया है कि हमारा शरीर, स्थूल शरीर बहुत कम शक्ति वाला है । मूल शक्ति का संचालन करने वाला है सूक्ष्म शरीर । प्राचीन भाषा में उसे तेजस शरीर कहा गया है । इस शरीर के भीतर एक अग्नि का शरीर है, एक विद्युत् का शरीर है और यह हमारी सारी गतिविधि को संचालित कर रहा है | __ हम जीते हैं, इस शरीर में जीते हैं और श्वास के द्वारा जीते हैं । हम Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वास लेते हैं, इसलिए जीते हैं। पुरानी पहचान है जीवित और मृत की कि जो श्वास लेता है वह जीता है और जो श्वास नहीं लेता वह मृत होता है । पर यह पहचान बहुत सच्ची नहीं है | बहुत आगे बढ़ गई है इसकी परीक्षा | किन्तु सामान्य धारणा तो यही रही है कि श्वास लेने वाला जीता है और श्वास नहीं लेने वाला मृत घोषित हो जाता है । आश्चर्य है कि हम श्वास को जानते हैं किन्तु प्राण को नहीं जानते । क्या हर आदमी श्वास से ही जीता है ? अगर हर आदमी श्वास से ही जीता तो लोहार की धोंकनी कितना तेज श्वास लेती है, जीवित हो जाती, पर वह जीती नहीं है। कुछ दिन पहले अचानक एक मुनि अस्वस्थ हो गये । डॉक्टर आया । उसने ऑक्सीजन देना शुरू किया | अगर ऑसीजन से जीवन चलता तो मुनि जी जाते । पर वे जीए नहीं, मर गए | कोई भी आदमी श्वास से नहीं जीता । यह तो जीवन का एक बाहरी लक्षण है । पता चलता है कि आदमी जीता है किन्तु श्वास से नहीं जीता | जिससे जीता है वह है प्राणशक्ति । हम श्वास को जानते है, प्राण को नहीं जानते । हम स्थूल को जानते हैं, सूक्ष्म को नहीं जानते हैं । स्थूल शरीर को जानते हैं, सूक्ष्म शरीर को नहीं जानते । श्वास स्थूल है, प्राण सूक्ष्म है । हम श्वास को जानते हैं, प्राण को नहीं जानते । श्वास के साथ प्राण भीतर जाता है । वह प्राण मनुष्य को जीवित बनाए हुए है । अगर प्राण की शक्ति न हो तो श्वास कितना ही भीतर जाए आदमी जीयेगा नहीं, मर जाएगा । हमें जिलाने वाली है प्राण की शक्ति, न कि श्वास की शक्ति । ___एक आश्चर्य है कि हम अवयवों को जानते हैं किन्तु अवयवों के मूल्यों को नहीं जानते । मस्तिष्क, हाथ, पैर आदि अवयव हैं | हमारे शरीर में ऐसे और भी छोटे-मोटे हज़ारों अवयव हैं, ग्रंथियां हैं, रीढ़ की हड्डी है, नाड़ीसंस्थान है । हम इनको जानते हैं किन्तु इनके मूल्यों को नहीं जानते । आज का डॉक्टर, आज का शरीरशास्त्री प्रत्येक अवयव को जानता है और उसके फंक्शन को भी जानता है । एनोटोमी और फिजियोलॉजी—दोनों का बहुत विकास हुआ है और दोनों को वह बहुत अच्छी तरह से जानता है । उनके व्यावहारिक मूल्यों को जानता है, किन्तु उनके आध्यात्मिक मूल्यों को वह भी नहीं जानता । जीवन के बारे में इसीलिए हमारी दृष्टि स्पष्ट नहीं होती Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता कि हम प्रत्येक अवयव के क्रियात्मक पक्ष को जान जाते हैं, पर इसके आध्यात्मिक पक्ष को नहीं जानते । लीवर ठीक काम करता है, डॉक्टर देख लेता है । हृदय की गति ठीक होती है आदमी जान लेता है । मस्तिष्क ठीक काम करता है, जान लेता है। थाइराइड या पिच्यूटरी ठीक काम कर रही है वह जान लेता है किन्तु एक आदमी शरीर से स्वस्थ है, प्रत्येक अवयव ठीक काम कर रहा है किन्तु मानसिक रोग से पीड़ित है, न जाने कितनी मानसिक अस्वस्थताएं हैं, वह नहीं जानता । एक आदमी अच्छा लगता है तब तक, जब तक उसको छेड़ो नहीं । जैसे ही किसी ने छेड़ा कि वह गुस्से में आ जाता है | आदमी इतना गुस्सैल, इतना कपटी, इतना लोभी और इतना दंभी क्यों होता है ? इसका कोई पता नहीं चलता । और इसलिए नहीं चलता कि रसायनों को हम जानते है, किन्तु रसायनों की क्रिया को हम नहीं जानते । हम बाहरी रसों को जानते हैं । नींबू खट्टा होता है, चीनी मीठी होती है, इस बात को जानते हैं । नींबू खाओ तब तक खट्टा लगता है । खाने के बाद जब भीतर जाता है तो खटाई क्षार में बदल जाती है । नींबू अम्लता पैदा नहीं करता और चीनी अम्लता पैदा करती है । चीनी मीठी लगती है, खाने के बाद अम्लता पैदा करती है | चीनी खाने वाले को खट्टी डकारें आ सकती हैं, नींबू खाने वाले को आज तक कभी खट्टी डकारें नहीं आयीं । इस बात को भी हम नहीं जानते । हम सचाई को बहुत कम जानने का यल करते हैं । आदमी सोचता तो यह है कि जितनी चीनी खा लें, उतना अच्छा है किन्तु अम्लता, अपच, खट्टी डकारें और अनेक व्याधियां चीनी के कारण होती हैं | सचाई तो यह है कि जितनी बीमारियां हैं, वे सब अम्लता की बीमारियां हैं । यदि अम्लता न हो तो बीमारी हो नहीं सकती । अम्लता बीमारी को पैदा करती है। हम रसों को भी पूरा नहीं जानते । जैविक रसायनों को तो जानते ही नहीं । मनुष्य का स्वभाव क्यों बनता है, यह सारा रसायनों के द्वारा जाना जा सकता है । जिस प्रकार का केमिकल होगा, जिस प्रकार का जैविक रसायन होगा, उसी प्रकार का स्वभाव निर्मित होगा । स्वभाव के पीछे और भी कई कारण हो सकते हैं । संस्कार भी एक कारण है । जो संस्कार जम जाता है, आदमी का वैसा स्वभाव बन जाता है । बहुत बड़ी बात है—संस्कार । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन क्या है ? /५ एक सैनिक था । वह रिटायर हो गया । वह गांव में व्यापार करने लगा। एक दिन नगर में आया, बाजार में गया, दूध खरीदा, मिठाइयां खरीदी और एक बड़ा-सा बर्तन कंधे पर रखकर गांव की ओर चला । बाजार में एक मसखरा बैठा था । उसने देखा, मन में भावना आई कि महोदय जा रहे हैं, आज कोई करामात दिखा दूं। अपने मित्रों से कहा—देखो, चमत्कार दिखाता हूं। जहां चमत्कार की बात आती है, सबका ध्यान टिक जाता है । दुनिया में एक ऐसा झूठा प्रलोभन है चमत्कार कि इसका नाम आते ही सब चौकन्ने हो जाते हैं | सबका ध्यान टिक गया । उन्होंने पूछा—क्या करामात दिखाओगे ? उसने कहा—'सिर पर जो घड़ा है, उसे मैं बिना हाथ लगाये जमीन पर गिरा दूंगा ।' सब आश्चर्य से उसकी ओर देखने लगे । मसखरा एक ओर छिपकर खड़ा हो गया । ज्योंही वह सैनिक आया, मसखरे ने जोर से कहा- 'अटेन्शन !' यह शब्द सुनते ही सैनिक के जो हाथ घड़े को थामे हुए थे, वे अटेन्शन की मुद्रा में नीचे आ गए, तत्काल घड़ा धड़ाम से नीचे गिरा और फूट गया। ऐसा क्यों हुआ? सैनिक को ऐसा करने की जरूरत भी नहीं थी, किन्तु अभ्यास करते-करते एक संस्कार ऐसा जम गया कि जहां भी सावधान (अटेन्शन) शब्द सुनता, सैनिक सावधान की मुद्रा में खड़ा हो जाता | हमारे स्वभाव के पीछे कई कारण होते हैं, कुछ अर्जित आदतें होती हैं और कुछ पुरानी आदतें होती हैं । कुछ आदतों को हम पीछे से लेकर आते हैं और कुछ आदतों को सामाजिक परिस्थितियों से निष्पन्न करते हैं । एक ही कारण नहीं होता, किन्तु बहुत बड़ा कारण होता है जैविक रसायन । जो व्यक्ति इसके प्रति सावधान नहीं होता कि किस प्रकार के रसायन का निर्माण हो रहा है, वह अपनी आदतों को भी बदलने में समर्थ नहीं होता । कोई आदमी शराब पीता है । कोई आदमी दूसरे प्रकार का नशा करता है । कुछ लोग ऐसे हो गये कि उन्हें मर्फिया का इंजेक्शन लेना ही पड़ता है, लिये बिना छुटकारा नहीं । कुछ आदमी ऐसे होते हैं कि दिन में बाजार में बैठकर इधर-उधर की बातें न करें तो उनका खाया हुआ हज्म ही नहीं होता । यह सब क्यों होता है ? क्या वे लोग यह नहीं जानते कि ऐसा करना बुरा है ? क्या मदिरा पीने वाला नहीं जानता कि शराब पीना बुरा है ? Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता अभी-अभी कुछ यात्री आये टाडगढ़ से | बस का ड्राइवर सेना में रहा हुआ व्यक्ति था । वह शराब का बहुत आदी था । मरने की हालत हो जाती फिर भी शराब छोड़ने की बात नहीं करता । यदि शराब नहीं मिलती तो तम्बाकू ज्यादा पीता | उसकी सारी आंतों में व्रण हो गये | डाक्टर ने कहा—आज दूध पीना है और कुछ नहीं खाना है । वह भोजन के समय गया और सामने जैसे ही व्यंजन, नमकीन चीजें आयीं, उसने सोचा—यही खाऊंगा, चाहे मरूं या जीऊं । अभी तो वर्तमान ही सार है । सब कुछ खा लिया, फिर बीमार पड़ गया । जानते हुए आदमी ऐसा क्यों करता है ? कोई मूर्ख तो नहीं है ? दुनिया में कोईं मूर्ख नहीं है, सब समझदार हैं | उपदेश देने वाला जितना समझदार होता है, हो सकता है कि श्रोता उससे कहीं ज्यादा समझदार निकल जाए । प्रश्न उपदेश का नहीं, प्रश्न समझदारी का नहीं, प्रश्न है जिसने अपनी जैविक रसायनों को बदलने की प्रक्रिया को समझ लिया और काम में ले लिया वह वास्तव में अपनी आदतों को बदल सकता है । जिसने उन रसायनों को नहीं समझा, वह अपनी आदतों को नहीं बदल सकता । रसायन बनते चले जाएं और हम यह मानें कि गुस्सा नहीं आएगा, यह संभव नहीं । आदमी शराब नहीं पीएगा यह भी संभव नहीं है | जितनी हत्याएं अपराध और बलात्कार होते हैं, जितनी चोरियां होती हैं, उनके पीछे आदमी बेचारा लाचार होता है, उसके बैठे हुए रसायन उसे जबरदस्ती प्रेरित करते हैं कि ठीक समय पर वह सारी अच्छाइयों को, उपदेशों को, धर्म के वाक्यों को भूल जाता है और बेभान होकर बुरा आचरण करने लग जाता है | बहुत बड़ा आश्चर्य है ? हम जीभ के रसों को जानते हैं, किन्तु हमारे भीतर बनने वाले जैविक रसायनों को नहीं जानते । हम दुनिया की शक्ति को जानते हैं, आंख की देखने की शक्ति है, कान की सुनने की शक्ति है, इसको जानते हैं, किन्तु इन्द्रिय की पटुता को नहीं जानते और इन्द्रियातीत को नहीं जानते । इन्द्रियातीत की हमें कोई जानकारी नहीं है । ऐसा भी कुछ हो सकता है जो इन्द्रिय से परे है । मैं तो मानता हूं कि विज्ञान ने सूक्ष्य उपकरणों के द्वारा मनुष्य का बहुत भला किया है और धर्म की बातों को भी सत्य की कसौटी पर कसने का अवसर दिया है। यदि विज्ञान की इतनी प्रगति नहीं होती तो हमारा जगत् स्थूल ही बना रहता, वह सूक्ष्मता की दिशा में प्रस्थान नहीं कर पाता | किन्तु Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जावन क्या ह ? (७ वैज्ञानिक उपकरणों ने मनुष्य को बहुत सूक्ष्मता की दिशा में प्रस्थित किया है—आज कोरी स्थूल बातों पर आदमी जी नहीं सकता | धर्म जो कोरी मोटी-मोटी बातें बताता है नाम जपो, यह करो, वह करो, मुझे लगता है कि ये बातें बहुत बड़ा भला नहीं कर सकतीं। जब तक हमारे जीवन के सूक्ष्म रहस्यों का उद्घाटन नहीं हो जाता तब तक भला नहीं हो सकता । आज की शिक्षा की सबसे बड़ी दुर्बलता और कमजोरी यह है कि विद्यार्थी को बहुत कुछ बताया जाता है, किन्तु जीवन के बारे में कुछ भी नहीं बताया जाता । ग्रेजुएट, पोस्ट-ग्रेजुएट होने के बाद कोई विद्यार्थी कॉलेज से निकलता है, उसे पूछा जाए जीवन के बारे में तो बिलकुल निषेध का उत्तर मिलता है । कुछ भी नहीं जानता । बड़ी बात छोड़ दूं, वह श्वास के बारे में भी नहीं जानता । शरीर के बारे में भी नहीं जानता-आत्मा की बात तो बहुत दूर की बात | आज का धार्मिक आदमी आत्मा है, पमात्मा है, जगत् है, इन प्रश्नों में तो उलझ जाता है और अपने अस्तित्व के बारे में कभी चिंता नहीं करता । एक क्रम होना चाहिए, आत्मा तक पहुंचने के लिए पहले इस स्थूल शरीर को समझा जाए । स्थल शरीर को समझने के बाद श्वास की क्रिया को समझा जाए । श्वास को समझने के बाद प्राण को, इन्द्रियों को, मन को और चित्त को जाना जाए । चित्त के बारे में हमारी कोई जानकारी नहीं है। ___ लुधियाना में मेडिकल कॉलेज के प्रोफेसर डॉ० मुखर्जी बहुत परिचित हो गये थे । उन्होंने ध्यान-योग का साहित्य पढ़ा था । एक दिन वे बोलेमहाराज ! आपकी ध्यान-योग संबंधी पुस्तकों में 'चित्त' और मन को दो मानकर बहुत विस्तार से समझाया है । हम मन 'माइंड' को तो जानते हैं पर चित्त को नहीं जानते । मेडिकल साइंस में माइंड तो है, पर इससे परे चित्त जैसी कोई संज्ञा नहीं है | आपके अनुसार 'चित्त की परिभाषा क्या है, मैं जानना चाहता हूं ।' मैंने बताया, उनकी समझ में आ गया । फिर उन्होंने एक नोट लिखा और विश्वविद्यालय के बड़े प्रोफेसर के पास उसे भेजा । मैंने पूछा-आपने ऐसा क्यों किया ? उन्होंने कहा—मैंने उनसे यह पहले पूछा था कि मन और चित्त में क्या अन्तर है ? वे उसे बता नहीं पाये । अब जब मैं समझ गया हूं तो मैंने नोट के साथ उनको भेजा है कि भारतीय दर्शन Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता के अनुसार मन और चित्त में अन्तर होता है, यह मेडिकल सांइस के लिए बहुत काम की बात है। - हम मन के बारे में भी बहुत कम जानते हैं । यह तो जानते हैं कि मन चंचल है । पर मन क्या है, इस बारे में नहीं जानते । चित्त के बारे में और कम जानते हैं । और अन्तर्चित्त के बारे में कुछ नहीं जानते । ये सारे आश्चर्य सामने आते हैं । मैं सोचता हूं कि जीवन के बारे में हमारी जानकारी बहुत अधूरी है । और जब जीवन के बारे में भी हम नहीं जानते तो भला और क्या नयी बात जान सकते हैं ? सारी दुनिया को जानने वाला, सारे तत्त्वों को जानने वाला यदि अपने जीवन के बारे में नहीं जानता तो वह क्या बड़ी उपलब्धि कर सकता है ? आज तक दुनिया में जितनी उपलब्धियां हुई हैं, वे उन्होंने की हैं जिन्होंने अपने बारे में जाना है । हम जिस दुनिया में जीते हैं वह संबंध की दुनिया है । एक के साथ दूसरे का संबंध जुड़ा हुआ है । जब एक को ही नहीं जानते, तो हमारे सारे संबंध गड़बड़ा जाते हैं। - एक विदेशी यात्री घोड़े पर बैठकर खेतों से गुजर रहा था । घोड़े को प्यास लगी । उसे पानी पिलाना था | आसपास में कहीं पानी नहीं था । उसे पानी नहीं मिला । इधर-उधर देखा, कोई कुआं भी नहीं मिला । एक रहट चल रहा था । देखा कि पानी गिर रहा है। वह जैसे ही पानी पिलाने लगा, रहट की खट-खट आवाज से घोड़ा चौंक गया । विदेशी बोला—भाई ! इस आवाज को बंद करो, घोड़े को पानी पिलाना है । भला आदमी था, बात मान ली । रहट को चलाना बन्द कर दिया । आवाज बन्द हुई तो पानी भी बन्द हो गया । अब पानी कहां से आता ? रहट की तो हर डोल भरती है और खाली होती है, इधर की भरती है तो उधर की खाली हो जाती है । उसमें तो एक क्रम चलता है । शब्द बंद तो पानी बंद | घुड़सवार बोला'भले आदमी ! विदेशी हूं, इतना काम तो करो, पानी तो पिला दो, पानी बन्द क्यों किया ? मैंने तो आवाज बंद करने को कहा था, तुमने पानी बंद कर दिया !' वह बोला—'आपकी सद्भावना के लिए धन्यवाद ! मैं भी चाहता हूं कि आपके घोड़े को पानी पिला दूं, किन्तु ये दोनों बातें नहीं हो सकतीं। एक ओर आप कहते है कि आवाज बन्द करो और दूसरी ओर कहते हैं कि For. Private & Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन क्या है ? | ९ पानी पिलाओ, दोनों बातें नहीं हो सकतीं । शब्द होगा तो पानी आएगा, शब्द नहीं होगा तो पानी भी नहीं आएगा ।' सारी दुनिया का संबंध जुड़ा हुआ है । कोई भी आदमी एक-दूसरे से अलग नहीं हो सकता । आप शरीर, श्वास, प्राण, इन्द्रियों, मन और चित्त से अलग नहीं हो सकते । इसी प्रकार इन्द्रियातीत से अलग नहीं हो सकते और अपनी आत्मा से अलग नहीं हो सकते । इस संदर्भ में हम सोचें और जोड़ की इस दुनिया में जोड़ने वाली कड़ियों को अलग-अलग न करें । जीवन एक बहुत बड़ा विज्ञान है । हम उसे समझने का प्रयत्न करें। जो जीवन को समझ लेता है उसके लिए सारी विधाएं वरदान बन जाती हैं और जिसने जीवन को समझा ही नहीं, उसके लिए सारी विधाएं अभिशाप बन जाती हैं । वरदान और अभिशाप का चुनाव हमें ही करना होगा। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन का उद्देश्य नदी का प्रवाह आगे बढ़ता है । कोई यह पूछे कि उसके आगे बढ़ने का उद्देश्य क्या है ? कोई उद्देश्य नहीं बताया जा सकता । जमीन ढालू है, इसलिए पानी को नीचे चले जाना है। यह जीवन का प्रवाह नदी के प्रवाह की भांति अनादिकाल से बहता आ रहा है । पूछा जाए कि जीवन का उद्देश्य क्या है तो कहना होगा कुछ भी नहीं । जीवन का कोई उद्देश्य नहीं होता । जीवन नियति का एक बंधन है । उस बंधन को भोगना है । जीवन का उद्देश्य कुछ भी नहीं । यदि जीवन का कोई उद्देश्य होता तो वनस्पति का भी होता, कीड़े-मकोड़ों का भी होता, पशुओं का भी होता और मनुष्यों का भी होता । किन्तु किसी का कोई उद्देश्य नहीं है । उद्देश्य होता नहीं, उद्देश्य बनाया जाता है । उसका निर्माण किया जाता है। ___मनुष्य विवेकशील प्राणी है । उसने बुद्धि का विकास किया है । उसमें चिन्तन है, मनन है, प्रज्ञा है, मेधा है और धारणा है | इसलिए वह अपने उद्देश्य का निर्धारण करता है । पूछा यह जाना चाहिए कि जीवन का उद्देश्य क्या होना चाहिए ! जीवन का कोई उद्देश्य नहीं है । जीवन का कोई उद्देश्य होना चाहिए, क्योंकि हमें क्षमता मिली है, विवेक मिला है, इसलिए हम उद्देश्य का निर्माण कर सकते हैं | यदि आप दर्शन के संदर्भ में सोचें कि जीवन का उद्देश्य क्या होना चाहिए तो मैं आपको छोटा-सा उत्तर दूंगा । ज्ञान, दर्शन और चरित्र में सामंजस्ययह होना चाहिए जीवन का उद्देश्य । जीवन को संचालित करने वाली यह त्रयी बहुत महत्त्वपूर्ण त्रयी है | हम जानते हैं, हम देखते हैं, आस्था और Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन का उद्देश्य / ११ श्रद्धा करते हैं, आकर्षण उत्पन्न करते हैं और आचरण करते हैं । जैसे मस्तिष्क, हृदय और हाथ-पैर हैं, वैसे ही ज्ञान, दर्शन और चारित्र हैं। ज्ञान हमारा मस्तिष्क है, दर्शन हमारा हृदय है और चरित्र हमारे हाथ-पैर हैं । शारीरिक स्तर पर तीनों का योग है और तीनों समन्वित रूप से कार्य करते हैं। किन्तु मानसिक स्तर पर ज्ञान, दर्शन और चारित्र - इस त्रयी में संगति नहीं है। इसलिए आदमी का जीवन विसंगतियों और विरोधाभासों का जीवन है। आदमी उसी में जी रहा है। उन विसंगतियों और विरोधाभासों को मिटाना, उस त्रयी में सामंजस्य स्थापित करना, यह जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण उद्देश्य होना चाहिए । आज का यह ज्वलंत प्रश्न है कि आदमी की कथनी और करनी में बहुत दूरी है । आदमी का कहना एक प्रकार का है और आचार -प्रचार दूसरे प्रकार का है । यह क्यों ? दूरी होना स्वाभाविक है । जानना ज्ञान का काम है | एक आवरण हटता है और जानने की क्षमता पैदा हो जाती है । जो भीतर में था वह प्रकट हो गया। पर ज्ञान हो जाने पर विसंगति नहीं मिटती, विरोधाभास समाप्त नहीं होता । ऐसे बहुत सारे लोगों को देखा है जो बड़े विद्वान् और पंडित हैं किन्तु आचार और व्यवहार की दृष्टि से शून्य हैं। उनका व्यवहार इतना रूखा और कटु होता है कि दूसरा कोई भी व्यक्ति उनके साथ रहना नहीं चाहता, पास में जाना भी पसन्द नहीं करता । उनमें निम्नतर वृत्तियां पायी जाती हैं । कहां ज्ञान, विद्वत्ता और पांडित्य तथा कहां आचार और व्यवहार | इतना अन्तर क्यों ? ज्ञान का काम अज्ञान का परिष्कार करना नहीं है । ज्ञान का काम व्यवहार का परिष्कार करना नहीं है । जैसे ज्ञान के साथ आचार का संबंध है, वैसे ही आचार-व्यवहार और दृष्टिकोण के साथ मूर्च्छा का संबंध भी है । मूर्च्छा का आवरण जब तक सघन होता है तब तक ज्ञान कितना ही आ जाए, आदमी भटक जाता है । जैन दर्शन में ज्ञान की सार्वभौमता की अस्वीकृति में कहा गया कि पूर्वों का अध्येता, पूर्वो का ज्ञानी भी भटक सकता है । बहुत महत्त्वपूर्ण संकेत है । पूर्वज्ञान वह ज्ञानराशि है जिसको समझाने के लिए एक रूपक दिया गया है। एक विशालकाय हाथी, जिस पर हौदा (अंबारी) है, वह जिस स्याही के ढेर में छिप जाए उस विशाल स्याही से एक पूर्व भी नहीं लिखा जा सकता। ऐसे चौदह पूर्वों के ज्ञाता भी Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता होते थे । कितनी बड़ी ज्ञानराशि ! पूर्षों के अध्येता भी भटक जाते हैं, मार्गच्युत हो जाते हैं | इसका कारण स्पष्ट है कि उनके ज्ञान का आवरण हट चुका है, किन्तु मार्गच्युत करने वाला तथ्य-मोह अभी वहां मौजूद है । कहा जाता है, ज्ञान जीवन में प्रकाश भरता है । ज्ञान एक दीप है, एक सूर्य है । ज्ञान केवल प्रकाश दे सकता है, क्रिया नहीं दे सकता । प्रकाश देना एक बात है और उसके अनुसार आचरण करना दूसरी बात है । दीया जला दिया । प्रकाश हो गया । पर आंखों में मोतियाबिन्द है तो दीया क्या करेगा । प्रकाश का उपयोग क्या होगा ! आंख है, पर शराब पी ली, मूर्छा आ गई । सूर्य का प्रकाश है, आंखें खुली हैं, पर दीखेगा कुछ नहीं । शराब की मूर्छा इतनी सघन है कि उसे पता ही नहीं चलता कि रात है या दिन | वह पत्नी को मां और मां को पत्नी समझ लेता है। आंख खुली हैं, सर्य का प्रकाश है, वस्तु सामने है, पर वह देख नहीं पाता । उसमें मूर्छा के परमाणु इतने सक्रिय हो गए कि ज्ञान का काम समाप्त हो गया । ज्ञान जीवन को न परिष्कृत करता है और न विकृत । विकृत करने वाला कोई दूसरा तत्त्व ज्ञान के बाद आता है दर्शन | ज्ञान के आधार पर एक दृष्टिकोण निर्मित होता है । आदमी पहले जानता है, फिर अपनी दृष्टि बनाता है । उसके बाद आचरण और व्यवहार की बात आती है । ज्ञान और आचरण के बीच एक दूरी है श्रद्धा और विश्वास की | जब तक यह दृष्टिकोण (दर्शन) की दूरी समाप्त नहीं होती, तब तक ज्ञान आचरण को प्रभावित नहीं कर सकता । ज्ञान को प्रभावित करता है ज्ञानावरण कर्म, और दृष्टि तथा आचरण को प्रभावित करता है मोहनीय कर्म, मूर्छा के परमाणु ।। जीवन की सफलता के लिए आवश्यक है ज्ञान, दर्शन और चारित्र की दूरी को मिटाना, उनमें सामंजस्य स्थापित करना । जब अंतःस्रावी ग्रन्थियों के स्रावों का संतुलन गड़बड़ा जाता है, तब शारीरिक और मानसिक बीमारियां उत्पन्न होती हैं । क्रोध, भय, अहंकार और कामवासना के आवेग शारीरिक और मानसिक रोग उत्पन्न करते हैं। क्योंकि इनसे रासायनिक असंतुलन पैदा हो जाता है और उससे शरीर और मन दोनों रुग्ण हो जाते हैं । क्या इस सचाई को आज का डॉक्टर नहीं Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन का उद्देश्य | १३ जानता? क्या इस सचाई को एक मनोवैज्ञानिक नहीं जानता? क्या उनमें यह ज्ञान नहीं है ? वे जानने वाले शरीर-चिकित्सक और मनोचिकित्सक स्वयं इन बीमारियों के शिकार हो जाते हैं । वे क्रोध करते हैं, घृणा करते हैं, आत्महत्या कर लेते हैं । क्या यह ज्ञान का, जानने का परिणाम है ? नहीं । उनके ज्ञान और आचरण में दूरी है | ज्ञान सही है, पर रसायनों के द्वारा वे सही आचरण नहीं कर पा रहे हैं । यह विरोधाभास सर्वत्र है। इस भौतिकवादी वातावरण में जीवन के उद्देश्य की उचित मीमांसा नहीं की गई । उसे सही ढंग से नहीं समझा गया । आज की सरकार चाहती है कि उसके राष्ट्र में कोई निरक्षर न रहे । सब साक्षर हों । साक्षरता और शिक्षा का अभियान पूरे वेग से चल रहा है । परन्तु इतनी शिक्षा हो जाने पर भी, ज्ञान का इतना विकास हो जाने पर भी, आर्थिक साधनों का विकास हो जाने पर भी, मन की समस्याओं को कोई समाधान नहीं मिल पा रहा है | मन की समस्याएं बढ़ी हैं और बढ़ती जा रही है । संभवतः आज से दो-चार वर्ष पहले निरक्षरता के वातावरण में जो पागलपन नहीं था, वह पागलपन आज साक्षरता के वातावरण में है | पुराने जमाने में इतने पागलखाने और मानसिक चिकित्सालय नहीं थे, जितने आज हैं | पागलखानों में भी पागलों की भीड़ लगी हुई है । मानस-शास्त्र ने विकास किया है, पर मानसिक समस्याएं समाहित नहीं हो पा रही हैं । भारत में पागल अधिक हैं । अमेरिका आदि विकसित राष्ट्रों की समस्या और आगे है । वर्तमान में बौद्धिक विकास को ही सब कुछ मान लिया गया है । यही शिक्षा का आधार बना हुआ है । जीवन-विकास और आर्थिक प्रगति का आधार भी यही है । इस स्वीकृति में बेचारे मानव को बिलकुल भुला दिया और मानसिक समस्याओं को इग्नोर कर दिया, उपेक्षित कर दिया । जैन दर्शन के संदर्भ में जीवन के उद्देश्य की मीमांसा करते हैं तो वहां केवल ज्ञान ही पर्याप्त नहीं माना जाता । यह सर्वथा अपर्याप्त है । जैन आगमों में एक प्रसंग है । गौतम ने भगवान महावीर से पूछा भंते ! क्या केवल ज्ञान (कोरे ज्ञान) से जीव दुःख मुक्त हो सकता है ?' 'गौतम ! नहीं ।' Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता ‘भंते ! क्या केवल दर्शन से जीव दुःख-मुक्त हो सकता है ?' 'गौतम ! नहीं ।' 'भंते ! क्या कोरे चारित्र से जीव दुःख-मुक्त हो सकता है ?' 'गौतम ! नहीं ।' 'भंते ! दुःख-मुक्ति कैसे हो सकती है ?' 'गौतम ! दुःख-मुक्ति के लिए ज्ञान, दर्शन और चारित्र तीनों का समन्वित योग होना चाहिए ।' ज्ञान, दर्शन और चारित्र का योग—यह जीवन का पूरा उद्देश्य बनता है । आज यह योग नहीं रहा, वियोग हो गया। तीनों का समानरूप से विकास होने पर ही वे कार्यकर होते हैं | जब शरीर के सारे अवयव प्रमाणोपेत होते हैं, साथ-साथ बढ़ते हैं तो शरीर सुन्दर बनता है । एक अवयव अधिक बढ़ जाता है और एक अवयव छोटा रह जाता है तो शरीर कुरूप हो जाता है। उसका सौन्दर्य नष्ट हो जाता है । आज उद्देश्य की विस्मृत्ति के कारण भद्दापन आ गया है । दृष्टिकोण गलत है और आचरण भी गलत है । दोनों गलत हैं । दृष्टिकोण में भद्दापन है और आचरण में भी भद्दापन है । बौद्धिकता का एकांगी विकास उद्देश्य पूर्ति में सक्षम नहीं हो सकता। जीवन में दो बातें होती हैं । एक है मूर्खता और दूसरी है मूढ़ता । प्रत्येक आदमी में ये दोनों हैं | जन्म लेने वाला कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो मूर्ख न हो, मूढ़ न हो । विद्यालयों का काम है मूर्खता को मिटा देना, व्यक्ति को समझदार बना देना । उसकी बुद्धि को बढ़ा देना । मूढ़ता को मिटाना विद्यालय का काम नहीं है । यह काम है अध्यात्म और दर्शन का । यह काम है प्रेक्षाध्यान का, साधना का । इनके द्वारा मूढ़ता को समाप्त किया जा सकता है और मूर्छा के परमाणुओं को व्यर्थ किया जा सकता है । इनसे समता के परमाणुओं की सघनता बढ़ती है । समस्त मूढ़ता का कारण है विषमता । आदमी जितना मूढ़ होगा, उतना ही विषमता के प्रति आस्थावान होगा । आदमी मूढ़ता से जितना दूर होगा, उतनी ही समता के समीप होगा । ज्ञान और आचरण के बीच में एक होता है आकर्षण । वह आकर्षण आज समता के प्रति नहीं है पदार्थ के प्रति है | यह आकर्षण भी ज्ञान से फलित हुआ है । बुद्धिमान आदमी जितना अपराधी Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन का उद्देश्य | १५ हो सकता है, उतना अपराधी सामान्य आदमी नहीं हो सकता । बुद्धिमान आदमी अनेक उपायों को जानता है । वह छिपाना जानता है, चालाकी जानता है, वह सब कुछ जानता है । जो बुद्धिमान नहीं है, सीधा-सादा है, वह जानता नहीं । बच्चा कुछ भी नहीं छिपाता । जो कुछ करता है सब सामने स्पष्ट रूप से करता है । पशु भी छिपाना नहीं जानता । आदमी में बुद्धि है । जैसे-जैसे बुद्धि का विकास हुआ है, वैसे-वैसे उसका चातुर्य बढ़ा है। वह छिपाने और ठगने की कला में निष्णात हुआ है । वह अपनी कामना और आकांक्षा को भी छिपा लेता है। पत्नी एक बढ़िया साड़ी खरीदकर लायी । पति ने कहा—यह क्या किया तुमने ? हम तंगी से गुजर रहे हैं । तुमने एक साड़ी के लिए पांच सौ रुपए खर्च कर डाले । इतनी कीमती साड़ी की अपेक्षा ही क्या थी ! पली बोलीमैं जानती हूं, समझती हूं | घर की आर्थिक स्थिति कमजोर हैं । मुझे इतनी कीमती साड़ी नहीं खरीदनी चाहिए थी । पर खरीदने के लिए विवश होना पड़ा । मैं और मेरी सहेली बाजार गयी । अपना घर लोगों की दृष्टि में संपन्न है । वह गरीब घर की है। उसने दो सौ रुपयों की साड़ी खरीदी तो घर की लाज रखने के लिए मुझे पांच सौ की साड़ी खरीदनी पड़ी। मन की आकांक्षा, मन की उड़ान, मन की अतृप्ति को आदमी छिपाना जानता है | उस महिला ने मन की आग को राख से ढककर उत्तर दिया । वह पढ़ी-लिखी थी, इसलिए चतुराई से छिपाने में सफल हो गई । पूरे समाज के पढ़े-लिखे लोगों का सर्वेक्षण किया जाए तो पता चलेगा कि बने-बनाए प्रश्नों और समाधानों के द्वारा आदमी अपने भीतर की समस्त दुर्बलताओं को छिपा रहा है और बाहर से स्वस्थ होने का स्वांग रचा रहा है । बीमारी कहीं है | और उसका समाधान अन्यत्र खोजा जा रहा है | जैन दर्शन ने इस दिशा में एक समन्वित दृष्टिकोण प्रस्तुत किया । यह दृष्टिकोण शिक्षा जगत् के लिए भी महत्वपूर्ण है और व्यत्वित्व के निर्माण के लिए भी महत्त्वपूर्ण है । उसमें वर्तमान की सामाजिक समस्याओं का समाधान ढूंढ़ा जा सकता है । उसने कहा—जहां ज्ञान का विकास हो, वहां उसके साथ-साथ मूर्छाविलय का भी प्रयत्न हो । आवरण को हटाने का प्रयत्न, मूर्छा और मूढ़ता को मिटाने का प्रयत्न यदि होता है तो ज्ञान केवल प्रकाश Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता दे सकता है, अंधकार नहीं । आज का युग बौद्धिकता का युग है । प्रत्येक साधु-साध्वी बौद्धिक विकास के लिए प्रयत्नशील है । वे नाना भाषाओं और नाना विधाओं के अध्ययन की दिशा में प्रस्थान करने के इच्छुक हैं । यह बहुत अच्छी बात है । किन्तु गृहस्थ समाज की भांति यदि अध्ययन एकांगी रहा, साथ-साथ मूर्च्छा-विलय की साधना नहीं चली, ध्यान और तपस्या नहीं चली, तपस्या का क्रम नहीं चला तो ठीक वही होगा जो आज सामाजिक जीवन में हो रहा है । उस एकांगी विकास से वैसी ही समस्या पैदा हो जाएगी । बौद्धिक विकास की भी अपनी कुछ बुराइयां हैं, बीमारियां हैं । बौद्धिक विकास से अहंकार बढ़ता है, पारस्परिकता में अन्तर आता है, तर्क बढ़ता है और मृदुता में कमी आती है । ये अत्यधिक संभव बातें हैं । हमारी यह सावधानी रहे कि हम एकांगी न बनें। हम अपनी सर्वांगीणता को न छोड़ें । अध्ययन के साथ-साथ मूर्च्छा - विलय का प्रयत्न होता रहे । मूर्च्छा के विलय का एक बड़ा उपाय है— वीतराग का ध्यान । आज किसी पढ़े-लिखे व्यक्ति से कहा जाए, नमस्कार महामंत्र का जाप करो, माला गिनो; वह सोचेगा, इतना बड़ा विद्वान् हो गया और मैं अब नवकार मंत्र की माला फेरूं । बहुत छोटी बात है । यह सोचना एक बीमारी है । वह यह नहीं जानता कि नवकार मंत्र की माला फेरने का अर्थ है ज्ञान और आचरण में सामंजस्य स्थापित करना, संतुलन साधना । क्या अरिहंत और वीतराग की स्मृति करना छोटी बात है ? जब हम इनकी स्मृति करते हैं, स्मृति में तन्मय होते हैं तो हमारी वीतरागता जागती है, मूर्च्छा कम होती है, मोह-राग-द्वेष कम होता है, प्रियता और अप्रियता का सम्मोहन कम होता है । यह घटित होने पर जीवन की अनेक समस्याएं समाहित हो जाती हैं । आइंस्टीन महान् वैज्ञानिक था । वह इतना आस्थावान था कि बड़े से बड़ा व्यक्ति भी उतना आस्थावान नहीं हो सकता । वैज्ञानिक और आत्मापरमात्मा के प्रति आस्थावान - यह एक समस्या है । इतना बड़ा वैज्ञानिक और फिर धार्मिक ! यह कैसे ? यह प्रश्न हमारी ही मूढ़ता के कारण उत्पन्न हुआ है । अपनी विसंगतियों के कारण हमने ऐसे मूल्य स्थापित कर दिए, ऐसे मानदंड स्थापित कर लिये कि यदि वैज्ञानिक धार्मिक होता है तो आश्चर्य Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन का उद्देश्य / १७ होता है और नहीं होता है तो कोई आश्चर्य नहीं होता | हमारी सारी धारणाएं विरोधाभासों के साथ पलने वाली धारणाएं हैं । हम विरोधाभासों को पालते जा रहे हैं । उन्हें तोड़ने का कोई प्रयत्न नहीं कर रहे हैं । जब हम दर्शन के संदर्भ में वैज्ञानिक युग का और वर्तमान शिक्षा प्रणाली का अवलोकन करते हैं तो यह ज्ञात होता है कि एक बड़ी त्रुटि रह रही है । क्रोध और क्षोभ को मिटाने की बात हमने छोड़ दी, केवल बाह्य के पीछे भटक गए । उपाध्याय मेघविजय ने एक सुन्दर बात कही है—ज्ञान वायु पर विजय पाता है । दर्शन पित्त पर विजय पाता है । चारित्र कफ का निवारण करता है । शरीर के तीन दोषों—वात, पित्त और कफ को मिटाने वाले हैं ज्ञान, दर्शन और चारित्र । यह बहुत ठीक बात है । आयुर्वेद की दृष्टि से वायु चिन्ता पैदा करता है, पित्त चंचलता और क्रोध उत्पन्न करता है और कफ शोक उत्पन्न करता है । ये तीन दोष तीन प्रकार की मनोवृत्तियां पैदा करते हैं । ___आज ज्ञान पर अधिक बल दिया जा रहा है । सारी दवाइयां वायु-वेग को मिटाने के लिए बन रही हैं । वायु पर विजय प्राप्त करने की बात आ गई, किन्तु दो बच गए—एक क्रोध और दूसरा शोक । आज का आदमी इन दोनों से आक्रान्त है । आज का बच्चा भी इनसे अछूता नहीं है । उसमें क्रोध अधिक है, शोक कम । एक पांच वर्ष का बच्चा मां को पीट रहा था। मैं वहां था । मैंने मां से पूछा-अभी तो बच्चा छोटा है । अभी से पीटने लग गया । मां ने कहा—'महाराज ! अभी तो यह पांच वर्ष का हो गया । जब यह तीन वर्ष का था, तब भी मुझे बहुत पीटता था । छोटा है, समझ नहीं है । बच्चे में क्रोध अधिक होता है । आदमी में शोक की भी प्रबलता है | वह प्रायः शोकग्रस्त देखा जाता है । एक शोक मिटता है, दूसरा उभर आता है । इन सारी स्थितियों का मूल कारण है—असंतुलन | आदमी का सारा ध्यान वायु पर अटक गया । वह पित्त और कफ के विषय में सोचता ही नहीं । जब तक तीनों में संतुलन स्थापित नहीं होगा, कुछ भी वांछनीय परिणाम नहीं आएगा। जैन दर्शन के सन्दर्भ में जीवन के उद्देश्य की सुन्दर परिकल्पना यह है कि ज्ञान, दर्शन आ चारित्र का समन्वित विकास हो । ज्ञान के साथ-साथ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता दर्शन का पूरा विकास हो और उसके साथ-साथ चारित्र का भी विकास हो । एक का विकास व्यक्तित्व निर्माण का घटक नहीं हो सकता । उससे सर्वांगीण व्यक्तित्व निर्मित नहीं हो सकता । तीनों के विकास से ही यह संभव है । __जब जीवन का यह उद्देश्य स्पष्ट हो जाता है तब मानसिक, बौद्धिक और आर्थिक समस्याओं का समाधान उपलब्ध हो जाता है । फिर जीवन की समग्र समस्याएं समाहित हो जाती हैं | Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थूल शरीर का आध्यात्मिक महत्त्व आज मैं उस महाग्रंथ की चर्चा कर रहा हूं जिसे हजारों-हजारों लोगों ने पढ़ा, हजारों बार पढ़ा, पर उसका एक पृष्ठ भी समझ में नहीं आया और अब तक भी नहीं आया । महाग्रंथ जिसकी हर पंक्ति पर अर्द्ध विराम और पूर्ण विराम है, जिसकी यात्रा न जाने कितने लोगों ने की पर पहुंचना कठिन रहा । वह महाग्रंथ किसी महान् ग्रंथकार, किसी महाकवि के द्वारा लिखा हुआ नहीं है, किन्तु एक प्रकृति-प्रदत्त रचना है | वह महाग्रंथ है हमारा शरीर | ___आश्चर्य है कि जिस शरीर में हम रहते है, जिस शरीर में हम जीते हैं, उसे पढ़ नहीं पाते । पूरा नहीं पढ़ पाते, अधूरा भी नहीं पढ़ पाते, अधूरे की चर्चा भी नहीं करते । कुछ भी शायद नहीं पढ़ पाते ।। दो हाथ, दो पैर, सिर, हृदय, फेफड़ा—इन अनेक अवयवों से बना है हमारा शरीर । कुछ धातुएं हैं, कुछ रसायन हैं | योग मिला, शरीर बन गया । डिम्बाणु और शुक्राणु का योग मिला, शरीर निर्मित हो गया । छोटासा जन्मा । समय के परिपाक के साथ बड़ा बन गया । इस शरीर के द्वारा मनुष्य खाता है, पीता है, बोलता है, चलता है, काम करता है । शरीर का बहुत मूल्य है । प्रत्येक अवयव का मूल्य है | हाथ का मूल्य तब समझ में आता है जब पानी पीने की जरूरत होती है, लिखने की जरूरत होती है, काम करने की जरूरत होती है । अंगुलियों का मूल्य समझ में आता है । अंगूठे का मूल्य समझ में आता है | यदि अंगुलियां न हों तो हमारा सारा विकास असंभव बन जाए । अंगुलियां हों और अंगूठा न हो तो विकास की कल्पना ही नहीं की जा सकती । ये दो दिशाओं में खड़े हैं—एक दिशा में हमारी चार अंगुलियां और दूसरी दिशा में सामने खड़ा है अंगूठा । दोनों विरोधी Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता दिशाएं । दोनों मिलते हैं तो बहुत सारे काम सम्पन्न होते हैं । यदि अंगुली और अंगूठा न हो तो सारी सभ्यता ही ठप्प हो जाए । संस्कृति का विकास इन अंगुलियों और अंगूठे के आधार पर हुआ है । पैर का मूल्य तब समझ में आता है जब चलने की जरूरत होती है । प्रत्येक अवयव का अपना मूल्य है और हम समझते हैं, आंख का मूल्य है, कान का मूल्य है, त्वचा का मूल्य है और मस्तिष्क का मूल्य है | सबका मूल्य है । किन्तु मूल्यांकन का दृष्टिकोण अलग-अलग होता है । बहुत प्रसिद्ध कहानी है, सब लोग जानते ही होंगे, फिर भी नयी दृष्टि से उस कहानी को सुनें । कहीं मेला लगा । हजारों लोग इकट्ठे हुए । वहां दुकानें भी लगीं । एक मनिहारे ने मनिहारी की दुकान लगाई । उसने कांच का एक टुकड़ा भी सजाकर रखा । वह खूब चमक रहा था । लोग घूमते हैं, देखते हैं । एक जौहरी आया, देखा पत्थर का टुकड़ा बहुत चमक रहा है, दूर से ही देखा और समझ गया । पास में आया, देखा कि बहुत मूल्यवान् हीरा है, कीमती है । तत्काल बोला—अरे भाई ! क्या लोगे इस कांच के टुकड़े का ? उसने कहा-बीस रुपये लूंगा । ग्राहक ने कहा—पत्थर का टुकड़ा और बीस रुपये ? इतना तो नहीं, दस रुपये ले लो, पन्द्रह रुपये ले लो । दुकानदार ने कापूरे बीस रुपये लूंगा, एक पैसा भी कम नहीं लूंगा | उसने सोचा–नासमझ आदमी है, इधर-उधर घूम आता हूं कहां जाने वाला है ? कौन ले जाता है इस पत्थर के टुकड़े को ? अपने आप देगा । मैं पांच रुपये बचा लूंगा । वह चला गया । दो-चार क्षण बीते होंगे, दूसरा जौहरी उधर से आया । देखा, चमकीले टुकड़े पर उसकी आंख टिक गई । उसने पूछा—अरे, क्या है ? 'पत्थर का टुकड़ा है।' 'क्यों रखा है ?' 'चमकता है, इसलिए ।' 'बेचोगे ?' 'हां ।' 'क्या लोगे ?' Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थूल शरीर का आध्यात्मिक महत्त्व / २१ 'पचीस रुपये ।' तत्काल रुपये देकर वह जौहरी उस टुकड़े को लेकर चला गया । पहले वाला जौहरी घूम-फिरकर आया । उसे वह चमकता टुकड़ा दिखाई नहीं दिया। उसने पूछा- 'अरे ! वह टुकड़ा कहां गया ?' दूकानदार बोला'बेच दिया ।' जौहरी ने गंभीर होकर कहा—'बेच दिया !' एक टीस-सी सारे शरीर में हो गई ? भारी वेदना हुई | पूछा—'कितने में बेचा ?' दूकानदार ने कहा- 'पचीस रुपये में । तुम बीस रुपये भी नहीं दे रहे थे, मैंने पचीस में बेचा है।' उस जौहरी ने कहा- 'तुम मूर्ख हो । तुम ठगे गये । वह सवा लाख का हीरा था । तुमने पचीस रुपये में ही बेच दिया ।' वह बोला— 'मूर्ख मैं तो नहीं हूं | मेरे बाप ने कभी जवाहरात का काम नहीं किया | मैंने भी नहीं किया । ऐसे ही मुझो तो पड़ा हुआ मिला था, उठा लिया । घर का एक पैसा भी नहीं लगा | मैंने पचीस रुपये कमा लिये । मूर्ख हो तुम, मूर्ख है तुम्हारा बाप । जब तुम जानते थे कि सवा लाख का हीरा है और पांच रुपये के लेने-देने में अड़ गये । छोड़कर चले गये, मूर्ख तुम हो या मैं ?' इस कहानी के आधार पर मूल्यांकन के दृष्टिकोण फलित होते हैं १. अज्ञानी आदमी द्वारा किया जाने वाला मूल्यांकन | वह वस्तु के यथार्थ मूल्य को जानता ही नहीं, इसलिए अपनी बुद्धि के अनुसार ही उसका मूल्यांकन करता है। २. ज्ञानी आदमी द्वारा किया जाने वाला मूल्यांकन | जो मूल्य को जानता है, पर सघन मूर्छा के कारण थोड़े के लिए बहुत को गंवा डालता है। ३. उस व्यक्ति द्वारा किया जाने वाला मूल्यांकन—जो मूल्य को जानता है, उसका यथार्थ मूल्यांकन करता है और उसका उपयोग करता है। शरीर के लिए भी ये तीन बातें होती हैं । यह शरीर एक पत्थर का टुकड़ा है, मनिहारे के लिए। यह शरीर एक कीमती हीरा है उस जौहरी के लिए, किन्तु उसमें इतनी मूर्छा है कि उसका मूल्य जानते हुए भी वह उसका कोई उपयोग नहीं करता, Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता उसे स्वीकार नहीं कर पाता । तीसरा मूल्यांकन का दृष्टिकोण है उस जौहरी का जो हीरे को जानता है और उसका उपयोग भी कर लेता है | जो शरीर की यथार्थता जानता है और उससे लाभ भी उठा लेता है। क्या मैं शरीर को हीरे के साथ तोलूं ? क्या शरीर की तुलना हीरे साथ होगी ? मुझे कहना चाहिए कि दुनिया में कोई भी पदार्थ उतना मूल्यवान नहीं है, जितना मूल्यवान है हमारा शरीर । जितने मूल्य दुनिया में प्रस्थापित होते हैं वे सारे इस शरीर के द्वारा होते हैं । अगर एक शरीर न हो तो सारे मूल्य समाप्त हो जाते हैं । जिस शरीर ने सारे पदार्थों को मूल्य दिया, जो शरीर सारे मूल्यों की व्याख्या करता है, प्रस्थापना करता है, उस शरीर का क्या कभी मूल्य बताया जा सकता है ? कभी नहीं बताया जा सकता । यह अमूल्य है, और उस अमूल्य को हमने कभी जानने का प्रयत्न ही नहीं किया । आदमी शरीर को जानता है, सबसे पहले रंग और रूप के माध्यम से । चाहे अपने शरीर को देखें, चाहे दूसरे के शरीर को देखें, हमारे सामने या तो रूप आएगा, रंग आएगा या उसका संस्थान आएगा । किस प्रकार की बनावट और किस प्रकार रंग-रूप, ये सामने आएंगे । फिर चमड़ी आएगी। बस, यह दीवार है हमारी आंखों के लिए | इस चमड़ी के भीतर देखने की शक्ति आंखों में नहीं है । वे इतनी सक्षम नहीं हैं कि भीतर झांक सकें और देख सकें । हमारे लिए चमड़ी दीवार बन गई । फिर भी जानते हैं कि इसके भीतर खून है, मांस है, मज्जा है, हड्डियां हैं । हम इन सबको जानते हैं । इसके भीतर मल-मूत्र है, वायु है, कफ है, पित्त है, यह भी हम जानते हैं | इसके आगे शायद और नहीं जानते । शरीरशास्त्री कुछ और अधिक जानता है । नाड़ियों को जानता है, नाड़ी-संस्थान को जानता है, ग्रंथियों को जानता है, शरीर के एक-एक अवयव को जानता है, छोटी-से-छोटी धमनी को जानता है, रक्त के प्रवाह को जानता है, रक्त संचार को जानता है और रक्त के द्वारा होने वाली क्रियाओं को जानता है । ____ अभी दो दिन पहले एक भाई ने बताया कि कलकत्ता में एक मशीन आई है—बहुत विलक्षण है । एक साथ २५० फोटो लेती है शरीर का । एक्स Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थूल शरीर का आध्यात्मिक महत्त्व | २३ रे के सामने आदमी खड़ा होता है, एक फोटो आता है। उस मशीन से २५० फोटो आते हैं | और छोटी-से-छोटी शिरा का फोटो उसमें अंकित हो जाता है । एक मशीन और है जो रक्त की जितनी क्रियाएं, जितने फंक्शन होते हैं, उन सारे कार्यों का विश्लेषण कर देती है । शरीर के बारे में आज का शरीरशास्त्री, आज का वैज्ञानिक बहुत जानने लग गया । इतना विकास हुआ है कि वह ऑपरेशन करता है, एक अवयव को एक स्थान पर से काटकर दूसरे स्थान पर लगा देता है, नसों को बांध देता है, चिपका देता है, बिछा देता है । नकली आंख, नकली हृदय, नकली गुर्दा प्रस्थापित कर देता है । पैरों एवं हाथों की तो बात छोड़ दें । वे तो नकली होते ही हैं । संभव है दिमाग का भी ऑपेशन हो और भविष्य में नकली दिमाग भी लगा दिया जाए। प्राचीन साहित्य में हम पढ़ते हैं देवता का कर्तृत्व कि देवता में उतनी . शक्ति होती है कि वह किसी आदमी के सिर को काट लेता है, उसे चूरचूर कर देता है, चूर्ण कर आकाश में बिखेर देता है । फिर सारे अणुओं को इकट्ठा कर पुनः उस मस्तिष्क को बनाता है और उसी आदमी के लगा देता है । आदमी को पता नहीं चलता कि कुछ किया है । यह देवता का दिव्य चमत्कार हम सुनते आये हैं । आज का डॉक्टर भी उस देवता से कम नहीं है। अश्विनीकुमार की कथाएं हम सुनते रहे हैं । ये स्वर्ग के वैद्य कहलाते हैं। आज का डॉक्टर भी शायद अश्विनीकुमार से कम नहीं है । इतना विलक्षण काम करके दिखाता है वह कि जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती । इतना जान लेने पर भी, समूचे शरीर को चीर-फाड़कर एक-एक अवयव सामने रख देने पर भी क्या शरीर के पूरे रहस्यों को जान लिया गया ? नहीं जाना जा सका । आज के एनोटॉमी और फिजिओलॉजी के बड़े-बड़े विद्वान् और मर्मवेत्ता कहते हैं कि अभी तक मस्तिष्क के रहस्यों को नहीं जाना जा सका है। हजारवां भाग भी नहीं जाना जा सका है | लघु मस्तिष्क इतने रहस्यों से भरा है कि उसको हम पूर्ण रूप से अभी तक नहीं जान पाए । पिनियल, पिच्यूटरी ग्लैण्ड के रहस्यों को पूरा नहीं जाना जा सका है । नाड़ी-तन्त्र और ग्रंथि-तन्त्र में इतने रहस्य हैं कि आज भी उनका कोई पता नहीं चलता । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता यह तो डॉक्टर लोग जानते हैं, शरीरशास्त्री जानते हैं कि एड्रीनल ग्रंथि का अधिक स्राव होने से उत्तेजना बढ़ जाएगी, गुस्सा बढ़ जाएगा, वासना बढ़ जाएगी और वृत्तियां उभर आएंगी। इस बात का पता है उनको, किन्तु इनके स्राव को कैसे नियन्त्रित किया जा सकता है, पिनियल और पिच्यूटरी के स्राव को कैसे नियन्त्रित किया जा सकता है, थाइराइड के स्राव पर कैसे कंट्रोल किया जा सकता है, डॉक्टर या शरीरशास्त्री नहीं जानते । योग के आचार्यों ने शरीर के बारे में इतनी सूक्ष्म खोजें की थीं, अध्यात्म के आचार्यों ने इस शरीर को इतना गहराई के साथ पढ़ा था कि उन्होंने जिन रहस्यों का उद्घाटन किया वे रहस्य आज भी शरीरशास्त्र के माध्यम से उद्घाटित नहीं हो पा रहे हैं । मुझे पता है कि गुस्सा एड्रीनल ग्रंथि की उत्तेजना होने पर आता है किन्तु गुस्से को कैसे मिटाया जाता है इसका भी मुझे पता होना चाहिए। दोनों बातों का पता होना चाहिए । गाय से गोमूत्र भी प्राप्त किया जा सकता है और दूध भी प्राप्त किया जा सकता है । एक द्वीप था । वहां के निवासी गाय से परिचित नहीं थे । एक व्यापारी गाय लेकर उसी द्वीप में गया। उस द्वीप में रत्नों का व्यापार होता था । व्यापारी रत्नों को खरीदने वहां गया था । उसने राजा को प्रसन्न करना चाहा । एक दिन वह गाय का दूध लेकर राजा के पास गया | राजा ने दूध पिया, बहुत प्रसन्नता व्यक्त की । दूसरे दिन दही । तीसरे दिन मक्खन । इस प्रकार वह प्रतिदिन कुछ-न-कुछ उपहार लेकर जाता और राजा बहुत प्रसन्नता व्यक्त करता । कुछ दिन बीते । व्यापारी ने राजा से विदा ली । राजा ने कहासेठ, तुम जो चीजें हमें रोज-रोज भेंट में देते थे, उस वृक्ष को यहीं छोड़ जाना, साथ में मत ले जाना । मैं तुम्हें करों से मुक्त करता हूं । सेठ ने गाय वहीं छोड़ दी । सेठ चला गया । राजा ने अपने आदमियों से कहा— दो-चार आदमी हरदम उस वृक्ष के पास खड़े रहें । वह वृक्ष जो भी दे उसे तत्काल मेरे पास प्रस्तुत करें । आदमी सोने-चांदी के बर्तन लेकर खड़े हो गये । गाय ने मूत्र किया । आदमी ने चांदी के वर्तन में उसे एकत्रित कर लिया । वह तत्काल Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थूल शरीर का आध्यात्मिक महत्त्व / २५ राजा के पास गया | बर्तन सामने रखा । राजा ने कहा- अरे ! यह तो कोई नया ही पदार्थ है | आज तक सेठ ने मुझे ऐसा पदार्थ नहीं खिलाया । राजा ने उसे सूंघा, बदबू आ रही थी । चखा और तत्काल मुंह सिकोड़ते हुए धूथू कर थूक दिया। राजा ने कहा- यह तो बड़ी कड़वी चीज़ है । कोई बात नहीं, जो मीठा देती है वह कभी-कभी कड़वा भी दे सकती है । इतने में दूसरा आदमी सोने के बर्तन में गरम-गरम गोबर लेकर आया । राजा ने देखा, कहा— अरे ! यह भी नयी चीज ! आज तक इतनी गरम चीज नहीं देखी । राजा ने चखा । मुंह खराब हो गया । थू-थू कर थूका । गुस्सा आ गया | उसने कहा— सेठ ने धोखा दिया है, जो मूल वृक्ष था, उसे वह साथ ले गया और जो दूसरा खराब वृक्ष था, उसे वह यहां छोड़ गया । दौड़ो, उसे पकड़ कर लाओ । अभी तक वह सीमा के बाहर नहीं गया होगा । जहां भी हो, उसे पकड़कर ले आओ । कर्मचारी दौड़े । सेठ को पकड़कर ले आये । राजा ने कहा- मेरे साथ भी धोखा ! सेठ बोला- राजन् ! कभी नहीं । आपके साथ धोखा कैसे कर सकता हूं ? 1 राजा ने सारी बात बताई । सेठ बोला - राजन् ! वृक्ष वही है । उसी के उपहार मैं आपको देता रहा हूं । आपके आदमी उसके फल लेना नहीं जानते । मैं उन्हें फल लेने की विधि बता देता हूं । I सेठ ने गाय को दुहने की विधि उन कर्मचारियों को सिखाई, दही जमाने और मक्खन निकालने की प्रक्रिया का भी उन्हें ज्ञान करा दिया । अब राजा को पूर्ववत् दूध, दही और मक्खन मिलने लगा । राजा के कर्मचारियों ने राजा से कहा- महाराज ! वृक्ष वही है । हम पहले दोहना नहीं जानते थे । जो दोहना नहीं जानता उसे भला दूध कैसे प्राप्त हो सकता है ? दूध के बिना दही और मक्खन कहां से आए ? जरूरत है दोहन की, जरूरत है मन्थन की । हम शरीर की शक्तियों को दोहना नहीं जानते । हमारे शरीर के भीतर कितनी बड़ी शक्तियां हैं । एक आदमी को कहा जाए कि तुम एक आसन में तीन घंटा बैठ जाओ । अरे ! कैसे बैठा जा सकता है, कभी नहीं बैठा जा सकता है। शरीर के भीतर इतनी ताकत है कि तीन घंटा नहीं, तीन महीने तक एक स्थान पर बैठा जा Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता सकता है । हम अपनी शक्ति का उपयोग करना नहीं जानते । हमें अपनी शक्ति पर भरोसा नहीं है । हमें अपनी शक्ति का ज्ञान नहीं है । मैंने देखा, दो वर्ष पहले एक शिविर था । एक भाई हैदराबाद से आया । वह युवक था, पढ़ा-लिखा था । उसने कहा – मैं ध्यान तो कर सकता हूं, पर मेरी कठिनाई यह है कि आधा घंटा भी एक आसन में नहीं बैठ सकता । मैंने कहा- चिंता मत करो | पांच-चार दिन बीते । शिविर का छठा दिन होगा, चैतन्य केन्द्रों का ध्यान किया गया । दर्शन केन्द्र पर ध्यान टिका, गहराई आयी, आधा घंटा बीता, एक घंटा बीता, दो घंटे बीत गये, उसे पता ही नहीं कि कहां बैठा हूं, कब बैठा हूं। देशातीत, कालातीत और शरीरातीत बन गया । पता ही नहीं चला। दो घंटा बीत जाने के बाद एक भाई ने आकर मुझे कहा, वह तो वैसा का वैसा बैठा है । मैं गया और जाकर उसको संबोधित किया तब अकस्मात् जैसे वह कोई नींद में से जागा हो, उठा और आकर पैर पकड़ लिये । उसने कहा – मैं तो आज इस स्थिति में चला गया कि दुनिया क्या है और मैं कौन हूं, कुछ भी भान नहीं रहा । अपूर्व स्थिति बनी । आनन्दमय, केवल आनन्दमय । - हमारी शक्ति असीम है, यदि हम उसका उपयोग करना जानें | हमारे शरीर में शक्ति के तीन स्थान हैं—गुदा, नाभि और कंठ | एक नीचे, एक बीच में और एक ऊपर | नीचे का लोक, मध्य का लोक और एक ऊपर का लोक । ये तीन हमारे शक्ति के स्रोत हैं, ये तीन हमारे शक्ति के केन्द्र हैं । होता यह है कि शक्ति ऊपर से नीचे आ रही है । जबकि होना यह चाहिए कि शक्ति नीचे से ऊपर की ओर जाए । आचार्यों ने, तीर्थंकारों ने कहा कि इन्द्रियों के विषयों के प्रति आसक्त मत बनो । क्या उन्हें कोई द्वेष था ? क्या घृणा थी ? क्या कोई बुरा लगता था ? भला खाना किसको अच्छा नहीं लगता ! प्रिय शब्द सुनना किसको अच्छा नहीं लगता ! इन्द्रियों के सारे विषय बहुत अच्छे लगते हैं, किसी को बुरे नहीं लगते । किन्तु उन्होंने देखा कि इन इन्द्रियों के माध्यम से हमारी बड़ी से बड़ी शक्ति नीचे के स्रोत से बाहर जा रही है और आदमी शक्ति से खाली हो रहा है तथा शक्ति शून्य होकर एक प्रताड़ना का जीवन जी रहा है । इसलिए उन्होंने कहा कि संयम करो । आज संयम को शायद लोग मान बैठे कि यह दमन है, नियन्त्रण है । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थूल शरीर का आध्यात्मिक महत्त्व | २७ आज का मनौवैज्ञानिक कहता है कि दमन नहीं होना चाहिए। आज का प्रबुद्ध आदमी कहता है कि नियन्त्रण की कोई जरूरत नहीं । अच्छी बात है, दमन की कोई जरूरत नहीं है । नियन्त्रण की कोई जरूरत नहीं है | कुछ भी आवश्यक नहीं तो क्या हम एक ऐसे दरवाजे को खोल दें, हम ऐसी खिड़की को खोल दें जिसमें से भीतर में सिमटी हुई सारी शक्ति बाहर चली जाए ? क्या नाला खोल दें कि भीतर का सारा पानी बह जाए? मुझे लगता है, यदि हम भीतर के महत्त्व को समझ पाते, शरीर का मूल्य कर पाते तो यह नहीं होता कि नीचे का नाला तो खुला रहे और ऊपर का नाला बन्द हो जाए । दो स्रोत हैं हमारे शरीर में । शक्ति और आकर्षण के ये दो केन्द्र हैं । एक काम की शक्ति और दूसरी है ज्ञान की शक्ति । ज्ञान की शक्ति ऊपर रहती है, काम की शक्ति नीचे रहती है । नीचे के स्रोत में कामनाएं, वासनाएं, इच्छाएं, हिंसा, असत्य, चोरी की भावना—ये सारी वृत्तियां पैदा होती हैं । एक है ज्ञान का केन्द्र हमारे सिर में, जहां सारी निम्न वृत्तियां समाप्त हो जाती हैं । चेतना का विकास, ज्ञान का विकास, बुद्धि का विकास, उदारता, परमार्थ--यह महान् चेतना जहां पैदा होती है वह ऊपर का केन्द्र–सिर । आवश्यकता इस बात की थी कि हम शरीर का मूल्यांकन करते और नीचे की शक्ति को ऊपर की शक्ति के साथ मिलाकर महान् बना देते । किन्तु ऐसा नहीं हुआ। हमने काम का मूल्य समझा । हमने हीरे का मूल्य तो समझा, लेकिन थोड़ासा मोह बाकी रह गया कि कुछ मूल्य और कम हो जाए तो खरीद लूं । उस पांच रुपये ने समूचे हीरे को गंवा दिया । अभी हमने देखा कि बिजली नहीं थी, अंधेरा था । बिजली आयी, मद्धम प्रकाश, थोड़ी आयी, फिर पूरी ताकत के साथ आयी, सारा स्थान प्रकाशित हो गया । हमारे शरीर में भी बिजली है । बिजली नहीं होती है तो आदमी शून्य-सा हो जाता है | शरीर निकम्मा, इन्द्रियां निकम्मी, बुद्धि निकम्मी, सब कछ निकम्मा-सा बन जाता है। बिजली थोड़ी होती है तब टिमटिमाता है दीप । और जब बिजली शरीर में पूरी होती है तो आदमी जगमगाने लग जाता है । हमारे शरीर की विद्युत्, हमारी प्राण-ऊर्जा जितनी शक्तिशाली बनती है, उतना शक्तिशाली बनता है हमारा जीवन । शरीर का आध्यात्मिक मूल्यांकन है उस ऊर्जा की सुरक्षा करना, ऊर्जा को विकसित करना और Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ | मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता ऊर्जा के स्रोत को मोड़कर नीचे से ऊपर की ओर ले जाना | साधना की समूची पद्धति, अध्यात्म का समूचा मार्ग ऊर्जा के ऊर्चीकरण का मार्ग है। ऊर्जा को नीचे के रास्ते से बहाएं नहीं, उसका संरक्षण करें, उसे एकत्रित करने का प्रयास करें । शरीर बहुत मूल्यवान् है । उसकी संक्षिप्त-सी चर्चा मैंने की है । चर्चा बहुत लम्बी है । मांसपेशियों का भी आध्यात्मिक मूल्य है । रक्त, नाड़ी-संस्थान और ग्रंथियों का भी आध्यात्मिक मूल्य है। किन्तु इतनी लम्बी चर्चा में आज मैं नहीं जाना चाहता | मैंने केवल छोटी-सी चर्चा की कि शरीर की ऊर्जा का मूल्यांकन करना है । शक्ति के स्रोतों को अगर खोलें तो ऊपर की ओर खोलना है, नीचे की ओर नहीं | ऊपर का स्रोत खुलता है तो प्राणशक्ति का प्रवेश होता है और नीचे का स्रोत खुला रहता है तो प्राणशक्ति का निर्गमन होता है, बिजली’ बाहर जाती है और आदमी शक्तिशून्य हो जाता है । हम इस बात को जानते हैं कि शरीर हाड़-मांस का पतला है । लोहीमांस से भरा है, अपवित्र है, इस बात को बहुत बार सुना है, रटा है । इस बात को भी जानते हैं कि दुनिया में बड़े-से बड़ा काम किया जा सकता है, वह शरीर के माध्यम से किया जा सकता है । शरीर के सिवाय दुनिया की कोई ताकत नहीं जो बड़ा काम कर सके । शरीर हमारे लिए अत्यंत उपयोगी और सबसे बड़ा माध्यम है । तो हम शरीर को पहचानें, जानें, उसकी शक्ति को जानें, शक्ति के स्रोतों को जानें, उसके आध्यात्मिक मूल्यों को जानें और उन मूल्यों को जानकर शक्ति को ऊपर की दिशा में ले जाने की ओर कदम बढ़ाएं । अगर ऐसा होता है तो न केवल हमारी वर्तमान समस्याओं का समाधान होता है किन्तु मनुष्य के आसपास मंडराने वाली नाना प्रकार की विभीषिकाओं और नाना उलझनों को सुलझाने का भी एक राजमार्ग हमारी आंखों के सामने उतर आता है । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्युत् का चमत्कार हम जिससे परिचित हो जाते हैं, उसे खूब पहचान नहीं पाते । कभी-कभी जो घटना घटती है, उसको चमत्कार मान लेते हैं और रोज जो घटना घटती है, उसे चमत्कार नहीं मानते । कभी-कभी होने वाली को बीमारी मान लेते हैं, रोज होने वाली को बीमारी नहीं मानते । भूख एक बीमारी है पर उसे हम बीमारी नहीं मानते, क्योंकि यह रोज होने वाली घटना है । अगर भूख भी पांच-सात - दस वर्ष में एक बार लगती तो वह भी बीमारी होती, बहुत भयंकर बीमारी । किन्तु वह रोज लगती है, दिन में दो बार भी लग जाती है । अब हम इससे इतने परिचित हो गये कि इसको बीमारी नहीं मानते । केवल भूख का प्रश्न नहीं है, अनेक घटनाएं ऐसी होती हैं कि परिचय के कारण हम उनका नाम भी नहीं ले पाते, भी नहीं पाते । हमारे शरीर में कोई कम चमत्कार नहीं है । किन्तु हम उनसे इतने परिचित हो गये हैं कि उनको चमत्कार मानते भी नहीं । समझ एक अंगुली हिलती है। कितना बड़ा चमत्कार है एक अंगुली का हिलना, किन्तु इसे कोई चमत्कार मानते ही नहीं हैं। क्योंकि यह बेचारी रोज हिलती है । अगर कभी-कभी हिलती तो यह भी बड़ा चमत्कार होता । इसे कोई चमत्कार नहीं मानते, किन्तु जानने वाले जानते हैं कि एक अंगुली को हिलाने के लिए कितने बड़े तंत्र का सहारा लेना पड़ता है । इतना बड़ा तंत्र शायद सरकार का भी नहीं है । पहले सोचते हैं, मस्तिष्क के ज्ञानतंतु सक्रिय होते हैं और फिर वे क्रियावाही तंतुओं को निर्देश देते हैं। वह निर्देश वहां तक पहुंचता है तो अंगुली हिलती है। बहुत छोटी-सी बात है, मैंने थोड़े में, एक मिनट में कह दी। पर प्रक्रिया इतनी बड़ी है कि करने बैठें तो हजारों-हजारों Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता कर्मचारी भी जीवन में पूरी नहीं कर सकते । मस्तिष्क की रचना बहुत विचित्र है । कोई वैज्ञानिक हमारे मस्तिष्क जैसे सूक्ष्म अवयवों का कम्प्यूटर बनाना चाहे तो आज की पूरी पृथ्वी भर जाए । इससे भी शायद बड़ा होगा । एक अंगुली के हिलने में कितनी क्रिया होती है, हम समझ ही नहीं पाते । कायोत्सर्ग का मूल्य समझ में नहीं आता किन्तु शरीर की क्रिया को जानता है, वह व्यक्ति समझ सकता है कि कायोत्सर्ग कितना मूल्यवान है, कायगुप्ति का कितना मूल्य है ? शरीर को स्थिर करने का कितना मूल्य है | हम इसको इस संदर्भ में समझें कि एक अंगुली हिलती है, इसका मतलब है मन की शक्ति खर्च होती है, चित्त की शक्ति खर्च होती है और पूरे शरीर में जो काम करने वाली विद्युत् है, ऊर्जा है, प्राणशक्ति है, वह खर्च होती. है । कायोत्सर्ग करने का अर्थ होता है कि बिजली खर्च नहीं होती, मन की शक्ति खर्च नहीं होती, शरीर की शक्ति एवं मस्तिष्क की शक्ति भी खर्च नहीं होती। सब भंडार में रिजर्व रह जाती है । हम जब चाहें उसे काम में ले सकते हैं। ___यहां इतने बल्ब लगे हैं, वे प्रकाश दे रहे हैं, चारों तरफ बिजली का प्रकाश दिखाई दे रहा है । आज अच्छा एक अवसर मिला कि प्रकाश है । बहुत बार ऐसा होता है कि बल्ब तो लगे रहते हैं किन्तु प्रकाश गायब हो जाता है | हम शरीर को देखते हैं, शरीर की भी यही हालत है । शरीर पड़ा है, आंखें, कान, नाक, पूरे-के-पूरे अवयव हैं, किन्तु बिजली गायब हो गई। सारे बल्ब पड़े हैं किन्तु प्रकाश नहीं । क्यों ? बहुत बड़ा चमत्कार है । एक बटन दबा और प्रकाश फैल गया । बात समझ में भी नहीं आती, एक साथ प्रकाश कैसे होता है ? ___ पढ़ा होगा आपने, कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं कि चिता में जलाने के लिए शव को लिटा दिया, वह बीच में ही खड़ा हो गया । सब भाग जाते हैं । कहते हैं कि भूत हो गया । पोस्टमार्टम के लिए रोगी को सुलाया गया और डॉक्टर पोस्टमार्टम करने बैठा । अस्त्र लगाया, पहला अस्त्र लगा, वह खड़ा हो गया । सभी कर्मचारी भाग खड़े हुए, डॉक्टर भी इतना भयभीत हुआ कि जो मरा हुआ था वह तो खड़ा हो गया और डॉक्टर मर गया । आपको आश्चर्य होगा कि यह कैसे हो सकता है ? बिजली गायब हो गई थी, कहीं Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्युत् का चमत्कार | ३१ चली गई थी मस्तिष्क की कोशिकाओं में, फिर कोई ऐसा बटन दबा, वह बिजली आ गई और वह जी गया । लोगों ने समझ लिया कि यह तो जिन्दा भूत हो गया । यह बहुत बड़ा चमत्कार है हमारे प्राण की शक्ति का । आंख में देखने की ताकत नहीं, कान में सुनने की शक्ति नहीं, जीभ में रसास्वाद की अनुभूति नहीं, यह सब जो करता है, भरता है शक्ति को, वह है प्राण | एक प्राण का प्रकाश आता है, सब अपना-अपना काम करने लग जाते हैं। सब प्रकाश से भर उठते हैं । और जब प्रकाश चला जाता है तो सब कांच के टुकड़ों की तरह बेकार हो जाते हैं । प्रकाश की क्षमता को खो बैठते हैं । ___मूल प्रश्न है प्राण का | प्राण सबसे बड़ा चमत्कार है । दुनिया में जितने चमत्कार होते हैं वे अब प्राण के द्वारा होते हैं । यदि प्राण की शक्ति न हो तो दुनिया में कोई चमत्कार नहीं । आज विद्युत् का युग है, वैज्ञानिक युग है। कहना चाहिए विद्युत् है इसलिए विज्ञान है । विद्युत् समाप्त हो जाए तो समूचा विज्ञान समाप्त हो जाए । विज्ञान रहेगा ही नहीं । सब कुछ चल रहा है बिजली के आधार पर । वास्तव में विद्युत् युग है । इतने बड़े चमत्कार आज की दुनिया में चलते हैं कि कमरा बन्द है, आदमी आया । जैसे ही कमरे के पास पैर रखा, दरवाजा अपने आप खुल जाता है । जैसे ही भीतर गया, कुर्सी पर बैठा, पंखा अपने आप चलने लग गया । कोई बटन दबाने की जरूरत नहीं । बल्ब जल उठा । यह तो आज की बात है । ईस्वी सन् २००० के बाद क्या होगा बताऊं? आदमी भोजन की टेबल पर जाकर बैठेगा, अपने आप भोजन आ जाएगा । अपने आप पकेगा । खा लिया, हाथ अपने आप धुल जाएंगे, रूमाल आ जाएगा; कुछ भी करने की जरूरत नहीं । बस पचाना पड़ेगा । खाना पड़ेगा, पचाना पड़ेगा आपको । यह सारा हो रहा है बिजली के द्वारा । ऐसी ऑटोमेटिक व्यवस्था है विद्युत् की कि सब काम बिजली कर रही है | कितना बड़ा है विद्युत का चमत्कार । यह है सारा बिजली का चमत्कार | तो बाह्य जगत् में होने वाली बिजली के इतने बड़े चमत्कार हमारे सामने हैं तो हमारे भीतर की बिजली के चमत्कार तो इससे भी और बड़े हैं । यह बाह्य जगत् की बिजली का चमत्कार भी कौन कर रहा है ? भीतर का प्राण ही तो कर रहा है । यदि यह भीतर का प्राण नहीं है तो वह चमत्कार भी हो नहीं सकता। ये सारे चमत्कारों को पैदा करने वाली विद्युत् हमारे भीतर बैठी है। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता __हम इतने ज्यादा परिचित हो गए इससे कि इसका पूरा मूल्य नहीं आंकते । यह ज्यादा परिचित होना खतरनाक होता है । बहुत परिचित हो जाने पर ठीक मूल्यांकन नहीं होता है । हम समझ लेते हैं कि यह ठीक है | जब रहता है तो ठीक मूल्यांकन होता है | हम इतने निकट हैं और हमारी प्राणशक्ति, प्राण-विद्युत् इतनी निकट है कि हम सही मूल्यांकन नहीं कर पाते । यदि ऐसा न हो तो तब मालूम होता है कि क्या बीतता है । एक अवयव में से बिजली चली जाए, प्राण सिकुड़ जाए, तब पता चलता है कि क्या होता है ? यह लकवा क्या है ? प्राणशक्ति सिकुड़ गई, प्राणशक्ति चली गई तो लकवा हो गया । बिजली चली गई, बस ! लकवा हो गया, पूरे शरीर पर हो जाता है, सारा नियन्त्रण खो बैठता है । व्यक्ति बिना मतलब रो देता है, बिना मतलब हंसता है, शरीर काम नहीं करता । इस प्रकार से मत की भांति व्यक्ति बन जाता है । इतना ही नहीं, यह तो केवल बाह्य व्यक्तित्व की चर्चा है । भीतर के व्यक्तित्व की चर्चा करें तो लगता है कि प्राण-शक्ति और विद्युत् एक बहुत बड़ा चमत्कार है । एक व्यक्ति बहुत अच्छा है और एक व्यक्ति बड़ा गसैल है । एक व्यक्ति इतना सहनशील है कि हर बात सहन कर लेता है. । एक गुसैल थोड़ी-सी बात होती है कि आगबबूला हो जाता है | एक व्यक्ति ईमानदार है तो दूसरा बड़ा बेईमान है । यह सारा क्यों होता है ? यह प्राणशक्ति का खेल है । प्राणशक्ति के इतने दाव-पेच हैं कि वह सारा बिजली करती है । हमें सुख का अनुभव भी बिजली से होता है और दुःख का अनुभव भी बिजली से होता है । मनुष्य राजी भी बिजली से होता है और नाराज भी बिजली से होता है । वासना से लिप्त भी बिजली से होता है और वासना से मुक्त भी बिजली से होता है । यदि हमारी भीतर की सारी विद्युत् की गतिविधियों को, प्रवृत्तियों को हम जान लें और उनका ठीक नियोजन करना जान जाए तो बहुत सारी समस्याएं हल हो जाती हैं । साधना का अर्थ है—अपनी प्राण विद्युत् को जान लेना और उसका सही उपयोग करना । गुस्सा क्यों आता है ? अशांति क्यों रहती है ? वासना क्यों जागती है ? वासना शांत कैसे होती है ? एक आदमी हत्यारा क्यों बनता है ? एक महान् संत क्यों बनता है ? इनका रहस्य है बिजली । हमारे शरीर में कुछ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्युत् का चमत्कार | ३३ विशेष केन्द्र हैं कुछ नाभि के नीचे और कुछ नाभि के ऊपर । वे चैतन्यकेन्द्र जब विद्युत् के द्वारा सक्रिय होते हैं तो अपना काम शुरू करते हैं | हमारी बिजली जब नाभि के आस-पास आती है, नीचे आती है तो नीचे के केन्द्र जागते हैं, बुरी वृत्तियां सताने लगती हैं और वे केन्द्र यदि ज्यादा समय के लिए सक्रिय रहते हैं तो आदमी बुरा बन जाता है | यह बिजली जब ऊपर की ओर जाती है, ऊर्ध्वगति करती है; हृदय, कण्ठ,नाक, आंखें, कान, भृकुटि, ललाट का मध्य भाग, सिर का मध्यभाग-इन स्थानों में ऊपर की ओर चली जाती है तो सारी वृत्तियां बदल जाती हैं । मनुष्य महान् बनता है, बड़ा बनता है, परोपकारी बनता है, सदाचारी बनता है, परमार्थवर्ती बनता है, शक्तिसम्पन्न एवं आचरण-संपन्न होता है । वह उदात्त से उदात्ततम बनता चला जाता है | यह सारा परिवर्तन विद्युत् के ऊर्ध्वगमन होने का चमत्कार है | कितना बड़ा चमत्कार है ! एक डाकू संत बन जाता है तो क्या यह चमत्कार नहीं है ? आश्चर्य होता है कि डाकू संत कैसे बन गया और संत डाकू बन जाता है, तो यह भी बहुत बड़ा आश्चर्य है | यह भी बिजली के परिवर्तन से होने वाला चमत्कार है । जिसकी विद्युत् नीचे से ऊपर चली गयी वह डाकू सन्त बन गया । जिसकी बिजली ऊपर से नीचे आ गई, वह सन्त डाक बन गया । एक बार पुरोहित देवमित्र के मन में एक भावना जागी | उसने सोचा राजा ब्रह्मदत्त मेरा बहुत बड़ा सम्मान करता है । मुझे बहुत श्रद्धा की दृष्टि से देखता है | क्या कारण है ? क्या यह मेरे ज्ञान का सम्मान है ? या मेरे सदाचार का सम्मान है ? किसका सम्मान है, मुझे परीक्षा करनी चाहिए । एक दिन राजसभा में बैठा था । ज्ञान की चर्चा हो रही थी । गोष्ठी सम्पन्न हुई, सब लोग जाने लगे | पुरोहित देवमित्र भी जाने लगा । जाते समय बीच में राजकोष आया और उसने एक सिक्का उठा लिया । कोषाध्यक्ष ने देख लिया । उसने सोचा देवमित्र जैसा महान् व्यक्ति सिक्का उठाता है तो कोई विशेष प्रयोजन है । आज सम्भव है जल्दी में नहीं बताया है, बाद में बता देगा । दूसरे दिन भी यही घटना घटी। राजसभा से जाते समय देवमित्र ने फिर एक सिक्का उठा लिया । कोषाध्यक्ष अर्थ नहीं समझ सका । पर कुछ भी नहीं बोला । तीसरे दिन देवमित्र ने मुट्ठी भर सिक्के उठा लिये । कोषाध्यक्ष Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता ने देखा कि यह तो मामला गड़बड़ है | आदमी बेईमान है । एक ओर तो इतना प्रवचन करता है और इतनी बातें बनाता है, इतने लच्छेदार उपदेश देता है, पुरोहित बना बैठा है, दूसरी ओर चोरी करता है । तत्काल अपने सिपाहियों को बुलाया कोषाध्यक्ष ने और कहा कि गिरफ्तार कर लो । गिरफ्तार हो गया । दूसरे दिन फिर राजसभा जुड़ी, पुरोहित को राजा के सामने प्रस्तुत किया गया । लोग बड़े आश्चर्य में पड़े—अरे ! राजपुरोहित और चोरी ! बात समझ में नहीं आयी । वह राजा के सामने खड़ा है । कोषाध्यक्ष ने सारी घटना सुनाई । राजा ने कहा—क्यों पुरोहितजी ! ठीक बात है ! उसने कहा- हां, महाराज ! बिलकुल सच है । कोषाध्यक्ष बिलकुल सही कह रहा है । राजा भी आश्चर्य में था । राजा ने कहा-बड़ा अपराध किया है, हमारी श्रद्धा पर चोट पहुंची है । श्रद्धा खण्डित हो गई है । हम क्या समझते थे, तुम क्या निकले । राजा ने आदेश दिया कि पुरोहितजी की बाएं हाथ की अंगुलियां काट दी जाएं | अंगुली काटने का दण्ड मिला । पुरोहित बोला—महाराज ! मुझे दण्ड मान्य है । किन्तु मेरी एक बात सुनें, सही घटना सुनें । मैंने सिक्के उठाए, पर मैं चोर नहीं हूं | राजा ने कहा—यह और बुद्धिमानी की बात ! चोरी की, फिर भी स्वीकार नहीं कर रहे हो । वह बोला-सही बात यह कि मैं चोर नहीं हूं, चोरी करना नहीं चाहता था । मेरे मन में एक प्रश्न उठा, एक जिज्ञासा जागी कि मेरा इतना सम्मान है राज्य में । राजा भी मेरा सम्मान करता है, प्रजा भी मेरा सम्मान करती है । यह सम्मान ज्ञान का है या सदाचार का ? यह प्रश्न मेरे मन में उठा, परीक्षा करनी थी, परीक्षा हो गई। निष्कर्ष निकला कि सम्मान ज्ञान का नहीं, सम्मान सदाचार का है । अगर ज्ञान का होता तो मैं आज इस कटघरे में खड़ा नहीं होता | ज्ञान तो जितना कल था, उतना ही आज है मेरे पास . केवल सदाचार खण्डित हुआ, शील खण्डित हुआ और अंगुलियां काटने का आदेश हो गया । मैं चोर हो गया । सचाई सामने आ गई । राजा ने उसे मुक्त कर दिया । हम देखते हैं कि ज्ञान जहां है वहां पड़ा है । मस्तिष्क में ज्ञान पैदा होता Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्युत् का चमत्कार / ३५ है, वह वहीं का वहीं पड़ा है, किन्तु बिजली नीचे चली गई और जो श्रद्धेय था वह अपराधी बन गया । विज्ञान की भाषा में एड्रीनल ग्रन्थि अधिक सक्रिय हो गई, पुरोहित चोर बन गया, अपराधी बन गया । आवश्यकता इस बात की है कि ज्ञान और विद्युत् दोनों साथ-साथ रहें । ज्ञान ऊपर रहता है और बिजली नीचे जाती है तो ज्ञान भी लज्जित होता है और आदमी अपराधी बन जाता है । ज्ञान का मूल्य तभी है कि ज्ञान और प्राण -- दोनों साथ रहें, ज्ञान और प्राण का योग बराबर बना रहे । मैं तो मानता हूं, यह शरीर, शरीर में श्वास और श्वास से जुड़ा हुआ प्राण-से बड़ा कोई चमत्कार नहीं है। श्वास कितना बड़ा चमत्कार है । चलता है तो आदमी जी जाता है और बैठता है तो आदमी बैठ जाता है । कितना बड़ा चमत्कार है ! जिसने प्राणशास्त्र को पढ़ा है वह जानता है कि श्वास कितना बड़ा चमत्कार है और उसके द्वारा कितने बड़े चमत्कार घटित होते. हैं । ज्वर हुआ, श्वास को बदला, ज्वर मिट गया। सिरदर्द हुआ, श्वास को बदला, दर्द मिट गया । श्वास के द्वारा कितने परिवर्तन होते हैं । आपको यह भरोसा है कि आदमी बीमार है, दवाई लेता है, वह स्वस्थ हो जाता है । अगर दवाई से आदमी ठीक होता तो आज कोई मरता नहीं । सब अमर हो जाते । दवा तो सुलभ हैं। पहले ठीक हुआ तो क्या मरते समय दवा की कमी थी ? मरते समय भी तो दवा पास में थी और बहुत लोग तो दवा लेतेलेते ही मरते हैं । एक व्यक्ति को अचानक दिल का दौरा पड़ गया। उधर तो ऑक्सीजन चढ़ाया जा रहा है, इधर इंजेक्शन लग रहा है और उधर बत्ती बुझ रही है । तीनों साथ-साथ । कोई भी नहीं मरता यदि दवा से जिन्दा रहता । पर मर जाते हैं । कितनी भी दवाइयां हों, प्राण की विद्युत् जब तक शक्तिशाली होती है तब तक ओषधि काम करती है। दवा तो एक सहारा मात्र है । यदि प्राणविद्युत् समाप्त हो जाती है तो फिर दवाइयों का ढेर भी लगा दिया जाए, शरीर को दवाइयों से ढंक दें तो भी कोई असर होने वाला नहीं है। दवाई मूल नहीं है, मूल बात है प्राण की शक्ति । वह मूल होती है, तभी आदमी जीता है, नहीं तो नहीं जीता, कभी नहीं जीता। डॉक्टर लोग भी कहते हैं कि जिसकी Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता प्रतिरोधात्मक शक्ति का कार्य समाप्त हो चुका, जिसमें वह शक्ति नहीं है, दवाइयां लेते जाओ, वे कोई काम नहीं करेंगी । मूल बात है प्रतिरोधात्मक शक्ति और वह है प्राण की शक्ति, श्वास की शक्ति । प्राणशक्ति का चमत्कार इससे बड़ा क्या होगा कि प्राण के द्वारा ही आदमी जीता है । यह जीना सबसे बड़ा चमत्कार है । कीटाणु बीमारी पैदा करते हैं, ऐसा डॉक्टर लोग मानते हैं । ऐलोपैथिक साइंस का मत है कि बीमारी कीटाणुओं से पैदा होती है | क्या कीटाणुओं से कोई खाली है दुनिया का भाग ? कोई हिस्सा खाली नहीं है । सब जगह कीटाणु भरे पड़े हैं और जब प्रतिरोधात्मक शक्ति तीव्र होती है तो कीटाणु कुछ भी नहीं कर पाते । आते हैं, चले जाते हैं, अड्डा जमाकर नहीं रह पाते । खत्म हो जाते हैं, मर जाते हैं । कई बार देखा है कि व्यक्ति की प्राणशक्ति इतनी प्रबल होती है कि सांप काटे तो सांप मर जाए, बिच्छु काटे तो बिच्छु मर जाए । उसे कुछ भी नहीं होता । इसलिए कहा जाता है कि आदमी इतना जहरीला होता है कि उसे खाने वाला मर जाता है । . प्रश्न है प्राण की शक्ति का । मैंने प्राण की शक्ति की चर्चा की है । अब इस विद्युत् को कैसे बदला जाए, यह एक प्रश्न है ? धर्म की पूरी प्रक्रिया, साधना की पूरी प्रक्रिया, अध्यात्मवाद, रहस्यवाद—ये सारे उस बिजली के बदलने की पद्धति बतलाते हैं । कैसे बदला जाए? किस प्रकार बदला जाए? किस प्रकार का आचार, किस प्रकार का व्यवहार, किस प्रकार का चिन्तन, किस प्रकार का दर्शन, जिससे वह बिजली, प्राण की धारा बदले और प्राण की धारा चेतना के जागरण में सहयोगी बने, इसकी फिर कभी चर्चा होगी । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणशक्ति का आध्यात्मिकीकरण विद्युत का युग है। प्रत्येक आदमी विद्युत् से परिचित है और विद्युत के चमत्कार से भी परिचित है। बिजली का प्रयोग आज होता है, पर आदमी अनादिकाल से प्रकाश से परिचित है । वह प्रकाश और अंधकार के भेद को जानता रहा है । हम आंख से देखते हैं। आंख से देखते हैं, यह ठीक है, पर वास्तव में प्रकाश से देखते हैं । दिन में कमरे में गया, सब कुछ साफ-साफ था । सब दिखाई दे रहा था । रात को गया, तब अंधेरा था । कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था । सोचा क्या हो गया ? सभी चीजें कहां गायब ! कुछ भी दिखाई नहीं देता । दीया जलाया, फिर कमरे में गया तो सब कुछ दीखने लग गया । भारतीय दर्शन में अभेद और भेद की चर्चा बहुत आती है । अंधकार में अभेद बहुत है, कोई भेद नहीं है । सब समान हो जाते हैं । गोरे - काले का भेद नहीं है। छोटे-बड़े का, अच्छे-बुरे का भेद नहीं होता, वस्तु-अवस्तु का भी भेद नहीं होता, सब कुछ समान हो जाता है । जैसे ही प्रकाश आता है, यथार्थ अपने रूप में आ जाता है । सब जैसे हैं वैसे दिखाई देने लग जाते हैं । प्रकाश एक बहुत बड़ा चमत्कार है हमारी दुनिया का । और प्रकाश होता है तभी सब कुछ ठीक-ठीक दिखाई देता है । मैं यथार्थ में प्रकाश की चर्चा कर रहा हूं । प्रकाश के आभास की चर्चा कर रहा हूं | प्रकाश के नाम की चर्चा कर रहा हूं । एक विद्यार्थी कम पढ़ता था । पिता ने कहा- तुम बहुत कम पढ़ते हो । अधिक पढ़ना चाहिए। उसने मैं बहुत पढ़ता हूं । पिता ने पूछा- अरे ! कब पढ़ते हो ? दिनभर इधर-उधर घूमते हो, गप्पें हांकते हो, कब पढ़ते हो ? वह बोला- पिताजी ! कहा Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता मैं रात को कसर निकाल लेता हूं रात को बहुत पढ़ता हूं | आज रात को इतनी देर तक पढ़ता रहा कि बिजली कब चली गई, मुझे पता ही नहीं चला | ऐसे पढ़ने की चर्चा मैं नहीं कर रहा हूं कि बिजली चली जाए और आदमी को पता ही न चले । वास्तव में प्रकाश हमारे जीवन की एक बहुमूल्य थाती है । और हमें बहुत बड़ी शक्ति उपलब्ध है प्रकाश के रूप में । वह प्रकाश बाहर का प्रकाश नहीं, वह प्रकाश हमारे भीतर का प्रकाश है । बाहर की बिजली से लोग बहुत परिचित हैं । आश्चर्य की बात है, भीतर की बिजली से लोग कम परिचित हैं । जानते हुए भी शायद नहीं जानते । दस प्राण हैं, प्राण की शक्ति है—-इस बात को रटने वाले भी शायद प्राण की शक्ति से परिचित नहीं हैं । आख से देखते हैं, कान से सुनते हैं । शरीर सक्रिय है, काम करता है । यह सक्रियता कहां से आती है ? आंख क्यों देखती है ? प्राण की शक्ति काम कर रही है इसलिए आंख देखती है। प्राण की शक्ति काम करना बंद कर दे, आंख भी देखना बंद कर देगी । कान से इसलिए सुनते हैं कि प्राण की शक्ति काम कर रही है । प्राण की शक्ति काम करना बंद कर दे, कान की सुनने की शक्ति भी गायब हो जाएगी। पांचों इन्द्रियों की शक्तियां, बोलने की शक्ति, सोचने की शक्ति, चलने-फिरने की शक्ति, श्वास लेने की शक्ति और जीने की शक्तेि—ये सारी शक्तियां एक ही शक्ति के विभिन्न रूप हैं । मूल है प्राणशक्ति और प्राणशक्ति जितने काम करती हैं, उनके अलग-अलग नाम हो जाते हैं । ये नाम सारे स्थान विशेष के आधार पर होने वाले नाम हैं । मूलतः एक है प्राणशक्ति । यदि शक्ति नहीं है तो चेतना का उपयोग नहीं होता । ज्ञान है और शक्ति नहीं है तो ज्ञान का कोई उपयोग नहीं होगा । आनंद है और शक्ति नहीं है तो आनंद का कोई उपयोग नहीं होगा। आनंद का उपयोग, ज्ञान का उपयोग, दर्शन का उपयोग या अन्य किसी का भी उपयोग करना है, उसके पीछे शक्ति जरूर रहेगी। ऐसा नहीं होता कि चेतना का उपयोग हुआ और शक्ति नहीं रही । कभी नहीं होगा । दर्शन का उपयोग हुआ, आनंद का उपयोग हुआ, पर शक्ति नहीं थी, ऐसा कभी नहीं हुआ । सुख का अनुभव तो वास्तव में शक्ति का ही अनुभव है । बिजली का ही यह अनुभव है । एक प्रकार की विद्युत् हमारे काम में आती है, हमें सुख का अनुभव होता है | सुख और Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणशक्ति का आध्यात्मिकीकरण | ३९ दुःख दोनों विद्युत् के कार्य हैं । हमारी प्राणशक्ति जो निरंतर हमारे जीवन को संचालित करती है, वह पैदा होती है और खपती रहती है। उसकी उपज भी है और खपत भी है। हर कोशिका बिजली को पैदा करती है और काम चलाती है । बिजली खर्च हो जाती है । उससे कोई बड़ी बात नहीं होती । रोटी पकानी है, चूल्हा जलाया, रोटी पक गई । चूल्हा बुझ गया । कोई बड़ी बात नहीं है । बड़ा काम करने के लिए बड़ी शक्ति चाहिए | बड़ा काम करने के लिए बड़ी प्राणशक्ति चाहिए, प्राणशक्ति का विकास चाहिए । हम प्राणशक्ति को बढ़ा सकें, तब कोई नया काम हो सकता है, नयी बात बन सकती है। ज्ञान का विकास तब होता है जब प्राणशक्ति बढ़ जाती है । एक विशिष्ट ज्ञानी, जिसे परिभाषा में चतुर्दशपूर्वी कहा जाता है, वह ४८ मिनट के भीतर इतनी बड़ी ज्ञानराशि का अर्जन कर लेता है, जिसकी हम कल्पना नहीं कर सकते । वह इतनी बड़ी ज्ञानराशि है कि यदि पुस्तकों में लिखा जाए तो लाखों पुस्तकों में भी न समाए । वे इतनी बड़ी ज्ञान की राशि को केवल कुछ मिनटों में पुनरावर्तन कर लेते हैं । प्रश्न हुआ कि यह कैसे संभव हो सकता है | उत्तर दिया गया कि प्राणशक्ति की विशिष्टता के कारण ऐसा संभव हो सकता है । उन्हें सूक्ष्म प्राणशक्ति उपलब्ध हो जाती है । प्राण की शक्ति जैसे-जैसे सूक्ष्म होती है, उसकी शक्ति बढ़ती जाती है | जो गणित एक आदमी अपने पूरे जीवन में कर सकता वह गणित कम्प्यूटर कुछ क्षणों में कर लेता है । चतुर्दशपूर्वी तो बड़ा कम्प्यूटर है। सबको इतना जल्दी दोहरा लेता है कि हर आदमी तो कर ही नहीं सकता । पर यह सारा होता है प्राणशक्ति के द्वारा । वह प्राणशक्ति को इतना विकसित कर लेता है कि उसमें अपूर्व शक्ति पैदा हो जाती है। आचार्य भद्रबाहु ने महाप्राण ध्यान की साधना की । बारह वर्ष लगते हैं इस ध्यान की साधना में । उसमें प्राण को सूक्ष्म करने की प्रक्रिया चलती है | प्राण को जितना सूक्ष्म किया जाए उसकी उतनी शक्ति बढ़ती चली जाती है । प्राण जितना स्थूल होगा शक्ति उतनी ही कम होगी । संस्कृत कवि ने कहा है--- Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता हस्तिः स्थूलवपुः स चांकुशवशः किं हस्तिमात्रोंकुश: ? दीपे प्रज्वलिते विनश्यति तमः किं दीपमात्रं तमः ? वज्रेणाऽपि हताः पतन्ति गिरयः किं वज्रमात्रो गिरिः । तेजो यस्य विराजते स बलवान् स्थूलेषु कः प्रत्ययः ? हाथी कितना मोटा होता है किन्तु छोटे से अंकुश के अधीन होता है । छोटा-सा अंकुश जब कुंभस्थल पर लगता है, हाथी काबू में आ जाता है । क्या हाथी अंकुश जितना ही था । घनघोर अंधकार होता है, एक दीया जलता है, प्रकाश हो जाता है, अंधेरा भाग जाता है। क्या दीए जितना ही अंधेरा था ? दीए की पतली सी बाती जलती है—अंधेरा हट जाता है, नामोनिशान भी मिट जाता है । पर्वत कितना विशालकाय, कितना लम्बा-चौड़ा, कितना ऊंचा होता है । चट्टानें ही चट्टानें, पत्थर ही पत्थर, बड़ा भायानक होता है । वज्र छोटा-सा होता है । वह जब आकर गिरता है तो पहाड़ चूर-चूर हो जाता है । क्या पर्वत वज्र जितना ही है ? कवि कहता है जिसमें तेज है, वह बलवान होता है । तेज को देखो, स्थूलता को मत देखो । स्थूलता में विश्वास मत करो, नहीं तो धोखा खा जाओगे । आज के वैज्ञानिक युग ने इस सचाई को बहुत पकड़ लिया । उसमें स्थूल की शक्ति निरस्त हो गयी है। आज का युग परमाणु का युग है । आज के युग में जीने वाला आदमी परमाणु की शक्ति से बहुत परिचित है । वह परमाणु शक्ति को जान चुका है। वह परख चुका है कि सूक्ष्म में कितनी ताकत होती है । जब अणुबमों का विस्फोट हुआ और होता है तब आदमी उस सूक्ष्म की शक्ति का साक्षात् करता है । प्राण की शक्ति जैसे- जैसे सूक्ष्म होती चली जाती है वैसे-वैसे उसकी क्षमता और कार्यशक्ति भी बढ़ती चली जाती है । ध्यान की साधना प्राण की शक्ति को सूक्ष्म करने की साधना है । एक आदमी एक मिनट में १५, १६, १७ श्वास लेता है और तनाव की अवस्था होने पर २०, २५, ५० तक भी संख्या चली जाती है । प्राण की शक्ति स्थूल हो जाती है । इसका अर्थ यह हुआ कि श्वास की संख्या जितनी बढ़ती है शक्ति, उतनी ही खर्च होती चली जाती है। श्वास की संख्या जितनी कम होती है, उतनी ही शक्ति बढ़ती चली जाती है । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणशक्ति का आध्यात्मिकीकरण | ४१ ध्यान करने वाला व्यक्ति, महाप्राण की साधना करने वाला व्यक्ति, प्राण की शक्ति को कम करता चला जाता है । सूक्ष्म करता चला जाता है | एक मिनट में १२, १०, ८, ६, ४, २, १ । एक मिनट में एक श्वास और दो मिनट में एक श्वास चलता चले । चलते-चलते यह स्थिति आएगी कि पन्द्रह दिनों में एक श्वास, एक महीने में एक श्वास । यह बहुत बड़ा रहस्य हमारे सामने है। _ जैन आगम समवायांग सूत्र का अध्ययन करने वाला व्यक्ति इस रहस्य को पकड़ सकता है । इस ग्रन्थ में देवताओं के आयुष्य की चर्चा की गई है। एक सागर का आयुष्य दो, तीन, चार यावत् तेंतीस सागर का आयुष्य । सागर काल की अवधि की संज्ञा है । इस आयुष्य के साथ-साथ देवताओं के श्वासोच्छ्वास की अल्पता भी बराबर चलती रहती है । जैसे-जैसे श्वासोच्छ्वास की मात्रा घटती जाती है, आयु बढ़ती चली जाती है । पन्द्रह दिन से श्वास, एक महीने से श्वास, दो महीने से श्वास, चार महीने से एक बार श्वास, छह महीने में एक बार श्वास, जैसे-जैसे श्वास की संख्या घटती जाएगी, दूरी बढ़ती चली जाएगी, वैस ही आयु बढ़ती चली जाएगी । इसका अर्थ है कि शक्ति खर्च होनी कम होती चली जाएगी । यह महाप्राण की साधना है। महाप्राण की साधना करने वाला व्यक्ति शक्ति का अक्षय भण्डार बन जाता है । अपनी शक्ति को इतना विकसित कर लेता है कि वह अनेक दिशाओं में उसका जैसे चाहे वैसे उपयोग कर लेता है । जिसके पास शक्ति है ही नहीं वह उसका क्या उपयोग करेगा ? | मूल बात है शक्ति का भंडार होना चाहिए, शक्ति का संचय होना चाहिए। जो प्राण की साधना को नहीं जानता वह शक्ति का संग्रह नहीं कर सकता । शक्ति आती है और चुक जाती है, संचय कभी होता ही नहीं । पर शक्ति-संचय की बात को अहिंसा के परिप्रेक्ष्य में भी सोचें । अहिंसा प्राणशक्ति का आध्यात्मिकीकरण है । कुछ लोग कहते हैं—अहिंसा की प्रतिष्ठा होनी चाहिए, क्योंकि वह समाज के लिए बहुत जरूरी है । अगर अहिंसा न रहे तो समाज कैसे चलेगा? मुझे लगता है कि यह तर्क मूलतः ठीक नहीं है । समाज के लिए अहिंसा जरूरी होगी, किन्तु अहिंसा व्यक्तिव्यक्ति के लिए भी जरूरी होगी। अगर अहिंसा नहीं है तो व्यक्ति शक्तिशाली Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता कैसे बनेगा ? व्यक्ति को शक्तिशाली बनने के लिए अहिंसा की जरूरत है। अहिंसा नहीं है तो जो शक्ति आयी वह हिंसा के द्वारा खर्च हो गई । हिंसक व्यक्ति सोचता है कि दूसरे की शक्ति को खर्च कर दूं, किन्तु अपनी शक्ति चुक जाती है। दूसरों की निन्दा करने वाला, चुगली करने वाला, ईर्ष्या करने वाला, जलने वाला, मन मे दाह रखने वाला व्यक्ति अपनी शक्ति के भंडार को विकसित नहीं कर सकता । दूसरों के प्रति बुरे विचार के रखने वाला कोई भी अपनी शक्ति के संग्रह को बढ़ा नहीं सकता । ये सारे शक्ति के चुकने के कारण हैं, न होने के कारण हैं । अहिंसा का उपदेश समाज के कल्याण के लिए किया गया हो, यह शायद दूसरी बात हो सकती है। पहली बात है कि अहिंसा के बिना व्यक्ति शक्तिशाली नहीं बन सकता । यह रहस्य समझ में आ जाए तो अहिंसक बनना बहुत आसान बात है । दूसरों के कल्याण के लिए कोई आदमी सोचे या न सोचे, अपने कल्याण की बात तो सोच सकता है और इस सचाई को स्वीकार कर सकता है कि अहिंसा इसलिए जरूरी है कि उससे हमारे व्यक्तित्व का विकास होता है । कुछ दिन पहले आचार्यवर के पास कुछ भाई बैठे थे । उन्होंने कहा कि यदि ब्रह्मचर्य का सिद्धान्त मान्य हो गया तो सारी सृष्टि समाप्त हो जाएगी । रेलवे कर्मचारी थे। बड़ी चिन्ता प्रकट की । आचार्यश्री ने कहा -- सृष्टि समाप्त हो जाएगी, नहीं होगी, इसकी चिन्ता आप छोड़ दें। पहले ब्रह्मचारी बनकर तो देखें । बहुत बार सचाई को हम तर्क में उलझा देते हैं । ब्रह्मचारी रहा नहीं जाता और चिन्ता होती है सृष्टि के समाप्त हो जाने की । सृष्टि तो कब समाप्त होगी पता नहीं, पर अब्रह्मचर्य के द्वारा आपकी शक्ति तो समाप्त हो ही जाएगी । ब्रह्मचर्य का उपदेश इसलिए दिया गया कि व्यक्ति की शक्ति खर्च न हो । शक्ति का अर्जन और शक्ति का विसर्जन भी चलता रहे । यह कैसे हो ? अर्जन और विसर्जन के बीच तीसरी बात होती है सुरक्षा की, रक्षण की, संरक्षण की । कुछ लोग सेविंग करना जानते ही नहीं, जितना कमाया उतना ही खर्च कर दिया । चिन्ता की कोई बात नहीं, रात को डर भी नहीं कि कोई चोरी हो जाए । बिलकुल निश्चित हैं । उस स्थिति में कोई बड़ा Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणशक्ति का आध्यात्मिकीकरण | ४३ काम नहीं हो सकता | बड़े काम के लिए, बड़े विकास के लिए, बड़ी शक्ति की जरूरत होती है । उसके लिए शक्ति बचाने की, संग्रह करने की, भंडार को भरने की जरूरत होती है | ब्रह्मचर्य का सिद्धान्त इसीलिए प्रतिपादित किया कि व्यक्ति शक्ति को खर्च न करे | कुछ लोग बहुत उलझ जाते हैं । आज के डॉक्टर भी उलझ जाते हैं । वे कहते हैं-वीर्य का कोई मूल्य नहीं हमारी दृष्टि से । वीर्य का मूल्य नहीं होगा उनकी दृष्टि में, उन्होंने उसका रासायनिक विश्लेषण किया होगा । किन्तु इस बात का तो मूल्य है कि प्रत्येक अब्रह्मचर्य की घटना के साथ बिजली भी खर्च होती है । बिजली बाहर जाती है। बिजली खर्च होती है और आदमी बिजली से शून्य होता है। सबसे बड़ी सुरक्षा करनी है—प्राण विद्युत् की । हमारी बिजली कम खर्च हो, उसका संग्रह रख सकें, उसका बड़ी दिशाओं में उपयोग कर सकें। विद्युत के बिना चेतना के केन्द्रों को सक्रिय नहीं किया जा सकता और चेतना के केन्द्रों को सक्रिय किये बिना कोई भी विशिष्टता प्राप्त नहीं की जा सकती। __जयंति ने भगवान् महावीर से पूछा---'भगवन् ! जीवों का सोना अच्छा है या जागना अच्छा है ?' भगवान् महावीर ने उत्तर दिया- 'सोना भी अच्छा है और जागना भी अच्छा है। "भंते ! दोनों बातें कैसे ?' 'जो लोग झगड़ालू हैं, हिंसक हैं, झूठ बोलने वाले हैं, चोरी करने वाले हैं, पाप का आचरण करने वाले हैं वैसे लोगों का सोते रहना अच्छा है जो अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय, ध्यान आदि द्वारा सदाचार में रहने वाले हैं उनका जागना अच्छा है। ___ हमारे शरीर में भी दोनों प्रकार की बातें मिलती हैं । नाभि के नीचे जो चेतना के केन्द्र हैं, उनका सोते रहना अच्छा है और नाभि के ऊपर सिर तक जो चेतना के केन्द्र हैं, उनका जागना अच्छा है । किन्हीं का सोना अच्छा है और किन्हीं का जागना अच्छा है । हमारे शरीर में दोनों बातें हैं । हमारे कुछ केन्द्र सोये रहें और कछ केन्द्र जागते रहें । प्राण की ऊर्जा को संगृहीत करना और उस ऊर्जा का आध्यात्मिकीकरण करना, यह अपेक्षित है । आध्यात्मिकीकरण का अर्थ है—नीचे के केन्द्रों में Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता ऊर्जा का न रखना, उस ऊर्जा को ऊपर के केन्द्रों में ले जाना । यह आधत्मिकीकरण की प्रक्रिया है । यह कैसे होगा, पूछा जा सकता है । कैसे संभव होगा कि नीचे के केन्द्र तो न जागें और ऊपर के केन्द्र जाग जाएं । यह बहुत सरल प्रक्रिया है | इसे हम समझें । ऊर्जा के ऊर्ध्वकरण के दो मुख्य साधन हैं : १. श्वास लेने की समुचित प्रक्रिया का अभ्यास २. चित्त को लम्बे समय तक एक बिन्दु पर टिकाए रखने का अभ्यास । बुरा नहीं मानेंगे, आदमी बूढ़ा हो जाने पर भी श्वास लेना नहीं जानता। कभी-कभी ऐसा होता है कि बेटा दस वर्ष का होता है, पोता बीस वर्ष का हो जाता है और दादा पालने में ही झूलता है । अजीब-सी बात लगती है, पर ऐसा होता है । बूढ़ा आदमी पालने में ही झूलता है, वह श्वास लेना भी नहीं जानता। प्रेक्षाध्यान के प्रति जो एक रुचि जागी है लोगों में, उसका एक कारण यह है कि जो व्यक्ति प्रेक्षाध्यान करने आता है, वह सबसे पहले श्वास लेना सीख लेता है । हम शिविरार्थियों को सबसे पहले यही पूछते हैं कि आप श्वास लेना जानते हैं या नहीं जानते ? लोग अचम्भा करते हैं कि यह भी कोई पूछने की बात होती है ? बड़ा अचम्भा होता है । वे कहते हैं—हम श्वास तो लेते ही हैं । यह भी कोई जानने और पढ़ने की बात है ? तब हम पुनः पूछते हैं—सही ढंग से श्वास लेना जानते हैं या नहीं? वे कहते हैं—श्वास लेने में सही और गलत क्या ? प्रेक्षा की प्रक्रिया में श्वास की भी एक कसौटी है । वह यह है कि श्वास लेते समय नाभि के आस-पास की मांसपेशियां फूलती हैं तो श्वास ठीक आता है । और यदि श्वास लेते समय केवल फेफड़ा फूलता है तो श्वास गलत आता है । बहुत कम लोग सही श्वास लेना जानते हैं । वे छोटी सांस लेते हैं। कभी सांस लेने का अभ्यास ही नहीं किया, सीखा ही नहीं, फेफड़ा भी नहीं फूलता तो मांसपेशियां कैसे फूलेंगी ? वहां तक सांस पहुंचेगा कैसे ? नहीं पहुंचेगा । जो सांस लेना ठीक ढंग से नहीं जानता, वह प्राण को विकसित नहीं कर सकता । प्राण की शक्ति सांस के साथ नथुनों के द्वारा भीतर जाती है और फिर नथुनों के द्वारा ही बाहर आती है | जो सांस को ठीक लेना नहीं जानता, वह प्राण का संग्रह कर नहीं सकता । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणशक्ति का आध्यात्मिकीकरण | ४५ पहली शर्त है श्वास लेने का सही ज्ञान होना जरूरी है । जब श्वास लेने का सही ज्ञान होता है तो मन के एकाग्रता की समस्या भी हल हो जाती है। सभी क्षेत्र, सभी काल और सभी प्रकार के व्यक्तियों की एक ही शिकायत है कि मन टिकता ही नहीं । कुछ भी करने बैठते हैं, मन घूमने लग जाता है । प्रवृत्ति चाहे सांसारिक हो या धार्मिक, मन चक्कर काटता रहता है । एक बिन्दु पर एकाग्र होता ही नहीं। इस विषय में हमारी धारणा गलत है | मन बेचारा घूमता ही नहीं, कहीं जाता ही नहीं । हमने विपरीत मान रखा है कि मन घूमता रहता है । हमें कहना यह चाहिए कि मन बिलकुल घूमता ही नहीं । मन तो टिका हुआ है। दोनों सचाइयों में इतनी ही बात समझनी होगी कि जिस व्यक्ति ने श्वास को ठीक लेना नहीं जाना वह व्यक्ति कहेगा कि मन टिकता ही नहीं और जिसने श्वास को ठीक लेना सीख लिया वह कहेगा कि मन कहीं जाता ही नहीं । दोनों का कहना सच है, कोई झूठा नहीं । अनेकान्त की भाषा है, अनेकान्त का दृष्टिकोण है, किसी को झूठा नहीं कह सकते । मन नहीं घूमता, यह सचाई है, मन घूमता है यह भी सचाई है । पर इस सचाई के आधार दो हैं—जिसका श्वास चंचल है, छोटा है, उसका मन नहीं टिकेगा और जिसका श्वास लम्बा है और लम्बा हो गया है, उसका मन कहीं भटकेगा नहीं। निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है जिस व्यक्ति ने मन को एकाग्र करना सीख लिया, श्वास का संयम करना सीख लिया, वह फिर जहां चाहे वहां प्राण-ऊर्जा का उपयोग कर सकता है। __ कोई साधक चाहे कि भूकुटि के बीच प्राण-ऊर्जा को टिकाना है तो उसका मन भी टिक जाएगा, प्राण-ऊर्जा भी टिक जाएगी और वहां पूरी प्रक्रिया शुरू हो जायेगी, अपने आप वहां का चैतन्य केन्द्र सक्रिय हो जायेगा और अपनी शक्ति का विस्फोट करने लग जाएगा । . __ यह प्राण की प्रक्रिया, प्राण-उर्जा के विकास की प्रक्रिया, प्राण का आध्यात्मिकीकरण, बिजली को आध्यात्मिक बना देना, यह साधना का रहस्य है। शरीर को चलाना, व्यापार को चलाना, काम-धंधों को चलाना—इन सबमें बिजली खर्च होती है । केवल अध्यात्म में बिजली खर्च नहीं होती । साधुओं को इस बात का बहुत अनुभव हैं । जब किसी व्यक्ति को कहते हैं कि धर्म Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता की आराधना करो तो तत्काल उत्तर मिलता है कि समय नहीं है | मुझे भी कई बार ऐसा उत्तर सुनने को मिला है । मैंने एक व्यक्ति से कहा--और सब काम करने को समय है, नींद लेने को भी समय है, खाने को भी समय है, शौच जाने का भी समय है, बातचीत के लिए भी समय है, प्रत्येक काम के लिए समय है। ये सब काम की बातें हैं । निकम्मा काम तो है धर्म की आराधना करना । उसे करने के लिए तुम्हारे पास समय नहीं है। एक रोगी ने कहा—डॉ० साहब ! आप फीस बहुत लेते हैं। डॉक्टर ने कहा—ठीक बात है, पर मुझे लगता है कि तुम जीवन का मूल्य कम आंकते हो । जीवन के सामने फीस कुछ भी नहीं है । धर्म की आराधना के सामने समय का कोई मूल्य नहीं है । किन्तु हमने अब तक यही मान रखा है कि जीवन में और सब काम जरूरी, अनिवार्य और आवश्यक हैं, केवल अपने व्यक्तित्व का निर्माण सबसे निकम्मा काम है । उसके लिए हमारे पास कोई समय नहीं है | जब तक यह दृष्टिकोण नहीं बदलेगा, व्यक्ति अपने जीवन के बारे में नहीं समझ पाएगा, तब तक सही मूल्यांकन नहीं होगा और प्राण का आध्यात्मिकीकरण भी नहीं होगा । जिस दिन प्राण को आध्यात्मिक बनाने की प्रक्रिया हमारी समझ में आ जाएगी, हम उसका अभ्यास शुरू करेंगे, प्राणशक्ति का संग्रह शुरू करेंगे और फिर उसका जीवन के ऊर्ध्वगमन में, ऊंचे-ऊंचे स्थानों के विकास में उपयोग करेंगे, नाभि से ऊपर के केन्द्रों को विकसित करने में उस शक्ति को लगाएंगे तो एक अनुपम आनन्द, निर्मल चेतना, शक्तिशाली प्रज्ञा हमारे व्यक्तित्व में जागेगी और ऐसे व्यक्तित्व तैयार होंगे जिनकी आज के इस कलह-प्रधान, क्रोध-प्रधान, अधैर्य-प्रधान मानवीय सभ्यता में सबसे ज्यादा अपेक्षा है | आज के युग में निरन्तर हिंसा, मार-काट, हत्याएं, आत्महत्याएं और नाना अपराधों का विकास हो रहा है, नींद कम होती जा रही है, स्मरणशक्ति कम होती जा रही है, आंतरिक शक्तियां और सहिष्णुता की शक्ति कम होती जा रही है, धैर्य का लोप होता जा रहा है | इस प्रकार के युग में यदि समस्याओं का समाधान पाना है तो प्राणशक्ति का विकास और उसका आध्यात्मिकीकरण हमारे लिए नितांत अनिवार्य है। . Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतना का रूपांतरण : १ हमारी जीवन-यात्रा शाश्वत और अशाश्वत के बीच चल रही है । ऐसा कोई भी शाश्वत नहीं है जो अशाश्वत से भिन्न हो और ऐसे कोई भी अशाश्वत नहीं है जो शाश्वत से भिन्न हो । एक द्रव्य ही ऐसा है जो शाश्वत होता है । उसका अस्तित्व त्रैकालिक होता है । वह देशातीत और कालातीत होता है । किन्तु कोरा द्रव्य नहीं मिलता । प्रत्येक द्रव्य पर्याय के वलय से घिरा हुआ है । एक चक्र है पर्यायों का, रूपान्तरणों का । वहं निरन्तर चलता रहता है । शाश्वत और अशाश्वत को एकान्ततः बांटा नहीं जा सकता । वे दोनों इतने घुले-मिले हैं कि अशाश्वत को छोड़कर शाश्वत को नहीं देखा जा सकता और शांश्वत को छोड़कर अशाश्वत को नहीं समझा जा सकता, उसकी व्याख्या नहीं की जा सकती। ___ हमारा अस्तित्व और व्यक्तित्व इस शाश्वत और अशाश्वत की सीमा से बंधा हुआ है। हर व्यक्ति जिस क्षण में जन्म लेता है उसी क्षण से मरना प्रारम्भ कर देता है । जन्म से लेकर मृत्यु तक वह असंख्य पर्यायों में से गुजरता है । हम उनमें से स्थूल पर्यायों को ही पकड़ पाते हैं । हम जानते हैं—यह बालक हुआ, यह युवा हुआ, यह प्रौढ़ हुआ, यह बूढ़ा हुआ और यह मर गया । ये चार-पांच स्पष्ट पर्याय ही हमें ज्ञात हैं । कुछ आचार्यों ने मनुष्य की दस अवस्थाओं का उल्लेख किया है। उन्होंने सौ वर्ष की आयु के अनुपात से दस-दस वर्ष की दस अवस्थाएं बतलाई हैं । वे दस अवस्थाएं ये हैं—बाला, क्रीड़ा, मंदा, बला, प्रज्ञा, हायिनी, प्रपञ्चा, प्रारभारा, मृन्मुखी, शायिनी । ये सारी स्थूल अभिव्यक्तियां हैं । स्थूल जगत् में सौ वर्ष के आयुष्य वाले व्यक्ति की अवस्थाएं असंख्य हो जाती हैं | उनकी संख्या नहीं हो सकती, उनका Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ | मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता निर्वचन नहीं हो सकता | शब्द सीमित हैं । प्रत्येक घटना और प्रत्येक अवस्था का निर्वचन करने वाले शब्द हमारे पास नहीं हैं । दिन में एक व्यक्ति लाखोंकरोड़ों अवस्थाओं में जी लेता है । प्रतिक्षण अवस्था बदलती रहती है । कोई भी ऐसा क्षण नहीं होता, जिसमें अवस्था का परिवर्तन न होता हो । उन सारी अवस्थाओं को अभिव्यक्ति देने वाले शब्द हैं कहां ? हम व्यक्त अवस्थाओं को पकड़ते हैं, स्थूल रूपान्तरणों को जानते हैं। उनको हम स्थूल भाषा के माध्यम से स्थूल अभिव्यक्ति देते हैं । किन्तु जब सूक्ष्म जगत् को जानें तो वहां का लेखा-जोखा इतना विचित्र है कि वहां भाषा भी समाप्त हो जाती है और सभी शब्दकोशों के सारे शब्द अकर्मण्य बन जाते हैं । उनको अभिव्यक्ति देने वाला कोई शब्द प्राप्त नहीं होता | इतना होने पर भी हम सूक्ष्म जगत् की चर्चा इसलिए कर रहे हैं कि हम सूक्ष्म परिवर्तनों को जान सकें और सूक्ष्म परिवर्तन की प्रक्रिया को पकड़ सकें। सबसे पहले हमें यह स्थूल शरीर दिखाई देता है । यह शरीर केवल स्थूल पदार्थों का ही पिण्ड नहीं है । इस शरीर के साथ सूक्ष्म जगत् का घना सम्बन्ध है । हम बाहर की चमड़ी को देखते हैं । हमारा उससे सम्बन्ध जुड़ जाता है और हम वहीं अटक जाते हैं। यदि कोई व्यक्ति चमड़ी को या अन्य अवरोधकों को पार कर भीतर प्रवेश करे तो उसे ज्ञात होगा कि भीतर में सूक्ष्म जगत् इतना विराट् है कि जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। एक प्रोफेसर ने अभी-अभी पूछा था- 'क्या आपका योग पातंजल योग के आधार पर है ?' मैंने कहा- 'उत्तर देना कठिन है । पातंजल योग भी एक प्रणाली है और प्रेक्षा ध्यान भी एक प्रणाली है । यह किस ग्रन्थ पर आधारित है, यह बता पाना मेरे लिए कठिन है । इसलिए कठिन है कि ग्रंथों के आधार पर या किसी विशेष ग्रन्थ के आधार पर योग को समझा नहीं जा सकता । जितने पुराने ग्रन्थ है उनमें सांकेतिक भाषा बहुत हैं, स्पष्टताएं कम हैं । हमने विज्ञान के माध्यम से जो कुछ बातें समझी हैं, वे बातें पुराने ग्रन्थों के आधार पर नहीं समझी जा सकतीं। फिर चाहे वह पातंजल योग दर्शन हो या अन्य कोई योग का ग्रन्थ हो । शरीर के विषय में ध्यानी योगियों ने बहुत चर्चाएं की हैं, पर वर्तमान Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतना का रूपान्तरण :: 9 | ४९ शरीर शास्त्रीय चर्चाओं के परिप्रेक्ष्य में वे चर्चाएं अप्पर्याप्त-सी लगती हैं। आजा शरीरशास्त्र ने शरीर के इतने तथ्य अनावृत किए हैं, जिन्नका जनावरप्या प्राचीन काल में नहीं हुआ था । जब से जीवाणु का सिद्धान्त, जीवन और प्रोमोसोम का सिद्धान्त, डी० एन० ए० आदि रसायनों का सिद्धान्त सामने आया है, उससे सूक्ष्म जगत् की अद्भुत परिकल्पनाएं प्रस्त हुई हैं । पच्चीस हजार जीया ज्ञात कर लिये गए हैं। इन जीवाणुओं के 'जीन' के माध्यम से विलक्षण कार्य सम्पन्न किए जा सकते हैं। आज जीवन की ऐसी शृंखला ज्ञात कर ली गई है, जिससे आदमी की बदला जा सकता है, स्वभाव और जीवन को बदला जा सकता है, मस्त को बदला जा सकता है । 'बायोटेक्नोलॉजी' और 'जीन इंजीनियरिंगा' के माध्यम से नयी-नयी अवधारणाएं सामने आने लगी हैं। ये जानकारियां प्राचीन ग्रन्थों में बहुत कम हैं । यह एक सर्वथा नया क्षेत्र उद्ध्याटित हुआ है । आज शरीर के इतने रहस्य, इतनी सूक्ष्म पद्धत्तियां और इसने नियम ज्ञात हो गए हैं कि उन सबके आधार पर परिवर्तन्न और रूपान्तरणा समत्त हो गया है। जीन के रूपान्तरण का अर्थ होता है पूरे व्यक्तित्व का रूपान्तरप्पा । एक जीन बदलता है और उस आनवंशिकी यांत्रिकी के द्वारा प्तरंगी जाति का स्वभाव ही बदल जाता है । यह परिवर्तन की बात सर्वथा नयी नहीं है, किन्तु उसकी विशद व्याख्या और विशद जानकारी आज हमें उपलब्ध है || इसीलिए मौन्ने कहा कि मैं किसी पुराने ग्रन्थ का आग्रह नहीं रखत्ता । याह नहीं कहता कि हमारी साधना उसी के आधार पर चले, किन्तु वर्तमान्न की जानकारी और वर्तमान के विकास के माध्यम से हम आगे बढ़े। इस्सस्से हम अधिक लाभान्वित हो सकते है । केवल दृष्टिकोण का अन्तर होता है । एक शारीरशास्त्री और मानसशास्त्री परिवर्तन की बात भौतिक सीमा के अन्तर्गत्ल सोन्यता है और एक अध्यात्मशास्त्री उसे भावतरंगों की सीमा में ले जाता है || यह शरीर कुछेक रसायनों से निष्पन्न पिंड है । प्राचीन्स भाषा में इसे सप्तधातुमय माना जाता है। आज यह मान्यता त्यदल्म युकी है। ज्यादा का शरीरशास्त्री शरीर को धातु, लवण, क्षार और रस्साव्यमों से छान्मा हुमा मासत्ता है। इसकी प्रक्रिया बहुत जटिल है, गहरी है। इस शारीर में एन्जाइप्स., रस्सास्थ्यम, Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता हारमोन्स काम करते हैं, इनकी सक्रियता से आदमी के व्यक्तित्व का, भाव का और विचार का निर्माण होता है । इस पूरी प्रक्रिया को समझ लेने के बाद साधना की बात ठीक समझ में आ जाती है । कहना यह चाहिए कि जिस व्यक्ति ने शरीर को समझने का प्रयल नहीं किया, वह न आत्मा को समझ सकता है और न परमात्मा को समझ सकता है । वह मनुष्य और प्राणी जगत के सम्बन्ध को भी नहीं समझ सकता । कुछेक व्यक्ति आते हैं और सीधा पूछते हैं—आत्मा क्या है ? परमात्मा क्या है ? मैं कहता हूं, आत्मा को जानना है, परमात्मा को जानना है तो सबसे पहले अपने शरीर को जानो । जब तक तुम अपने शरीर को नहीं जान सकोगे, तब तक न आत्मा को जान सकोगे, न परमात्मा को जान सकोगे । यह बहुत आगे की बात है । पहले शरीर को जानो । यह प्रवेशद्वार है । यदि हम इसमें अच्छी तरह से प्रवेश पा लेते हैं तो आत्मा-परमात्मा तक पहुंचने की संभावना कर सकते हैं । यदि प्रवेशद्वार में ही अटक जाते हैं तो फिर अंदर जाने का प्रश्न ही नहीं होता। प्रेक्षा ध्यान का घोष है— 'आत्मा के द्वारा आत्मा को देखो ।' यह घोष प्रश्न पैदा करता है—आत्मा को कहां देखें ? देखने वाला द्रष्टा भी अमूर्त और दृश्य भी अमूर्त । यह कैसा योग? यह प्रश्न होता है, संदेह होता है । पर हम इसे समझें । श्वास को देखना आत्मा को देखना है, शरीर को देखना आत्मा को देखना है । यह प्रेक्षा की प्रक्रिया आत्म-दर्शन की प्रक्रिया है । जिसने श्वास को नहीं देखा, वह आत्मा को नहीं जान सकता । जिसने शरीर को नहीं देखा, वह परमात्मा को, आत्मा को नहीं जान सकता । आत्मा-परमात्माये दो सूक्ष्म तत्त्व हैं । हमारी दृष्टि तो बहुत ही स्थूल है । क्या स्थूल से सूक्ष्म जाना जा सकता है ? कभी संभव नहीं। सूक्ष्म को सूक्ष्म के द्वारा ही जाना जा सकता है । स्थूल के द्वारा सूक्ष्म को जानने का प्रयास करना विरोधाभास है, विसंगति है | कभी सफल नहीं हो सकता । सूक्ष्म को जानने के लिए चित्त को सूक्ष्म करना होगा । जैसे-जैसे चित्त सूक्ष्म होता जाएगा, वैसे-वैसे चेतना स्थूलता से परे होकर सूक्ष्मता की सृष्टि में विचरण करने लगेगी और तब सूक्ष्म तत्त्व ज्ञात होते जाएंगे । आज सबसे बड़ी कठिनाई यही है कि आज का आदमी सूक्ष्म का अभ्यास किए बिना ही केवल शब्दों के द्वारा, केवल Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतना का रूपान्तरण : १/५१ तर्क-वितर्क के द्वारा, केवल वाणी के द्वारा उस महान् तत्त्व को जान लेना चाहता है । पर वह कभी नहीं जान पाता, सफल नहीं हो पाता । यदि कोरा तर्क हमारे हाथ में होता है तो सफलता मिलती नहीं, ध्येय प्राप्त होता नहीं। जब ध्येय प्राप्त नहीं होता है तो उसके दो परिणाम सामने आते हैं पहला है कलह और दूसरा है नास्तिकता । या तो वह परम तत्त्व के अस्तित्व को ही अस्वीकार कर देगा और कहेगा कि इतना खोजा, इतना प्रयत्न किया, पर मिला कुछ भी नहीं । अतः यह सारा बकवास है, मिथ्या है । वह नास्तिक बन जाएगा या वह वादविवाद में इतना उलझ जाएगा कि वह स्वयं आवेश में रहेगा और दूसरों को भी आवेश की स्थिति में ला देगा। सूक्ष्मता में जाने के लिए चित्त को सूक्ष्म करना अत्यन्त जरूरी है । प्रेक्षाध्यान की पूरी प्रक्रिया चेतना के सूक्ष्मीकरण की प्रक्रिया है । जब साधक श्वास के प्रति जागरूक होता है तब जो चित्त स्थूल बात को पकड़ रहा था, अब वह कुछ सूक्ष्म होने लगता है, कुछ एकाग्र होने लगता है और श्वास के स्पन्दनों को पकड़ने लगता है । संसार में दो ही तो अवस्थाएं हैं-द्रव्य और पर्याय—प्रकंपन । प्रत्येक पर्याय प्रकंपन है, कंपन है । आदमी प्रकंपनों से घिरा हुआ है । उसका पूरा व्यक्तित्व प्रकंपनों का व्यक्तित्व है | चारों ओर तरंग ही तरंग, प्रकंपन ही प्रकंपन, ऊर्मियां ही ऊर्मियां । यह प्रकंपनों का एक पिण्ड-सा है | पर्याय ही पर्याय हैं । द्रव्य को कभी देखा नहीं जा सकता, पकड़ा नहीं जा सकता। हम केवल पर्याय और प्रकंपनों को पकड़ते हैं। जब प्रकंपनों को पकड़ने की क्षमता विकसित हो जाती है तब उसका तात्पर्य होता है कि सूक्ष्म में प्रवेश करने की क्षमता आ रही है । श्वास के स्पन्दन, शरीर के स्पन्दन, शरीर में होने वाले रसायन, शरीर की विद्युत्-तरंगों के स्पन्दन- ये सारे सूक्ष्म हैं । साधक अभ्यास के द्वारा एक-एक कर इनको पकड़ने का प्रयास करता है । पहले श्वास के स्पन्दनों को पकड़ता है, फिर शरीर के स्पन्दनों को, फिर रसायनों को और फिर प्राण-तरंगों को समझने का प्रयत्न करता है। फिर वह भाव-तरंगों को, विचार-तरंगों को पकड़ने का प्रयास करता है और जानने लगता है कि कहां कौन-सी विचार-तरंगें उठ रही हैं, भाव तरंगें पैदा हो रही हैं आदि-आदि । फिर धीरे-धीरे वह कर्म-स्पन्दनों को पकड़ना प्रारंभ करता है । इन सारे स्थूल, सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता स्पन्दनों को पकड़ते-पकड़ते वह चेतना तक पहुंच जाता है, आत्मा तक पहुंच जाता है । यह प्रक्रिया है आत्मा के द्वारा आत्मा को देखने की । यह प्रक्रिया श्वास के परिस्पंदनों के ग्रहण से प्रारंभ होती है और धीरे-धीरे चैतन्य के सदनों तक पहुंच जाती है । यह मार्ग है आत्म-बोध का, आत्म-दर्शन का । ____ ध्यान और दर्शन दोनों पर्यायवाची शब्द हैं । ध्यान का अर्थ होता है दर्शन । 'ध्ये चिन्तायाम् धातु से निष्पन्न ध्यान शब्द का अर्थ होता है चिंतन करना । 'ध्यां दर्शन धातु से निष्पन्न का ध्यान शब्द का अर्थ होता है दर्शन | इस प्रकार ध्यान के दो अर्थ हो गए चिंतन और दर्शन । प्रेक्षाध्यान में ध्यान शब्द देखने के अर्थ में है, चिन्तन के अर्थ में नहीं है। ध्यान का अर्थ है साक्षात्कार । संस्कृत शब्दकोश में निध्यानं अवलोकन ऐसा मिलता है । अवलोकन अर्थात् दर्शन का पर्यायवाची है निध्यान, ध्यान । निध्यान का अर्थ होता अवलोकन करना, निरीक्षण करना । प्राचीन काल में 'दर्शन' शब्द से साक्षात्कार का ही बोध होता था। आज जो दर्शन पढ़ाया जाता है वह मात्र तर्कशास्त्रीय दर्शन है । उसमें साक्षात्कार का प्रवेश भी नहीं है । उसे दर्शन की अपेक्षा तर्कशास्त्र कहना उचित होता है । मैं उस प्राचीन दर्शन की बात कह रहा हूं जहां दर्शन का अर्थ था साक्षात्कार । उपनिषद् में एक सुन्दर रूपक आता है। ऋषि का अर्थ होता है द्रष्यदर्शनात् ऋषि । जो साक्षात्कार करता है वह होता है ऋषि । जब सब ऋषि जाने लगे तब पूछा गया ऋषियों के अभाव में क्या होगा ? उत्तर में कहा गया---ऋषि जा रहे हैं, हम अब तर्क को दे रहे हैं । यही अब सब कुछ करेगा। इसी से काम चलाओ। एक है ऋषि साक्षात् द्रष्य और एक है तर्क बौद्धिक व्यायाम । ऋषि चला गया, तर्क आ गया । तर्क ने ऋषि का स्थान ले लिया । आज आदमी के पास तर्क है, ऋषि नहीं है, साक्षात् दर्शन नहीं है। यदि हमारी दृष्टि स्पष्ट हो जाए कि तर्क और ऋषि, दर्शन और साक्षात द्रष्टा में बहुत दूरी है तो ध्यान का यथार्थ मूल्यांकन हम कर सकेंगे। ध्यान केवल दर्शन है। ध्यानकाल में सुझाव दिया जाता है कि केवल जानें, केवल देखें, केवल अनुभव करें। यहां केवल क्यों ? केवल शब्द Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतना का रूपान्तरण : १/५३ इसलिए कि कोरा ज्ञान बचे, संवेदन न रहे । कोरा ज्ञान, ज्ञान के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। कोरा जानना । जहां केवल अनुभव करना होता है, देखना होता है, वहां न स्मृति होती है, न कल्पना होती है और न चिन्तन होता है। वह है केवल दर्शन, कोरा साक्षात्कार है उसमें । सीधा सम्बन्ध जुड़ता है हमारा उसके साथ | जैसे-जैसे इस केवल दर्शन का विकास होगा, वैसे वैसे रूपांतरण की क्षमता अधिक अर्जित होती जाएगी और तब व्यक्ति बदलने में सक्षम हो जाएगा। - बदलना है । प्रत्येक व्यक्ति को बदलना है। बदले बिना जो हम चाहते हैं वह नहीं मिलता । न धर्म मिलता है, न आत्मा और परमात्मा ही मिलता है। कुछ भी नहीं मिलता । मन की शान्ति भी नहीं मिलती । बदलना जरूरी एक कौआ तेजी से उड़ता हुआ चला जा रहा था। पेड़ पर कोयल बैठी थी। उसने पछा“भैया! आज इतने उतावले क्यों हो रहे हो? क्या बात है ?" कौआ बोला—“बहन ! क्या कहूं? जहां भी जाता हूं दुत्कार मिलती है, उड़ा दिया जाता हूं, कहीं सत्कार नहीं मिलता । यहां मेरा कोई आदर नहीं करते, इसलिए मैं इस देश को छोड़कर विदेश जा रहा हूं | वहां मैं अपरिचित रहूंगा । सब मेरा सम्मान करेंगे। कोयल ने कहा—'भैया ! बात तो ठीक है | पर तुम विदेश जा रहे हो, तो अपनी बोली बदलते जाना | कांव-कांव को बदल देना । इसको बदले बिना विदेश में भी तुम्हें आदर नहीं मिलेगा। यहां जो तुम्हारे प्रति घृणा है, वह इस वाणी के कारण ही है। इस कर्कश और रूखी ध्वनि को बदल दो, फिर कहीं चले जाओ, सर्वत्र सम्मान होगा।" बदले बिना कुछ भी नहीं होता । यदि कुछ होना है तो बदलना होगा। कोयल के गले में हार देखकर कौवे का मन ललचा उठा उसने पूछा"बहन ! यह उपहार तुम्हें कहां से मिला?' उसने कहा—'मैं इन्द्रलोक में गई थी, वहां मैंने अपना माना सुनाया। मेरे गायन को सुनकर सुरपति प्रसन्न हुआ और उसने मुझे हार दिया है। कौवे को युक्ति पसन्द आ गई। उसने सोचा-कोरा गाना सुनाने मात्र से यदि हार मिलता है तो मैं भी जाऊं, गाना सुनाऊं और हार ले आऊं। वह उड़ा । सीधा स्वर्गलोक गया । इन्द्र से बोला Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता 'मैं भी भूलोक से आया हूं | गाना सुनाना चाहता हूं। पहले मेरी बहन आयी थी, अब मैं आया हूं।' इन्द्र ने देखा—भाई और बहन का रूप-रंग तो मिलताजुलता-सा है | पहले बहन आयी थी, बहुत सुरीला कण्ठ था । सुन्दर गाना सुनाया था। अब इसका गायन सुन लें । इन्द्र ने कहा-'अच्छा, अपना गाना सुनाओ ।' सारे देवगण एकत्रित हो गए। कौवे ने गाना शुरू किया । एक क्षण में ही सारे सहम उठे । वे चिल्ला उठे—'बन्द करो, बन्द करो, हमारे कान फट रहे हैं, स्वर्ग के सभी किनारे कांप उठे हैं।' इन्द्र ने कहा—'अरे ओ भूलोक के वासी ! बन्द करो अपना गाना | चले जाओ यहां से !' कौआ सकपका गया । हार तो नहीं मिला, तिरस्कृत हुआ । उसने इन्द्र से कहा'मैं जल्दी में था । अकेला ही यहां आ गया। साज-बाज लेकर नहीं आया । अन्यथा आप मेरे गायन पर मुग्ध हो जाते । मैं अभी भूलोक में जाता हूं। पूरा साज-सामान लेकर आता हूं।' इन्द्र ने पूछ लिया—'क्या साज-बाज है तुम्हारा ?' कौवे ने कहा 'खर प्रखर ध्वनि है जिसकी, ऊंट घोष निराला है । कुत्ते की तारीफ करूं क्या, जिसका स्वर मतवाला है। प्रभो ! मैं एक गधे, एक ऊंट और एक कुत्ते को स्वर्गलोक में ले आता हूं। इन सबके स्वरों के साथ मैं अपना स्वर मिलाकर गाऊंगा,तब आपको पूरे संगीत का मजा आएगा । आप तब देखेंगे कि क्या छटा बनती है और कैसे संगीत की स्वर-लहरियां उछलती हैं ।' इन्द्र ने कहा—'बस, रहने दो, रहने दो । चले जाओ यहां से । एक तुम्हारे स्वर से हमारा सारा देवलोक क्षुब्ध हो गया है । मैं धन्यवाद देता हूं मां पृथ्वी को जो तुम्हारे-तथा तुम्हारे साथियोंगधे, ऊंट, कुत्ते की बोलियां एक साथ सहती है । चले जाओ, यहां मत रहो !' कौवे ने सोचा कोयल ने ठीक ही कहा था कि बोली को बदले बिना जहां भी जाओगे, वहां से निकाल दिए जाओगे। आदर नहीं मिलेगा । बदलना जरूरी है। आत्मा को खोजने के लिए कहीं बाहर जाने की आवश्कयता नहीं है। परमात्मा की खोज के लिए कहीं भटकने की जरूरत नहीं है। दोनों आपके Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतना का रूपान्तरण : १/५५ पास हैं | सारे महान तत्त्व आपके पास हैं। उन्हें खोजने के लिए अन्यत्र जाना बेकार है । केवल बदलने की जरूरत है । यदि रूपांतरण घटित होता है तो सब कुछ यहीं प्राप्त हो जाता है । यदि बदलाहट नहीं होती है तो कहीं भी कुछ मिलने वाला नहीं है । बिना बदले कौआ. इन्द्रलोक में चला गया, पर मिला तिरस्कार ही। नोहर में मैं प्रवचन कर रहा था । विषय था-तीसरा नेत्र । प्रवचन पूरा हुआ | हम संतगण अपने स्थान पर जा रहे थे । एक स्थान पर एक प्रौढ़ महिला ने हमारा मार्ग रोक लिया | उसकी आंखों में आंसू थे । वह हाथ जोड़कर बोली- 'महाराज ! म्हारी तीजी आंख खोल दो । म्हने सांवरिये रा दर्शन करा दो ।' उस समय वह सहज भाव-मुद्रा में थी। स्वाभाविकता और सहजता उसके मुख से टपक रही थी। कहीं कृत्रिमता नहीं थी | मैंने पूछा'क्या चाहती हो ?' उसने कहा—संसार में सब कुछ है । अब मैं सांवरिये रा दर्शन करना चाहूं हूं । म्हारी तीजी आंख खोल दो । म्हारो तीजो नेत्र उघाड़ दो । थे संत हो । देरी मत करो । एक बार सांवरिये रा दर्शन कराय दो । मैं जनम-जनम में थांरो उपकार कोनी भूलूं ।' ___मैंने उसकी तरफ देखकर पैर रोके । मैंने कहा- 'बहन ! तुम्हारे दो आंखें हैं । जब तक ये दोनों आंखें बन्द नहीं होंगी तब तक तीसरी आंख खुलेगी नहीं । और जब तक तीसरी आंख खुलेगी नहीं, तब तक सांवरिये के दर्शन नहीं होंगे ।' उसने पूछा-'महाराज ! ये दोन्य आंख्यां बंद कियां करूं?' मैंने कहा- 'देखो, हमारी एक आंख है प्रियता की और दूसरी आंख है अप्रियता की । इस संसार में या तो प्रियता की आंख से देखते हैं या अप्रियता की आंख से देखते हैं । दो ही संवेदन होते हैं हमारे । एक है प्रियता का संवेदन और दूसरा है अप्रियता का संवेदन । इसके अतिरिक्त कुछ नहीं देखते । यदि तुम आज से प्रियता की आंख को भी बन्द कर लो और अप्रियता की आंख को भी बन्द कर लो और तीसरी आंख जो समता की है उसे खोल दो, सांवरिया पास में खड़ा दिखाई देगा | इन दो आंखों के बन्द होने पर तीसरी आंख अपने आप खुल जाएगी उसे खोलने के लिए प्रयत्न नहीं करना पड़ेगा। दो आंखों को बंद करने का प्रयत्न अवश्य करना होगा, पर तीसरी आंख के उद्घाटन Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६. // मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता के लिए कोई प्रयत्न नहीं करना होगा। वह अपने आप खुलेगी। उसके खुलते ही सब कुछ भगवानमय लगेगा। अलग से भगवान को प्राप्त करने की आतुरता मिट जाएगी | भगवान का साक्षात्कार स्वयं हो जाएगा। इस प्रकार के साक्षात्कार में न आवेग की जरूरत है और न आंसुओं की और न धर्म की ।" आज कठिनाई यही है कि आदमी भगवान् को देखना चाहता है, आत्मा को साक्षात् करना चाहता है, पर चाहता है कि इन्हीं दो आंखों से भगवान् को देखूं, आत्मा का साक्षात्कार करूं । प्रियता और अप्रियता की आंख से भगवान कभी नहीं दिखेगा। इन दो आंखों के अतिरिक्त आदमी तीसरी आंख को जानता नहीं। तीसरी आंख है समता की। वहां न प्रियता बसती है और न अप्रियता रहती है। वहां समत्व का साम्राज्य होता है। प्रियता और अप्रियता की भाव- तरंगों से मुक्त होकर जो देखता है वही वास्तव में आत्म-साक्षात्कार करता है । जब तक इस तीसरी आंख की सत्यता स्वीकृत नहीं होती तब तक आत्म-साक्षात्कार की बात वाग्मात्र रह जाती है, वह मूर्त नहीं बनती । हम बदलें । प्रश्न होता हैं क्या बदलें ? हम अपने स्वभाव को बदलें । हमारें स्वभाव का एक पर्याय है चंचलता । आदमी बहुत चंचल होता है । चंचलता के लिए बंदर प्रसिद्ध है, पर आदमी की चंचलता कम नहीं है। वह जितना चंचल और व्यग्र होता है, बंदर उसकी तुलना में कुछ भी चंचल नहीं होता । आदमी एक दिन में, एक घंटे में जितने रूप बदलता है, एक क्षण में जितने रूपांतरण होते हैं, वे बंदर में कहां होते हैं ? प्रातःकाल आदमी का एक रूप होला है, मध्याह्न होते-होते वह दूसरा रूप धारण कर लेता है और सायं वह आमूलचूल परिवर्तन कर लेता है। वह प्रातः काल किसी को मित्र मानता है, मध्याह्न में उसे ही शत्रु मान लेता है। आदमी एक दिन में, एक घंटे में हजारों परिवर्तन कर लेता है। ये सारे आन्तरिक भाव-परिवर्तन हैं । इनसे मुद्राएं भी भिन्न हो जाती हैं। इन भाव - परिवर्तनों के कारण ही मुद्राओं में भिन्नता आती है और फिर फोटो भी भिन्न आते हैं । पहचाना ही नहीं जा सकता कि ये दोनों फोटो एक ही व्यक्ति के हैं । इतना भेद हो जाता है उनमें । हमारे भीतर परिवर्तन का एक अजस्र चक्र घूम रहा है। वह निरंतर Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतना का रूपान्तरण : १/५७ घूमता रहा है। क्षणभर के लिए भी नहीं रुकता । जैसे-जैसे भीतर में भावधारा बदलती जाती है, वैसे-वैसे बाहरी परिवर्तन भी घटित होता जाता है । आकृति भी बदल जाती है। यह सारा परिवर्तन होता है चंचलता के कारण | चंचलता एक स्वभाव है। दूसरा स्वभाव है—आवेश | आदमी बात-बात में आवेश कर बैठता है । वह धीरे-धीरे आदत बन जाती है | इसका कोई भी अपवाद नहीं है। वह आदत इतनी गहरी हो जाती है कि बात मिठास से प्रारंभ होती है, पर होते-होते कटुता आनी प्रारम्भ हो जाती है । और तब पारिवारिक, वैयक्तिक और कौटुम्बिक समस्याएं उभर आती हैं । बात शुरू होती है शीतलता से और उसका अन्त होता है गरमागरमी से । शीतलनाद से प्रारम्भ और लट्ठनाद से अन्त । यह सब आवेश के कारण होता हैं | आवेश भी एक स्वभाव-सा बन गया है। तीसरा स्वभाव है--प्रमाद-विस्मृति । भुलक्कड़पन भी एक स्वभाव-सा हो गया है | आदमी इतनी जल्दी भूल जाता है कि उसे कुछ भी याद नहीं रहता । यह विस्मृति अजागरूकता का परिणाम है | प्रमाद के कारण ऐसा होता है । इसको हम 'काई' की उपमा दे सकते हैं। एक बड़ा तालाब था । वह शैवाल-काई से भरा हुआ था । उसमें एक कछुआ था । एक बार हवा के झोंके से काई हटी, कछुए ने ऊपर देखा। रात का समय था । पूर्णिमा का दिन । पूरा चंद, जगमगाते तारे । इस दृश्य से वह इतना अभिभूत हुआ कि अपने परिवारवालों को यह सुन्दर दृश्य दिखाने के लोभ का संवरण नहीं कर सका । वह गया । परिवार के सभी सदस्यों को साथ ले आया । पर अब आकाश दिखना बंद हो गया था । काई का सधन आवरण पानी पर पुनः छा गया था । सब हताश लौटे । इसी प्रकार प्रमाद होता है, स्मति पर आवरण आ जाता है । विस्मति उभर आती है । यह विस्मृति भी एक स्वभाव-सा बन गई है । चौधा स्वभाव है-आकांक्षा । आदमी के मन में निरन्तर आकांक्षा जागती रहती हैं। पद और यश की आकांक्षा, बड़प्पन और मान-सम्मान की आकांक्षा, पुत्र और पौत्र की आकांक्षा । आकांक्षा का कहीं अन्त नहीं आता। पाना है, पाना है और पाना है.—यही चाह निरन्तर बनी रहती है। न पाने Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता की बात, अनाकांक्षा का भाव आता ही नहीं । आदमी स्वीकार के चक्र में फंसा रहता है । अब अस्वीकार को भूल सा गया है। कुछेक विक्षिप्त व्यक्तियों को देखा है जिनमें स्वीकार की भयंकर आदत थी । वे जहां भी जाते, वहां से जो कुछ भूमि पर पड़ा होता, बटोर लाते । सड़क पर चलते। उस पर भी जो कुछ पड़ा मिलता, उसे उठा लेते, जेब में रख लेते और फिर घर पर जाकर जेब खाली कर देते । छापर में एक ऐसा ही व्यक्ति था । उसके घर पर उस कमरे को देखा तो प्रतीत हुआ कि वह कमरा एक बड़ा कबाड़ीखाना है । मैं पूछना चाहता हूं, इस माने में कौन आदमी पागल नहीं है ? हम हर बात को स्वीकार कर लेते हैं, पाने को तैयार रहते हैं, सब कुछ बटोरते रहते हैं । अस्वीकार की बात हम जानते ही नहीं । यह पागलपन ही तो है पर यह स्वभाव-सा बन गया है, इसलिए पागलपन लगता नहीं है। आदमी कुछ अतिरिक्त स्वभाव को पागलपन मान लेता है । अपने पागलपन को पागलपन अनुभव नहीं करता । पांचवां स्वभाव है — दृष्टिकोण की असमीचीनता । आदमी का यह स्वभाव-सा हो गया है कि वह किसी भी बात को सम्यक् रूप से ग्रहण नहीं करता । उसे उल्टे अर्थ में ही स्वीकार करता है । ये सारे स्वभाव ही नहीं हैं, पर स्वभाव बन गए हैं, इसीलिए आदमी का पूरा व्यक्तित्व बहुत जटिल बन गया है । उसकी संरचना बहुत पेचीदा हो गई है । प्रेक्षाध्यान का उद्देश्य है---- रूपान्तरण, चेतना का रूपांतरण | प्रेक्षाध्यान के अभ्यास से इन पांचों विभावों, जो स्वभाव बने हुए हैं, में परिवर्तन आता है और तब व्यक्तित्व की यथार्थता प्रकट होती है । इन पांचों स्वभावों में गुरु स्वभाव है — चंचलता । इस एक को साध लेने पर शेष चार स्वयं सध जाते हैं । चंचलता के कारण आदमी कहीं एकाग्र नहीं हो पाता । आज राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक समस्याएं उलझ रही हैं । उनका सुलझाव कहीं दृष्टिगत नहीं होता । इसका मूल कारण है व्यक्ति-व्यक्ति की चंचलता । वह व्यक्ति किसी समस्या या विषय पर एकाग्र होना जानता ही नहीं । वह आज एक समस्या को हाथ में लेता है, कल उसे Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतना का रूपान्तरण : १/५९ छोड़कर दूसरी समस्या को सुलझाने में लग जाता है । परसों फिर तीसरीचौथी समस्या में फंस जाता है । वह निरन्तर एक समस्या से दूसरी समस्या पर छलांग लगाता रहता है । कहीं स्थिर नहीं रहता । इसीलिए कोई समस्या समाहित नहीं होती । वह इतना व्यग्र है कि समस्या को अन्त तक सुलझाने के लिए उसमें लगे रहना नहीं चाहता, नहीं जानता | यह स्वयं एक समस्या है । समस्या का अन्त तब होता है जब व्यक्ति उसको पूरी सुलझाए बिना नहीं छोड़ता । बीच में उससे नहीं हटता । व्यग्रता से समस्या और अधिक उलझती है। __चंचलता को बदलना होगा । उसके लिए निर्दिष्ट प्रयोग करने होंगे, तभी समस्याओं का अन्त होगा, अन्यथा नहीं । श्वास-दर्शन इसका अचूक उपाय है | इसे छोटा न समझा जाए | जब श्वास-दर्शन में आदमी लग जाता है तब वह सभी स्मृतियों, कल्पनाओं और चिन्तनों से मुक्त हो जाता है । उसके विकल्पों का दायरा सिमटकर, केवल श्वास पर आ जाता है । परिधि कम हो जाती है | ज्यों-ज्यों परिधि सिमटती है, केन्द्र की निकटता बढ़ती है। परिधि जितनी छोटी होगी, केन्द्र उतना ही निकट होगा । श्वास-दर्शन से केन्द्र की निकटता साधी जा सकती है। ___ श्वास-दर्शन से चंचलता कम हो जाती है और चंचलता के कम होने पर आवेश कम हो जाता है । जितनी चंचलता, उतना आवेश । श्वास स्थिर होगा तो आवेश कम हो जाएगा । जब भी आवेश की स्थिति बने, क्रोध उतरे, तब क्षण-भर के लिए श्वास को स्तर कर लो, कुंभक की स्थिति बना लो, आवेश शान्त हो जाएगा। सारी सक्रियता या चंचलता श्वास के माध्यम से होती है । प्राणधारा का प्रतिनिधित्व करता है श्वास । श्वास को मंद या दीर्घ करते ही आवेश की स्थिति समाप्त हो जाती है । श्वास-दर्शन का यह आलम्बन ऐसा है जिससे चंचलता कम होती है । चंचलता कम होती है तो आवेश समाप्त होता है । इससे प्रमाद भी कम होने लगता है, क्योंकि जैसे-जैसे श्वास के प्रति जागरूकता बढ़ती है वैसे-वैसे स्मृति तीव्र होती है, प्रमाद कम होने लगता है । विस्मति प्रमाद को पैदा करती है। विस्मृति का स्वभाव बदलने लगेगा और जागरूकता का स्वभाव निर्मित होगा। इन तीन के बदलने पर चौथा स्वभाव-आकांक्षा का भी परिवर्तित होने Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता लगेगा, क्योंकि जब आदमी वस्तुनिष्ठ होता है तब उसमें आकांक्षाएं उभरती हैं। वह चाहता है, यह हो, वह ो । वस्तु का अन्त ही नहीं आता । जैसे ही निष्ठा वस्तु से हटकर श्वास के साथ जुड़ती है तब आकांक्षा कम हो जाती है। श्वास के प्रति अनुराग बढ़ेगा तो वस्तु के प्रति विराग होगा। अभी आदमी का अनुराग वस्तु के प्रति है इसलिए श्वास के प्रति उसका विराग है। अनुराग का केन्द्र बदल दो, विराग का केन्द्र भी बदल जाएगा। श्वास-दर्शन से आन्तरि परिवर्तन होता है और आसक्ति कम होती है। गीता कहती है—फलासक्ति न हो । सिद्धांत अच्छा है, बात अच्छी है । पर यह हो कैसे? यह जटिल समस्या है । गीता का श्लोक मा फलेसु कदाचन रटने मात्र से तो अनासक्ति घटित नहीं होगी। कोई उपाय करना होगा । सिद्धांत सिद्धांत होता है । उसको हजार बार रटने पर भी आसक्ति कम नहीं होगी, फलासक्ति टूटेगी नहीं । फलासक्ति को तोड़ने के लिए उपाय करना होगा। श्वास-दर्शन फलासक्ति को तोड़ने का अचूक उपाय है । उपाय किए बिना यही प्रतीत होगा कि लिखने वाले कोई दूसरी भूमिका के आदमी थे। उन्होंने हमारी भूमिका को ध्यान में नहीं रखा । उपाय का अभ्यास करते ही यह धारणा टूट जाएगी, सिद्धांत फलित होने लगेगा। श्वास-दर्शन से पांचवां स्वभाव जो मिथ्या दृष्टिकोण का है, वह भी बदलेगा हमें स्पष्ट अनुभव होने लगेगा कि हमने वस्तुओं को अधिक मूल्य दिया है और श्वास को कम । श्वास को मूल्य देने का अर्थ है श्वास को स्वस्थ रखना । जब श्वास शुद्ध है, तब दृष्टिकोण मिथ्या नहीं बन सकता। दृष्टि मिथ्या तब होती है जब मूल्य देने में विपर्यय होता है । जब जिसका जितना मूल्य होता है, उतना नहीं दिया जाता है तब दृष्टि में मिथ्यात्व आता है | श्वास-दर्शन से मूल्यांकन की क्षमता और यथार्थता बढ़ती है । इससे दृष्टिकोण बदल जाता है। श्वास-दर्शन एक सहज, सरल प्रक्रिया है । इस एक प्रक्रिया के द्वारा पांचों स्वभावों में परिवर्तन घटित होता है । मैंने उपाय की चर्चा की तो साथ-साथ उपाय भी बताए । हर उपाय के लिए उपाय है । बीमारी है तो उसको नष्ट करने वाली औषधि भी होनी चाहिए । प्राचीन आचार्यों ने, ऋषि-मुनियों ने हजारों प्रकार के उपाय निर्दिष्ट Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतना का रूपान्तरण : ११६१ किए हैं । पर आदमी करना नहीं चाहता । वह सिद्धांत में ही अटक जाता है। हम दोनों को साथ लेकर चलें सिद्धांत को भी समझें और उसको फलित करने का उपाय भी समझें । श्वास-दर्शन स्वभाव के परिवर्तन का सरलतम उपाय है । इस उपाय के द्वारा हम स्वभाव में आने वाले सारे उपायों को दूर कर सकेंगे और अपने व्यक्तित्व के निकट पहुंचने में सक्षम बनेंगे। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतना का रूपांतरण : २ रूपान्तरण करना सब चाहते हैं, पर यह कठिन काम है। आदमी चाहता है बदलना, पर बदलना सहज-सरल नहीं होता । यदि रूपान्तरण की प्रक्रिया ज्ञात न हो, बदलने के उपाय ज्ञात न हों तो चाहने पर भी बदला नहीं जा सकता । एक आदमी बीमार है । वह चाहता है, बीमारी मिटे और वह स्वस्थता का अनुभव करे । रोगी रहना कोई नहीं चाहता । रोग से छुटकारा पाने की, निरोग होने की भी एक प्रक्रिया है । ऐसे ही कोई निरोग नहीं हो जाता । निरोग होने की प्रक्रिया का पहला अंग है- शोधन । शोधन होने पर रोग मिट सकता है। आजकल शोधन की अपेक्षा नहीं मानी जाती । तेज दवाइयों से रोग को दबाने या उपशान्त करने का प्रयत्न किया जाता है। तेज दवाइयों से बीमारी दब जाती है, समाप्त नहीं होती । उस रोग पर एकपक्षीय इतना भार पड़ता है कि वह दब जाती है, किन्तु भीतर ही भीतर वह और अधिक सक्रिय हो जाती है । उससे अनेक नयी बीमारियां उत्पन्न हो जाती हैं । शोधन में यह प्रतिक्रिया नहीं होती | आयुर्वेद का कथन है, रोग के कारणों का शोधन करो । जो रोगोत्पत्ति के मूल बीज हैं, उन्हें उखाड़ फेंको, जिससे कि वह रोग भी मिटे और दूसरे नये रोग भी उत्पन्न न हों। रूपान्तरण में भी शोधन की प्रक्रिया बहुत जरूरी है | शोधन की प्रक्रिया के तीन अंग हैं : १. अइयं पडिक्कमामि- मैं अतीत का प्रतिक्रमण करता हूं। २. पडिपुण्णं संवरेमि– मैं वर्तमान का संवरण करता हूं। ३. अणागयं पच्छक्खामि— मैं भविष्य का प्रत्याख्यान करता हूं। अतीत, वर्तमान और भविष्य के शोधन की यह पूरी प्रक्रिया है । अतीत Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतना रूपांतरण | ६३ का प्रतिक्रमण करना, वर्तमान का संयम करना और भविष्य का प्रत्याख्यान करना—ये जब तीनों साथ होते हैं तब बदलने की संभाव्यता होती है । प्रत्येक व्यक्ति में बदलने की क्षमता है, वह बदल सकता है । ये तीनों बातें होती हैं तब बदलना प्रारंभ हो जाता है । __ पहली बात है— अतीत का प्रतिक्रमण । अतीत में जो कोई विचार आया, संस्कार जमा, भाव उत्पन्न हुआ, कर्म किया, उसका प्रतिक्रमण करने से शोधन हो जाता है । उससे बचने की बात प्राप्त होती है । भाव की तरंगें बहुत सूक्ष्म होती हैं । वे विचार की तरंगों को पैदा करती हैं | विचार की तरंगें काम की तरंगों को पैदा करती हैं। एक आदमी, कोई काम करता है । वह करता है, यह प्रत्यक्ष है, सबके सामने है। पर वह ऐसे ही इस कार्य में प्रवृत्त नहीं हुआ है | उसके पीछे अतीत की विचार तरंगें काम करती हैं। यह एक पूरी श्रृंखला है--- भाव, विचार और कर्म । प्रति पल नये-नये भाव पैदा होते रहते हैं । भाव पैदा होते ही विचार पैदा हो जाएगा | विचार पैदा हुआ और कर्म करने की बात सामने आ जाएगी । शरीरशास्त्रीय भाषा में पहले सेन्सरी नर्वस सक्रिय होते हैं और फिर मोटर नर्वस सक्रिय होते हैं । पहले ज्ञानतंतु सक्रिय होते हैं और फिर कर्मतंतु सक्रिय होते हैं । इन दोनों का संबंध जुड़ा हुआ है । एक अंगुली भी हिलती है तो पहले ज्ञान तक संदेश पहुंचता है और फिर मस्तिष्क शीघ्र ही कर्म-तन्तुओं को आदेश देता है, कि अंगुली को हिलाना है । तब अंगुली हिलती है । यह पूरी प्रक्रिया चलती है । यदि शोधन करना है तो हमें पूरी जागरूकता के साथ इस बात पर ध्यान देना होगा कि कहां क्या कमी है । और उस कमी का परिष्कार कैसे किया जा सकता है । जो एक संस्कार बन गया, वृत्ति बन गई, संज्ञा बन गई, उसे कैसे मिटाया जा सकता है | जब तक अतीत की वृत्ति नहीं मिटेगी तब तक कोई भी नया काम प्रारम्भ किया जाएगा तो वह बीच में रुक जाएगा। क्योंकि भीतर की वृत्ति अवरोध उत्पन्न करेगी। कोई भी किराएदार जब तक घर पर कब्जा किए. बैठा है, तब तक उस स्थान पर नया भवन नहीं बनाया जा सकता । वर्षों से वह किराया दे रहा है, अतः उसे सहजतया निकाल पाना भी संभव नहीं होता । जब तक किसी युक्ति से उसे नहीं हटाया जाता तब तक नया निर्माण नहीं हो सकता । हमने भी अनेक किराएदार पाल रखे Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता हैं । उनका निरंतर संरक्षण और पोषण करते हैं । उसके रहते हुए हम अपना शोधन करें, नया निर्माण करें, नया भाव और विचार बनाएं, नया व्यवहार और आचरण करें, यह दुरूह बन जाता है । हमें मूल पर ध्यान देना होगा। जैसे कोई आदमी ठिगना है, नाटा है। डॉटर कहेगा कि जो हारमोन्स लंबाई के घटक होते हैं, वे इस आदमी में नहीं हैं, इसलिए यह नाटा है । वह उसके नाटेपन को दूर करने के लिए एच० जी० एच० (Human Growth Harmon) का प्रयोग करेगा और धीरे-धीरे उस व्यक्ति का नायपन दूर होता जाएगा । यह हारमोन्स इन्जेक्ट किए जाते हैं और आदमी की ऊंचाई कुछ बढ़ जाती है। जब कमी की पूर्ति होती है तो काम बन जाता है । भाव परिवर्तन की प्रक्रिया में भी यह देखना पड़ता है कि किस तथ्य की कमी है कि प्रयत्न करने पर भी भाव नहीं बदल रहे हैं। आदमी के चाहने पर भी परिवर्तन घटित नहीं हो रहा है । कुछ चाहते हैं कि हम अच्छे आदमी बनें । मन में कभी बुरे विचार न आएं। बुरी भावना न आए | संकल्प मजबूत हो । निश्चय दृढ़ ह। बात-बात में विचलन न हो । मुंह से गाली न निकले । समय आने पर भी हाथ न उठे । सब ऐसा चाहते हैं । पर चाहने मात्र से कुछ नहीं होता। यदि चाहने मात्र से सब कुछ हो जाता तो आज दुनिया का रूप ही दूसरा होता । आज वह स्वर्ग बन जाती । पर चाहने मात्र से परिवर्तन नहीं होता। चाह न कामधेनु है, न चिन्तामणि रत्ल है और न कल्पवृक्ष है । साहित्य में से तीन शब्द प्राप्त है । कल्पवृक्ष वह है जिसक नीचे खड़े रहकर जो कल्पना की जाती है, वह फलित होती जाती है । कामधेनु वह गाय है, जो आदमी की सभी कामनाओं को पूरा कर देती है । चिन्ताम्माणि बाह पदार्थ है जो आदमी के चिन्तन को फलवान् बना देती है । इन तीनों शब्दों के साथ जुड़ी हजारों कहानियां भारतीय साहित्य में हैं। ये सब यथार्थ हैं या अयथार्थ, हम इस प्रश्न में न उलझें । भाव परिवर्तन के लिए हमें एक प्रक्रिया से गुजरना पड़ेगा । वहां ये तीनों कार्यकर नहीं होंगे। वह प्रक्रिया यह है कि हमें सबसे पहले अतीत के संस्कारों का प्रतिक्रमण करना होगा। जो बीमारी संचित कर रखी है, उसका शोधन या विरेचन करना होगा। पुराने जमाने में विरेचन कराया जाता था । बीमारी से छुटकारा पाने का यह Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतना रूपांतरण | ६५ एक स्टेज था । प्राचीन चिकित्सा पद्धति की पंचकर्म प्रक्रिया में वमन, विरेचन और स्वेदन का महत्त्वपूर्ण स्थान था । अधिक संचित हो जाता तो वमन कराते । क्योंकि कफ का शोधन वमन के द्वारा होता है । पित्त का संचय बढ़ जाने पर विरेचन कराया जाता था । इतने पर भी यदि सूक्ष्म दोष रह जाते तो स्वेदन के द्वारा उन्हें बाहर निकाला जाता था । स्वेदन पसीना निकालने की प्रक्रिया है । पसीने के माध्यम से अनेक रोग शान्त हो जाते हैं । भावों के परिर्वतन में भी हमें इस चिकित्सा पद्धति का अनुकरण करना होगा | जब तक अतीत का प्रतिक्रमण अर्थात् जमे हुए दोषों का प्रतिहनन या शोधन नहीं होगा तब तक आगे का मार्ग प्रशस्त नहीं होगा । यदि हम आगे बढ़ना भी चाहेंगे तो जमे हुए पुराने दोष पग-पग पर बाधा उपस्थित करेंगे। तो पहली बात है अतीत का शोधन या प्रतिक्रमण । दूसरी बात है वर्तमान का संयम । अतीत का शोधन करना है तो वर्तमान का संयम भी करना होगा । अतीत का शोधन किया, किन्तु वर्तमान का संयम नहीं है, तो इधर से शोधन किया और उधर से फिर गंदगी से भर दिया । कमरे की सफाई की और दरवाजा खुला ही छोड़ दिया तो आंधी आने पर या हवा के साथ फिर वह कमरा धूल से भर जाएगा । वर्तमान का संयम बहुत आवश्यक होता है । दरवाजा बंद करना बहुत जरूरी होता है । राजस्थानी में एक कहावत है- 'आंधी पीसे कुत्ता खावे' । एक अंधी बुढ़िया आटा पीसने बैठी । रात भर वह घट्टी चलाती रही । कुत्ते उस आटे को चट करते रहे । रात भर पीसा पर बचा कुछ भी नहीं । यदि हम अतीत का शोधन कर लेते हैं, पर वर्तमान का संयम नहीं करते हैं तो शोधन व्यर्थ हो जाता है | आदभी पुरानी बीमारी के मिटाने के लिए पेट का शोधन कर लेता है। पर बाद में यदि वह पथ्य का ध्यान नहीं रखता है तो उसका शोधन बेकार हो जाता है | पथ्य नहीं है तो दवा व्यर्थ है । एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है-- यदि पथ्यं किमौषधेन ! यद्य पथ्यं किमौषधेन ! यदि पथ्य है तो औषधि का प्रयोजन ही क्या है और यदि अपथ्य है तो औषधि का प्रयोजन ही क्या है ! जो आदमी पथ्य से रहता है तो उसे कभी ओषधि लेनी नहीं पड़ती और आदमी गदि कपथ्य से रहता है तो कोई भी ओषधि उसके लिए लाभप्रद नहीं हाती । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता दोनों ओर से ओषथि की व्यर्थता है, मूल बात है पथ्य की । एक आदमी सुगर की बीमारी से ग्रस्त है । वह दवाई लेता है, किन्तु छककर मिठाई भी खाता है, चावल और आलू भी खाता है तो उसकी बीमारी उस दवाई से कैसे मिटेगी ! किसी को हार्ट ट्रबल है और वह चिकनाई नहीं छोड़ता, प्रोटीन नहीं छोड़ता, रसाल खाता जाता है तो बेचारी दवाई क्या करेगी ! इससे दवाई बदनाम होती है । वह भी सोचती है कि यह आदमी मुझे बदनाम किए जा रहा है । डटकर खा रहा है और दवाई भी लेता जा रहा है । बेचारी दवाई क्या करेगी ! वर्तमान का पथ्य होना चाहिए, यही संयम है । यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात है । भाव-परिवर्तन के लिए वर्तमान का संयम अत्यन्त अपेक्षित है । वर्तमान में अच्छे भाव रहें । प्रेक्षाध्यान का एक घंटे का प्रयोग वर्तमान के संयम का प्रयोग है, वर्तमान की शुद्धि का प्रयोग है । जब प्रेक्षाध्यान में व्यक्ति श्वास-दर्शन करता है तब वह राग-द्वेष से मुक्त क्षण का अनुभव करता है । न उसमें प्रियता का भाव आता है और न अप्रियता का भाव आता है । वह केवल श्वास का अनुभव करता है । वर्तमान का क्षण शुद्ध क्षण होता है । प्रामाणिकता, अहिंसा और सत्य का क्षण होता है । अहिंसा का अर्थ हैराग-द्वेष से मुक्त क्षण में जीना । श्वास का अनुभव इसी क्षण का अनुभव है, इसलिए यह अहिंसा का क्षण है, सत्य और आस्था का क्षण है । वर्तमान का संयम यही है । उसमें न बुरे विचार आते हैं और न अनिष्ट भावना आती है । न राग का भाव और न द्वेष का भाव । श्वास के प्रति हमारा कोई राग नहीं होता, शरीर के प्रकम्पन के प्रति हमारा कोई राग नहीं होता । ये दोनों अत्यन्त विशुद्ध आलंबन हैं । इन आलंबनों के द्वारा वर्तमान का संयम सधता है और तब रागमुक्त क्षण और द्वेषमुक्त क्षण का अनुभव होता है ।। तीसरा आलंबन है—'अणागयं पच्चक्खामि'- भविष्य के लिए प्रत्याख्यान करना । अतीत का शोधन कर लिया,वर्तमान का संयम भी सध गया, किन्तु दोनों के साथ-साथ हमारी संकल्पशक्ति भी दृढ़ होनी चाहिए कि मैं भविष्य में वैसा आचरण नहीं करूंगा, वैसी भावना नहीं करूंगा, वैसा व्यवहार नहीं करूंगा । यह भविष्य का प्रत्याख्यान है। जब तक भविष्य का Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतना रूपांतरण | ६७ का संयम भी व्यर्थ चला जाता है । तीनों साथ जुड़े हुए हैं । अतीत, वर्तमान और भविष्य को तोड़ा नहीं जा सकता । तीनों की एक पूरी श्रृंखला है । यदि यह श्रृंखला पूरी होती है तो आदत बदल सकती है, स्वभाव में परिवर्तन आ सकता है। आदत और स्वभाव यदि न बदले तो हमारी सारी आराधना निकम्मी हो जाती है । यदि धर्म के द्वारा रूपान्तरण घटित न हो तो वैसे धर्म से क्या होना जाना है ! धर्म की सार्थकता हमारे लिए तभी है जब हम जैसे हैं उससे और अधिक अच्छे बनें, परिष्कृत बनें । यह त्रिसूत्री प्रक्रिया रूपान्तरण की प्रक्रिया है— अतीत का शेधन, वर्तमान का संयम और भविष्य का प्रत्याख्यान । हमारे सामने दो प्रकार का जगत है- इन्द्रिय जगत और इन्द्रियातीत जगत् । हमारा पूरा विश्वास इन्द्रिय जगत् में है । क्योंकि वह हमारे प्रत्यक्ष है । उससे हमारा सीधा संबंध है । उसके प्रति हमारी इतनी गहरी आस्था बन गई है कि इन्द्रियातीत की कोई बात सामने आ जाती है तो भी उस पर विश्वास नहीं होता । वह समझ में नहीं आती । इन्द्रियों से परे का जगत् बहुत विराट है । इसका पूरा साक्ष्य है आज का विज्ञान | विज्ञान ने सूक्ष्म उपकरणों के माध्यम से ऐसे जगत् को खोजा है जो इन इन्द्रियों द्वारा नहीं जाना जा सकता। जो चीज़ आंखों के द्वारा नहीं देखी जा सकती, वह माइक्रोस्कोप के द्वारा देखी जा सकती है। विज्ञान ने इतने सूक्ष्म जगत् का पता लगा लिया है कि जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती । एक सूई की नोक पर अरबों-खरबों परमाण समा जाते हैं | यह विज्ञान की बात है। दार्शनिक जगत् की बात तो और सूक्ष्म है । उसके अनुसार सूई की नोक पर अनन्त जीव समा सकते हैं । अनन्तकायिक वनस्पतियां इसका प्रमाण हैं । यह बहुत सूक्ष्म अन्वेषण है । वैज्ञानिक प्रयोगों के माध्यम से तथा सूक्ष्म उपकरणों के माध्यम से जो देखा गया वह यह है कि एक कण भूमि में बीस हजार कीटाणु समा जाते हैं। बहुत विराट् है सूक्ष्म जगत्, किन्तु इन्द्रिय जगत् के प्रति हमारे कुछ दार्शनिकों और तार्किकों की इतनी प्रगाढ़ आस्था हो गई कि वे इन्द्रियातीत को अवास्तविक मानने लग गये । एक व्यक्ति ने अंधे आदमी से कहा- कांच कितना चमकता है | Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता कितना अच्छा लगता है | यह सूरज की धूप कितनी अच्छी लगती है । धूप कितनी सुहावनी होती है । उस अंधे ने कहा- क्या बकवास कर रहे हो ! प्रकाश होता ही क्या है ! लोगों ने कहा-- प्रकाश होता है । अंधे ने कहामैं तुम्हारे कहने से नहीं मान सकता । मुझे हाथ में देकर दिखाओ कि यह प्रकाश है । यदि तुम ऐसा नहीं कर सकते तो मैं प्रकाश को नहीं मान सकता । अब भला प्रकाश को हाथ में लेकर अंधे आदमी को कैसे विश्वास दिलाया जा सकता है कि प्रकाश का अस्तित्व है । जब आदमी का तर्क बन जाता है कि जो आंखों से दीखता है, वह सही है, और जो प्रत्यक्ष नहीं है, वह है ही नहीं तब यथार्थ को कैसे प्रमाणित किया जा सकता है ! ऐसे व्यक्ति अपने आप को सीमित दायरे में रखकर विराट् अस्तित्व को नकार देते हैं। इन्द्रियों की शक्ति अत्यन्त सीमित है | आंख में देखने की शक्ति है, पर वह एक सीमित दूरी पर रही हुई वस्तु को ही देख पाती है । कान में सुनने की शक्ति है, पर वह निश्चित फ्रीक्वेन्सी वाली शब्द-तरंग ही पकड़ पाता है। हमारे चारों ओर न जाने कितनी ध्वनियां हो रही हैं । वे कानों से टकराती हैं । पर कान उन सारी ध्वनियों को ग्रहण नहीं कर पाता । वे ही ध्वनियां कान मे ग्राह्य होती हैं जो कि निश्चित आवृत्ति में आती हैं । शेष ध्वनियां आती हैं, टकराती हैं और चली जाती हैं । यदि ऐसा न हो तो आदमी एक दिन में ही पागलं बन जायेगा । वह जी नहीं सकेगा । आदमी इसलिए जी रहा है कि उसकी इन्द्रियां एक सीमित संवेदन को ही देख-सुन पाती हैं । यदि सब कुछ वह देख सकता या सुन सकता तो अंधा हो जाता, बहरा हो जाता पागल हो जाता। इन्द्रियों की हमारे लिए एक सीमा है । हम यह न मान बैठे कि इन्द्रियातीत जगत है ही नहीं । इन्द्रियातीत जगत बहुत बड़ा है। जब हमारा प्रवेश होता है इस जगत् में तब नये अनुभव जागते हैं । जिस व्यक्ति ने ध्यान के माध्यम से इन्द्रियातीत जगत् में प्रवेश किया है, वह वास्तविकता को समझ सकता है, सचाई को जान सकता है । अभी तो हमारा यही विचार होता है कि अच्छा भोजन मिलता है तो आनंद आता है । देखने को अच्छा दृश्य मिलता है तो सुख का अनुभव होता है । इन इन्द्रियों ने हमारे में वस्तुनिष्ठा पैदा कर दी, इसलिए वस्तु जगत् से परे की कल्पना भी नहीं कर सकते । ध्यान में कभी Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतना रूपांतरण / ६९ कभी इतनी एकाग्रता होती है कि काल का बोध समाप्त हो जाता है और तब जो आनन्द का अनुभव होता है वह वस्तुनिष्ठ नहीं होता, स्वतंत्र होता है । तब जो भीतर के स्पंदन जागते हैं, तेजोलेश्या के स्पंदन जागते हैं, उस समय इतनी सुखानुभूति होती है कि उसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता । इस अनुभूति में दो-चार-दस घंटा बीत जाये, दिन और रात बीत जाये, आदमी तृप्त नहीं होता | वह उस आनन्द के महासागर में उन्मज्जननिमज्जन करता रहता है । एक नया अनुभव जागता है । उस समय न खाने की, न पीने की और न सोने की आवश्यकता महसूस होती है । भीतर में इतना सुख जाग जाता है कि उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती । एक भाई ने कहा- 'मैंने ध्यान अवस्था में एक दिन इतने बढ़िया रंग देखे, आज तक वैसे रंग कभी नहीं देख पाया | कहां से आये ये रंग ! भीतर में जो रंग हैं, सुगंध है, ज्योति है, वे सब प्रकट होते हैं । जब व्यक्ति इन्द्रियातीत जगत् की सीमा में प्रवेश करता है वे सूक्ष्म स्पंदन जागते हैं और एक नयी सृष्टि का सर्जन करते हैं । यह नयी सृष्टि है सूक्ष्म जगत् । यदि व्यक्ति इन सूक्ष्म स्पंदनों का अनुभव इन्द्रियों के माध्यम से करना चाहे तो कभी संभव नहीं है । ध्यान की सारी चर्चा इन्द्रियातीत जगत् की चर्चा है। कुछ व्यक्ति आकर पूछते हैं— महाराज, ध्यान की अमुक समस्या है, क्या करूं? मैं कहता हूं- यदि तुम्हारा प्रश्न बौद्धिक होता तो उस प्रश्न का उत्तर एक मिनट में दे देता । ध्यान की समस्या नहीं है । वह बुद्धि से नहीं सुलझती । वह अभ्यास से ही सुलझ सकती है । तुम अभ्यास करना नहीं चाहते और केवल बैद्धिक व्यायाम से उसे सुलझाना चाहते हो, यह कभी संभव नहीं होगा । हमारे पास जादुई डंडा नहीं है । ध्यान एक सच्चाई है | जीवन की वास्तविकता है । दो प्रकार के सत्य हैं— एक है पढ़ा हुआ सत्य और एक है भोगा हुआ सत्य । यथार्थवादी धारा में भोगा हुआ सत्य ही कार्यकर होता है । स्वयं भोगो, स्वयं अनुभव करो, स्वयं देखो, फिर पता चलेगा कि क्या है, क्या नहीं है । जिस व्यक्ति ने थोड़े समय के लिए भी ध्यान किया है, उसने अनुभव किया है कि भीतर की दुनिया में कितना आनन्द भरा पड़ा है, वैभव और सुख भरा पड़ा है । उस विषय में कभी सोचा ही नहीं । आदमी जानते हुए भी अनजान बने बैठा है । 'कस्तूरी मृग नाभि मांही' मृग की नाभि Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता में कस्तूरी पड़ी है, तीव्र गंध आ रही है और उस गंध की खोज में मृग दौड़ा फिर रहा है। कितनी विडम्बना ! वह उस सुगंध की खोज में जान गंवा देता है । उसे पता नहीं होता कि वह उसी की नाभि से आ रही है । वह गंध उसके पास में पड़ी हुई कस्तूरी की है। हमारे पास दो शक्तियां हैं— ज्ञान और संवेदन | हम ज्ञान को बहुत कम काम में लेते हैं । ज्यादा काम लेते हैं संवेदन से । इन्द्रियां संवेदन पैदा करती हैं। त्वचा का संवेदन होता है, जीभ का संवेदन और स्पर्श का संवेदन होता है | ज्ञान संवेदन से भिन्न होता है । इसलिए प्रेक्षाध्यान के समय कहा जाता है...- केवल जानें, केवल देखें केवल ज्ञाताभाव, केवल द्रष्टाभाव । यह ज्ञान की अवस्था है, संवेदन की नहीं। संवेदन से परे की अवस्था है ज्ञाताभाव । ज्ञान से जाना जाता है, संवेदन से भोगा जाता है | जानने और भोगने में अन्तर है । जो शुद्ध ज्ञानी होता है, वह जानता है, भोगता नहीं । अज्ञानी आदमी जानता नहीं, भोगता है । बहुत बड़ा अन्तर है जानने और भोगने में । हम इन्द्रियों के जगत् में जीते हैं । हम जानते कम हैं, भोगते अधिक हैं। ध्यान करने वाला आदमी जानता अधिक है, भोगता कम है | ध्यान जैस-जैसे आगे बढ़ेगा, ज्ञाता और भोक्ता की अवस्था में अन्तर आता जाएगा । भोक्ता की दिशा बड़ी है, ज्ञाता की दिशा छोटी है । हम हर बात को भोगते चले जाते हैं । सुख-दुःख को भी भोगते हैं । प्राप्त है. उसे भी भोगते हैं और अप्राप्त है उसे भी भोगते हैं । भोक्ता का जगत् बहुत बड़ा है हमारे लिए, और ज्ञाता का जगत् बहुत छोटा है हमारे लिए । ध्यान से परिवर्तन घटित होगा, दिशा बदल जाएगी। तब ज्ञाता का जगत् बहुत बड़ा हो जाएगा और भोक्ता का जगत सिमटकर छोटा हो जाएगा । ज्ञान बढ़ेगा, भोक्ता का भाव कम हो जाएगा । यही हमें घटित करना है । वास्तव में यही फलश्रुति है ध्यान की। यह समस्याओं की दुनिया है । समस्याओं को रोका नहीं जा सकता | इस दुनिया में जन्म की समस्या है, मृत्यु की समस्या है, संयोग और वियोग की समस्या है । बुढ़ापे की समस्या है, अर्थाभाव की समस्या है, वैयक्तिक समस्याएं हैं, सामाजिक और राजनैतिक समस्याएं हैं । न जाने कितनी Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतना रूपांतरण / ७१ समस्याएं हैं । इस दुनिया में जन्म लेने वाला कोई भी प्राणी समस्या से मुक्त नहीं हो सकता | धार्मिक आदमी के सामने भी समस्या है और अधार्मिक आदमी के सामने भी समस्या है । पर एक अन्तर आता है धार्मिक आदमी समस्या को भोगता नहीं, जानता है और अधार्मिक आदमी समस्या को, जानता कम है, भोगता अधिक है । महान वह होता है जो समस्या को, कष्ट को जानता है भोगता नहीं । जो समस्या को भोगता है वह सुख में भी दुःख निकाल लेता है और जो समस्या को जानता है भोगता नहीं, वह दुःख में से भी सुख को निकाल लेता । यही अन्तर है जानने और भोगने में । ___ ध्यान के अभ्यास से सबसे बड़ा परिवर्तन यह होता है कि आदमी का ज्ञाता-भाव बढ़ता है और भोक्ताभाव धीरे-धीरे कम होता जाता है। यह जीवन का महान परिवर्तन है । लोग कह देते हैं- देखो, इस व्यक्ति ने इतना धर्मकर्म किया, फिर भी दुःख तो भोगना ही पड़ा । मैं पूछता हूं क्या धर्म करने वाला जागतिक नियमों से अलग रह जाएगा? यह जगत् का नियम है कि जो भी इस जगत् में जन्म लेगा, उसे दुःख भोगना पड़ेगा, सुख भोगना पड़ेगा। सब कुछ करना पड़ेगा । फर्क क्या पड़ा ! अन्तर इतना ही आएगा कि ध्यान का अभ्यासी व्यक्ति या धर्म को जीवन में घटित करने वाला व्यक्ति दुःखसुख जान लेगा, भोगेगा नहीं। वह दुःख में म्लान नहीं होगा और सुख में फूलेगा नहीं । वह हंसते-हंसते आपत्तियों को झेल लेगा, कष्टकाल को बिता देगा, पर उसके सामने घुटने नहीं टेकेगा । एक अधार्मिक व्यक्ति, जिसने न जन्म की सच्चाई को समझा है और न मृत्यु की अनिवार्यता को जाना है, वह राई जितनी समस्या को पहाड़ जितनी बड़ी बनाकर भोगेगा,दुःखी होगा। ज्ञान की शक्ति है मुक्ति की शक्ति और संवेदन की शक्ति है भुक्ति की शक्ति । मुक्ति और भुक्ति– ये दो शब्द हैं । मुक्ति का अर्थ है मुक्त होना और भुक्ति का अर्थ है भोगना । एक श्रृंखला है- इन्द्रिय, संवेदन और मुक्ति । दूसरी श्रृंखला है--- इन्द्रियातीत जगत्, ज्ञान और मुक्ति । ध्यान से दूसरी श्रृंखला पुष्ट होती है और पहली शृंखला क्षीण होती है । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंधकार से प्रकाश की ओर 'रे पक्षिन्नागतस्त्वं कुत इह सरसस्तद् कियद् भे विशालं, किं मद् धाग्नोऽपि बाढू न हि न हि महत् पाप ! मा ब्रूहि मिथ्या । इत्थं कूपोदरस्थः सपदि तटगतो दर्दुरो राजहंसं, नीचः स्वल्पेन गर्वी भवति ह विषय नाऽपरे येन दृष्टाः ।।' एक राजहंस कुएं की मेंढ पर आकर बैठा । कुएं में एक मेंढक रहता था । उसने हंस को देखकर पूछा- 'पक्षिन् ! कहां से आए हो ?' 'मैं मानसरोवर से आ रहा हूं।' 'कितना बड़ा है तुम्हारा मानसरोवर ? क्या मेरे इस घर (कुएं) से भी बड़ा है !' 'हां, इससे बहुत बड़ा है ।' 'झूठ बोल रहे हो । मेरे सामने झूठ बोलते शर्म नहीं आती ! मेरे घर से बड़ा तुम्हारा घर हो नहीं सकता ।' 'मेंढक ! तू सदा कुएं में ही रहा । कभी इससे बाहर आया ही नहीं । तू नहीं जानता कि यह संसार कितना बड़ा है ! इस विराट् संसार में कितने बड़े-बड़े जलाशय हैं, नदियां हैं, समुद्र हैं । तूने देखा ही क्या है !' यदि कुएं में बैठा-बैठा मेंढ़क ऐसी गर्वोक्ति करता है, तो कोई आश्चर्य नहीं होता । क्योंकि जो नीचे रहने वाला है वह बहुत थोड़े में अहंकारी बन जाता है | उसने कभी विशाल को देखा ही नहीं । उसमें अहंकार आ ही जाता है। जो विशाल को देखता है, विराट का अनुभव करता है, उसमें कभी अहंकार नहीं आता । जो नीचे-ही-नीचे देखता है, वह अहंकार से दब जाता है । एक संस्कृत कवि ने कहा है— Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंधकार से प्रकाश की ओर / ७३ 'अधोऽधोपश्यतः कस्य, महिमा नो गरीयसी । उपर्युपंरि पश्यन्तः, सर्वमेव दरिद्रति ।। ऐसा कौन व्यक्ति है जो अपने से छोटों को देखकर अहंकार से न भर जाए ! ऐसा कौन व्यक्ति है जो अपने से बड़ों को देखकर अहंकार-रहित न हो जाए ! नीचे देखने का अर्थ है अहंकार से शून्य हो जाना । नीच देखना अहंकार ही नहीं, अंधकार भी है । अहंकार अंधकार, दोनों मिलते-जुलते शब्द हैं । अहंकार से बड़ा दुनिया में कोई अंधकार नहीं है । जिस व्यक्ति में अहंकार होता है, वह सदा अंधकार में रहता है । उसके लिए कभी सूर्योदय होता ही नहीं | कभी दीपक जलता ही नहीं । कभी बिजली जलती ही नहीं। अहंकारी आदमी की कभी आंखें नहीं खुलतीं । देखता कौन है ! दीया कभी नहीं देखता । बिजली-बत्ती कभी नहीं देखती । देखती हैं हमारी आंखें । जिस व्यक्ति की आंखें नहीं खुलतीं उसके लिए सूर्योदय हो जाए, चाहे दीया जल जाए, चाहे बत्ती जल जाए, वह देख नहीं पाता । जिस व्यक्ति की दो आंखें खुली होती हैं पर दो आंखों से देखना भी देखना नहीं होता । जिस व्यक्ति की तीसरी आंख नहीं खुल जाती, ज्ञान चक्षु, विवेक चक्षु, समता चक्षु नहीं खुल जाती वह दो आंखों से भी नहीं देख पाता । दुनिया में दो सबसे बड़े अहंकार होते हैं । एक अहंकार है 'मैं' और दूसरा अहंकार है-- 'मेरा' । 'मैं' यह सबसे बड़ा अहंकार है । आदमी जानते हुए भी इस सच्चाई को नहीं जानता । सचाई को जान ही नहीं पाता । हर जगह ये दो आंखें भी बंद हो जाती हैं। कभी अहंकार सामने आ जाता है, कभी ममकार सामने आ जाता है आज तक यह संपत्ति किसी की नहीं बनी, आज तक यह वैभव किसी का नहीं बना— बात को सब जानते हैं, फिर भी इतना मेरापन है, इतना ममत्व, इतनी गहरी मूर्छा-आदमी सब सचाईयों को भुला देता है । दुनिया में अनेक धर्म हैं, अनेक नाम हैं । नाम तो संप्रदाय का होता है, धर्म का कोई नाम होता ही नहीं है | धर्म होता है--- अनाम । हम अनाम को भी नाम दे देते हैं । धर्म कोई शब्द नहीं होता । वह अशब्द होता है । हम उसे शब्द दे देते हैं । सब धर्म इस बात को स्वीकार करते हैं कि अहंकार और ममकार से बड़ा दुनिया में कोई अंधकार नहीं है । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता जरूरत है— हम अंधकार से प्रकाश की ओर जाएं । भगवान् महावीर ने कहा- साधक यह संकल्प करे "अन्नाणं परियाणामि नाणं उवसंपज्जामि"- मैं अज्ञान को छोड़ता हूं और ज्ञान को स्वीकार करता हूं- यह मंगल भावना है । वैदिक साहित्य में भी मिलता है— “तमसो मा ज्योतिर्गमय'- मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मनुष्य की सदा भावना रही है- अंधकार से प्रकाश की ओर जाना । पर भावना तब तक पूरी नहीं होती जब तक उसकी प्राप्ति का साधन ठीक न मिल जाए | जब तक उसका उपाय ठीक न हो जाए। भावना होना एक बात है और उपाय होना एक बात है । कुछ लोग भावना रखते हैं पर सम्यग् उपाय हाथ में नहीं आता तो भावना को सफल नहीं कर पाते । एक बहुत मार्मिक कहानी है । सास ने बहू से कहा- बहूरानी, आज मैं कहीं जा रही हूं। तुम नयी-नयी आई हो, पर मेरे घर का यह नियम है कि रात को अंधेरा नहीं होना चाहिए | तुम ध्यान रखना घर में अंधेरा न आ जाए । अंधेरा न हो जाए। इस बात का पूरा ध्यान रखना । बहू नयीनयी थी । नयी होना कोई खास बात नहीं | पर भोली थी | बहुत भोली, हद से ज्यादा भोली | सास बाहर चली गयी । संध्या हुई । अंधेरा होने लगा। बहू ने सारे दरवाजे और खिड़कियां बंद कर दीं । अंधेरा घना हो गया । वह लाठी से अंधेरे को पीटने लगी । हाथ लहूलुहान हो गये । अंधेरा बना रहा । सास आयी । बहू से पूछा । उसने लहू रिसते हाथ आगे कर दिये । सास बोली- क्या दरवाजे बंद करने से और लाठियां पीटने से अंधेरा गया है ! बहू बोली- तो कैसे जाता है ! सास ने हाथ में दियासलाई ली और दो चार दीवटों पर दीये जलाये- एकदम प्रकाश हो गया । सास बोलीपीटने से अंधकार नहीं जाता । अंधकार जाता है दीया जलाने से ।। ___मुझे लगता है, हम लोग भी शायद लाठियां बजाने में बहुत कुशल हैं । केवल लाठियां बजा-बजाकर अंधेरे को मिटाना चाहते हैं । पर यथार्थ उपाय नहीं जानते । बिजली जलाना नहीं जानते | प्रकाश करना नहीं जानते । प्रकाश करने का उपाय होता है । जो व्यक्ति उपाय को नहीं जानता, उसके हाथ में कोरी पकड़ की बात सामने आती है। वह कोरा पकड़ लेता है और इतना Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंधकार से प्रकाश की ओर / ७५ तेज पकड़ता है कि उसे छोड़ना भी पसंद नहीं करता। किंतु जब तक कोई उपाय बताने वाला न मिले, उपाय समझ में न आए, तब तक अंधकार मिटता नहीं । अहंकार को मिटाना, ममकार को मिटाना बहुत लोग चाहते हैं पर कोई उपाय हाथ नहीं लगता । तब तक अहंकार भी बढ़ता जाता है, ममत्व भी बढ़ता जाता है । मैं धार्मिक लोगों से प्रश्न किया करता हूं कि आपको धर्म करते-करते बीस वर्ष, तीस वर्ष, पचास वर्ष, साठ वर्ष हो गए । बताएं कि आपके जीवने में क्या परिवर्तन आया । आपके स्वभाव में क्या परिवर्तन आया । आपका क्रोध कम हुआ या नहीं? आपका अहंकार, लोभ, क्रूरताकम हुई या नहीं ? उत्तर मिलता है— ऐसा तो नहीं हुआ। तो फिर क्या किया? धर्म का परिणाम क्या हुआ? फल क्या हुआ? जब हमारी दृष्टियां नहीं बदलतीं, हमारी आदतें नहीं बदलतीं, हमारा स्वभाव नहीं बदलता, ज्यों के त्यों सारे अडंगे चलते हैं तो आर्थिक उपासना का प्रयोजन ही क्या रहा ! साधना का अर्थ होता है-स्वभाव का परिवर्तन । साधना का अर्थ होता है वृत्तियों का परिवर्तन । कोई आदमी क्रूर है और कोमल नहीं बनता, कोई आदमी नशा करने वाला है, मादक वस्तुओं का सेवन करने वाला है, वह सात्विक वस्तुओं का सेवन करने वाला कभी नहीं हो सकता । कोई व्यक्ति अहंकार और क्रोध में चूर रहता है, वह विनम्र और शान्त नहीं बनता तो मान लेना चाहिए कि धर्म के नाम पर कोई अधर्म का आचरण ही हो रहा है | आजकल ऐसी विडम्बना हो गई कि आदमी दिन भर बुराइयां करता है और शाम के समय या प्रातःकाल प्रार्थना करता है, कुछ जप करता है, ध्यान करता है और दोहराता है— "प्रभु, मेरे अवगुण चित ना धरो ! समदर्शी है नाम तिहारो, चाहो तो पार करो ।' बस ! इतने में ही छुट्टी पा लेता है और दूसरे दिन फिर पूरी तैयारी के साथ बुराई करने में जुट जाता है | यह मान लेता है कि बुराई तो मैंने की पर प्रभु की आराधना भी मैंने की है। पहले का सारा साफ हो गया है, आज बुराई करूंगा तो वह भी शाम को साफ कर दूंगा । तो बुराई करने में कोई कठिनाई नहीं । कैसी बिडम्बना ! धर्म को आदमी ने बुराई को पालने का साधन बना रखा है। कुछ लोग खाने के लोलुप होते हैं । वे सामान्य भोजन भी नहीं पचा Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता पाते । पर पत्थर-हज्म चूर्ण आदि के द्वारा खूब खाते जाते हैं। मुझे प्रतीत होता है कि आज लोगों ने भी धर्म को बुराई (पत्थर) -हज्म चूर्ण बना रखा है कि चाहे जितना पाप करो, धर्म कर लेंगे, सारा साफ हो जाएगा । तो धर्म जो एक उपाय है अहंकार को मिटाने का, ममकार को मिटाने का, बुराइयों को मिटाने का, उसका उपाय के रूप में हम प्रयोग नहीं कर रहे हैं किन्तु अपाय और अधिक बढ़ाने का प्रयोग कर रहे हैं। यह बात जब तक समझ में नहीं आती तब तक हमारा अंधकार मिटने वाला नहीं । अंधकार और बढ़ता चला जाता है । मैं सोचता हूं, हमें आज धर्म पर पुनर्विचार करना चाहिए । और धर्मक्रांति होनी चाहिए । पुनर्विचार की जरूरत इसलिए है कि धर्म से आदमी को जितना लाभ मिलना चाहिए, वह लाभ कहां मिल रहा है । धर्म एक अनुशासन है, धर्म एक भय भी है, लज्जा है, एक संयम है । आदमी को अभय होना चाहिए, किसी डर से डरना नहीं चाहिए । बात बिलकुल ठीक है कि डरना नहीं चाहिए । पर कुछ रचनात्मक भी होता है, वह जीवन का निर्माण करता है । ध्वंसात्मक भय जीवन का विघटन करता है । जिन लोगों में गुरु के प्रति या उपाय के प्रति आस्था का भाव नहीं होता वे लोग सफल नहीं होते । उन्हें आगे बढ़ने के लिए, प्रकाश की ओर जाने के लिए सहारा चाहिए । अगर वह सहारा नहीं मिलता है तो जीवन में प्रकाश नहीं मिलता । सबसे बड़ा प्रकाश होता है हमारा अन्तर्ज्ञान । अन्तर्ज्ञान तब तक नहीं जागता जब तक अच्छा गुरु नहीं मिलता। अच्छा मार्गदर्शक, अच्छा उपाय और अच्छा सहारा नहीं मिलता । आप लोगों ने सुना होगा, आजकल पूरे संसार में एक बात चल रही है कि तीसरा नेत्र खुलना चाहिए। जो शिव की उपासना करने वाले हैं उन्होंने शिव की मूर्ति में देखा है कि ललाट में एक आंख होती है । वह तृतीय नेत्र होता है | यह तीसरी आंख जब तक नहीं खुल जाती तब तक कोई अच्छा धार्मिक नहीं बनता और अंधकार से प्रकाश में जाने की बात समझ में नहीं आती । जब यह तीसरी आंख खुलती है तो सारी बातें बदल जाती हैं । धन के प्रति इतना मोह है कि शायद दुनिया में किसी के प्रति नहीं है । माता-पिता, पति-पत्नी - सबके प्रति मोह होता होगा पर जब धन का Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंधकार से प्रकाश की ओर / ७७ मोह सामने आता है, तो सबका मोह छूट जाता है । दुनिया में सबसे ज्यादा बैर बढ़ाने वाला कोई उपकरण है तो वह है धन, । इस धन के कारण सबके साथ बैर हो जाता है। साधु ने प्रसन्न होकर अपने भक्त को पारसमणि दिया । भक्त ने पूछापत्थर का क्या करूंगा ! साधू बोला- यह पत्थर नहीं, पारसमणि है । इससे लोहा सोना बनता है । वह लेकर चला । तत्काल लौटकर आया और बोलामुझे तो वह चाहिए जिसे पाकर आपने इसका त्याग किया है । मुझे तो वह चाहिए, यह नहीं चाहिए । कितनी मर्म की बात कही ! दुनिया में ऐसा भी होता है कि जिसे पाकर आदमी पारसमणि को भी ठुकरा देता है । चिन्तामणि रत्न को भी ठुकरा देता है । वह सबसे बड़ी शक्ति है धर्म की शक्ति और त्याग की शक्ति । वह तब मिलती है जब हमारा तीसरा नेत्र खुलता है, जब हमारी चेतना जाग जाती है । यह तीसरा नेत्र खुल जाना सबसे बड़ा प्रकाश है । यही अंधकार से प्रकाश की ओर जाना है । फिर प्रश्न होगा कि यह खुले कैसे ? बात तो ठीक लगती है, खुल जाए, पर खुले कैसे ? खोलने की चाबी आपके हाथ में है । हाथ हिलाने की जरूरत है । सारी चाबियां आपके पास हैं । केवल जानना है कि चाबियां कैसे घुमाई जाएं । बस इतनी-सी जरूरत है। जब मनुष्य में शक्ति का जागरण होता है तो सारी चाबियां घूम जाती हैं । वह अंधकार से प्रकाश की ओर चलने लग जाता है | तीन शक्तियां हैं..इच्छा-शक्ति, संकल्प-शक्ति और एकाग्रता की शक्ति । इच्छा शक्ति हमारे मन में काम करने की बलवान् इच्छा होनी चाहिए। जब तक काम करने की बलवती इच्छा नहीं होती, तब तक काम नहीं होता । जैसे ही मन में एक तीव्र इच्छा जागती है, आदमी काम करने को तैयार हो जाता है । संकल्प शक्ति—संकल्प की शक्ति बड़ी प्रबल होती है। जिन लोगों ने इसका अनुभव किया है वे जानते हैं कि असंभव लगने वाली बात संकल्प के द्वारा संभव बनाई जा सकती है | संकल्प का प्रयोग बड़ा विचित्र होता एक साधक के पास एक आदमी आया । साधक एक पत्थर पर बैठा Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता था । आदमी ने पूछा इस--- मजबूत चट्टान पर किसका आधिकार है ? उत्तर दिया— लोहे का अधिकार है । जब लोहे का हथौड़ा पड़ता है तो घनीभूत पत्थर भी चूर-चूर हो जाता है | फिर आगे पूछा- लोहे पर किसका अधिकार है ? अग्नि का | आग लोहे को पिघला देती है । फिर आगे प्रश्न हुआअग्नि पर किसका अधिकार है ? पानी का | वह आग को बुझ देती है | पानी पर किसका अधिकार है ? हवा का । कितनी ही घनघोर घटा हो, हवा चलती है, बादल बिखर जाते हैं । फिर आगे प्रश्न हुआ- हवा पर किसका अधिकार है । साधक ने कहा- संकल्प शक्ति का। मनुष्य की संकल्पशक्ति ऐसी होती है जो हवा को भी वश में कर लेती है | आदमी श्वास को भी वश में कर लेता है। संकल्प के द्वारा आदमी श्वास का रोक सकता है । संकल्प के द्वारा आदमी बड़े-बड़े काम कर सकता है । हमारी दूसरी शक्ति है संकल्प की शक्ति | आप प्रयोग कर देखें । ___ कल्पना करें, एक आदमी कमजोर है— मन से या शरीर से बीमार है। किन्तु वह संकल्प करता है कि मैं स्वस्थ हो रहा हूं, मेरा मनोबल बढ़ रहा है । आप आश्चर्य करेंगे दस-बीस दिन प्रयोग कर देखें अपने आपको सुझाव दें सोते-जागते सुझाव दें, बोल-बोलकर सुझाव दें-फिर धीमे-धीमे मानसिक सुझाव दें । दस-बीस दिन में आपको लगेगा कि आपकी शक्ति बढ़ रही है । आपकी कमजोरियां समाप्त हो रही हैं । बहुत बड़ी शक्ति है संकल्प की शक्ति । एकाग्रता की शक्ति- यह हमारी तीसरी शक्ति है । हम मन को एकाग्र करना सीखें । एक विषय पर टिकाना सीखें । मौन करना सीखें । मौन के बिना मन को एकाग्र नहीं किया जा सकता । एक बार ऐसा हुआ कि चार आदमी गुरु के पास आए । आकर बोले- गुरुदेव ! हम साधना करना चाहते हैं। हमें मार्ग दर्शन दें। कोई उपाय बताएं । गुरु ने कहा- जाओ, भीतर एक कमरा है, बैठ जाओ और साधना का प्रयोग शुरू कर दो । एक घंटा मौन रहना । फिर दलूँगा । वे बैठ गए । थोड़ा अंधेरा हुआ और रहा नहीं गया । क्योंकि एकाग्रता के बिना मौन संभव नहीं । मन में तरंग उठी और एक बोल पड़ा--- अरे ! अंधेरा हो गया । किसी ने दीया ही नहीं जलाया । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंधकार से प्रकाश की ओर / ७९ दूसरा बोला - चुप ! मौन है, बोले मत तीसरा बोला- अरे ! तूने तो मौन नोड़ दिया । चौथा बोला- एक मैं ही बचा हूं, जिसने मौन नहीं तोड़ा है । एकाग्रता के बिना हमारे मन में इतनी तरंगें उठती हैं, इतने विकल्प उठते हैं कि बड़ी विचित्र स्थिति बन जाती है । एकाग्रता की शक्ति का अभ्यास करना सीखें । एक विषय पर मन को टिकाना सीखें | जब दस-बीस मिनट का अभ्यास बन जाए तो महसूस होगा कि यह कितनी बड़ी शक्ति है । एक भी आदमी ऐसा नहीं मिलता, परिषद् के बीच नहीं दीखता जो एक मिनट भी एक विषय पर मन को टिकाता हो । एक मिनट में तो न जाने कितने चित्र बदल जाते हैं । कितने चलचित्र सामने गुजर जाते हैं । इच्छा शक्ति का विकास, संकल्पशक्ति का विकास और एकाग्रता की शक्ति का विकास — इन शक्तियों का विकास होता है तो ये तीनों शक्तियां हमारे तृतीय नेत्र खोलने लगती हैं । अन्तर्दृष्टि को खोलने लगती हैं । तब अंधकार से प्रकाश की ओर हम जाने लगते हैं । यह नहीं होता है तब तक चाहे जितना भी जीवन बीत जाए कितने ही वर्षों तक कुछ करते चले जाएं, अंधकार मिटता ही नहीं । अहंकार मिटता नहीं, ममकार मिटता नहीं । लंबी चर्चा की जरूरत नहीं, सार की बात मैंने आपके सामने रखी है । हमारे जीवन का उद्देश्य होना चाहिए अंधकार से प्रकाश की ओर जाना । लोग पूछते हैं । हमारे जीवनका उद्देश्य क्या है ? हमारा लक्ष्य क्या है ? पूछना उचित भी है । निरुद्देशीय जीवन तो मूर्ख जैसा होता है। समझदार आदमी जीवन का कोई लक्ष्य बनाता है। हमारे जीवन का उद्देश्य है— प्रकाश में जाना, प्रकाश की ओर बढ़ना । प्रश्न होगा --- इसका उपाय क्या है । उद्देश्य स्पष्ट हो गया कि अंधकार से प्रकाश की ओर जाना है । जाने का साधन भी आपके सामने स्पष्ट है, उक्त तीन शक्तियों का विकास । उन शक्तियों का विकास कर अपने अन्तर्ज्ञान के रास्ते को खोलना । यानी तीसरे नेत्र को खोलना । जैसे-जैसे इन शक्तियों का प्रयोग होगा, अपने आप भीतर से उनके उत्तर मिलते चले जायेंगे । हम जानते हैं. पढ़ते हैं-- आचार्य भिक्षु कभी स्कूल नहीं गये, कभी Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता पढ़े नहीं, किन्तु उन्होंने इस प्रकार शंकाओं का समाधान किया, इस प्रकार प्रश्न के उत्तर दिये कि पढ़े-लिखे लोग भी नहीं टिक पाए। कहां से आया वह उत्तर ? कहां से आया समाधान ? –- अन्तर्ज्ञान से । तो हम तीसरे नेत्र को खोलने का अभ्यास करें । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना किसलिए? प्रश्न पूछा गया- साधना किसलिए? बहुत छोटा-सा विषय है । केवल तीन अक्षरों का विषय है- 'साधना' । इसका छोटा-सा उत्तर होगा, साधना है- 'णिज्जरट्ठाए'- निर्जरा के लिए । प्रश्न का उत्तर आ गया । विषय संपन्न हो गया । जिज्ञासा सामने आयी, प्रश्न सामने आया, उत्तर हो गया । अब कुछ भी शेष नहीं रहा । प्रवचन भी पूरा हो गया । 'णिज्जरट्टाए'- यह शब्द बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । माना जा सकता है कि भगवान की साधना का यह उत्कृष्ट लक्ष्य है। साधना का प्रपंच बहुत विस्तृत हो सकता है, पर उसका अंतिम लक्ष्य इस छोटे से शब्द में समा जाता है । यह संक्षेपीकरण की प्रक्रिया है । पुराने जमाने की घटना है । चार विद्वानों ने एक-एक लाख श्लोक के चार महाग्रन्थ तैयार किए और राजा के समक्ष उपस्थित हुए। वे चारों विद्या की चार शाखाओं के प्रणेता थे— आत्रेय वैद्यकशास्त्र का, कपिल धर्मशास्त्र का, वृहस्पति नीतिशास्त्र का और पाञ्चाल कामशास्त्र का । वे अपना-अपना महाग्रन्थ राजा को सुनाना चाहते थे। राजा ने कहा- कहां है इतना समय?. कैसे सुन सकूँगा चारों महाग्रन्थों को ? इन ग्रन्थों को छोटा करो, फिर मैं सुन सकूँगा । चारों अपने-अपने ग्रन्थों को छोटा करने लगे, छोटा किया पर राजा का यही स्वर रहा, 'मुझे इतना समय नहीं मिल पाएगा कि मैं इतना भी सुन सकूँ।' छोटा करते-करते चारों ने चार लाख श्लोक प्रमाण चार महाग्रन्थों को एक अनुष्टप श्लोक में समाहित कर दिया। एक-एक महाग्रन्थ को केवल आठ-आठ अक्षरों में समाहित कर दिया । वह श्लोक इस प्रकार है 'जीर्णे भोजनमात्रेयः, कपिलः प्राणिनां दया । वृहस्पतिरविश्वासः, पाञ्चालः स्त्रीषु मार्दवम् ।। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता भगवान् महावीर ने कहा- दो प्रकार के लोग होते हैं। कुछ लोग विस्तार रुचि वाले होते हैं और कुछ संक्षेप रुचि वाले होते हैं । कुछ थोड़े में बहुत समझ जाते हैं और कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें एक मिनट में समझाई जाने वाली बात विस्तृत कर पचास मिनट में समझानी पड़ती है । मैंने एक शब्द में साधना का प्रयोजन बता दिया । अब मैं उसका बिस्तार से वर्णन करूं । प्रश्न था—साधना किसलिए? उत्तर में कहा जा सकता हैसाधना है-स्वास्थ्य के लिए । साधना है—सुख की प्राप्ति के लिए । साधना है—ज्ञानवृद्धि के लिए | साधना है—शक्ति-सम्पन्नता के लिए | यह उस एक शब्द का विस्तार है । जहां निर्जरा होती है, गांठें खुलती हैं, वहां स्वास्थ्य और सुख मिलता है । वहां ज्ञान और शक्ति मिलती है । मनुष्य की सफलता के ये चार शिखर हैं । प्रत्येक व्यक्ति स्वास्थ्य चाहता है, सुख चाहता है, ज्ञान का विकास चाहता है और शक्ति से संपन्न होना चाहता है । साधना का यही फलित होता है कि इन चारों के विषय में जो हमारी भ्रांतियां हैं, वे मिटें । इन भ्रान्तियों से छुटकारा पाने के लिए साधना जरूरी है । हमारी भ्रान्ति है स्वास्थ्य के बारे में । हमारा दृष्टिकोण भ्रान्त है-- सुख के बार में, ज्ञान और शक्ति के बारे में । इन भ्रांतियों को मिटाना ही साधना का लक्ष्य है । हमने स्वास्थ्य और सुख- दोनों को नकारात्मक मान रखा है। इसलिए हम स्वास्थ्य खोजते हैं अपने से बाहर, सुख खोजते हैं अपने से बाहर तथा ज्ञान और शक्ति भी खोजते हैं अपने से बाहर । दृष्टियां दो हैं । एक है--विधायक दृष्टि और दूसरी है---- नकारात्मक दृष्टि | पोजिटिव और नेगेटिव, धनात्मक और ऋणात्मक । ये दोनों शक्तियां सारे संसार में काम कर रही हैं । जब दोनों शक्तियां मिलती हैं तब विद्युत का प्रकाश प्राप्त होता है । केवल पोजिटिव करंट या नेगेटिव करंट से प्रकाश उपलब्ध नहीं होता । दोनों चाहिए | दोनों शक्तियां हैं । हमने केवल एक शक्ति को स्वीकार कर लिया, नेगेटिव या नकारात्मक Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन क्या है ? | ८३ को पकड़ लिया । हमने स्वास्थ्य का अर्थ इतना-सा मान लिया हट्टा-कट्टा होना, मांसल होना, चर्बी का होना । इसे ही स्वास्थ्य का लक्षण मान लिया । इसका परिणाम यह हुआ कि प्राणशक्ति को हमने नकार दिया । शरीर में दो तत्त्व मुख्य होते हैं— प्राणशक्ति और धातु-संचय | सात धातुएं हैं--- रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र । इनका प्रयोग करने वाली शक्ति है— प्राणशक्ति । एक ऐसी शक्ति है जो मन से काम लेती है, इन्द्रियों से काम लेती है, श्वास से काम लेती है । पुराने जमाने में यह धारणा थी कि जिसका शरीर पुष्ट होता है, चर्बी से भरा-पूरा होता है वह बलिष्ठ होता है | आज शरीरशास्त्र और चिकित्साशस्त्र ने इस भ्रान्ति को तोड़ डाला है । अधिक चर्बी का होना शक्ति का लक्षण नहीं है, स्वास्थ्य का लक्षण नहीं है । यह केवल भ्रान्ति है । इसे तोड़ना है । साधना का एक काम है, स्वास्थ्य विषयक भ्रान्ति को तोड़ना । सुख के विषय में भी हम भ्रान्त हैं । हम सुख को भी नकारात्मक मानते हैं । उदाहरण से समझें । एक आदमी के पैर में कांटा चुभा । वह दर्द करने लगा। कोई कशल व्यक्ति आया । कांटा निकाल दिया । वह कहता है, 'ओह ! कितना सुख मिल गया। कितनी शांति हो गई ।' वह तो मानेगा कि सुख मिला, पर यह सुख है कहां? यह सुख नकारात्मक है | कांटा चुभा और उसे निकाल दिया । इसमें सुख क्या हुआ ? कुछ भी तो नहीं मिला । यह है नकारात्मक सुख । एक आदमी बोझ लेकर जा रहा है | भार में वह दब रहा है । रास्ते में उसे उतारकर रख दिया; कहता है, बहुत आराम मिला, सुख मिला । पूछने पर भी यही कहता है- आराम कर रहा हूं । यह सुख या आराम क्या हुआ। यह है नकारात्मक सुख । भूख लगी । रोटी खायी | भूख मिट गयी । सुख मिला | सुख क्या मिला । भूख एक बीमारी है । उसे मिटाने के लिए रोटी खायी । भूख मिट गयी । आदमी बीमार होता है, दवाई लेता है और ठीक हो जाता है । यह कैसा सुख ? यह विधायक या स्वाभाविक सुख नहीं है, नकारात्मक सुख इसीलिए अध्यात्म के आचार्यों ने कहा- ये सुख मात्र व्याधि की Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता चिकित्सा हैं । कांटा दुःख दे रहा था क्यों चुभा ? किसने चुभाया ? स्वयं ही निकालकर सुख का अनुभव किया । स्वयं ही ने तो भार उठाया था और स्वयं ही ने भार नीचे रखकर सुख का अनुभव किया । स्वयं ही ने तो भूख का निर्माण किया और स्वयं ही ने रोटी खाकर उसे मिटाया । स्वयं ही ने तो उस बीमारी को पैदा किया था और स्वयं ही ने उसकी चिकित्सा कर सुख का अनुभव किया । इस व्याधि-निवारण को, आरोपित भार की मुक्ति को या आरोपित दर्द के निवारण को सुख मानना भ्रान्ति है । ज्ञान के विषय में भी हम भ्रान्त हैं । वस्तु-जगत् या पदार्थ-जगत् का ज्ञान कर, पुस्तकीय ज्ञान कर हमने उसे परम ज्ञान मान लिया बाहर से आने वाले आंकड़ों को और स्मृति द्वारा संकलित होने वाले तथ्यों को हमने ज्ञान मान लिया । यही हमारी भ्रान्ति है । यदि इसी आधार पर कोई ज्ञानी होता तो आज की दुनिया में सबसे बड़ा ज्ञानी होता- कम्प्यूटर । उससे बड़ा कोई ज्ञानी आज दृग्गोचर नहीं होता । कम्प्यूटर बहुत बड़ा गणितज्ञ है । वह एक मिनट में जो गणित कर सामने प्रस्तुत करता है, उतने बड़े गणित को करने में आदमी को वर्षों लग सकते हैं । कम्प्यूटर जितनी स्मृति रख सकता है, आदमी पूरे जीवन में उतनी स्मृति नहीं रख सकता । कम्प्यूटर बड़ा चिकित्सक भी है । वह निदान करता है । ओषधि का परामर्श देता है और वह सब कुछ करता है जो एक डॉक्टर करता है । डॉक्टर के परीक्षणों में भूल हो सकती है, पर कम्प्यूटर के परीक्षणों में कभी भूल नहीं होती । वह बड़ा ज्ञानी है। इस प्रकार ज्ञान के विषय में भी हम भ्रान्त हैं। हमने रुलाने वाली शक्ति को ही शक्ति माना है । कोई एक चांटा मारे और दूसरा उसे दस चांटे जड़ दे तो वह शक्तिशाली माना जाता है । कोई पत्थर मारे और दूसरा रिवाल्वर चलाए तो वह शक्तिशाली माना जाता है | इसका फलित यह है कि जिस व्यक्ति के पास मारने या सताने का शस्त्र अधिक तेज है, तीव्र है- वह शक्तिशाली है । किसी का इतना शोषण करे और उसे इतना सताए कि वह दब जाये, तो शोषण करने वाला सताने वाला शक्तिशाली माना जाता है | यह शक्ति के विषय में भ्रान्ति है। इस प्रकार आज का आदमी चार भ्रान्तियों से ग्रस्त है— स्वास्थ्य की भ्रान्ति, सुख की भ्रान्ति, ज्ञान की भ्रान्ति और शक्ति की भ्रान्ति । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन क्या है ? 'अज्ञस्य दुःखौघमयं जगत् ज्ञस्यानन्दमयं जगत्' - अज्ञानी के लिए यह संसार दुःखमय है और ज्ञानी के लिए यह संसार सुखमय और आनन्दमय है । एक व्यक्ति घर आया । पत्नी ने कहा- देखो, मेरे पास-पड़ोस की सभी स्त्रियों के पास हार है। मेरे पास नहीं है। मैं जब उनसे मिलती-जुलती हूं, तब वे मेरा मखौल करती हैं और कहती हैं, इतने वर्ष हो गये, तुम्हारे पति ने तुम्हें हार भी लाकर नहीं दिया ? उस समय मैं लज्जा से नत हो जाती हूं । पति ने सुना । हार खरीद सके उतने रुपये उसके पास नहीं थे । परंतु पत्नी की फरमाइश को भी वह नकार नहीं सकता था । बाजार में गया । बीस-पचीस रुपयों में एक कृत्रिम हार ले आया । उसमें जड़ित कांच के टुकड़े चमक रहे थे । पत्नी ने देखा, प्रसन्न हो गयी । हार पहन लिया । पति भी प्रसन्न । एक दिन वह अपनी सहेलियों के साथ तालाब पर स्नान करने गयी । हार खोलकर रखा तालाब में सखियों के साथ आमोद-प्रमोद करने लगी । कोई आया और चमकते हार को ले गया । स्नान से निवृत होकर वह बाहर आयी, कपड़े पहने । देखा, हार नहीं है । रोने- चीखने लगी । कितने वर्षों बाद हार मिला और वह भी नहीं टिका । रोती- रोती घर आयी । रोटी भी नहीं बना पायी । रोती रही । पति घर आया । पत्नी ने हार चोरी चले जाने की बात कही । पति शांत मन से सुनता रहा । पति को कोई दुःख नहीं हुआ । पत्नी रो रही है कि मेरे दस-बीस हजार रुपयों का हार चोरी चला गया। पति जानता है कि वह हार बीस-पचीस रुपयों का था, गया तो गया, कोई खास बात नहीं है । 1 ? /८५ घटना एक है पर प्रतिक्रियाएं दो हैं । एक में अत्यन्त पीड़ा और दूसरे में उपेक्षाभाव है । जो हार को नकली जानता था उसे दुःख नहीं था और जो हार को वास्तविक जानती थी उसे अपार दुःख था । हम इसके हार्द को समझने का प्रयत्न करें। प्रत्येक घटना के साथ दो प्रकार की प्रतिक्रियाएं होती | सामान्यतः अपने प्रिय के बिछुड जाने पर या मर जाने पर, प्रिय वस्तु गुम हो जाने पर आदमी दुःखी बन जाता है । यह दुःख अज्ञान के कारण होता है । जो ज्ञानी होता है, जिसने अनित्य अनुप्रेक्षा का अभ्यास किया है जो हृदय से जान चुका है कि योग के साथ वियोग अवश्यंभावी है, संयोग 'वियोग से जुड़ा हुआ है, वह कभी दुःखी नहीं होगा । उसे वियोग में दुःख के Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता होगा ही नहीं। क्योंकि वह इस सचाई को जानता है, जान चुका है कि संयोग वियोग से संपृक्त है । वह सत्य के बारे में भ्रांत नहीं है । दुःख उसे होता है, जो सत्य के स्थान पर भ्रान्तियों को पालता जाता है। इस प्रकार ज्ञान के बारे में हमारी भ्रांति मिटनी चाहिए। शक्ति के बारे में भ्रान्ति नष्ट होनी चाहिए । शक्ति का प्रयोग जनकल्याण की दिशा में होता है तब उसे शक्ति कहा जाता, है अन्यथा वह संतापकारक बल है । जिस व्यक्ति की शक्ति का एक भी स्व-पर कल्याण के लिए लगता है तो वह व्यक्ति शक्तिशाली है । यही वास्तव में शक्ति है । जिसकी शक्ति का एक कण भी अपने अहित और दूसरे के अहित के लिए लगता है तो वह शक्ति नहीं, शक्ति की भ्रान्ति है, शक्ति का आभास है। पिता ने अपने पुत्र से कहा- 'बेटा ! तुम मल्ल बनो ।' वह बोला'पिताजी किसलिए?' पिता बोला- 'मल्ल इतना शक्तिशाली होता है कि वह दूसरे को पछाड़ देता है ।' पुत्र समझदार था । उसने कहा- 'पिताजी ! मैं ऐसी शक्ति नहीं चाहता जिसके आधार पर मैं दूसरों को पछाड़ सकूँ । मैं वैसी शक्ति चाहता हूं, जिसके आधार पर दूसरों को उठा सकुँ । मुझे पछाड़ने वाली शक्ति नहीं, उठाने वाली शक्ति चाहिए ।' यही है वास्तविक शक्ति । साधना का प्रयोजन है- स्वास्थ्य का विकास । इस पर हम कर्मशास्त्रीय दृष्टि से विचार करें, क्योंकि जो बात कही जा रही है वह निराधार नहीं है । आचरण और व्यवहार की बात, जो कर्मवाद को छोड़ कर कही जाती है, वह निराधार होती है । हम सोचें, स्वास्थ्य का स्रोत क्या है ? मोहनीय कर्म का उदय अस्वास्थ्य है और मोहनीय कर्म का उपशय, क्षय, क्षयोपशमयह स्वास्थ्य है । स्वास्थ्य है मोहनीय कर्म को उपशांत करना, उसको क्षीण करना या उसका क्षयोपशम करना । स्वास्थ्य का पूरा संबंध है मोहनीय कर्म से । 'स्वस्मिन तिष्ठतीति स्वस्थः'...जो अपने आप में स्थित होता है, वह है स्वस्थ । जो आत्मा की सन्निधि में रहता है, वह है स्वस्थ । सर्वाधिक स्वस्थ व्यक्ति वह होता है जिसके कषाय शांत हैं, जिसके रति-अरति, भय, शोक, घृणा, हास्य उपशान्त हैं, जिसकी वासना शांत है । इस प्रकार स्वस्थ होने के लिए ब्रह्मचर्य फलित हो गया, अभय फलित हो गया, प्रेम और मैत्री फलित हो गयी । स्वस्थ होने Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना किसलिए ? | ८७ के लिए अक्रोध, अमान, अमाया और अलोभ फलित हो गया । इसी प्रकार सहिष्णुता, ऋजुता, मृदुता - सारे फलित हो गए । जो व्यक्ति वास्तव में ही स्वस्थ होता है, आत्मा में रमण करता है, उसकी वचनसिद्धि स्वतः हो जाती है। वह जो सोचता है, वह घटना घट जाती है । वह जो कहता है वह सिद्ध हो जाता है । स्वास्थ्य का लक्षण है - मोहनीय कर्म की जकड़ से छुटकारा पा लेना । सुख का संबंध केवल वेदनीय कर्म से ही नहीं है । उसका संबंध मोहनीय कर्म के विलय से प्राप्त होने वाले स्वास्थ्य से भी है स्वास्थ्य होगा तो सुख की अनुभूति होगी । उस सुख में न अतृप्ति होगी और न असुख की पीड़ा | ज्ञान का संबंध है आवरण - विलय से ।) जो बाहर से ज्ञान आता है वह मात्र हैस्मृति-विकास | स्मृति यान्त्रिक होती है । वास्तव में ज्ञान वह है जिससे हमारी अन्तर्दृष्टि का जागरण होता है, प्रज्ञा का जागरण होता है ज्ञान का यही आदि-बिन्दु है यही ज्ञान अभ्रांत होता है । यही है विधायक ज्ञान | शक्ति के विकास का अर्थ है शुभयोग (करणवीर्य ) की प्रवृत्ति । हम शुभ योग का जितना प्रज्वलन करते हैं, शुभ योग में जितने प्रवृत्त होते हैं, वह है । हमारी शक्ति का विकास । यह है— विधायक शक्ति । साधना के क्षेत्र में ये चार आभास हैं— स्वास्थ्य का आभास, सुख का आभास, ज्ञान का आभास और शक्ति का आभास । इनको मूल मान लेना या वास्तविक मान लेना ही भ्रान्ति है । जिस दिन यह भ्रान्ति टूटेगी, उस दिन हमें साधना का अर्थ ज्ञात होगा । ! साधना का अर्थ है- भ्रान्ति का निराकरण, भ्रान्ति का मिटना, सत्य का उपलब्ध होना, सत्य को जान जाना । इन चारों आभासों या भ्रान्तियों को मिटाने के उपाय भी हमारे पास विद्यमान हैं । चारों के लिए भिन्न भिन्न प्रयोग हैं । स्वास्थ्य का विकास ज्योति केन्द्र और शांति केन्द्र दोनों पर ध्यान करने से स्वास्थ्य का विकास होता है | ध्यान का क्रम निरंतर आधा घंटा तक चले और दीर्घकाल तक चले । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता सुख का विकास आनन्द केन्द्र पर ध्यान करने से सुख का विकास होता है । ज्ञान का विकास दर्शन केन्द्र पर ध्यान करने से ज्ञान की उपलब्धि होती है । इससे अन्तर्दृष्टि और प्रज्ञा का सहज जागरण होता है । शक्ति का विकास स्वास्थ्य केन्द्र या शक्ति केन्द्र पर ध्यान करने से शक्ति का विकास होता है। इन चैतन्य केन्द्रों पर ध्यान करने से भ्रान्तियों का निवारण होता है और सत्य उपलब्ध होता है | इसका फलित है- वास्तविक स्वास्थ्य, वास्तविक सुख, यथार्थ ज्ञान और यथार्थ शक्ति का विकास । प्रश्न था--- साधना किसलिए ? उत्तर है— निर्जरा के लिए यह अमूर्त की भाषा है । मैंने जो कुछ व्याख्या की वह सारी निर्जरा की ही व्याख्या है | यदि अमूर्त भाषा को नहीं समझते हों तो 'साधना किसलिए' प्रश्न का मूर्त भाषा में उत्तर होगा साधना है स्वास्थ्य-विकास के लिए | साधना है सुख-विकास के लिए। साधना है ज्ञान-विकास के लिए । साधना है शक्ति-विकास के लिए । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन की शान्ति आज इस वैज्ञानिक युग में मन की शांति का प्रश्न अहं प्रश्न है । मन की समस्याओं पर चर्चाएं चलती हैं। हमें इस सन्दर्भ में यह जानना चाहिए कि हमारा मन किन-किन प्रभावों से कितना प्रभावित होता है । मन क्षेत्र से भी प्रभावित होता है और काल से भी प्रभावित होता है । ज्योतिर्विज्ञान का विकास प्रभावों के विश्लेषण के लिए हुआ था । किन्तु आज उसका रूप बदल गया है । वह केवल फलित में उलझ गया है । उसका मूल विषय तो थाहमारी इस पृथ्वी पर, पूरे वातावरण पर और वायुमंडल पर तथा मनुष्य के स्वभाव पर और व्यवहार पर सौरमंडल का क्या प्रभाव होता है, इसका अध्ययन और विश्लेषण करना, पर वह उससे दूर चला गया । यह स्पष्ट है कि हमारा सारा वातावरण अंतरिक्ष से प्रभवित है । पृथ्वी और अंतरिक्ष को सर्वथा विभक्त नहीं किया जा सकता । मनुष्य की जितनी संपदा पृथ्वी पर है, उससे कम अन्तरिक्ष में नहीं है । मनुष्य पर पृथ्वी का जितना प्रभाव पड़ता है, अन्तरिक्ष का प्रभाव उससे कम नहीं पड़ता | आदमी अन्तरिक्ष से अधिक प्रभावित होता है । अन्तरिक्ष में जैसा सौरमण्डल है वैसा सौरमण्डल प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में है । ग्रहों और अन्तरग्रहों का बहुत गहरा संबंध है । हमारे अन्तरग्रह आकाश के ग्रहों के विकिरणों से बहुत प्रभावित होते हैं । मनुष्य जीता है ऋतुचक्र के साथ-साथ । ऋतु का एक चक्र है । भारत में छह ऋतुओं का विकास हुआ | हो सकता है कि भौगोलिक कारणों से कुछ स्थानों में ऋतुएं छह न होती हों, कम होती हों । किन्तु भारत में छह ऋतुएं होती हैं | और उन ऋतुओं से मनुष्य का जीवन जुड़ा हुआ है । जैसे ऋतुचक्र बदलता है, हमारा शरीर भी Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता `बदलता है और स्वास्थ्य में भी परिवर्तन आता है । आयुर्वेद ने ऋतुचक्र के परिवर्तन के साथ-साथ स्वास्थ्य परिवर्तन और शरीर - परिवर्तन की विशद चर्चा की है। इसमें केवल स्वास्थ्य और शरीर ही नहीं बदलता, भाव भी बदलते हैं । भाव बदलता है तो मन बदलता है । भाव और मन दोनों बदलते हैं । यह आयुर्वेद और अध्यात्म का मिला-जुला योग है । यह आवश्यक है कि ऋतु - परिवर्तन के साथ मनुष्य में होने वाले परिवर्तनों का संयुक्त अध्ययन किया जाए और यह जाना जाए कि क्या-क्या परिवर्तन घटित होते हैं । आयुर्वेद की मान्यता है कि ऋतु के साथ-साथ भोजन का परिवर्तन भी हो जाना चाहिए । आयुर्वेद में किस ऋतु का भोजन क्या है, इसकी उन्मुक्त चर्चा है | शरीर के लिए कब कैसा भोजन अपेक्षित होता है, इस विषय में बहुत सुन्दर प्रतिपादन वहां प्राप्त होता है । ज्योतिष के ग्रन्थों ने इस विषय को आगे बढ़ाते हुए प्रतिपादन किया कि किस ऋतु में किस प्रकार के भाव पैदा होते हैं और उनका क्या-क्या असर होता है । वर्ष के दो अयन हैं— उत्तरायन और दक्षिणायन । हमारे मन के भी दो अयन होते हैं ---- उत्तरायण और दक्षिणायन । तपस्या, तेजस्विता, उग्रतायह हमारे मन का उत्तरायण है। जड़ता और नींद की शांति- यह हमारे मन का दक्षिणायन है । ऑकल्ट साइंस अध्यात्म की दुविधा शाखा है। उसमें दो ध्रुवों की चर्चा है— एक है उत्तरी ध्रुव और दूसरा है दक्षिणी ध्रुव । दोनों का मन के साथ गहरा संबंध है । रीढ़ की हड्डी के ऊपर का भाग— ज्ञानकेन्द्र —– उत्तरी ध्रुव है और रीढ़ की हड्डी का निचला भाग — शक्तिकेन्द्र और कामकेन्द्र — दक्षिणी ध्रुव है । इस प्रकार ऋतुओं और अयनों के साथ मन का संबंध जुड़ा हुआ है । उपाध्याय मेघविजयजी ने एक ग्रन्थ लिखा । उसका नाम है— अर्हत् गीता । उसमें ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि से मानसिक स्थितियों का सूक्ष्म विचार प्रस्तुत किया गया है । उन्होंने पूरे वर्ष, बारह मास, बारह राशियां, दो अयन, छह ऋतु और सात वार- प्रत्येक के साथ मन के संबंध की चर्चा की है । यह बहुत महत्त्वपूर्ण विषय है और इसका सूक्ष्म विवेचन वहां प्रस्तुत है । मैं यह सारी चर्चा इसलिए कर रहा हूं कि मानसिक शांति के प्रश्न पर सोचने वाले लोगों को एक ही कोण से नहीं सोचना चाहिए । अनेक कोणों से सोचना चाहिए । मन की अशान्ति हजार व्यक्तियों में मिलती - Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन की शान्ति / ९१ है तो हजार व्यक्तियों के लिए अशान्ति का कारण एक ही नहीं होता अनेक कारण होते हैं और उन अनेक कारणों के लिए एक ही समाधान देंगे तो वह पर्याप्त नहीं होगा | भिन्न-भिन्न समाधान भी चाहिए । किसकी किस प्रकार की समस्या है और किस प्रकार का हेतु मन की अशान्ति को उत्पन्न कर रहा है, जब तक इसका विश्लेषण नहीं कर लिया जाएगा और इसका सम्यक् बोध नहीं होगा, तब तक दिया हुआ समाधान असमाधान ही बना रहेगा । चिकित्सा की एक शाखा 'मनोचिकित्सा' विस्तार पा रही है । आज बड़े अस्पतालों के साथ एक मनोचिकित्सक भी रहता है । वह मन की चिकित्सा करता है । यह एक शाखा तो बन गई । किन्तु मन की बीमारियों की एक शाखा तो नहीं है । वटवृक्ष तो शतशाखी है। सैंकड़ों-हजारों शाखाएं हो सकती हैं। अब एक शाखा से कैसे समाधान होगा ? और समाधान इसलिए भी नहीं होता है कि जो समाधान देने वाला है वह स्वयं समाधान प्राप्त नहीं हुआ है । हमारा अनुभव है और अनेक लोगों का अनुभव है कि जो मनः चिकित्सक है, वह स्वयं समाहित नहीं है, अपने आप में उलझा हुआ है, अपने आप में उतना ही तनावग्रस्त है । वह अपने आप में उतना ही मानसिक दृष्टि से . बीमार है, किन्तु वह दूसरों की चिकित्सा करता चला जा रहा है। स्वयं समाहित नहीं, स्वयं की चिकित्सा नहीं और दूसरों का इलाज कर रहा है। बड़ी विचित्र बात है और यही हमारे जीवन की विसंगति है । आदमी इतना विसंगति का जीवन जी रहा है, जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती । वह यह समझ नहीं पाता । उसका विवेक प्रस्फुटित नहीं होता कि वह क्या कर रहा है । वह अपने आचरण को भी नहीं समझ पाता । एक अनपढ़ व्यक्ति की बात छोड़ दूं, किन्तु बड़े-बड़े पढ़े लिखे लोग भी समझ नहीं पाते । छोटा-सा एक गांव | पचास घरों की बस्ती । वहां कोई पढ़ा-लिखा नहीं था । जब कोई पत्र आता तो वे लोग पास वाले एक नगर में जाते और पत्र पढ़ाकर आ जाते । एक दिन एक व्यक्ति पत्र लेकर नगर में गया । एक पढ़े लिखे व्यक्ति के पास जाकर बोला- "भाई साहब ! मेरी पत्नी का पत्र आया है, पढ़कर सुना दीजिए ।" उसने कहा- " बैठो, अभी सुना देता हूं ।" वह पढ़ने लगा | ग्रामीण सुन रहा था । सुनते-सुनते वह अचानक उठा और पढ़ेलिखे व्यक्ति के कानों में अपनी अंगुलियां ठूंस दीं। वह अवाक् रह गया । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता ग्रामीण के उस आकस्मिक व्यवहार को वह समझ नहीं सका । ग्रामीण बोला"क्षमा करें, मैं जानता हूं कि आपको कष्ट हो रहा है, पर मैं नहीं चाहता कि मेरी पत्नी के गुप्त समाचार आपके कानों तक पहुंचे । इसलिए मैंने यह किया है । आप आगे भी पढ़ें।" वह ग्रमीण ही तो था । वह यह नहीं समझ सका कि पढ़ी हुइ बात कानों तक पहुंचे या नहीं, कोई अन्तर नहीं पड़ता | उसमें इतना विवेक नहीं था । वह मात्र इतना ही जानता था कि मेरी पत्नी की गुप्त बात कोई सुन न ले । यह विरोधाभास एक ग्रमीण में ही नहीं, बहुत पढ़े लिखे लोगों में भी है | और मुझे तो यह लगता है कि शायद पढ़े-लिखे लोगों की समस्याएं और अधिक जटिल हैं । वे इसलिए जटिल बन गयीं कि अनपढ़ आदमी में अभी तक महत्त्वाकांक्षाएं जागी नहीं हैं । वह कल्पना नहीं करता कि इतना आगे बढ़ा जा सकता है । शायद उसमें उतनी कल्पना नहीं है । किन्तु पढ़े-लिखे लोगों के सामने बुद्धि की प्रखरता ने इतनी कल्पनाएं दे दी, इतनी महत्वाकांक्षाएं जगा दीं, इतने बड़े बड़े मूल्य सामने रख दिए कि पूर्ति नहीं हो रही है और यह मन की अशान्ति के लिए बहुत अच्छी समग्री है। यह बहुत अच्छा अवसर है मानसिक अशान्ति का, मानसिक विक्षिप्तता का । यह तो एक स्वर्ण अवसर है कि महत्त्वाकांक्षा तो बहुत बढ़ जाए और पूर्ति न हो सके । इससे विकट कोई समस्या हो नहीं सकती । जब तक आदमी की महत्त्वाकांक्षा न जागे, शायद वह शान्ति का जीवन जी सकता है | हो सकता है कि विकास का जीवन न भी हो, पर शान्ति का जीवन भी जी सकता है । महत्त्वाकांक्षा जाग जाए और उसकी संपूर्ति न हो उस स्थिति में क्या बीतता है, वही जानता है या भगवान् जानता है, कल्पना नहीं की जा सकती । इतनी बेचैनी, इतनी कठिनाई और परेशानी होती है कि उस परेशानी को कोई बता नहीं सकता। मानसिक समस्याओं के अनेक कारण हैं | उन सबका सम्यक् विश्लेषण किए बिना हम मन की समस्या को समाधान नहीं दे सकते । उन सारे प्रभावों को जाने बिना समाधान नहीं दिया जा सकता । हर व्यक्ति जाने या न जाने, पर कम से कम जो मानसिक शान्ति के क्षेत्र में काम करने वाले हैं, मानसिक Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन की शान्ति / ९३ चिकित्सा के क्षेत्र में काम करने वाले हैं, अहिंसा के क्षेत्र में काम करने वाले हैं और जो विश्वशान्ति की चर्चा और परिक्रमा करने वाले हैं, उन लोगों के लिए तो यह बहुत जरूरी है कि वे उन सारे हेतुओं को जानें और फिर समाधान की बात करें । एक बहुत बड़ा हेतु है कालचक्र, जो मनुष्य के साथ-साथ चलता है । काल से जब स्थूल शरीर में परिवर्तन होता है, तो बहुत स्वाभाविक है कि हमारे भाव चक्र में भी परिवर्तन होगा । भाव में परिवर्तन होता है, यह अब केवल पौराणिक मान्यता ही नहीं है, वैचारिक मान्यता भी बन गई है । पुराने ग्रन्थों में कुछ तिथियों का विशेष चुनाव किया गया- पंचमी, अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा । इन तिथियों के चयन के बारे में हमारे सामने बहुत प्रश्न आते हैं । अष्टमी को विशेष धर्म करना चाहिए, सप्तमी को नहीं, ऐसा क्यों ? सप्तमी ने क्या बिगाड़ा और अष्टमी ने क्या भला कर दिया ? ऐसा क्यों करना चाहिए ? बहुत सारे प्रश्न आते हैं । और शायद समाधान भी समुचित नहीं दिया जाता । किन्तु अब ज्योतिर्विज्ञान और वैज्ञानिक अध्ययनों और विश्लेषणों के बाद, इसका बहुत अच्छा उत्तर दिया जा सकता है । 1 चन्द्रमा का हमारे मन के साथ में बहुत गहरा संबंध है । ज्योतिर्विज्ञान में भी है। किसी आदमी की कुंडली देखी जाती है तो मन का स्थान चन्द्रमा से देखा जाता है | चन्द्र कैसा है ? चन्द्रमा अच्छा है कुण्डली में तो इसका मन बहुत शान्त रहेगा स्वच्छ रहेगा । चन्द्रमा अच्छा नहीं है तो पागल बनेगा, यह भविष्यवाणी करने में कोई कठिनाई नहीं है । चन्द्रमा के स्थान के आधार पर मन की यह मीमांसा की जा सकती है । मन का और चन्द्रमा का बहुत गहरा संबंध है । हमारे शरीर में जल का हिस्सा बहुत बड़ा है। आपको तो यह शरीर ठोस लग रहा है, पर ठोस कहां है ? पानी ही पानी है। सत्तर- अस्सी प्रतिशत तो हमारे शरीर में पानी है । और भाग तो बहुत थोड़ा है । पानी का चन्द्रमा के साथ संबंध है । समुद्र के ज्वार-भाटे के साथ चन्द्रमा का संबंध है । हमारे " मन और शरीर का भी चन्द्रमा के साथ संबंध है । मन का ज्वार-भाटा भी चन्द्रमा के साथ आता है। केवल समुद्र में ही ज्वार-भाटा नहीं आता, मन Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता में भी आता रहता है । अमावस्या और पूर्णिमा ज्वार-भाटे के दिन हैं । बहुत अन्वेषणों के बाद यह निष्कर्ष निकाला गया कि हत्याएं, अपराध, हिंसा, उपद्रव, आत्महत्या- ये सारे पूर्णिमा और अमावस्या के दिन ज्यादा होते हैं । एक्सीडेण्ट भी चन्द्रमा के दिन ज्यादा होते हैं । इस विषय पर काफी लिखा गया है । काफी सर्वे किए गए हैं और खोजें भी की गई हैं । चन्द्रमा के साथ हमारे मन का बहुत गहरा संबंध है। कालचक्र और सौरमण्डल से हमारा भाव और मन जुड़ा हुआ है। इनसे हम प्रभावित होते हैं । इसलिए इन दिनों में विशेष अनुष्ठानों का विधान किया गया कि अष्टमी, चतुर्दशी को विशेष अनुष्ठान किए जाएं जिससे कि मानसिक विक्षिप्तता के प्रभावों से बचा जा सके । यह एक मुख्य हेतु था | चन्द्रमा की भांति ही दूसरे ग्रहों का भी प्रभाव पड़ता है । सूर्य का भी प्रभाव होता है,मंगल का भी प्रभाव होता है और गुरु का भी प्रभाव होता है । हम इतने प्रभावों से प्रभावित हैं कि अप्रभावित अवस्था हमें प्राप्त नहीं है । इस स्थिति में मानसिक शान्ति की समस्या और जटिल बन जाती है । क्या अप्रभावित रहा जा सकता है ? बहुत कठिन बात है । क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक जीवन जीता है। कोई व्यक्ति केवल वैयक्तिक जीवन नहीं जीता । वह सामाजिक जीवन जीता है और समाज का एक हिस्सा बना हुआ है । भाषा, सभ्यता, संस्कृति, विकास सारा समाज के सन्दर्भ में होता है | अकेले में किसी का विकास नहीं होता । वह समाज का हिस्सा बना हुआ है | मनोवैज्ञानिक यह स्थापना करते हैं कि व्यक्ति वैसा बनता है, जैसा समाज का वातावरण होता है । अतः व्यक्ति का निर्माण सामाजिक वातावरण पर निर्भर है । इस स्थिति में मानसिक समस्या का समाधान कैसे खोज सकते हैं ? समाधान तो पूरे समाज के लिए खोजने का है । समाज का वातावरण कैसे बदले ? सामाजिक सन्दर्भ कैसे बदलें । समाज की परिस्थितियां कैसे बदलें । और यह परिवर्तन किसी के हाथ की बात नहीं है । बहुत जटिलता है । दोनों ओर आदमी उलझ जाता है । इसमें कोई सन्देह नहीं कि व्यक्ति सामाजिक वातावरण को ग्रहण करता है और वैसा ही उसका व्यक्तित्व बनता है । किन्तु कोई भी बात यदि एकांगी दृष्टिकोण से स्वीकृत होगी तो उसमें सचाई नहीं होगी। सचाई होगी तो अधूरी Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन की शान्ति / ९५ सचाई होगी । पूरी सचाई नहीं होगी और समस्या के समाधान तक ले जाने वाली सचाई नहीं होगी । एकांगी दृष्टि से कोई भी बात पकड़ ली जाती है तो उलझन बढ़ जाती है । एक घटना है । कुछ पंडित काशी में विद्याध्ययन कर रहे थे । वे संस्कृत पढ़ते थे । काव्यों का पारायण करते थे । उनका विवेक जागृत नहीं था। वे प्रत्येक बात को एकांगी दृष्टिकोण से पकड़ते थे । एक दिन तीनों मित्र पंडित नदी के किनारे गेठ करने निकले । शहर के बाहर आए । इतने में एक ओर से ऊंट दौड़ता हुआ आ रहा था । एक छात्र पंडित बोला— देखो, वह जो तेज गति से आ रहा है, वह साक्षात् धर्म है । शास्त्र कहता हैधर्मस्य त्वरिता गतिः- धर्म की गति तीव्र होती है । यह धर्म है । दूसरे की दृष्टि वहां श्मशान घाट में खड़े गधे पर गयी । उसने शास्त्र की दुहाई देते हुए कहा— 'राजद्वारे श्मशाने च, यस्तिष्टति स बांधवः'- जो राजद्वर और श्मशान में रहता है, वह भाई होता है । तीसरा बोला- ठीक है, उचित कहा जा रहा है । शास्त्र के उस वक्य को मत भूलो— 'इष्ट धर्मेण योजयेत्'अपने इष्ट या बन्धु को धर्म के साथ जोड़ देना चाहिए | तत्काल तीनों ने गधे को पकड़ा, ऊंट को रोका और दोनों के पैर एक-दूसरे से बांध दिए । तीनों नदी के तट पर पहुंचे । रसोई की तैयारी करने लगे । एक नदी में उतरा । पानी का कलश भरकर ज्योंही आने लगा, उसका पैर फिसला और वह डूबने लगा । दूसरा छात्र पंडित तत्काल दौड़ कर आया और तेज चाकू से उसका सिर काट डाला ? तीसरे ने कहा- अरे ! यह क्या अनर्थ कर डाला ? वह बोला- कैसा अनर्थ ? धर्मशास्त्र कहते हैं— 'सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्द्ध रक्षति पंडितः'--सर्वनाश की स्थिति आने पर आधे को तो बचा ही लेना चाहिए । मैंने धड़ को बचा लिया | यह सारा एकांगी दृष्टिकोण का प्रतिफल है । हमारा दृष्टिकोण बहुत एकांगी होता है | हम सिद्धान्त को पढ़ते हैं, ग्रहण करते हैं । किन्तु एकांगिता से ग्रहण करते हैं । जहां एकांगिता होती है वहां सार्थकता कम होती है, अनर्थ की संभावना अधिक रहती है। शायद हमने भी इस बात को एकांगी दृष्टि से समझा है कि व्यक्ति समाज का हिस्सा है । जैसा सामाजिक वातावरण होता है, वैसा व्यक्ति बनता है । यह झूठ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता नहीं है, सच है । हमारा मन काल से प्रभावित होता है, यह भी सचाई है। हमारा मन भाव से यानी अवस्था विशेष से प्रभावित होता है, यह भी सचाई है । वह शिक्षा से प्रभावित होता है, यह भी सचाई है । हमारा मन सामाजिक वातावरण से प्रभावित होता है यह भी सचाई है । किन्तु ये सारी सचाइयां एकांगी हैं । पूर्ण सत्य एक भी नहीं हैं । यदि हम पूर्ण सत्य के आधार पर एक बात को पकड़कर बैठ जाएं तो बहुत बड़ी समस्या पैदा हो सकती है। हमें समाधान नहीं मिल सकता । हमें अपने सत्य को, सापेक्ष-सत्य को, सापेक्षसत्य से समझना है, और उसका योग कर कोई निष्कर्ष निकालना है । व्यक्ति समाज का हिस्सा है, यह बात ठीक है। किन्त व्यक्ति की अपनी वैयक्तिकता भी है । वैयक्तिकता को भी कभी समाप्त नहीं किया जा सकता । यदि सामाजिकता को समाप्त नहीं किया जा सकता तो वैयक्तिकता को भी समाप्त नहीं किया जा सकता । इन दोनों सचाइयों को साथ लेकर चलना पड़ेगा। __व्यक्ति की अपनी विशेषताएं होती हैं और यदि वे विशेषताएं न हों तो इन रोग के कीटाणुओं का इतना भयंकर आक्रमण हो सकता है कि कोई बच ही नहीं सकता । किन्तु प्रत्येक व्यक्ति के पास अपनी अवरोधक शक्ति होती है और हर व्यक्ति अपनी क्षमता और शक्ति के आधार पर कीटाणुओं से लड़ता है, अपनी शक्ति का उपयोग करता है । व्यक्तिगत विशेषताओं पर भी हमें विचार करना होगा । एक ओर हम वातावरण से, परिस्थितियों से, हेतुओं से, निमित्तों से प्राप्त होने वाली समस्याओं पर विचार करें तो दूसरी ओर व्यक्ति के आन्तरिक स्रोतों पर भी विचार करें। यहीं अध्यात्म का और इस भौतिक विज्ञान का एक केन्द्र बिन्दु बनता है। हम व्यक्ति के आन्तरिक स्रोतों पर विचार करें । एक बहुत सुन्दर पुस्तक निकली है— Man Unknown | उसमें वैज्ञानिक दृष्टि से इतना विश्लेषण किया गया है कि 'मनुष्य' अभी तक अज्ञात है। मनुष्य का थोड़ासा हिस्सा, उसके मस्तिष्क का पांच-सात प्रतिशत हिस्सा ही ज्ञात हुआ है। नब्बे प्रतिशत से अधिक हिस्सा अज्ञात ही है । ज्ञात बहुत छोटा-सा बिन्दु है । किन्तु अज्ञात तो पूरा-का-पूरा समुद्र ही है । ज्ञात के आधार पर इतने बड़े अज्ञात को अस्वीकार करना कैसे संभव होगा ? अध्यात्म के आचार्यों Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन की शान्ति / ९७ ने अज्ञात पर भी बहुत अनुसंधान किया है । उन्होंने अपनी अन्तःदृष्टि और अन्तःप्रेरणा से अज्ञात को समझने का बहुत बड़ा प्रयत्न किया है । अध्यात्म का यह बिन्दु हमें उपलब्ध है । आज से नहीं, किसी वैज्ञानिक की पुस्तक से नहीं, किन्तु हजारों-हजारों वर्ष पहले उन घोषणाओं से हम परिचित हैं कि प्रत्येक प्राणी में, न केवल मनुष्य में, किन्तु प्रत्येक प्राणी में अनन्त शक्ति विद्यमान है | अनन्त चतुष्टयी जैन दर्शन में बहुत प्रसिद्ध है । अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त शक्ति और अनन्त आनन्द यह अनन्त चतुष्टयी है । वैदिक साहित्य में सत्, चित् और आनन्द बहुत प्रसिद्ध है । हमारे शरीर में, बाहर नहीं, हमारे भीतर यह अनन्त चतुष्टयी है । भीतर इतने बड़े महासागर लहरा रहे हैं, जिनकी आज की भूमि पर मिलने वाले किसी भी सागर से तुलना नहीं की जा सकती । उन सागरों के सामने, ये हमारे सागर, चाहे हिन्द महासागर हो, चाहे अटलांटिक हो, कोई भी हो, बहुत छोटे हैं, नदी-नालों जैसे हैं । कोई भी अनन्त नहीं है, सान्त है, समीम है । किन्तु हमारे भीतर तो चार अनन्त महासागर, जिनकी कोई सीमा नहीं, जिनका कोई आर-पार नहीं, लहरा रहे हैं। उनकी उत्ताल उर्मियां उछल रही हैं । किन्तु इस अनन्त चतुष्टयी से हम अनजान हैं । सिद्धान्त रूप में जानते हैं कि हमारे भीतर चार अनन्त हैं । किन्तु उनका साक्षात्कार कैसे हो ? उनके साथ संपर्क स्थापित कैसे हो? उस प्रक्रिया के हम जानकार नहीं हैं । जब आदमी अपनी शक्ति से अपरिचित है तो वह अपने आपको कैसे पहचान सकता है । कैसे अपने आपको मूल्य दे सकता है और कैसे दूसरे को मूल्य दे सकता है ? रामकृष्ण परमहंस के पास एक बड़ा सेठ आया । बड़ा सेठ था, इसलिए अहंकारी भी होना चाहिए | बड़ा सेठ हो और अहंकारी न हो तो यह दुनिया । का नौवां-दसवां आश्चर्य हो जाएगा। यह हो नहीं सकता | होना ही चाहिए । । सेठ अहंकारी और लोभी था । आया और अपने अहंकार की पुष्टि के लिए - एक बहुत कीमती दुशाला भेट किया । उन्होंने स्वीकार कर लिया । साधु के 1 लिए कोई फर्क नहीं पड़ता। बढ़िया हो, घटिया हो, उन्होंने स्वीकार कर लिया। पांच-सात दिन बाद सेठ फिर आया तो देखा, दुशाला तो नीचे बिछा हुआ है । सेठ बहुत कसमसाया । उसे बहुत बुरा लगा | आखिर रहा नहीं गया । वह पास में जाकर बोला-- गुरुदेव ! बहुत कीमती दुशाला है । यह कभी Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता कभी ओढ़ने का है । यह बिछाने का थोड़े ही है ! इसको तो आप संभालकर रखें । रामकृष्ण ने कहा— संभालकर अपने भगवान् को, अपनी मां को रखूं, I या इस दुशाले को रखूं ? एक को ही संभालकर रख सकता हूं। दो को नहीं रख सकता । तेरे लिए इसका कोई मूल्य हो सकता है, मेरे लिए इसका मूल्य नहीं है। मेरे लिए तो मेरी मां ही मूल्यवान है । उन्होंने सोचा, यह ऐसे नहीं समझेगा । पास में अग्नि जल रही थी । दुशाले को अग्नि में डाल दिया । दुशाला जल गया । स्वामीजी ने कहा – तुमने कहा था कि मेरा दुशाला बहुत मूल्यवान है । कहां है यह मूल्यवान ? अग्नि ने तो इसे जला दिया । आधा दुशाला जल गया । क्या मूल्य रहा ? अपना-अपना मूल्य होता है । जो व्यक्ति जहां तक पहुंचा है, उसने उतना ही मूल्य समझा है । समाज के सारे मूल्य सामाजिक चेतना के आधार पर प्रतिष्ठापित होते हैं। लोग कहते हैं, हमारे समाज में सत्ता का बड़ा मूल्य है । धन का बड़ा मूल्य है । मैं कभी-कभी सोचता हूं कि यह आक्षेप क्यों होना चाहिए। समाज में सत्ता का, धन का मूल्य नहीं होगा तो किसका मूल्य होगा । जो समाज सत्ता और धन के आधार पर चल रहा है, वहां यदि सत्ता और धन का मूल्य नहीं होगा तो किसका होगा ? यदि सामाजिक भूमिका में चरित्र का और अध्यात्म का मूल्य हो जाए और अध्यात्म की भूमिका में सत्ता और सपंदा का मूल्य हो जाए तो जरूर आक्षेप जैसी बात है। जो जिस भूमिका पर जी रहा है, वह वैसे ही मूल्यों की प्रतिष्ठा करेगा । अध्यात्म के आचार्यों ने मनुष्य के भीतर की गहराइयों में जाकर झांका, उस अनन्त चतुष्टयी में कुछ डुबकियां लेकर। जिन मूल्यों की प्रतिष्ठा की, जिन तथ्यों का प्रतिपादन किया और मनुष्य के व्यक्तित्व का चित्र उभारा यदि वह हमारे सामने होता तो शायद मन की शान्ति का प्रश्न, शान्ति की समस्या, जटिल नहीं होती । उन्होंने व्यक्ति को समझा, उस आलोक में देखा और परखा कि भावशुद्धि के बिना मन की शान्ति का प्रश्न कभी समाहित नहीं हो सकता । हमारे विकास का, जीवन के विकास का सबसे बड़ा आधार है भावशुद्धि | एक धारा हमारे भीतर हैं भाव- अशुद्धि की और दूसरी धारा प्रवहमान है भाव-शुद्धि की । दोनों धाराएं निरंतर प्रवहमान हैं हमारे व्यक्तित्व में । जब-जब हम भाव की अशुद्धि की धारा से जुड़ते हैं मन की समस्याएं Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन की शान्ति / ९९ उलझ जाती हैं | मानसिक पागलपन, मानसिक विक्षिप्तता उभरकर सामने आ जाती है । और जब-जब हम अपनी भाव-शुद्धि की धारा से जुड़ते हैं, सब कुछ ठीक हो जाता है । पागलखाने में एक पागल भरती था । सामने घड़ी टंगी हुई थी । कोई भी आदमी पागलखाने में देखने आता तो पूछता कि समय क्या हुआ है ? अमुक समय हुआ । एक से, दूसरे से, तीसरे से पूछा और सबने यही कहा कि घड़ी ठीक चल रही है । उस व्यक्ति ने कहा कि जब घड़ी ठीक चल रही है तो पागलखाने में इसकी क्या जरूरत है । पागलखाने में तो ठीक की जरूरत नहीं है। हमारे जीवन में एक पागलखाना भी चल रहा है । जितनी भाव की अशुद्धि है, वह सब पागलखाना ही तो है । पागल कोई मकान में थोड़े ही बनता है । पागल तो अपने जीवन में बनता है । जिस व्यक्ति का भाव की अशुद्धि के साथ में तार जुड़ गया वही पागल हो गया । पागल और कौन होता है ? जो व्यक्ति एक बात को पकड़ लेता है, और उसे छोड़ नहीं सकता वह पागल हो जाता है । एक रट लग गयी, एक धुन लग गयी, पागल हो गया । जो विचार का तांता तोड़ नहीं पाता वह पागल बन जाता है । जिस व्यक्ति में इस क्षमता का विकास हो जाता है कि कोई अशुद्ध भावधारा आ जाती है तो उससे हटाना जानता है, वह समझदार आदमी होता है । बहुत अधिक अन्तर नहीं है। यह पागलपन की धारा यानी अशद्ध भाव की धारा और यह समझदारी की धारा, दोनों सटी हुई बह रही हैं । अब किस धारा में आदमी कब चला जाए, कहा नहीं जा सकता है। आज के शरीरशास्त्री बतलाते हैं कि हमारे मस्तिष्क में दो ऐसी ग्रन्थियां हैं, एक है हर्ष की और एक है शोक की। दोनों सटी हुई हैं । हर्ष की ग्रन्थि उद्घाटित हो जाए तो हर घटना में व्यक्ति सुख का अनुभव करे । उसे दुःख नहीं होगा | यदि शोक वाली ग्रन्थि खुल जाए तो फिर चाहे जितना ही सुख हो, करोड़पति बन जाए, दुःख का अन्त होने वाला नहीं है । पर खतरा यही है कि एक को खोलते समय दूसरी खुल जाए तो फिर सारा चौपट हो जाए। सुख और दुःख की धाराएं सटी हुई चल रही हैं । थोड़ा-सा पैर इधर से उधर पड़ा, बस खतरा तैयार है । इसी. बिन्दु पर जागरूकता की जरूरत है । आदमी Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता निरंतर जागरूक रहे । किसी भी अवसर पर प्रमाद मत करो । सतत जागरूकता रहे । यह जागरूकता का प्रयोग मानसिक शान्ति के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण प्रयोग है | यह सोचा जा सकता है कि जब हमारा मन इतने प्रभावों से प्रभावित है, तब मानसिक शान्ति का हमारे सामने प्रश्न ही नहीं । हम तो निरंतर मानसिक अशान्ति के चक्र में ही चलते रहेंगे । ऐसी बात नहीं है । अनेक प्रभाव आते हैं । किन्तु हमारे पास सुरक्षा के साधन भी विद्यमान हैं । यदि हम उन सुरक्षा के साधनों का उपयोग करे, तो भावों से बचा जा सकता है । वह उपाय हमारे भीतर ही विद्यमान है । वह उपाय है भावशुद्धि । जो व्यक्ति निरंतर भाव को शुद्ध रखता है, उस पर ये आक्रमण नहीं हो सकते और होते भी हैं तो बहुत मंद होते हैं। वह बच जाता है। भावशुद्धि एक शक्तिशाली उपाय है । यदि उसके प्रति हमारी जागरूकता बढ़ जाये तो इन खतरों से बचा जा सकता है । प्रेक्षाध्यान में शरीर - प्रेक्षा का प्रयोग करते हैं । शरीर को देखना कोई बड़ी बात नहीं है । कांच के सामने खड़े होकर कितनी बार देखते होंगे शरीर को ! शरीर के प्रकंपनों का अनुभव किया । यह कौन-सा आध्यात्मिक प्रयोग है । पर शरीर के प्रति जागरूक होना, प्राण-शक्ति के प्रकंपनों का अनुभव करना, रासायनिक परिवर्तनों का अनुभव करना, ये तो मात्र आलंबन हैं । बच्चे को चलाने के लिए, उसकी अंगुली पकड़ना है । हमने सिर्फ एक आलम्बन दिया कि इनके सहारे भीतर में प्रवेश करें। यह कोई बड़ी बात नहीं है । सबसे बड़ी बात यह है कि इन आलम्बनों के साथ चित्त को लगा दें, जिससे कि भावधारा अशुद्ध न बने । प्रिय और अप्रिय भाव न आए, राग और द्वेष का भाव न आए, हिंसा-चोरी का भाव न जागे। उसी के लिए ये प्रयोग हैं। अगर इनको ही सब कुछ मान लेंगे तो और भ्रान्ति पनप जाएगी । आलम्बनों का अपना उपयोग है । इनके बिना और प्रक्रिया के बिना कहीं पहुंचा ही नहीं जा सकता। हर कोई आदमी सीधा वीतराग नहीं बन जाता । बहुत कठिन बात है वीतराग बनना । प्रत्येक वीतराग को एक निश्चित प्रणाली से गुजरना होगा। जब उस प्रणाली का अंतिम बिन्दु आता है तो व्यक्ति वीतराग बन जाता है । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंडलिनी-जागरण : अवबोध और प्रक्रिया (डॉ० टी० आर० भाटिया, व्याख्याता, एन० सी० ई० आर० टी०) दिल्ली से यहां जीवन विज्ञान के प्रशिक्षक, प्रशिक्षण शिविर के शिविरार्थियों के मनोवैज्ञानिक टेस्ट लेने तथा तथ्य संकलित करने के लिए आये। उन्होंने प्रवचन काल में कुछ प्रश्न उपस्थित किये | प्रश्नों के केन्द्र में 'कुंडलिनी' की बात थी । उनके प्रश्न ये हैं १. सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर का विज्ञान क्या है ? २. कुंडलिनी को जागृत करने के लिए क्या गुरुकृपा आवश्यक होती है या वह स्वतः जागृत हो जाती है ? ३. क्या कुंडलिनी जागृत हो जाए और कोई खतरा पैदा न हो, ऐसा देखा गया है ? कुछ लोगों ने कुंडलिनी को जगाने का प्रयास किया है और वे विक्षिप्त हो गये । इन खतरों से कैसे बचा जा सकता ४. कृष्ण ने अर्जुन की कुंडलिनी को जागृत कर उसका पथ-प्रदर्शन किया । रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानंद की कुंडलिनी जगाई। क्या ये वास्तविकताएं हैं अथवा सम्मोहन ? ५. प्राणायाम का कालमान क्या होना चाहिए ? 'अधिकस्य अधिकं फलं'-क्या यह इस पर लागू होता है ? सूक्ष्म शरीर : स्थूल शरीर हम जो कुछ जानते हैं वह सारा इन्द्रिय के माध्यम से जानते हैं | हमारे पास पांच इन्द्रियां, मन और बुद्धि है । इन्द्रियों के द्वारा जो जाना जाता है, जो संचित किया जाता है, उस सामग्री के आधार पर मन अपना काम चलाता Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता है । उससे आगे बुद्धि आती है । हमारे जानने का पहला या मूलस्रोत है— इन्द्रियां । ये हमारे शरीर में हैं, पृथक नहीं हैं। हमने शरीर के कुछ ऐसे चुंबकीय क्षेत्र बना लिये, जिनके माध्यम से हम बाह्य जगत् के साथ संपर्क स्थापित कर सकते हैं । वे पांच माध्यम हमारी पांच इन्द्रियां हैं । जो इस स्थूल शरीर से परे है, वह इन्द्रियों का विषय नहीं है । वह इन्द्रियों से नहीं जाना जा सकता । किन्तु हमारे शरीर में कुछ ऐसे तत्त्व हैं, जिनके विषय में चिन्तन और अनुभव करते-करते हम अपनी बुद्धि और चिद् शक्ति के द्वारा इन्द्रियों की सीमा से परे जाकर सूक्ष्म शरीर की सीमा में प्रविष्ट हो गये । उनमें एक तत्त्व है प्राण विद्युत । अग्निदीपन, पाचन, शरीर का सौष्ठव और लावण्य, ओज- ये जितनी आग्नेय क्रियाएं हैं, ये सारी सप्त धातुमय इस शरीर की क्रियाएं नहीं हैं । फिर प्रश्न हुआ कि इन क्रियाओं का संचालक कौन है ? खोज हुई। ज्ञात हुआ कि इस स्थूल शरीर के भीतर तेज का एक शरीर और है, वह है विद्युत शरीर, तैजस शरीर । वह शरीर सूक्ष्म है । वही इस स्थूल शरीर की सारी क्रियाओं का संचालन करता है । उस सूक्ष्म शरीर में से विद्युत का प्रवाह आ रहा है और उस विद्युत प्रवाह से सब कुछ संचालित हो रहा है । उस सूक्ष्म शरीर को प्राण शरीर भी कहा जाता है । यह शरीर प्राण का विकिरण करता है और उसी प्राण-शक्ति से क्रियाशीलता आती है । इन्द्रियां अपना कार्य करती हैं । किन्तु यदि उनमें प्राण-शक्ति का प्रवाह न हो तो वे अपना कार्य नहीं कर सकतीं। मन का अपना काम है । किन्तु प्राण शक्ति के योग के अभाव में वह भी कुछ नहीं कर सकता । स्वर-यंत्र अपना काम करता है, पर प्राण-शक्ति के अभाव में वह निष्क्रिय हो जाता है । हमारा रेस्परेटरी सिस्टम भी प्राण-शक्ति के आधार पर चलता है । श्वासोच्छ्वास की क्रिया प्राणशक्ति के बिना नहीं हो सकती । श्वास, मन, इन्द्रियां, भाषा, आहार और विचार — ये सब प्राणशक्ति के ऋणी हैं । उससे ही ये सब संचालित होते हैं, क्रियाशील होते हैं । प्राणशक्ति सूक्ष्म शरीर से निःसृत है। जहां से प्राणशक्ति का प्रवाह आता है वह सूक्ष्म शरीर है-- तैजस शरीर । इसी संदर्भ में एक प्रश्न और होता है कि वह तैजस शरीर किसके द्वारा Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंडलिनी-जागरण : अवबोध और प्रक्रिया | १०३ संचालित है ? वह प्राणधारा को प्रवाहित अपने आप कर रहा है या किसी के द्वारा प्रेरित होकर कर रहा है ? यदि अपने आप कर रहा है तो तैजस शरीर जैसा मनुष्य में है वैसा पश में भी है, पक्षियों में भी है और छोटे सेछोटे प्राणी में भी है । एक भी प्राणी ऐसा नहीं है, जिसमें तैजस शरीर सूक्ष्म शरीर न हो । वनस्पति में भी तैजस शरीर है, प्राण-विद्युत है । वनस्पति में भी ओरा होता है, आभामंडल होता है । वह आभामंडल इस स्थूल शरीर से निष्पन्न नहीं है । आभामंडल (ओरा) उस सूक्ष्म शरीर- तैजस शरीर का विकिरण है । वनस्पति का अपना आभामंडल होता है । हर प्राणी का अपना आभामंडल होता है। मनुष्य का भी अपना आभामंडल होता है। प्रश्न होता है, यह रश्मियों का विकिरण क्यों होता है ? यदि तैजस शरीर का कार्य केवल विकिरण करना ही हो तो मनुष्य के साथ यह क्यों कि वह इतना ज्ञानी, इतना शक्तिशाली और इतना विकसित तथा एक अन्य प्राणी इतना अविकसित क्यों | यह सब तैजस शरीर का कार्य नहीं है । तैजस शरीर के पीछे भी एक प्रेरणा है सूक्ष्म शरीर की । वह सूक्ष्म शरीर है कर्म शरीर । जिस प्रकार के हमारे अर्जित कर्म और संस्कार होते हैं, उनका जैसा स्पंदन होता है, उन स्पंदनों से स्पंदित होकर तैजस शरीर अपना विकिरण करता है । तैजस शरीर जिस प्रकार की प्राणधारा प्रवाहित करता है, वैसी प्रवृत्ति स्थूल शरीर में हो जाती है। तीनों शरीरों की एक श्रृंखला है-- स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और सूक्ष्मतर शरीर | स्थूल शरीर यह दृश्य शरीर है । सूक्ष्म शरीर है तैजस शरीर और सूक्ष्मतर शरीर है कर्म शरीर, कार्मण शरीर । कुछ लोगों ने इसका विस्तार कर सात शरीर भी माने हैं। विस्तार भी हो सकता है । किन्तु इन तीन शरीरों की एक व्यवस्थित श्रृंखला है--- स्थूल, सूक्ष्म और सूक्ष्मतर । इन तीनों शरीरों के माध्यम से सारी प्रवृत्तियों का संचालन होता है | प्राणी की मूलभूत उपलब्धियां तीन हैं— चेतना (ज्ञान), शक्ति और आनन्द । चेतना का तारतम्य—अविकास और विकास, शक्ति का तारतम्य—अविकास और विकास, आनन्द का तारतम्य अविकास और विकास—यह सारा इन शरीरों के माध्यम से होता है । चेतना, शक्ति और आनन्द की अभिव्यक्ति के माध्यम हैं ये शरीर | कर्म शरीर में अभिव्यक्ति के जितने स्पन्दन होते हैं उतने ही Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता स्पन्दन संक्रान्त होते हैं तैजस शरीर में और वे स्पन्दन फिर संक्रान्त होते हैं स्थूल शरीर में । यहां वे पूरे प्रकट होते हैं । __इस प्रकार हमारे पूरे जीवन का संचालन हो रहा है सूक्ष्मतर शरीर (कर्म शरीर) के द्वारा । उसका निर्देश क्रियान्वित हो रहा है सूक्ष्म शरीर (तेजस शरीर) में और तैजस शरीर की प्रेरणा से संप्रेषित हो रहा है यह स्थूल शरीर । इसलिए हमारी प्रवृत्ति का मूल इस स्थूल शरीर में नहीं खोजा जा सकता | हमारी प्रवृत्ति का मूल खोजा जा सकता है सूक्ष्म शरीर में । सारी क्रियाएं, सारी घटनाएं सबसे पहले सूक्ष्म शरीर में घटित होती हैं, उत्पन्न होती हैं और फिर स्थूल शरीर से प्रकट होती हैं | स्थूल शरीर उन क्रियाओं या घटनाओं का उत्पादक नहीं, केवल उनको अभिव्यक्ति देने वाला माध्यम है । आज आदमी बीमार होता है और हम कहते हैं, आज अमुक बीमार हो गया । उसकी बीमारी पांच-चार महीनों पूर्व सूक्ष्म शरीर में आ चुकी थी। आज वह स्थूल शरीर में उतरी है | इसलिए हम कह रहे हैं अमुक आज बीमार हो गया। विज्ञान ने इस दिशा में कदम आगे बढ़ाए हैं । स्थूल शरीर में अभिव्यक्त होने वाली बीमारी की भविष्यवाणी महीनों पहले करने में वह सफल हो रहा है । ऐसे यंत्र बन चुके हैं । वह दिन भी दूर नहीं जब महीनों बाद घटित होने वाली मृत्यु की भविष्यवाणी की जा सकेगी । यह सारा सूक्ष्म, सूक्ष्मतर शरीर के आधार पर ही किया जा सकता है । देवता की जब मृत्यु होने वाली होती है, तब कुछ परिवर्तन घटित होते हैं । पहला परिवर्तन है.--- छह महीने पहले उसका आभामंडल क्षीण होने लग जाता है । दूसरा परिवर्तन है... उसकी माला जो सदा विकस्वर रहती है, वह म्लान होने लग जाती है । तीसरा परिवर्तन है— उसका आसन प्रकम्पित हो जाता है । आभामंडल की क्षीणता, माला की म्लानता, आसन का प्रकम्पन-- ये सारे लक्षण उसके मौत के सूचक होते हैं । मृत्यु की सूचना सूक्ष्मतर शरीर में पहले ही अंकित हो जाती है और उसी के फलस्वरूप ये सारी बातें होती हैं । स्थूल शरीर में मौत का प्रकम्पन बाद में होता है । और जब उसमें होता है तभी हम कहते हैं, अमुक मर गया, अमुक की मौत हो गई। तीनों शरीरों का सामंजस्य है । तीनों एकसूत्रता में जुड़े हुए हैं और अपना-अपना कार्य संपादित कर रहे हैं । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंडलिनी-जागरण : अवबोध और प्रक्रिया / १०५ कुंडलिनी : स्वरूप और जागरण ____कुंडलिनी-जागरण का प्रश्न शरीरों के साथ जुड़ा हुआ है । तीन शरीरों में जो मध्य का शरीर है, तैजस शरीर (सूक्ष्म शरीर) उसकी एक क्रिया का नाम है 'तेजोलब्धि' । हठयोग तंत्र में इसे 'कुंडलिनी' कहा गया है | कहींकहीं 'चित्शक्ति' कहा जाता है । जैन साधना पद्धति में इसे 'तेजोलब्धि' कहा जाता है । नाम का अन्तर है । कुंडलिनी के अनेक नाम हैं । हठयोग में इसके पर्यायवाची नाम तीस गिनाए गए हैं। उनमें एक नाम है 'महापथ' । जैन साहित्य में 'महापथ' का प्रयोग मिलता है । कुंडलिनी के अनेक नाम हैं । भिन्न-भिन्न साधना पद्धतियों में यह भिन्न-भिन्न नाम से पहचानी गई है । यदि इसके स्वरूपवर्णन में की गई अतिशयोक्तियों को हटाकर इसका वैज्ञानिक विश्लेषण किया जाए तो इतना ही फलित निकलेगा कि हमारी विशिष्ट प्राणशक्ति है । प्राणशक्ति का विशेष विकास ही कुंडलिनी का जागरण है | प्राणशक्ति के अतिरिक्त, तैजस शरीर के विकिरणों के अतिरिक्त कुंडलिनी का अस्तित्व वैज्ञानिक ढंग से सिद्ध नहीं हो सकता । मध्यकालीन साहित्य में अतिशयोक्तियों और रूपकों का उल्लेख अधिक मात्रा में प्राप्त होता है । उनकी भाषा के गहन जंगल में से मूल को खोज निकालना कठिनसा हो गया है । आज के चिन्तक उन सब अतिशयोक्तियों और रूपकों के चक्रव्यूह को तोड़कर यथार्थ को पकड़ने का प्रयास करते हैं । उनके प्रयास में कुंडलिनी का अस्तित्व प्रमाणित होता है, पर होता है वह सामान्य शक्ति के विस्फोट के रूप में | वह कुछ ऐसा आश्चर्यकारी तथ्य नहीं है, जिसे अमुक योगी ही प्राप्त कर सकते हैं, या जिसे अमुक अमुक योगियों ने ही प्राप्त किया है । यह सर्वसाधारण है | कोई भी प्राणी ऐसा नहीं है, जिसकी कुंडलिनी जागृत न हो । वनस्पति के जीवों की भी कुंडलिनी जागृत है । हर प्राणी की कुंडलिनी जागृत होती है। यदि वह जागृत न हो तो वह चेतन प्राणी नहीं हो सकता । वह अचेतन हो सकता है । जैन आगम ग्रन्थों में कहा गया--- चैतन्य (कुंडलिनी) का अनन्तवां भाग सदा जागृत रहता है । यदि यह भाग भी आवृत्त हो जाए तो जीव अजीव बन जाए, चेतन अचेतन हो जाए। चेतन और अचेतन के बीच यही तो एक भेद-रेखा है । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता . प्रत्येक प्राणी की कुंडलिनी यानी तैजस शक्ति जागृत रहती है । अन्तर होता है मात्रा का | कोई व्यक्ति विशिष्ट साधना के द्वारा अपनी इस तैजस शक्ति को विकसित कर लेता है और किसी व्यक्ति को अनायास ही गुरु का आशीर्वाद मिल जाता है तो साधना में तीव्रता आती है और कुंडलिनी का अधिक विकास हो जाता है । वह अनुभव आगामी यात्रा में सहयोगी बन सकता है । बनता है यह जरूरी नहीं है । गुरु की कृपा ही क्यों, मैं मानता हूँ कि जिस व्यक्ति का तैजस शरीर जागत है उस व्यक्ति के सान्निध्य में जाने से भी दूसरे व्यक्ति की कुंडलिनी को, तैजस शरीर को उत्तेजना मिल जाती है और वह अर्द्धजागृत कुंडलिनी पूर्ण जागृत हो जाती है । प्रश्न है विद्युत् प्रवाहों का | 'क' और 'ख' दो व्यक्ति हैं । 'क' के विद्युत् प्रवाह बहुत सक्रिय हैं । 'ख' के विद्युत् प्रवाह कमजोर हैं । यदि 'ख' 'क' के पास जाता है तो 'क' के विद्युत् प्रवाह 'ख' को प्रभावित करेंगे और उसमें एक प्रकार के विद्युत् स्पंदन पैदा हो जाएंगे। एक बहुत आश्चर्य की बात है । एक व्यक्ति बहुत पहुंचे हुए योगी के पास गया । कुछ देर बैठा । उसने अनुभव किया कि उसकी कामवासना उभर रही है । वह हैरान हो गया । सन्निधि है परम योगी की । उसके पास जाने से कामवासना शान्त होनी चाहिए, पर वह उभर रही है । बहुत विचित्र बात है । यह अकारण नहीं है। इसका भी पुष्ट कारण है । वह योगी पहंचा हुआ है | उसका तैजस शरीर पूर्ण जागृत है | उसके उस शरीर से प्रतिक्षण विकिरण हो रहे हैं । वे बहुत प्रभावशाली हैं । वे विकिरण सामने वाले व्यक्ति में संक्रांत होते हैं और जब तैजस संक्रांत होता है तो वह सबसे पहले सक्रिय करता है जननेन्द्रिय को, क्योंकि वह स्थान है शक्ति का । उस शक्ति के स्थान को वह प्रकंपित करता है और वासना अचानक उभर आती है । बहुत खतरनाक मार्ग है यह । जननेन्द्रिय और तैजस शरीर का मार्ग सटा हुआ है । इतना सटा हुआ कि वह उसे प्रभावित कर देता है । गुरु-कृपा का इतना ही तात्पर्य है—उस व्यक्ति का सान्निध्य जिसका तैजस जागृत है | गुरु का अर्थ परम्परागत गुरु से नहीं है । जिस व्यक्ति की तैजस शक्ति विकसित है, उसके पास जाने से, उसके आशीर्वाद प्राप्त करने से, उसके हाथों का मस्तिष्क पर स्पर्श प्राप्त होने से या पृष्ठरज्जु पर Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंडलिनी-जागरण : अवबोध और प्रक्रिया | १०७ उसका स्पर्श मिलने से कुंडलिनी शक्ति को जगाने में सहयोग मिलता है | उसको अनुभव होने लग जाता है । वह क्षणिक अनुभव विद्युत जागरण जैसा होता है । गुरु-कृपा से मिलने वाला यह क्षणिक अनुभव या जागरण क्षणिक ही होता है, स्थायी नहीं होता । एक क्षण में अपूर्व अनुभव हुआ और दूसरे क्षण में वह समाप्त हो गया । इलेक्ट्रोड लगाने से क्षणिक अनुभव होता है और उसे हटा देने से वह अनुभव भी समाप्त हो जाता है। वैसा ही यह अनुभव होता है । गुरु का आशीर्वाद मिला, अनुग्रह मिला, कृपा मिली तो एक बार झटका जैसा लगा, किन्तु क्षण भर बाद वह समाप्त हो जाता है । अन्ततः कुंडलिनी का जागरण साधक को स्वयं ही करना पड़ता है । उसे प्रयास करना होता है । गुरु-कृपा का इतना-सा लाभ होता है कि एक बार जब अनुभव हो जाता है, फिर चाहे वह अनुभव क्षणिक ही क्यों न हो, तो वह आगे के अनुभव को जगाने के लिए प्रेरक बन जाता है | इतना लाभ अवश्य होता है । यह अपने आप में बहुत मूल्यवान है । यही शक्तिपात है । पर जैसेजैसे शिष्य, गुरु या उस व्यक्ति से दूर जाएगा, वह शक्ति धीरे-धीरे कम होती जाएगी । आखिर ली हुई शक्ति कितने समय तक टिक सकती है ! अपनी शक्ति को ही जगाना पड़ता है । वही स्थायी बनी रह सकती है । अपनी शक्ति को जगा लेने पर भी अवरोध आ सकते हैं । किसी व्यक्ति ने उस जागृत शक्ति से अनुपयुक्त काम कर डाला, तो वह शक्ति चली जाती है, क्षीण हो जाती है। कुंडलिनी का जागरण प्रेक्षाध्यान से भी कुंडलिनी जाग सकती है । उसको जगाने के अनेक मार्ग हैं, अनेक उपाय हैं । संगीत के माध्यम से भी उसे जगाया जा सकता है | संगीत एक सशक्त माध्यम है कुंडलिनी के जागरण का । व्यायाम और तपस्या से भी वह जाग जाती है । भक्ति, प्राणायाम, व्यायाम, उपवास, संगीत, ध्यान आदि अनेक साधन हैं, जिनके माध्यम से कुंडलिनी जागती है । ऐसा भी होता है कि पूर्व संस्कारों की प्रबलता से भी कुंडलिनी जागृत हो जाती है और यह आकस्मिक होता है । व्यक्ति कुछ भी प्रयत्न या साधना नहीं कर रहा है, पर एक दिन उसे लगता है कि उसकी प्राणशक्ति जाग गई । इसलिए Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता कोई निश्चित नियम नहीं बनाया जा सकता कि अमुक के द्वारा ही कुंडलिनी जागती है और अमुक के द्वारा नहीं जागती । कभी-कभी ऐसा भी होता है कि व्यक्ति गिरा, मस्तिष्क पर गहरा आघात लगा और कुंडलिनी जाग गई। उसकी अतीन्द्रिय चेतना जाग गई । कुंडलिनी के जागने के अनेक कारण हैं । ओषधियों के द्वारा भी कुंडलिनी जागृत होती है । अमुक-अमुक वनस्पतियों के प्रयोग से कुंडलिनी के जागरण में सहयोग मिलता है । तिब्बत में तीसरे नेत्र के उद्घाटन में वनस्पतियों का प्रयोग भी किया जाता था । पहले शल्यक्रिया करते फिर वनोषधियों का प्रयोग करते थे । ओषधियों का महत्त्व सभी परंपराओं में मान्य रहा है । प्रसिद्ध सूक्त है- अचिन्त्यो मणिमंत्रौषधीनां प्रभाव:-मणियों, मंत्रों और औषधियों का प्रभाव अचिन्त्य होता है । मंत्रों के द्वारा भी कुंडलिनी को जगाया जा सकता है तथा विविध मणियों, रत्नों के विकिरणों के द्वारा और ओषधियों के द्वारा भी उसे जागृत किया जा सकता कुंडलिनी को जगाने के अनेक हेतु हैं । उनमें प्रेक्षाध्यान भी एक सशक्त माध्यम बनता है कुंडलिनी को जगाने में, तैजस शक्ति को जगाने में । दीर्घ श्वास प्रेक्षा की प्रक्रिया कुंडलिनी के जागरण की प्रक्रिया है । यदि कोई व्यक्ति प्रतिदिन एक घंटा दीर्घश्वास प्रेक्षा का अभ्यास करता है तो कुंडलिनी-जागरण का यह शक्तिशाली माध्यम बनता है । अन्तर्यात्रा भी उसके जागरण का रास्ता है । सुषुम्ना के मार्ग से चित्त को शक्तिकेन्द्र से ज्ञानकेन्द्र तक और ज्ञानकेन्द्र से शक्तिकेन्द्र तक ले जाना-लाना भी कुंडलिनी को जागृत करता है । चित्त की यह यात्रा बहुत महत्त्वपूर्ण माध्यम है। तीसरा माध्यम है— शरीर प्रेक्षा । शरीर-दर्शन का अभ्यास जब पुष्ट होता है तब तैजस शक्ति का जागरण होता है । चौथा माध्यम है—-चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा । चैतन्य केन्द्रों को देखने का अर्थ है कुंडलिनी के सारे मार्गों को साफ कर देना । चैतन्य केन्द्रों के सारे अवरोध समाप्त हो जाने पर कुंडलिनी-जागरण सहज हो जाता है । पांचवां माध्यम है— लेश्या ध्यान । यह सबसे शक्तिशाली साधन है कुंडलिनी के जगाने का । रंग हमारे भावतंत्र को अत्यधिक प्रभावित करते Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंडलिनी-जागरण : अवबोध और प्रक्रिया / १०९ हैं । रंगों का संबंध चित्त के साथ गहरा होता है । जब उसकी प्रक्रिया से साधक गुजरता है तब शक्ति का सहज जागरण होता है। प्रेक्षाध्यान की पूरी प्रक्रिया कुंडलिनी के जागरण की प्रक्रिया है । लाभ : अलाभ कुंडलिनी-जागरण के लाभ भी हैं और अलाभ भी हैं । कुछ लोगों ने बिना किसी संरक्षण के स्वतः कुंडलिनी जागरण की दिशा में पादन्यास किया | पूरी युक्ति हस्तगत न होने के कारण उनका मस्तिष्क विक्षिप्त हो गया । इसके अतिरिक्त और अनेक खतरे सामने आते हैं | प्रश्न होता है.... क्या इन खतरों से बचा जा सकता है ? बचने के उपाय क्या हैं ? । शक्ति हो और खतरा न हो, यह कल्पना नहीं की जा सकती । जिसमें तारने की शक्ति होती है, उसमें मारने की भी शक्ति होती है । जिसमें मारने की शक्ति होती है, उसमें तारने की भी शक्ति होती है । शक्ति है तो तारना और मारना दोनों साथ-साथ चलते हैं । कुंडलिनी के साथ खतरे भी जुड़े हुए हैं । विद्युत् लाभदायी है तो खतरनाक भी है । विद्युत् के खतरों से सभी परिचित हैं । बिजली के तार खुले पड़े हैं । कोई छुएगा तो पहले झटका लगेगा, छूने वाला गिर जाएगा या गहरा शॉक लगा तो मर भी जाएगा । खतरा निश्चित सोचें, प्राण-शक्ति का प्रवाह ऊपर जा रहा है। उसकी ऊर्ध्वयात्रा हो रही है । प्राण का प्रवाह सीधा जाना चाहिए सुषुम्ना से, पर किसी कारणवश वह चला गया पिंगला में तो गर्मी इतनी बढ़ जाएगी कि साधक सहन नहीं कर पाएगा । वह बीमार बन जाएगा और जीवन भर उस बीमारी को उसे भोगना पड़ेगा । उसकी चिकित्सा असंभव हो जायेगी । प्राणशक्ति एक साथ इतनी जाग गई कि साधक में उसे सहन करने की क्षमता नहीं है तो वह पागल हो जाएगा । ऐसा होता है । एक साथ होने वाला शक्ति का जागरण अनिष्टकारी होता है । इसीलिए कहा जाता है कि तैजस शक्ति का विकास करना चाहे, कुंडलिनी शक्ति का विकास करना चाहे तो उसे धीरे-धीरे विकसित करना चाहिए । इस विकास की प्रक्रिया के अनेक अंग हैं । हठयोग में 'कायसिद्धि' को साधना का प्रारंभिक बिन्दु माना है । यह बहुत महत्त्वपूर्ण Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता प्रतिपादन है । जैन परंपरा में तपस्या और आहारशुद्धि को साधना का महत्त्वपूर्ण अंग माना है । यह इसीलिए कि तपस्या और आहारशुद्धि से कायसिद्धि होती है, शरीर सध जाता है | जब कायसिद्धि हो जाती है तब शक्ति-जागरण के सारे खतरे समाप्त हो जाते हैं । शरीर को दृढ़ और मजबूत बनाए बिना शक्तियों को अवतरित करने का प्रयत्न करना बहुत हानिकारक है । कमजोर शरीर में यदि शक्ति का स्रोत फूटता है तो शरीर चकनाचूर हो जाता है, नष्ट हो जाता है । वह भीतर-ही-भीतर भस्मसात हो जाता है। नाड़ी-संस्थान को शक्तिशाली बनाए बिना शक्ति-जागरण का प्रयत्न करना नादानी है, वज्र मूर्खता है | नाड़ी-शोधन कुंडलिनी-जागरण का महत्त्वपूर्ण घटक है । नाड़ी-शोधन की निश्चित प्रक्रिया है । नाड़ी-शोधन का अर्थ शरीर की नाड़ियों का शोधन नहीं है । उसका अर्थ है- प्राण-प्रवाह की जो नालिकाएं हैं, जो मार्ग हैं, उनका शोधन करना । बीच में आने वाले अवरोधों को साफ करना । नाड़ी-शोधन के बिना शक्ति का जागरण बहुत खतरनाक होता है । शक्ति जाग गई, पर आगे का रास्ता अवरुद्ध है, साफ नहीं है तो वह शक्ति अपना रास्ता बनाने के लिए विस्फोट करेगी, रास्ता मोड़ेगी । उस विस्फोट से भयंकर स्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं। इन सभी खतरों से बचने के लिए दो उपाय हैं— अनुभवी व्यक्ति का मार्गदर्शन और धैर्य । जो भी शक्ति- जागरण के महत्त्वपूर्ण उपक्रम हैं, उनका अभ्यास स्वतः नहीं करना चाहिए। किसी अनुभवी व्यक्ति के परामर्श और मार्गदर्शन में ही उस साधना को प्रारंभ करना चाहिए । यह इसलिए कि यह अनुभवी व्यक्ति यदा-कदा होने वाले आकस्मिक खतरों से उसे बचाकर उसका मार्ग प्रशस्त करता है। साधना की सफलता का आदि-बिन्दु भी धैर्य है और अन्तिम बिन्दु भी धैर्य है । धैर्य के अभाव में कुछ भी संभव नहीं होता । आज का आदमी, अधैर्य के दौर से गुजर रहा है। वह इतना अधीर है कि किसी भी स्थिति में वह धैर्य नहीं रख पाता । बीमार है। डॉक्टर दवाई देता है । एक घंटे में यदि आराम नहीं होता है तो डॉक्टर बदल देता है । दिन में पांच डॉक्टर बदल देता है । बड़ी विकट स्थिति है । साधना में अधैर्य बहुत हानिप्रद होता है। वह किसी भी साधना को सफल नहीं होने देता। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंडलिनी-जागरण : अवबोध और प्रक्रिया | १११ कुंडलिनी-जागरण की इस प्रक्रिया में धैर्य की बात बहुत महत्त्वपूर्ण है । समें साधना-काल लंबा होता है । उस दीर्घकाल को धैर्य से ही पूरा किया ना सकता है । धीरे-धीरे साधना परिपक्व होती है और जब तैजस जागरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है, तब सारे खतरे टल जाते हैं । कृष्ण और अर्जुन पूछा जाता है कि कुंडलिनी-जागरण वास्तविकता है या कोरा सम्मोहन ? कुंडलिनी-जागरण और सम्मोहन में गहरा संबंध है | कुंडलिनी जागरण आकस्मिक भी किया जा सकता है । पर उसकी स्थिति अल्पकालीन होती ई। कोई व्यक्ति अपने तपोजन्य बल से किसी में शक्ति का संचार कर देता है। यह हो सकता है । जैसे कोई हृदयरोग से ग्रस्त है, मरणासन्न है, डॉक्टर उसे आक्सीजन देकर कुछ सक्रिय करते हैं । पर उस ऑक्सीजन के सहारे तो वह जी नहीं सकता | वह अपनी शक्ति के सहारे ही जी सकता है। डॉक्टर एक बार उसकी प्राणशक्ति को धक्का देता है । यदि जीवन शक्ति बची हुई है, वास्तविक मृत्यु नहीं हुई है तो वह जी उठेगा । जब ऑक्सीजन प्राप्त नहीं होती है तो डॉक्टर जोर से फूंक मारकर भी रोगी को सक्रिय कर देता है । पह कृत्रिम श्वास भी काम तो करता ही है । एक महिला डॉक्टर के पास जाकर बोली-डॉक्टर साहब ! मेरे बच्चे की हालत कैसी है ? डॉक्टर बोला—उसे नकली श्वास दी जा रही है । महिला ने कहा-नकली क्यों, मैं असली श्वास के पैसे देने के लिए तैयार हूं | आप नकली श्वास बंद करें और असली श्वास दें। जितने रुपये लगेंगे, अभी दे दूंगी। ___मैं मानता हूं शक्तिपात आदि की सारी प्रक्रियाएं नकली श्वास की प्रक्रियाएं हैं । एक कोई समर्थ व्यक्ति अपनी शक्ति से दूसरे को प्रभावित कर उसकी शक्ति को जगा देता है । वह शक्ति जाग जाती है, किन्तु टिकती नहीं । जब तक उस शक्ति का आवेग रहता है, जब तक व्यक्ति उस शक्ति से आविष्ट रहता है, तब तक वह शक्ति काम करती है और जैसे ही आवेश समाप्त होता है, आदमी शक्तिशून्य हो जाता है। यह नियम सब पर लागू होता है । फिर चाहे कृष्ण ने अर्जुन की कुंडलिनी Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता जगाई हो या रामकृष्ण ने विवेकानंद की कुंडलिनी जगाई हो या और किसी ने और किसी की कुंडलिनी जगाई हो, शक्तिपात किया हो, वह सब अस्थायी शक्तिदान होता है, क्षणिक होता है । प्राणायाम प्रायः यह पूछा जाता है कि प्राणायाम का कालमाण कितना होना चाहिए? मैं मानता हूं कि प्राणायाम की साधना करने वाले व्यक्ति को कालमान का ज्ञान अवश्य करना चाहिए | उसे इस साधना में बहुत सावधानी बरतनी चाहिए। प्राणायाम का तात्पर्य है- तैजस शक्ति के साथ छेड़छाड़ करना । जब किसी विद्युत के साथ छेड़छाड़ करते हैं तो बहुत सावधान रहना होगा । प्राणायाम के दो आयाम हैं १. तीव्र श्वास के साथ किया जाने वाला ध्यानशून्य प्राणायाम | २. मन्द श्वास के साथ किया जाने वाला ध्यानयुक्त प्राणायाम । तीव्र प्राणायाम एक साथ अधिक नहीं करने चाहिए । उनको प्राणायाम कहा भी जा सकता है और नहीं भी कहा जा सकता है । भस्त्रिका तीव्र प्राणायाम है । उसे कोई व्यक्ति घंटा-आधा घंटा करने लग जाए तो उसमें इतनी भयंकर गर्मी बढ़ जाती है कि वह विक्षिप्त हो जाता है, पागल हो जाता है । आज के अनेक भगवानों ने भस्त्रिका के लंबे प्रयोग, चालीस मिनट के प्रयोग शुरू करवाए और उसका परिणाम हुआ कि अनेक व्यक्ति पागल हो गए । गुजरात के एक मानसिक चिकित्सक ने बतायाकिसी भगवान् के पागल बनाए हुए तीसों शिष्य मेरे पास चिकित्सा के लिए आए हैं। उनसे इतना तीव्र प्राणायाम लंबे तक करवाया कि वे उसकी ऊष्मा को सहन नहीं कर सके और उनका मस्तिष्क अस्त-व्यस्त हो गया । वे पागल हो गए। भस्त्रिका प्राणायाम को एक साथ लम्बे समय तक करना हानिकारक है । उसे एक दो मिनट करते-करते दस मिनट तक ले जाया जा सकता है । गृहस्थ के लिए इस कालमान से अधिक समय तक भस्त्रिका करना अनिष्टकारक है। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंडलिनी-जागरण : अवबोध और प्रक्रिया । ११३ दीर्घश्वास-प्रेक्षा, समवृत्ति-श्वास प्रेक्षा-- ये मन्द प्राणायाम हैं | इनके साथ ध्यान का प्रयोग भी है । मैं मानता हूं कि कोई भी प्रयोग ध्यान के बिना नहीं करना चाहिए । ध्यान के साथ किया जाने वाला प्रयोग शीघ्र सफल होता है, लाभप्रद होता है | मंद प्राणायाम को यदि बढ़ाते-बढ़ाते घंटा-आधा घंटा भी किया जाए तो कोई हानि नहीं होती । लाभ ही होता है । मंद श्वास हमारा सहज श्वास है । यही दीर्घ श्वास है । यह अनिष्ट नहीं करता । यह स्वाभाविक प्रक्रिया है । लंबा श्वास स्वाभाविक है छोटा स्वास कृत्रिम है। समवृत्ति श्वास-प्रेक्षा भी मंद प्राणायाम का एक अंग है । इसे एक साथ लंबे समय तक नहीं करना चाहिए । धीरे-धीरे कालमान को बढ़ाना चाहिए । इसे पन्द्रह मिनट से ज्यादा नहीं करना चाहिए । यह कालमान भी एक साथ नहीं, धीरे-धीरे बढ़ाना चाहिए । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन वही, जो जिया जा सके जीवन-विकास की प्रक्रिया में एक मार्ग का चुनाव बहुत महत्त्वपूर्ण होता है । मार्ग के बिना कहीं पहुंचा नहीं जा सकता । जीवन की यात्रा में मार्ग का निर्धारण होता है । कोई भी व्यक्ति कहीं भी पहुंचना चाहता है, सबसे पहले मार्ग की खोज करता है, चाहे कांकरोली से उदयपुर जाना हो, जोधपुर जाना हो, जयपुर जाना हो, पहले मार्ग का निश्चय करता है | मार्ग के बाद ही यात्रा का प्रारम्भ होता है । जीवन विकास की यात्रा में मार्ग का चुनाव करना बहुत जरूरी होता है । __ जैन दर्शन ने एक निश्चित मार्ग का प्रतिपादन किया । उसका पहला सूत्र बनता है, आदर्श का निर्धारण | आदर्श का निर्धारण किये बिना कोई भी व्यक्ति आंतरिक विकास की यात्रा में सफल नहीं हो सकता । एक निश्चित आदर्श सामने रखना होता है | जब आदर्श का पता नहीं होता, यात्रा प्रारम्भ ही नहीं होती । और न कोई मार्ग बनता है | एक व्यक्ति आया स्टेशन पर और स्टेशन मास्टर से कहा- टिकट दो । स्टेशन मास्टर ने पूछा- कहां जाना चाहते हो ? व्यक्ति ने कहामैं अपनी ससुराल जाना चाहता हूं । ससुराल की टिकट दो । स्टेशन मास्टर ने कहा- कौन-सा गांव ? व्यक्ति ने कहा— गांव का पता नहीं । मुझे तो अपनी ससुराल जाना है । वहीं की टिकट दो ।। कैसे टिकट मिलेगी जब कोई पता नहीं है कि कहां जाना है ! निश्चय करना होता है कि मुझे कहां जाना है ! मुझे कहां यात्रा करनी है ! मुझे क्या बनना है ! इस दृष्टि से सबसे पहले एक आदर्श का चुनाव करना होता है । जैन दर्शन ने कहा— जीवन-विकास के लिए आदर्श हो सकता है वीतराग । वीतराग हमारा आदर्श है । मुझे वीतराग बनना है । न कोई व्यक्ति आदर्श Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन वही, जो जिया जा सके | ११५ होता है और न कोई वस्तु आदर्श होती है । वीतराग आदर्श बनता है, केवल वीतराग । हमें वीतराग बनना है । एक आदर्श का निर्धारण हो गया । अब यात्रा शुरू हो सकती है । मार्ग का चुनाव हो सकता है | हमें वीतराग की दिशा में यात्रा करनी है और उस यात्रा के अनुरूप मार्ग का चुनाव करना है। निश्चित है हमारा आदर्श, निश्चित है हमारी यात्रा और निश्चित है हमारा मार्ग । कहीं कोई अनिश्चित नहीं है । - बहुत बार लोग पूछते हैं कि सिद्ध बड़ा है या अरिहंत ? बड़ा तो सिद्ध हो सकता है । तो फिर ‘णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं' पहले अरिहंत को नमस्कार, फिर सिद्ध को नमस्कार क्यों ?) इस प्रश्न का उत्तर भी दिया जाता है। किन्तु मैं आज इस पर दूसरे ढंग से सोचना चाहता हूं । इसका कारण है | अरिहंत हमारे लिए आदर्श बन सकता है, किन्तु सिद्ध हमारे लिए आदर्श नहीं बन सकता । सिद्ध आदर्श नहीं है । जो शरीर-मुक्त होकर जी रहा है, आत्मा के अस्तित्व को धारण कर रहा है, वह किसी शरीरधारी के लिए आदर्श नहीं बन सकता | शरीरधारी के लिए कोई शरीरधारी ही आदर्श बन सकता है। वीतराग और अरिहंत हमारे लिए आदर्श हैं क्योंकि शरीर में जीते हुए वे जिस प्रकार का जीवन जीते हैं, उसी प्रकार का जीवन हमें जीना है । सत्य को केवल जानना नहीं है । सत्य को केवल जीना है । और जीने में आदर्श हमारा अरिहंत बन सकता है, वीतराग बन सकता है, सिद्ध नहीं बन सकता । जिसमें शरीर नहीं, जिसको खाना नहीं, पीना नहीं, बोलना नहीं, काम नहीं करना, सर्वथा अकर्म, वह कर्मवाले व्यक्ति के लिए कभी आदर्श नहीं बन सकता । कर्म वाले व्यक्ति के लिए कर्म ही आदर्श बन सकता है | अरिहंत शरीर में जीता है, अरिहंत बोलता है, अरिहंत चलता है, खाता पीता है, सब कुछ करता है | करते हुए भी वीतराग बना रहता है । वही हमारे लिए आदर्श हो सकता है । इसीलिए बहुत चिन्तन के साथ यह किया गया कि पहले आदर्श को नमस्कार, फिर दूसरों को नमस्कार । इसलिए अरिहंत को नमस्कार बहुत न्यायसंगत और युक्तियुक्त है | पहले हम अपने आदर्श को सामने रखें और फिर दूसरों की चर्चा करें । वीतरागता एक भोग्य अवस्था है । वस्तु के अस्तित्व में तीन बातें होती हैं-- ध्रुव, उत्पाद और व्यय । जैन-दर्शन इस त्रिपदी को नमस्कार कर किसी Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता भी तथ्य की व्याख्या नहीं कर सकता | जितने तत्त्व व्याख्यायित होते हैं वे सारे के सारे इस त्रिपदी के माध्यम से होते हैं । भगवान् महावीर ने बतायाउसकी खोज करो जो परिवर्तन के बीच अपरिवर्तित है, जो प्रकंपन की दुनिया में भी अप्रकम्प है, अशाश्वत के मध्य शाश्वत है | भोग्य शाश्वत है, हमारी चेतना शाश्वत है । उसमें रूपांतरण होता है, उत्पाद और व्यय होता है । आदमी देव बनता है, पशु भी बन सकता है | आदमी बच्चा भी बनता है, जवान भी बनता है और बूढ़ा भी बनता है | जन्म लेता है और मरता है। इस सारे परिणमन और परिवर्तन के चक्र में चेतना का अस्तित्व कहीं विलुप्त नहीं होता । हमारी चेतना शाश्वत है । वीतरागता का मतलब है चेतना का अनुभव । जब-जब राग और द्वेष का अनुभव होता है, हम अपनी चेतना से परे हट जाते हैं। जब राग-द्वेष से मुक्त होकर वीतराग के क्षण में जीते हैं तब हम चेतना के अनुभव में जीते हैं । हमारा आदर्श है चेतना का अनुभव । हमारा आदर्श है राग-द्वेष से मुक्त होकर जीना | हमारा आदर्श है वीतरागता का जीवन जीना | जब आदर्श का निश्चय होता है तो फिर यात्रा शुरू होती है । हमारे विकास का पहला बिन्दु बना आदर्श का निर्धारण । वीतराग हमारा आदर्श है। अब दूसरा बिन्दु विकास का बनेगा वीतरागता का जीवन जीना । केवल जानना नहीं है | मार्क्स ने कहा- भारतीय दर्शन केवल व्याख्या करते हैं। समाज को बदलते नहीं है । मुझे लगता है कि इसमें पूरी सचाई नहीं है। व्यवस्था के दृष्टिकोण से कहा जाए तो कुछ सचाई हो सकती है | जहां समाज के आर्थिक ढांचे के बारे में चिन्तन हुआ वहां न बदलने वाली बात सामने आ सकती है। किन्तु जहां आन्तरिक विकास की प्रक्रिया का प्रश्न है भारतीय दर्शन ने जीवन परिवर्तन के बहुत सुन्दर सूत्र दिए हैं, जीवन को बदला है । अवीतराग को वीतराग बनाने में सफलता प्राप्त की है । जैन दर्शन ने इस विषय में एक बहुत सुन्दर मार्ग प्रस्तुत किया था । इन वर्षों में पश्चिमी दर्शन के क्षेत्र में एक नये दर्शन का विकास हुआ, अस्तित्ववादी धारा का | अस्तित्ववाद ने एक सचाई तो बहुत सामने प्रकट की है और वह सचाई यह है कि बौद्धिक ज्ञान से हमारा काम पर्याप्त नहीं होता । हमें दोनों चाहिएबौद्धिक ज्ञान और आन्तरिक ज्ञान । तर्क का ज्ञान, हेतु का ज्ञान जरूरी है Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन वही, जो जिया जा सके । ११७ और प्रातिभ ज्ञान भी जरूरी है । जीवन को चलाने के लिए दोनों का समन्वय चाहिए । तर्क का ज्ञान बहुत आवश्यक है । उसके विकास के बिना सचाई को जानने में बहुत कठिनाई होती है | किन्तु यदि प्रातिभ ज्ञान का विकास नहीं होता है, अन्ददृष्टि का विकास नहीं होता है तो सचाई का जीवन जिया नहीं जा सकता । दोनों की सापेक्षता जरूरी है । अस्तित्ववाद के इस विचार को जब पढ़ता हूं तो आचार्य सिद्धसेन का वह सूत्र याद आ जाता है.---जो हेतुवाद के पक्ष में हेतुवादी है और जो प्रातिभज्ञान और अन्तज्ञान के पक्ष में अन्तर्जानी है, वह समय (सिद्धान्त) का सम्यक निरूपण करता है। जो केवल हेतुवाद और अतीन्द्रियवाद की चर्चा करता है, वह पंगु है । वह समग्र प्रतिपादन का अधिकारी नहीं हो सकता । आज से लगभग डेढ़ शताब्दी पूर्व जो बात सिद्धसेन ने कही थी, वही बात आज अस्तित्ववादी आचार्य या विद्वान् दोहरा रहे हैं। दोनों की जरूरत है.-- तार्किक ज्ञान की भी और प्रातिभज्ञान की भी । बौद्धिक विकास की भी और अन्तदृष्टि की भी । जो लोग केवल तर्क पर विश्वास करते हैं, वे शायद अपने जीवन-विकास की यात्रा को सम्पन्न नहीं कर सकते, बीच में ही उलझ जाते हैं और अटक जाते हैं । जीवन-विकास की यात्रा के लिए वीतरागता की दिशा में प्रस्थान करना जरूरी है और उसका अभ्यास करना जरूरी है । वीतरागता का जीवन जीने के लिए जैन दर्शन ने तीन आलम्बनों का उपयोग किया । पहला आलम्बन है— सत्यग्राही दृष्टिकोण । हमारा दृष्टिकोण सत्यग्राही होना चाहिए । इसी विचार से जैन आचार्यों ने नयवाद का विकास किया । कहीं भी आग्रह नहीं। नयवाद के दो आधार बनते हैं सापेक्षता और समन्वय । व्यक्ति और समाज हमारे सामने हैं। कुछ लोग एकान्ततः व्यक्तिवादी वृत्ति के होते हैं । वे सारा भार व्यक्ति पर डाल देते हैं । कछ लोग समाज का आग्रह रखते हैं। राजनीतिक प्रणालियों में, समाजवादी और साम्यवादी प्रणाली में समाज पर सारा भार डाल दिया जाता है । इधर व्यक्ति का विकास सब कुछ है तो उधर समाज का विकास ही सब कुछ है । किन्तु व्यक्ति और समाज के सम्बन्धों का तब तक सम्यक् निर्धारण नहीं किया जा सकता जब तक कि हमारा दृष्टिकोण सापेक्ष नहीं होता । व्यक्ति निरपेक्ष समाज और समाज-निरपेक्ष व्यक्ति का कोई मूल्य नहीं होता । समाज सापेक्ष व्यक्ति और व्यक्ति सापेक्ष समाज का Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ | मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता ही मूल्य हो सकता है और तभी सम्यक् विकास की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जा सकता है। सत्यग्राही दृष्टिकोण का एक सूत्र है--सापेक्षता । यह सापेक्षता प्रातिभज्ञान और तार्किकज्ञान में भी विकसित होती है । केवल तार्किक ज्ञान नहीं, केवल अन्तर्दृष्टि का ज्ञान नहीं, केवल अध्यात्म नहीं और कोरा व्यवहार नहीं । केवल व्यवहार होता है तो स्थूलता आ जाती है । इतनी स्थूलता कि सत्य कहीं छूट जाता है । कोरा निश्चय होता है तो अध्यात्म में कोई शक्ति नहीं आती । दोनों जरूरी होते हैं । यानी सम्प्रदाय भी आवश्यक है और अध्यात्म भी आवश्यक है । अगर सम्प्रदाय-शून्य अध्यात्म होता है तो वह कुछ व्यक्तियों के लिए काम का होता है । जनता के लिए कोई काम का नहीं बनता । कुछ व्यक्ति कंदराओं में बैठकर अध्यात्म की साधना कर लें, पर शेष लोग बिल्कुल वंचित रह जाते हैं और उनके जीवन का कोई मार्ग निश्चित नहीं होता । जरूरी है समाज, जरूरी है संघ, जरूरी है संगठन और जरूरी है सम्प्रदाय । जो लोग संगठन का विरोध करते हैं, सम्प्रदाय का विरोध करते हैं, संघ का विरोध करते हैं, केवल अकेलेपन की बात करते हैं । वे भी सचाई को नहीं पकड़ पा रहे हैं । उनका भी आग्रह हो गया कि अकेला होना अच्छा है । एक-दो आदमी अच्छे हो गए। उससे हुआ क्या ? उनका दृष्टिकोण भी रूढ़िवादी हो गया । एक-दो व्यक्ति अच्छे हो गए, किन्तु जिस दुनिया में जीना है, क्या वह अकेला व्यक्ति भी रह सकेगा । पहले तो मान लिया जाता था कि हिमालय की कन्दरा में जाकर बैठ गया, अब वह शान्ति का जीवन जी सकता है । किन्तु एक ओर तो अणुशस्त्रों की विभीषिका, सारा वातावरण प्रदूषण से व्याप्त, इस स्थिति में क्या हिमालय बचा रह पाएगा? कभी संभव नहीं । आज हिमालय भी प्रदूषण से वंचित नहीं है । दुनिया का कोई भी कोना प्रदूषण से वंचित नहीं है । कहां जाएगा ? कौनसी गुफा है ? कौन-सी-कन्दरा है जहां जाकर व्यक्ति अकेलेपन का अनुभव कर सके ? यह संक्रमण की दुनिया है । एक विचार यहां कांकरोली में बैठे व्यक्ति के मन में पैदा होता है, और उस विचार के परमाणु सारे संसार में फैल जाते हैं | न हिमालय बचता है और न कोई गुफा ही बचती है । इस संक्रमण की दुनिया में हमारे पास ऐसा कौन-सा कवच है कि हम अपने आपको Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशन वहा, जो जिया जा सक / ११९ सर्वथा बचा सकें । इस दिशा में वीतराग लोगों ने भी प्रयास किया कि दुनिया भी अच्छी बने, जनता भी अच्छी बने । अच्छे लोगों का संघ बने । समाज बने, समुदाय बने । यदि ऐसा नहीं बनता है तो विकट स्थिति पैदा हो जाती है । वीतराग को भी जीवन जीना होता है । मन पर प्रभाव चाहे न आए, किन्तु उसके शरीर पर तो प्रभाव पड़ेगा ही । वह मानसिक विचारों से बीमार नहीं पड़ेगा किन्तु दुनिया के वातावरण से तो बीमार बन सकता है । खानपान से तो बीमार बन सकता है । तो जिस दुनिया के बीच में जीना है, जिस जनता के मध्य जीना है, उसको वीतरागता की दिशा में प्रेरित करना, यह वीतराग का भी धर्म और कर्तव्य होता है । इसीलिए संघ-सम्प्रदाय कोई बुरी बात नहीं है । वह बहुत आवश्यक है। किन्तु केवल संघ, संगठन और सम्प्रदाय में ही सारी दृष्टि अटक जाए तो यह बुरी बात है । हमें संघ और सम्प्रदाय में जो सचाई है, जो सत्य है, उसका अवतरण करना है, निश्चयदृष्टि का आलम्बन लेना है, अध्यात्म को विकसित करना है । नहीं तो वह थोथा हड्डियों का ढांचा भर रह जाएगा । वहां सत्य का संचार नहीं होगा | आदमी मर गया । उसका शरीर ताजा का ताजा है । न सिकुड़म, न कुछ और, पूरा का पूरा चेहरा । किन्तु केवल प्राण नहीं रहा । वह हड्डियों का मात्र ढांचा बचा। चैतन्य उड़ गया । तो बिना सत्य के, बिना निश्चय के और बिना अध्यात्म के संगठन और संघ मात्र हड्डियों का ढांचा रह जाएगा । उसमें प्राण नहीं रहेगा । उसमें तेजस्विता नहीं रहेगी । उसमें चैतन्य नहीं रहेगा । इन दोनों वृत्तियों की सापेक्षता हमारा मार्ग बन सकती है । न अकेला व्यक्ति मार्ग बन सकता है और न कोरा समाज मार्ग बन सकता है। दोनों का योग ही हमारे विकास की यात्रा का मार्ग बन सकता है । सत्यग्राही दृष्टिकोण का चरण और आगे बढ़ता है तो वहां ज्ञान और क्रिया का समन्वय होता है । किसने कहा कि दर्शन जीया नहीं जा सकता ! मैं सोचता हूं कि जो दर्शन जीया नहीं जा सकता, वह हवाई उड़ान होता है, आकाशी कल्पना होती है, यथार्थ नहीं होता । वही दर्शन वास्तविक हो सकता है जो जीया जा सकता है । वह आदर्श किसी काम का नहीं, जो व्यवहार में न आ सके । और वह व्यवहार किसी काम का नहीं, जो आदर्श तक न पहुंचाया जा सके । आदर्श और व्यवहार दोनों का योग होना चाहिए । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता एक कहानी बड़ी मार्मिक है | बादशाह ने बीरबल से कहा- "तुम बड़े बुद्धिमान हो । तुम असम्भव को सम्भव बना सकते हो । मेरे मन का एक स्वप्न है, एक कल्पना है, उसे तुम साकार करो । मेरा स्वप्न है कि तुम हवाई महल बना दो ।'' बीरबल ने कहा-“जरूर बना दूंगा ।' बीरबल भी ऐसा निकला कि कोई काम कह दो, अस्वीकार करना जानता ही नहीं । बीरबल ने स्वीकार कर लिया । उसने चिड़ीमार बुलाए और कहा कि सौ-दो सौ तोते पकड़कर लाओ । उन्होंने दो-चार दिनों में सैकड़ों तोते ला दिए । बीरबल ने उनके लिए पिंजड़े बना दिए । बीरबल ने अपनी लड़की को बुलाया । वह बड़ी विदषी थी। उससे कहा- "इन तोतों को प्रशिक्षित करना है। ये आदमी की भाषा बोलना जानते हैं ।" उसने सब तोतों को प्रशिक्षित कर दिया । दो महीने का समय बीता । बीरबल ने बादशाह से कहा-"जहांपनाह ! हवाई महल तैयार हो रहा है | एक बार आपकी इच्छा हो तो चलकर देखें, कितना काम आगे बढ़ गया है ।'' बादशाह को बड़ा ताज्जुब हुआ । उसने सोचा, आकाशी महल कैसे बन सकता है ! आज का युग तो था नहीं कि अन्तरिक्ष में शटल जाए और स्टेशन स्थापित करे । कैसे बन सकता है ! बादशाह ने कहा-चलो, अभी चलो । - एक बड़े मैदान में बादशाह और बीरबल बैठ गए । सभी सामंत बैठ गए । इतने में सैकड़ों पिंजड़े लाकर रख दिए गए। पिंजड़ों के दरवाजे खुलते ही आकाश में तोते ही तोते छा गए । अब आवाज शुरू हुई—जल्दी ईटें लाओ, जल्दी पत्थर लाओ, चूना लाओ, हथोड़ा लाओ, मकान जल्दी बनाओ। चारों तरफ आकाश गूंज उठा । बादशाह ने पूछा- 'बीरबल ! वह हवाई महल है कहां ?' बीरबल ने कहा- सरकार ! मजदूर लगे हुए हैं । सारा काम हो रहा है ।' बादशाह ने कहा—'क्या ये ही हवाई महल बनाएंगे ?' बीरबल बोले---'जी हां, ये ही बनाएंगे । आकाश में उड़ने वाला ही हवाई महल बना सकता है।' यदि दर्शन जीया नहीं जा सकता तो वह तोतों का हवाई महल बन जाता है, कोरा आकाशी महल बन जाता है । उसकी सारवत्ता समाप्त हो जाती है । किन्तु दर्शन हवाई महल नहीं होता, आकाशी उड़ान और आकाशी कल्पना नहीं होता । वह यथार्थ होता है. सत्य होता है और जीया जा सकता Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन वही, जो जिया जा सके / १२१ | दर्शन को जीया जाना है। वीतरागता का दर्शन । यह हवाई उड़ान नहीं है । यह जीवन जीया जा सकता है। जीने की प्रक्रिया जैन दर्शन में बहुत साफ है । वीतरागता का जीवन जीने के लिए अल्पीकरण की दिशा में प्रस्थान करो । यह तो नहीं होता कि आज एक संकल्प लिया, आदर्श का चुनाव किया, यात्रा शुरू की, पहला कदम उठा और वीतराग बन गए। ऐसा संभव नहीं है । यह प्रक्रिया नहीं है । यह पद्धति नहीं है । यह तो आरोपण होता है । प्रक्रिया है अल्पीकरण । आकांक्षा का अल्पीकरण, प्रमाद का अल्पीकरण, कषाय और आवेगों का अल्पीकरण । आकांक्षाओं को कम करते चलो, प्रमाद को कम करते चलो, मूर्च्छा को कम करते चलो। तुम्हारा प्रस्थान ठीक उस दिशा में होगा तो यह पतंग डोर से खिंची खिंची वहां चली जाएगी, जहां तुम चाहोगे। आदर्श एक डोरी है । वह जीवन की पतंग को इस प्रकार खींचती है कि कहीं इधर-उधर पतंग नहीं जाती । डोरी से बंधी हुई चलती है। आदर्श से बंधा हुआ व्यक्ति ठीक उसी दिशा में चलना शुरू हो जाता है । यह है अल्पीकरण की प्रक्रिया | एक बार एक विदेशी लेखक ने बहुत सुन्दर बात लिखी । किसी ने कहा कि कम हिंसा हमारे जीवन का आदर्श है । इसका अनुसरण विदेशी लेखक ने किया । हमारे सामने यह प्रश्न आया तो हमने आचार्य भिक्षु के सिद्धान्त के आधार पर इसकी समालोचना की । अल्पहिंसा आदर्श है, यह मिथ्या सूत्र है । अल्प हिंसा हमारा आदर्श नहीं हो सकता हमारा आदर्श हो सकता है हिंसा का अल्पीकरण । दोनों का भेद समझें । अल्पहिंसा और हिंसा के अल्पीकरण में बहुत अंतर है । यदि कम हिंसा को आदर्श मान लेते हैं तो अहिंसा की बात प्राप्त नहीं होती । हिंसा का अल्पीकरण हिंसा की मान्यता नहीं है, किन्तु अहिंसा की दिशा में प्रस्थान है। इससे हिंसा को मान्यता नहीं मिलती । हिंसा को घटाते चलो। कम करते चलो। यह भेदरेखा खींचने का श्रेय अगर किसी एक व्यक्ति को दिया जा सकता है तो वह आचार्य भिक्षु को है । उन्होंने इस शब्द को बहुत सूक्ष्मता से पकड़ा और दोनों (अल्पहिंसा और हिंसा का अल्पीकरण) में आकाश-पाताल का अन्तर बताया । ये दोनों बातें समानान्तर रेखा की भांति साथ-साथ चलती तो हैं, किन्तु कभी नहीं मिलतीं । कभी इनका योग नहीं होता । हिंसा के अल्पीकरण की दिशा में Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता चलते-चलते हम पूरे अहिंसक बन सकते हैं किन्तु अल्पहिंसा करते-करते हम कभी अहिंसक नहीं बन सकते । अल्पीकरण की यह प्रक्रिया, अल्पीकरण का यह मार्ग, वीतरागता का जीवन जीने का मार्ग है । इस अल्पीकरण की यात्रा करते-करते आदमी एक निश्चित बिन्दु पर पहुंच सकता है। कितना सुन्दर एक दर्शन दिया ! इसमें कर्म और अकर्म का सहज समन्वय होता है । वीतराग भी कर्म करता है । शरीर का धारण, शरीर यात्रा का संचालन, हाथ-पैर का संचालन, कर्मेन्द्रियों का उपयोग, वीतराग सब कुछ करता है। पूरी जीवन की यात्रा को चलाता है । किन्तु वीतराग के प्रत्येक कर्म में अकर्म प्रभावित होता है और अवीतराग के प्रत्येक कर्म में कर्म प्रभावित होता है। कितना अन्तर है । अकर्म के प्रभावी होने में और कर्म के प्रभावी होने में ! जहां कर्म प्रभावी कर्म होता है, वहां अवीतराग को पल्लवन मिलता है। जहां कर्म में अकर्म प्रभावी होता है, वहां वीतराग को पोषण मिलता है । हमारा मार्ग है कर्म में अकर्म को प्रभावी बनाना । जैसे-जैसे हमारा राग और द्वेष कम होता चला जाता है, अकर्म प्रभावी बनता चला जाता है और कर्म गौण होता चला जाता है । अन्तर है गौणता और मुख्यता का । जहां कर्म मुख्य बनता है, वहां समस्या मुख्य बनती है । आचार्य श्री पटना पधारे। पटना विश्वविद्यालय में स्वागत का कार्यक्रम था । वक्ता थे डॉ० रामधारीसिंह दिनकर । उन्होंने एक बड़ी सुन्दर बात कही, "आचार्य श्री ! मैं आपके कार्यक्रम की और जैन दर्शन के कार्यक्रम की प्रशंसा करना चाहता हूं | आज के इस प्रवृत्ति- बहुल युग में यह निवृत्ति का कर्म एक प्रकाशपुंज बन सकता है, प्रकाश की किरण को बिखेर सकता है । आज का सारा संघर्ष, आज की सारी समस्याएं, ये प्रवृत्ति- बहुलता की समस्याएं हैं । पहले जब आदमी रास्ते पर चलते थे तो दुर्घटनाएं नहीं होती थीं । होती तो कहीं हजारों-लाखों में, कोई गिर जाता या टकरा जाता। पर आज प्रवृत्तिबहुलता है । इतने वाहनों का प्रयोग, इतनी ट्रकें, बसें, रेलगाड़ियां चलती हैं कि आए दिन कोई-न-कोई दुर्घटना होना स्वाभाविक बन गया है । जब प्रवृत्ति बढ़ेगी तो उसके साथ में टकराहट भी बढ़ेगी । यह निश्चित है, अनिवार्य है । यह हो नहीं सकता कि प्रवृत्ति बढ़े और संघर्ष न बढ़े | हमने देखा कि Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . दर्शन वही, जो जिया जा सके । १२३ सड़कों पर, स्थान-स्थान पर गति-अवरोधक बनाए गए हैं । वाहन धीमे चलें, इतने तेज न चलें, जहां भी शहर आया, गति-अवरोधक बना दिया । यह प्रवृत्ति के मंदीकरण की प्रक्रिया बहुत महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है । और यही है हमारी निवृत्ति (जिस व्यक्ति ने प्रवृत्ति और निवृत्ति का समन्वय साधना नहीं सीखा, वह जीवन-विकास की प्रक्रिया में आगे बढ़ना नहीं सीख सकता । बढ़ेगा तो संघर्ष भी पैदा होंगे । टकराहटें भी आएंगी, अवरोध आएंगे और वहीं लड़खड़ा जाएगा। आगे बढ़ने का मार्ग है प्रवृत्ति पर निवृत्ति का प्रभावी होना । कर्म पर अकर्म का प्रभावी होना या समिति पर गप्ति का प्रभावी होना । जीवन-विकास की इस प्रक्रिया में, वीतरागता की प्रस्थान यात्रा में यह अल्पीकरण का सूत्र बहुत महत्त्वपूर्ण है । किसी को निराश होने की जरूरत नहीं । यह जरूरत नहीं कि संन्यासी बनना पड़ेगा, साधु बनना पड़ेगा । कोई जरूरत नहीं । यह तो आगे की बात है | महावीर ने हिंसा के अल्पीकरण पर बल दिया । अणव्रत यही तो है। यानी हिंसा का अल्पीकरण करो । महाव्रती बनने की बात तो बाद की है। आज ही तो महाव्रती नहीं बन जाओगे । अल्पीकरण तो प्रारम्भ करो । थोड़ा-सा तो छोड़ो । किसी प्राणी को संकल्पपूर्वक नहीं मारूंगा, यह तो स्वीकार करो । अल्पीकरण के मार्ग पर पैर तो बढ़ाओ। बचपन तब छूटता है जब गति आती है । चले बिना पैरों में ताकत नहीं आती । बच्चा चलता है, गिरता है, फिर ऐसा करते-करते पैरों में ताकत आ जाती है और एक दिन मां की अंगुली छोड़कर पैरों के सहारे चलने लग जाता है। चलना तो शुरू करो । प्रश्न उपस्थित किया गया कि क्या सत्य को तोड़ा जा सकता है, बांटा जा सकता है ? प्रश्न भी एक ऊंचे स्तर के व्यक्ति से आया । आचार्य विनोबा ने अणुव्रत की चर्चा में यह टिप्पणी की, हिंसा का अणुव्रत तो हो सकता है किन्तु सत्य का अणुव्रत नहीं हो सकता । लम्बी चर्चा चली । कानपुर में हमने विषय पर लिखा भी । एक साथ हम मंजिल तक नहीं पहुंच सकते । किन्तु कम-से-कम यात्रा तो शुरू करें । कदम आगे तो बढ़ाएं । यह कदम आगे बढ़ाने की प्रक्रिया है, न कि मंजिल तक पहुंचने की । एक साथ कोई व्यक्ति अपरिग्रही नहीं बन जाएगा । वह परिग्रह का अल्पीकरण करते-करते एक दिन पूर्ण अपरिग्रही बन सकता है | क्या आप यह समझते हैं कि महाव्रती Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता भी पूरे अपरिग्रही बन गए । सापेक्ष दृष्टि से तो अपरिग्रही बन गए, किन्तु शरीर भी तो परिग्रह है । ये कपड़े भी परिग्रह हैं । संस्कार भीतर बैठे हैं । वे भी तो परिग्रह हैं । मुर्छा भी परिग्रह है। क्या वीतराग बन गए ? अपरिग्रह की पूरी साधना कर रहे हैं किन्तु वीतराग बने विना कोई अपरिग्रही नहीं बन सकता । सापेक्ष बात है | महाव्रत भी सापेक्ष है | महाव्रत सार्वभौम है। किन्तु यह भी सापेक्ष बात है । निरपेक्ष बनेगा, वीतराग बनने के बाद । और सापेक्ष है, इसलिए भूल भी हो जाती है । जब तक व्यक्ति मंजिल तक नहीं पहुंच जाता, तब तक मार्ग के अवरोधों का सामना हर व्यक्ति को करना पड़ता है । अल्पीकरण का जो सूत्र दिया जैन दर्शन ने, मानता हूं कि पूरे जीवन को परिमार्जित करने का इतना बड़ा अवकाश दिया कि किसी को न निराश होने की जरूरत है और न किसी को अहंकार करने की जरूरत है । कोई साधु भी अहंकार न करे कि मैं पूर्ण अहिंसक बन गया । न कोई छोटे-सेछोटा गृहस्थ भी निराश हो कि मैं अपरिग्रही नहीं बन सकता । अहिंसक नहीं बन सकता । सभी बन सकते हैं । जो मार्ग अणुव्रत का है वही महाव्रत का है | आचार्य भिक्षु ने बड़ी मार्मिक बातें कही हैं । हम उनका सही मूल्यांकन नहीं कर रहे हैं। उन्होंने कहा- साधु और गृहस्थ के धर्म दो नहीं हो सकते । जब कि कुछ लोग मानते थे कि साधु का धर्म अलग और गृहस्थ का धर्म अलग । आचार्य भिक्षु ने इसका निरसन किया । उन्होंने कहा कि धर्म दो नहीं हो सकता। उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा- एक लड्डू है । एक व्यक्ति के पास पूरा लड्डू है और एक व्यक्ति के पास उसका टुकड़ा है, थोड़ा-सा है | आचार्य भिक्षु ने कहा- लड्डू लहू है । पूरा है उसका भी वही स्वाद और थोड़ा है उसका भी वही स्वाद | स्वाद में कोई अन्तर नहीं । मात्रा का अन्तर हो सकता है । स्वाद एक । लड्डू एक । अहिंसा अणुव्रत का भी वही स्वाद और अहिंसा महाव्रत का भी वही स्वाद । दोनों का एक ही स्वाद । कोई अन्तर नहीं है । कितना महत्त्वपूर्ण प्रतिपादन किया है उस महाव्यक्ति ने । आचार्य भिक्षु को समझने के लिए आज सैकड़ों भिक्षुओं को जन्म लेने की जरूरत है और सैकड़ों दार्शनिकों को खपने की जरूरत है । यह अल्पीकरण की प्रक्रिया जीवन-विकास के मार्ग में बहुत महत्त्वपूर्ण Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन वही, जो जिया जा सके / १२५ प्रक्रिया है । हमारा आदर्श है वीतराग । हमें वीतराग बनता है। हमारा मार्ग है वीतरागता की दिशा में प्रस्थान । उसका एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव है सत्यग्राही दृष्टिकोण | दूसरा पड़ाव है अल्पीकरण । इस प्रक्रिया से जीवन जीने वाला व्यक्ति न केवल दर्शन की चर्चा करेगा, न तत्त्ववाद में उलझेगा किन्तु दर्शन का जीवन जीने में और अपने पूरे व्यक्तित्व को वीतराग के समान बनाने में, वीतराग के साथ तादात्म्य स्थापित करने में तथा एक दिन वीतराग बन जाने में, पूरा सक्षम बन सकेगा । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्धिक ज्ञान जीवन-विज्ञान बने लाडनूं का प्रज्ञाप्रदीप ! जीवन-विज्ञान शिविर में राजस्थान के अनेक जिलों से आए हुए अध्यापकगण | जीवन-विज्ञान का प्रशिक्षण | एक दिन भारत के प्रसिद्ध विचारक, साहित्यकार और लेखक जैनेन्द्रकुमारजी आ गए । मैंने सोचा, इनके विचार अध्यापकों के बीच सुनें । संयोजना हुई । मैं नहीं कह सकता यह उचित हुआ या नहीं क्योंकि यहां सब लोग निर्विचार की स्थिति में जी रहे हैं और बीच में यह विचार का द्वन्द्व और आ गया । अटपटा ही लगा होगा । जैनेन्द्रजी से विषय के बारे में पूछा गया । उन्होंने कहा- “सत्तर वर्ष की उम्र का आदमी और फिर विषय की याद दिलाते हो । सत्तर से ऊपर का आदमी विषयातीत अवस्था में जाना चाहता है और जीवन-विज्ञान का प्रयोग करने वाले निर्विचार में जाना चाहते हैं, तो यहां अतीत की बात होनी चाहिए थी, पर बात हो गई दर्शन की, विचार की और चिन्तन की।" __ मेरा अपना विचार है कि जो विचार का जीवन नहीं जीता वह निर्विचार का जीवन नहीं जी सकता । विषयातीत और विचारातीत- यह तो अतीत होता है । अतीत आता है एक बार जी लेने के पश्चात् । जिसने एक बार भी जीया नहीं, जिसने भोग का और समृद्धि का जीवन नहीं जिया वह यदि उससे परे भी हो गया तो उसके मन में कसक रह जाती है कि न जाने भोग कैसा होता होगा ! न जाने समृद्धि का सुख कैसा होता होगा ! किन्तु जो अतीत हो जाए, यथार्थ में अतीत हो जाए, उसके लिए कोई कठिनाई की बात मन में नहीं होती। आज का आदमी विचार का जीवन अधिक जीता है। आज के जगत् में वैचारिकता अपने चरम बिन्दु पर है । इतना विचार हुआ है कि अब लौटने Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्धिक ज्ञान जीवन-विज्ञान बने | १२७ की जरूरत है । आगे बढ़ने के लिए अब अवकाश नहीं है । शिखर का अंतिम छोर आ गया है । अब पुनः तलहटी पर आना होगा | कभी-कभी ऐसा होता है कि जो शिखर पर उपलब्ध नहीं होता, वह तलहटी में उपलब्ध हो जाता है । हमने कभी इस अतीत का विषयातीत और विचारातीत अवस्था का अनुभव नहीं किया । यही हमारी विषम समस्या है। अहिंसा ठीक वही समस्या है । यह समस्या इसलिए है कि अहिंसा उपजी है बुद्धि से परे । हम लोग बुद्धि और विचार का जीवन जीना चाहते हैं, इसलिए अहिंसा का स्वर समझ में नहीं आता, गले नहीं उतरता । हम आज हिंसा की भाषा से जितने परिचित हैं, उतने परिचित नहीं हैं अहिंसा की भाषा से । हिंसा की भाषा हमारे लिए जितनी सहज और प्रिय है उतनी सहज और प्रिय नहीं है अहिंसा की भाषा । जहां भी अहिंसा का प्रश्न आता है, वहां तत्काल यह स्वर सुनाई देता है- यह कैसे संभव होगा ? कोई आक्रमण करे और आदमी अहिंसक बनकर बैठा रहे तो क्या होगा ? हर प्रश्न पर 'यह कैसे संभव है'---प्रतिप्रश्न आएगा। क्योंकि हम अहिंसा से पूर्ण परिचित नहीं हैं। जिसके प्रति हमारी आस्था निर्मित न हुई हो, वह बात जब सामने आती है तब हम उसे टालने का पूरा प्रयत्न करते हैं । आज अहिंसा का सारा चिन्तन टाला जा रहा है, नकारा जा रहा है । उसे स्वीकार करने की बात ही नहीं आती । लोग कह देते हैं— यह तो श्रुतिप्रिय है, व्यवहार्य नहीं है । व्यवहार में जीने वाला आदमी व्यावहारिक बात सोचता है | आज व्यावहारिक बात बनी हुई है हिंसा | व्यावहारिक बात लगती है कृत की प्रतिक्रिया करना । हिंसा और प्रतिक्रिया से आदमी बहुत परिचित है | यह स्वभाव-सा बन गया है । अहिंसा में क्रिया है, प्रतिक्रिया नहीं। प्रत्येक आदमी का अभ्यास, परिचय और संगति हिंसा के साथ जुड़ी हुई है । यदि गहरे में उतर कर देखा जाए तो ज्ञात होगा कि आदमी चौबीस घंटों में अहिंसा का जीवन ज्यादा जीता है और हिंसा का जीवन कम जीता है । मैं सोचता हूं, यदि आदमी एक दिन भी हिंसा का जीवन पूरा जी ले तो दूसरे दिन हिंसा अपनी मौत मर जाएगी । उसकी बात ही समाप्त हो जाएगी । हिंसा अहिंसा के कंधे पर चढ़कर अपने अस्तित्व को कायम रखती है । यह अमरबेल है । अमरबेल का अस्तित्व दूसरे पेड़ों के अस्तित्व पर Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता टिका रहता है । वह बेल दूसरे के शोषण पर अपने अस्तित्व को टिकाए रखती है । दूसरों का शोषण और अपना जीवन-यापन | उसका अपना कुछ भी नहीं है । वह वृक्षों पर ही उत्पन्न होती है, वृक्षों पर ही फैलती है, वृक्ष का शोषण करती जाती है और स्वयं बढ़ती जाती है । इसी प्रकार हिंसा की भी प्रकृति उसी अमरबेल की तरह है। उसके कोई जड़ नहीं होती । उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं होता । वह अहिंसा के पेड़ पर अपना अस्तित्व टिकाए रहती है। यदि हम हिंसा की इस प्रवृत्ति को समझ लें तो अहिंसा सार्वभौम का मार्ग प्रशस्त हो सकता है । पर हम प्रकृति के विश्लेषण में कम जाते हैं | हम न अपनी प्रकृति का विश्लेषण करते हैं और न आचरण की प्रकृति का विश्लेषण करते हैं । बहुत सारी बातों को ऐसे ही स्वीकार कर लेते हैं। सामने कुछ आता है और तत्काल स्वीकार कर लेते हैं । यह सबसे बड़ी कठिनाई है | यह मानता हूं कि विचार का द्वन्द्व है, पर यह प्रकृति-विश्लेषण के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है, उपयोगी है। जैनेन्द्रजी ने काफी गहराई में जाकर विश्लेषण किया है । एक बात बहुत स्पष्ट है कि विचार से निर्विचार में जाने की यह प्रक्रिया है कि विचार करते-करते गहराई में उतरो, निर्विचार अपने आप आ जाएगी । __ जैन ध्यान-योग में धर्म-ध्यान का महत्वपूर्ण स्थान है उसकी प्रक्रिया यही है कि किसी पर्याय का विश्लेषण करना है तो उस पर गहराई से विचार करो । विचार करते-करते वहां पहुंच जाओ, जहां पहुंचने के बाद ऐसा लगे कि अब विचार पूर्ण हो गया है । अब आगे नहीं बढ़ा जा सकता । यह होता कायोत्सर्ग की प्रक्रिया में शरीर की विस्मृति का अभ्यास होता है । साधक को ज्ञान होता है कि शरीर है ही नहीं। ध्यान संप्रदाय का एक साधक आनापानसती का प्रयोग कर रहा था। अचानक वह चिल्ला उठा, “आओ, दौड़ो, दौड़ो ।” अनेक शिष्य एकत्रित हो गए। पूछा- क्या हो गया। उसने कहा- “जाओ, शीघ्रता करो, खोजो, मेरा शरीर कहां खो गया है ? कहां चला गया है ? जल्दी जाओ और उसे खोज कर लाओ।" कायोत्सर्ग या आनापानसती की साधना में जैसे शरीर खो जाता है, Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्धिक ज्ञान जीवन-विज्ञान बने / १२९ वैसे ही विचार करते-करते विचार भी खो जाता है । उस विचार खो जाने में से कुछ निकलता है वह एक परम तत्त्व होता है । यहां जो ‘परम' की अवधारणा रही है, उसकी पृष्ठभूमि में खो जाने की अवधारणा रही है । मुझे 'परम'और 'शून्य' में कोई अन्तर नहीं लगा । जहां 'परम' हो गया वहां 'शून्य' के सिवाय किसी को 'परम' नहीं कहा जा सकता और ‘परम' के सिवाय किसी को 'शन्य' नहीं कहा जा सकता । पहले दोनों समानान्तर रेखा में मान लिये गए और आगे जाकर दोनों रेखाएं एक बन गयीं । जीवन-विज्ञान का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है 'अहिंसा सार्वभौम' । यदि अहिंसा का, आत्मौपम्य का, समता और एकता का अंकर प्रस्फटित नहीं होता है तो जीवन-विज्ञान कुछ भी काम नहीं कर सकता है । जीवन-विज्ञान की प्रक्रिया के ये घटक तत्त्व हैं- दृष्टि-परिवर्तन, भाव-परिवर्तन, विचारपरिवर्तन और आचार-परिवर्तन । यदि ये सारे परिवर्तन नहीं होते हैं तो फिर वह कोरी बौद्धिक बात रह जाती है। एक व्यक्ति बारह वर्ष तक काशी में पढ़कर घर आया । पत्नी ने स्नान के लिए गर्म पानी तैयार किया । वह उस बर्तन को लेकर स्नान करने के स्थान पर गई । वहां उसने देखा कि हजारों चींटियां हैं । 'वे बेचारी यों ही मरेंगी'- ऐसा सोचकर उसने उस गर्म पानी के बर्तन को दूसरे स्थान पर रख दिया। पति आया । बर्तन को उठाकर मूल स्थान पर ले गया और वहीं स्नान करने लगा । पत्नी आयी, बोली -- मैंने गर्म पानी का यह बर्तन वहां रखा था, यहां कैसे आ गया ? पति ने कहा- तुने गलती की | स्नान का स्थान यही है | मैं पुनः उस बर्तन को यहां उठा लाया । पत्नी बोली---- पहले यहीं रखना चाहती थी, पर यहां चींटियां बहत हैं । आपके स्नान के पानी से वे सब मर जाएंगी । इसलिए मैंने इस स्थान पर रखा । पति बोला- तू पढ़ी-लिखी तो है नहीं, मूर्ख है । क्या मैं चींटियों को जिलाने के लिए जन्मा हूं ? मैं किस-किस की चिन्ता करूं? पत्नी ने कहा- “किं ताए विज्जाए पलाल भूयाए, जो इयं पि न याणाइ, परस्स पीड़ा न कायव्वा ।' मैं नहीं समझ सकी । बारह वर्ष तक आपने विद्याध्ययन किया । काशी में रहे | उस विद्या से क्या, जिससे इतना भी नहीं समझा कि दूसरों को पीड़ा नहीं पहुंचानी चाहिए । वह विद्या नहीं, वह सार नहीं वह कोरा भूसा Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता है,पलाल है | दाना है ही नहीं। इतना पढ़-लिखने पर भी आप में यह चेतना नहीं जागी कि दूसरे प्राणी को पीड़ा नहीं देनी चाहिए, तो फिर उस अध्ययन का अर्थ ही क्या हुआ ? कितने मर्म की बात है ! ज्ञान का सार है संवेदनशीलता । यदि हमारी संवेदनशीलता व्यापक नहीं बनी, दूसरे के प्रति हमारे मन में एकता की अनुभूति नहीं जागी तो बहुत बड़ा बौद्धिक ज्ञान भी जीवन का विज्ञान नहीं बन सकता | यदि इतनी छोटी-सी संवेदना भी जाग जाती है तो हमारा छोटासा ज्ञान भी जीवन का विज्ञान बन जाता है | Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वज्ञान या जीवन-दर्शन ? ज्ञान और आचार- ये दो शब्द बहुत पुराने हैं । इन दोनों को बांटा भी जा सकता है और नहीं भी बंटा जा सकता है । ये दो भी हैं और दो नहीं भी हैं | ज्ञान का अर्थ है -- जानना और आचार का अर्थ है- करना । जानना और करना-ये दो होते हैं । जानना जब प्रगाढ़ होता है तब करना अपने आप हो जाता है । प्रसिद्ध सूत्र है- नाणस्स सारो आयारो— ज्ञान का सार आचार है । आचार सार है । दूध का सार है नवनीत । क्या नवनीत दूध से अलग है । नहीं, उसी में समाया हुआ है । इसी प्रकार ज्ञान- तत्त्वज्ञान में जीवन का दर्शन– आचार समाया हुआ है । उसे अलग नहीं किया जा सकता । परन्तु एक ऐसा समय आया कि दही जमाना भूल गया, बिलौना करना भूल गया । मक्खन निकालने की पद्धति विस्मृत हो गई। केवल दूध पीना याद रहा। दूध पीना कोई बुरी बात नहीं है । पर शरीर की पौष्टिकता के लिए चिकनाई भी चाहिए । यदि दूध पीने से सारा काम बन जाता तो कोई हलवा या अन्य पदार्थ बनाकर नहीं खाता; कोई घी नहीं खल्ता । चिकनाई के बिना शरीर रूखा-सूखा हो जाता है | शरीर का रूखापन चिकनाई से मिटता है, इसीलिए आदमी घी खाता है, इसी रूप में मैं देख रहा हूँ तत्त्वज्ञान और जीवन-दर्शन को | तत्त्वज्ञान बहुत रटा गया, रटा जा रहा है । दूध पीना लाभदायी है । वह जीवनदाता है किन्तु केवल दूध पीने से ही घी का काम नहीं हो रहा है । हम चाहते हैं कि घी का काम भी पूरा हो । दूध के साथ घी का उपयोग भी हो । दूध का सार है मक्खन । ज्ञान का सार है. आचार । केवल दूध पीने से मक्खन का काम नहीं होता । केवल ज्ञान से आचार का काम नहीं हो Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता सकता । दूध बहुत पीने के बदले अच्छा तो यह है कि सार निकाल कर खाया जाये | आयुर्वेद में सार निकालने की पद्धति है । अर्क निकाले जाते हैं। एलोपैथी में सार निकाल कर विटामिटन की गोलियां बनाई जाती हैं । विटामिन-ए, बी, सी, डी आदि बनते हैं । ये सब सार निकालने पर ही निष्पन्न होते हैं । अधिक खाने पर जितना पौष्टिक तत्त्व या विटामिन प्राप्त होता है, उतना पौष्टिक तत्त्व सार से निष्पन्न एक गोली खाने पर प्राप्त हो जाता तत्त्वज्ञान का सार है जीवन का दर्शन | जैन आचार्यों ने बिलौने की पद्धति सिखाई थी, उसे हम भूल-से गए । उन्होंने तत्त्वज्ञान का बिलौना सिखाया था । उन्होंने कहा, पहले दोहन करो, जमाओ और फिर बिलौना करो । उसकी पद्धति यह है कि जो आगम पढ़ना चाहो उसे चार अनुयोगों के माध्यम से पढ़ो | यह बहुत महत्त्वपूर्ण पद्धति है | चार अनुयोग ये हैंद्रव्यानुयोग, चरणकरणानुयोग, गणितानुयोग, धर्मकथानुयोग | यह बिलौना करने की पद्धति है | बिलौने की मथनी के चार डंडे होते हैं । इसी प्रकार इस बिलौने की मथनी के भी ये अनुयोग के चार डंडे हैं । द्रव्यानुयोग का अर्थ है- द्रव्य की मीमांसा करो, द्रव्य की व्याख्या करो | यह मथनी का पहला डंडा है । चरणकरणानुयोग का अर्थ है- आचार की मीमांसा । इसके विश्लेषण से आचार ज्ञात होता है, जीवन-दर्शन ज्ञात होता है । यह मथनी का दूसरा टुंडा है। ___गणितानुयोग का अर्थ है- गणित की दृष्टि से मीमांसा । इसकी मीमांसा से उस तत्त्व का गणित ज्ञात हो जाता है । यह मथनी का तीसरा टुंडा है। धर्मकथानुयोग का अर्थ है— कथा के माध्यम से तत्त्व की मीमांसा | जो लोग प्रथम तीन अनुयोगों या दृष्टियों से नहीं समझ पाते, उनके लिए “यह चौथा अनुयोग बहुत सरल और लाभप्रद होता है । इससे मंद व्यक्ति भी तत्त्व को हृदयंगम कर लेता है । यह मथनी का चौथा डंडा है । ये बिलौने के चार डंडे थे । परंतु आदमी डंडों को भी भूल गए, दही जमाना भी भूल गए और बिलौना करना भी भूल गए । दूध कोरा दूध ही रह गया । यह तथ्य Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वज्ञान या जीवन दर्शन ? / १३३ उदाहरण के द्वारा ठीक समझ में आ सकेगा । आगम की एक गाथा है हत्थसंजए पायसंजए वायसंजए संजइंदिए । अज्झप्परए सुसमाहिअप्पा //' इस गाथा में यह बताया गया है कि आदमी आध्यात्मिक कैसे हो सकता है ? अपनी आत्मा के भीतर वह कैसे प्रवेश कर सकता है ? इसके कुछेक उपायनिर्दिष्ट किए गए हैं । यदि तुम अध्यात्म में प्रवेश पाना चाहते हो तो हाथ का संयम करो, पैर का संयम करो, वाणी का संयम करो, इन्द्रियों का संयम करो। इस प्रक्रिया से तुम समाधिस्थ हो जाओगे, भीतर चले जाओगे | अब हम इसकी चार अनुयोगों के आधार पर व्याख्या को समझें । इसकी दार्शनिक व्याख्या करें । इस गाथा में तीन कर्मेन्द्रियों— हाथ, पैर और वाणीकी बात आ गयी। तीन कर्मेन्द्रियां हैं। अब हम कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों की दार्शनिक मीमांसा करें। हाथ और पैर की मीमांसा करें। फिर आगे चलें । वाणी का विश्लेषण करें। कहा गया- शब्द ब्रह्म है । जैन दर्शन में वाणी ( भाषा) पर बहुत विस्तार से विचार किया गया है । केवल वाक् पर बड़ा ग्रन्थ लिखा जा सकता है। भगवती, पन्नवणा तथा अन्य आगमों में वाक् पर बहुत वर्णन प्राप्त है । हाथ, पैर और वाणी - इन तीनों का दोहन करने में मनुष्य को पांचसात महीने लग सकते हैं । हम फिर ज्ञानेन्द्रियों की मीमांसा करें। इसकी मीमांसा में बहुत लंबा समय लग सकता है । फिर हम विज्ञान के संदर्भ में तथा नृवंश विद्या की दृष्टि से इस पर विचार करें । प्रश्न होगा कि मनुष्य जाति का विकास कैसे हुआ ? इसके उत्तर में अनेक उत्तर दिए जा सकते हैं । किन्तु नृवंश विद्या के आधार पर इसका जो उत्तर दिया गया, वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । उसमें कहा गया है कि मनुष्य जाति के विकास का मूल आधार हैवाणी । पशुपक्षियों का विकास नहीं हुआ । गाय, भैंस और घोड़ा - ये हजारों वर्षों से समानरूप से रह रहे हैं । इनमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। गधे, घोड़े, खच्चर कभी हड़ताल नहीं करते। वे सदा से भार ढो रहे हैं । और ढोते रहेंगे। क्यों ? इसलिए कि उनका विकास नहीं हुआ । उनमें भाषा नहीं है । बन्दर ने कभी Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता घर नहीं बनाया । आज भी वह वृक्षवासी है ! मनुष्य ने घर बनाया । घर बनाने में उसने बहुत विकास किया। इसका कारण बताया गया है कि मनुष्य अपनी रीढ़ की हड्डी को सीधा रखता है। रीढ़ की हड्डी को सीधा रखने के कारण ही मनुष्य के विकास का प्रथम चरण प्रारंभ हुआ | विकास का दूसरा मुख्य तत्त्व है कि मनुष्य की अंगुलियां और अंगूठा विपरीत दिशा में हैं | अंगुलियों की सीध में यदि अंगूठा होता तो आदमी न लिख पाता और न अन्य काम ही कर पाता | मनुष्य पशु जैसा ही होता है । पशुओं के अंगुलियां और अंगूठा विपरीत दिशा में नहीं होते। यह बहुत बड़ा अंतर है। इसी अंतर के कारण आदमी प्रगति कर रहा है। विकास कर रहा है । यह है द्रव्यानुयोग की दृष्टि से विवेचन । दूसरी दृष्टि— योग की दृष्टि से देखें तो मुद्रा के आधार पर विश्लेषण करना होगा । योग ने मुद्रा की दृष्टि से बहुत विकास किया है । दो अंगुलियों को मिलाने से एक प्रकार की मुद्रा बन जाती है । तीन अंगुलियों को मिलाने से तीसरी मुद्रा बन जाती है । अनामिका और अंगूठे को मिलाने से अन्य मुद्रा बन जाती है । इस प्रकार सैंकड़ों-सैंकड़ों मुद्राएं हैं । इन मुद्राओं के परिणाम भी भिन्न-भिन्न होते हैं । मंत्रशास्त्र में मुद्राओं पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है । देवता को आह्वान करना हो तो कौन-सी मुद्रा होनी चाहिए । हठयोग में मुद्राओं का काफी विवेचन है । प्राणायाम करना है, दीर्घश्वास की क्रिया करनी है तो अमुक मुद्रा में करने से फेफड़ों में पूरा प्राणवायु पहुंचेगा, अन्यत्र नहीं । मुद्राओं के आधार पर परिणाम में अन्तर आ जाता है । ‘एक्यूप्रेजर' और 'एक्यूपंक्चर'- ये दो प्राचीन चिकित्सा पद्धतियां हैं | शरीर के अमुक भाग को दबाने से या शरीर के अमुक केन्द्र पर सुई चुभाने से अमुक बीमारी शांत हो जाती है । श्वास की बीमारी है या हार्ट की बीमारी है तो अमुक पोइन्ट को दबाने या उस पर सुई चुभाने से वह बीमारी शांत हो जाती है | आज भी यह पद्धति चीन और जापान में चलती है | भारत में भी यत्र-तत्र इसके विशेषज्ञ मिलते हैं । आयुर्वेद का एक प्रसिद्ध श्लोक है दन्तानामञ्जनं श्रेष्ठ, कर्णानां दन्तधावनम् । शिरोभ्यश्च पादानां पादाभ्यश्च चक्षषेः ।। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वज्ञान या जीवन दर्शन ? | १३५ आंखों को आंजने से दांत स्वस्थ रहते हैं । दांतों को धोने से कान स्वस्थ रहते हैं । सिर पर मालिश करने से पैरों को लाभ होता है और पैरों पर मालिश करने से आंखों की ज्योति बढ़ती है । इस प्रकार शरीरं में सैंकड़ों केन्द्र हैं, जिनको जानना बहुत लाभप्रद होता है । उनमें हाथ-पैर बहुत महत्त्वपूर्ण हैं | हम विद्युत्-विज्ञान की दृष्टि से भी देखें । आज का शरीरशास्त्र मानता है कि शरीर की विद्युत का बहिःनिष्क्रमण मुख्यतः तीन स्थानों से होता है— हाथ की अंगुलियों से, पैरों की अंगुलियों से और आंखों से । जब शरीर रोगग्रस्त होता है तब रोग-ग्रस्त भाग पर अंगुलियां घुमाई जाती हैं । उससे विद्युत मिलती है और रोग शांत भी होता है । गुरु के चरणों में मस्तक रखने से उनके पैरों से निकलने वाली विद्युत का लाभ मिलता है | जब वे अपना हाथ भक्त के सिर पर रखते हैं तब अंगुलियों से निकलने वाली विद्युत भी मिलती है और जब वे शांत आंखों से भक्त को देखते हैं तब आंखों से निकलने वाली विद्युत भी प्राप्त होती है । भक्त तीनों ओर से लाभान्वित होता है । यह भी एक विज्ञान है । हर प्रवृत्ति के पीछे तत्त्वज्ञान होता है । पूरा दर्शन होता है | हम नहीं जानते, दर्शन को भूल जाते हैं और केवल यह समझ लेते हैं कि गुरु अपना बड़प्पन दिखाते हैं । जो जाता है उसके सिर पर हाथ रखकर अपना महत्त्व बताना चाहते हैं । हम मूल तथ्य को भूल जाते हैं । तत्त्वज्ञान से ही पूरा काम नहीं बनता । जानने मात्र से पूरा लाभ नहीं मिलता । उसका सार निकालना होता है, मक्खन निकालना होता है इसलिए कहा गया— हाथ का संयम करो, पैरों का संयम करो, दृष्टि का संयम करो | यही आचार दर्शन है | यह जीवन से जुड़ा हुआ है। हाथ में बिजली है, उसका संयम करो यानी उसे व्यर्थ मत जाने दो । हाथ को बिना प्रयोजन मत हिलाओ, जो छूने योग्य न हो उसे हाथ से मत छुओ, संयम करो । जो चैतन्य केन्द्र मस्तिष्क में हैं, वे हाथ में भी हैं । भावना के सभी केन्द्र हाथ में हैं। जिन व्यक्तियों का ध्यान नहीं टिकता उनके लिए बताया गया है कि वे दाहिने पैर के अंगूठे पर ध्यान करें | ध्यान सधने लगेगा | यह है पैर का . Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता संयम । यह आचारशास्त्र का बहुत बड़ा अंग है। यह तो नहीं कहा कि पूरे शरीर का संयम करो । हाथ-पैर के संयम की बात कही, इसका हमें आचारशास्त्रीय दृष्टि से भी महत्त्व आंकना चाहिए । आचारशास्त्रीय दृष्टि से संयम तब होता है, जब हम हाथ-पैर को स्थिर रख सकें, लंबे समय तक रख सकें | जो व्यक्ति उकड़ आसन में बैठता है, वह पैरों का संयम साधता है | उसकी आध्यात्मिक शक्तियां जागती हैं । उसमें ब्रह्मचर्य की शक्ति का विकास होता है । यह है आचारशास्त्रीय दृष्टिकोण | तीसरा है गणितशास्त्रीय दृष्टिकोण । हाथ और पैर का गणित करना होगा । दोनों हाथों की दस अंगुलियां, दोनों पैरों की दस अंगुलियां । उन पर बनी रेखाओं का गणित, हाथ और पैरों की रेखाओं का गणित और मूल्यांकन | पुराने जमाने में तर्कशास्त्र पढ़ा जाता था सूत्रों के आधार पर और आज पढ़ा जाता है गणित के आधार पर । यह सही विज्ञान है । आचारशास्त्र भी गणित के आधार पर पढ़ाए जाते हैं । विनोबा कहा करते थे कि जैन दर्शन को 'अंक दर्शन' (गणित दर्शन) कहना चाहिए। जैन साहित्य का लगभग आधा भाग गणित से भरा पड़ा है। जैन आचार्यों ने गणित का बहुत उपयोग किया । गणितशास्त्र की दृष्टि से भी तत्त्व का विश्लेषण होना चाहिए । चौथा है कथाशास्त्रीय दृष्टिकोण | हाथ-पैर के संयम की बात को कथा के माध्यम से बताना कि कब किसने कैसे संयम किया था और उसको क्याक्या लाभ हुए थे । इसका भी अपना मूल्य है और यह विद्या तत्त्व को हृदयंगमं कराने में बहुत कारगर सिद्ध हुई है । ध्यान उदाहरण के द्वारा वाणी के संयम को स्पष्ट करते हुए कहा गयाएक गुरु के पास चार शिष्य आए और बोले— 'गुरुदेव ! हम ध्यान की साधना करना चाहते हैं ।' गुरु ने देखा । आकृति से जान लिया कि उनका मन बहुत चंचल है । बहुत आग्रह करने पर गुरु ने कहा- 'देखो, की साधना से पूर्व दो घंटा मौन रहो, इस कमरे में बैठ जाओ ।' चारों कमरे में बैठ गए । सायंकाल का समय था । धीरे-धीरे अंधेरा होने लगा । एक बोला- 'अरे, यह कैसा गुरुकुलवास ! अंधेरा हो रहा है, कोई दीया ही नहीं जला रहा है ।' तत्काल दूसरा बोल उठा- 'चुप, मौन रहो ।' तीसरा बोला Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वज्ञान या जीवन दर्शन ? / १३७ 'अरे, दोनों ने मौन भंग कर दिया ।' इतने में चौथा बोल पड़ा— 'एक मैं बचा हूं, मैंने मौन नहीं तोड़ा । ' बहुत कठिन होता है वाणी का संयम । इसी प्रकार हाथ-पैर का संयम भी बहुत कठिन होता है। एक मुहूर्त्त के ध्यानकाल में स्थिर कहां रह पाते हैं हाथ-पैर ? कितनी बार बदलना पड़ता है ? ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का संयम बहुत कठिन होता है । अभ्यास के द्वारा उन पर संयम किया जा सकता है, संयम सध सकता है । जब चारों दृष्टियों से तत्त्व की मीमांसा हो जाती है तब यह प्रश्न शेष नहीं रहता कि तत्त्वज्ञान केवल तत्त्वज्ञान ही रहता है या वह जीवन-दर्शन भी बन जाता है ? वास्तव में दोनों घुले-मिले हुए हैं, जैसे दूध और घी । जब चारों अनुयोगों के माध्यम से तत्त्व को जान लेंगे तो ज्ञान का विकास होगा, दर्शन और चारित्र का विकास होगा और अभिव्यक्ति का विकास होगा । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान युग में योग की आवश्यकता हम जिस जगत् में जीते हैं वह सापेक्षता का जगत् है । किसी भी वस्तु को संदर्भ में भी देखा जा सकता है और सीधा भी देखा जा सकता है। संदर्भ में देखना उचित होता है । संदर्भ को छोड़ देने पर कुछ भी समझ में नहीं आ सकता, फिर चाहे वह योग हो या अयोग हो, ध्यान हो या चंचलता हो । प्रत्येक चस्तु की व्याख्या संदर्भ से की जा सकती है। योग को भी संदर्भ में ही समझा जा सकता है । हमारे सामने वर्तमान युग का संदर्भ है। मैं मानता हूं, शाश्वत सत्य को देश-काल में विभक्त नहीं करना चाहिए | योग मन की साधना है । यह मन की समस्याओं को सुलझाने का विधिमार्ग है । शाश्वत मार्ग है। समस्याएं शाश्वत हैं तो उनके समाधान और समाधान की प्रक्रियाएं भी शाश्वत हैं । जो शाश्वत हैं, उन्हें देश-काल के संदर्भ में क्यों देखें ! देशकाल के संदर्भ में सामयिक सत्य को ही देखा जाना चाहिए | किन्तु दुनिया का ऐसा ही स्वभाव है कि यहां शाश्वत भी सामयिक रूप में प्रस्तुत होता है । उसकी निरंतरता भी शाश्वत बन जाती है । इसलिए उस शाश्वत सचाई को भी देश-काल के संदर्भ में देखना अनुचित बात नहीं है । आज योग और ध्यान का बहुत मूल्य आंका जा रहा है । प्रत्येक देश में इसका मूल्यांकन हो रहा है । निश्चित ही इसके पीछे कोई हेतु है और वही हेतु हमारी समझ के लिए एक संदर्भ बन जाता है । हेतु बहुत स्पष्ट है कि वर्तमान युग बहुत संक्रामक बन गया है। पुराने जमाने में रात के समय में एक हाथ को दूसरे हाथ का मुश्किल से पता चलता था । घोर अंधकार छाया रहता था । 'सूचीभेद्य' और 'मुष्टिभेद्य' शब्द इसी के द्योतक हैं । उस समय संक्रमणं बहुत कम था। आज प्रकाश की सुलभता है । इतना प्रकाश Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान युग में योग की आवश्यकता / १३९ कि वह दिन का आभास करा देता है । इसी प्रकार संक्रमण भी सुलभ हो गया है । दुनिया के किसी एक छोर में घटना घटती है, उसे दुनिया के दूसरे छोर तक पहुंचने में समय नहीं लगता । समाचार प्रेषण के विविध साधन और उनकी त्वरित गति ने इसमें आश्चर्यकारी सहयोग दिया है। इस संक्रमण की दुनिया में मनुष्य के मन का चंचल होना, ज्यादा सुख-दुख का अनुभव होना, एक सामान्य बात बन गई है। सामान्य घटना बन गई है। पुराने जमाने में गांव में भी यदि कोई घटना घटती तो वह सबको ज्ञात नहीं हो पाती थी । महीना बीत जाते । कुछ भी पता नहीं चलता, सुख-दुःख भी नहीं होता । सुख-दुःख घटना से नहीं होता । सुख-दुःख होता है घटना का पता चलने से | उसके संवेदन से । घटना पदार्थ जगत् में घटित होती है । वह न सुख देती है और न दुःख देती है । सुख-दुख की अनुभूति तब होती है जब उसका पता चलता है और हमारा संवेद उससे जुड़ता है। जब तक ज्ञान न हो, तब तक चाहे अच्छी घटना घटे या बुरी घटना घटे, कोई अन्तर नहीं आता । वायुसेना का एक अधिकारी शिविर में ध्यान का अभ्यास करने आया । वह पूर्ण तन्मयता से इस प्रक्रिया में संलग्न था । पीछे से उसकी पदोन्नति भी हो गई और स्थानान्तरण भी हो गया। दोनों बातें उसके लिए सुखद थीं । पर जब ये दोनों बातें घटित हुईं, तब अधिकारी को कोई सुख की अनुभूति नहीं हुई | करने वालों ने किया। जो हुआ वह हुआ, सुख नहीं मिला कुछ भी, क्योंकि संबंधित व्यक्ति को यह अज्ञात था । जब यह घटना ज्ञात हुई, तब वह आनंदित हुआ, उसे सुख मिला। किसी की पदोन्नति होती है, मनचाही बात होती है तो निश्चित ही सुख होता है । किन्तु सुख तब होता है जंब पता चलता है | हम इन दोनों बातों को स्पष्ट समझें कि घटना में सुख-दुःख नहीं होता । सुख-दुःख होता है अनुभूति में । जब किसी बात का पता चलता है, उसका संवेदन होता है तब सुख या दुःख होता है । वर्तमान युग में इतने द्रुतगामी और संचरणशील साधन हैं कि घटना की स्थिति तत्काल फैल जाती है। विश्व में कहीं कुछ होता है, तत्काल उसका पता लग जाता है | पर मनुष्य का मन दुर्बल होता है । वह अनेक घटनाओं के साथ अपने को जोड़ लेता है । बहुत जल्दी जोड़ लेता है । चुनाव में एक व्यक्ति जीतता है, दूसरा हारता है । दोनों बातें एक साथ घटित होती हैं । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता अनेक लोग इनसे जुड़ जाते हैं । जो जीतता है, उसकी जीत पर पार्टी वालों को प्रसन्नता होती है और विरोधी विचार वालों को खिन्नता होती है | एक सुख की अनुभूति करता है और दूसरा दुःख की अनुभूति करता है । कोई हारता है तो उससे जुड़े हुए लोग दुःख का अनुभव करते हैं और विरोधी लोगों को सुख का अनुभव होता है । आदमी जुड़ा हुआ रहता है । वह प्रतिबद्ध रहता है । वह जिन्हें जानता तक नहीं, उनसे भी जुड़ा हुआ रहता है। कभी प्रत्यक्षतः मिलना नहीं हुआ, सुख-दुःख में कभी भागीदार नहीं बने, फिर भी वह उस अमुक व्यक्ति के सुख-दुःख में जुड़ा रहता है । स्वयं सुखी भी बनता है और दुःखी भी बनता हमने देखा है, जब द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था। कुछ लोग हिटलर का पक्ष लेते थे और कुछ लोग ब्रिटेन और अमेरिका का पक्ष लेते थे। वहां रणांगण में जो हार-जीत होती वह होती, पर यहां के लोग अनेक विवादों में उलझ जाते । लड़ पड़ते, मारपीट हो जाती । ऐसा लगता मानो युद्ध वहां नहीं, यहां लड़ा जा रहा है। मनुष्य का स्वभाव है जुड़ जाना, संबद्ध हो जाना, प्रतिबद्ध हो जाना । जब इस स्वभाव को द्रुतगामी संचार-साधनों का सहारा मिल जाता है तो कठिनाई का पार नहीं रहता । बहुत बड़ी समस्या खड़ी हो जाती है | यह आज की प्रबल समस्या है । मन स्वभावतः चंचल होता ही है वृत्तियों के कारण और जब उसे चंचल बनाने के अनेक साधन मिल जाते हैं तब उसकी चंचलता वृद्धिगत हो जाती है । आज मन को चंचल बनाने के जितने साधन सुलभ हैं, उतने सुलभ अतीत में नहीं थे। साधन ही बहुत कम थे । पदार्थ विकास के साथ-साथ भौतिक साधन बढ़ रहे हैं और वे सब चंचलता को बढ़ाने वाले हैं । रेडियो, टेलीविजन आदि उपकरण जानकारी के अच्छे साधन माने जाते हैं । किन्तु वे चंचलता को बढ़ावा देने वाले भी हैं । सिनेमा अच्छा साधन माना जाता है पर वह मन को चंचल बनाने का अनुत्तर उपाय है । और भी जितने दृश्य और श्रव्य आदि साधन हैं, वे सब चंचलता के वर्द्धक हैं । जो भी व्यक्ति इन साधनों को काम में लेता है, जो समाचारपत्रों को पढ़ता है, वह हत्या, मारकाट, लूट Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान युग में योग की आवश्यकता / १४१ खसोट, बलात्कार आदि की घटनाओं को पढ़कर अनेक संवेदनों से भर जाता है । समाचारपत्रों में इन समाचारों की बहुलता रहती है । चंचल बनाने वाले साधन - बहुल इस युग में यदि योग का उपयोग न हो, योग की अपेक्षा न हो और मन को स्थिर करने की आवश्यकता न हो तो अतीत के किसी भी युग में ऐसी अपेक्षा नहीं मानी जा सकती । आज मन का स्थिर करने की बहुत बड़ी अपेक्षा है, आवश्यकता है । आदमी मन को स्थिर करना सीखे और इसलिए सीखे कि चारों ओर से चंचलता का प्रवाह उसमें प्रविष्ट हो रहा है, आ रहा है। उसे भर रहा है और उसकी चंचलता को बढ़ा रहा है । वर्तमान युग की एक और परिस्थिति है और वह है व्यस्तता । प्रत्येक मनुष्य इतना व्यस्त हो गया है कि वह इसी भाषा में बोलता है— समय नहीं है । किसी के पास समय नहीं है। एक पढ़े-लिखे व्यक्ति के पास समय नहीं है तो एक अनपढ़ व्यक्ति के पास भी समय नहीं है। एक अधिकारी के पास समय नहीं है तो एक मजदूर के पास भी समय नहीं है। ऐसा एक भी आदमी नहीं मिलेगा जो यह कहे कि मेरे पास समय है । सभी यही कहते हैं - यह काम तो बहुत अच्छा है, करना भी चाहता हूं, पर विवश हूं, समय नहीं है । प्रत्येक आदमी की व्यस्तता बढ़ गई। वर्तमान की समाज व्यवस्था ने भी कुछ व्यस्तता लाद दी । आदमी के सामने आर्थिक कठिनाइयां भी हैं, शासनतन्त्र की समस्याएं भी हैं। ये सब आदमी को और अधिक व्यस्त बना रही हैं । | पुराने जमाने में एक व्यापारी बहुत साधारण ढंग से व्यापार चलाता था । वह छह महीनों तक अपने गांव में और छह महीनों तक परदेश में रह जाता था । वह व्यापार करता और अपनी आजीविका अच्छे ढंग से चला लेता था । किन्तु आज ऐसा नहीं हो सकता। आज राज्यतन्त्र के इतने प्रतिबन्ध और कानून हैं कि एक आदमी उनको संभालने के लिए चाहिए। आज जीवन की इतनी जटिलताएं बढ़ गई हैं कि उन्हें असीम कहा जा सकता है। जहां इतनी व्यस्तता हो, जीवन इतना दूभर हो, वहां बेचारे मन की क्या स्थिति होती है । मन को विक्षुब्ध करने वाली सामग्री की प्रचुरता ने उसे खंड-खंड कर डाला है । उस विक्षोभ से तरंग पैदा होती हैं और उनकी उत्पत्ति के सारे साधन वहीं विद्यामान रहते हैं । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता तीसरी बात है आज व्यक्ति जितना भयभीत रहता है उतना पहले नहीं था । बहुत डरा हुआ है आज का आदमी । डर के इतने निमित्त हैं कि सोतेजागते भय ही बना रहता है । पहले घर की रक्षा का प्रश्न इतना जटिल नहीं था । केवल कमाने का प्रश्न जटिल था । कमाने के बाद उसकी रक्षा का प्रश्न इतना उलझा हुआ नहीं था । किन्तु आज वह जटिलतम हो गया है । उस जटिलता का दोषी वह स्वयं है । दूसरा कोई नहीं है । क्योंकि सामाजिक विकास के बाद यह धारणा स्पष्ट हुई कि धन समाज की संपत्ति है, वैयक्तिक संपत्ति नहीं है । उस पर व्यक्ति का स्वामित्व इतना नहीं हो जाना चाहिए कि वह अकेला उसका भारी संग्रह कर उसको भोगता रहे । इस धारणा के पश्चात् प्रत्येक राज्य सरकार ने आर्थिक नीतियों में परिवर्तन किया है, फिर चाहे वह समाजवादी राज्य सरकार हो या पूंजीवादी राज्य सरकार हो । प्रत्येक राज्य प्रणाली इस बात को स्वीकार करती है कि किसी एक व्यक्ति के पास अधिक पूंजी का संग्रह न हो | इसलिए टैक्सों की वृद्धि हुई । और वह निरन्तर गतिशील है । परन्तु मनुष्य की मनोवृत्ति बदली नहीं । ज्यादा से ज्यादा संग्रह कर रखना चाहता है । उस संग्रह की रक्षा के लिए वह उपाय सोचता है | उन उपायों के चुनाव में वह उचित-अनुचित का विवेक नहीं रख पाता । यहां से भय की वृत्ति प्रारम्भ होती है | भय छिपाव सिखाता है । छिपाव से भय बढ़ता है । भय और छिपाव दो नहीं, एक ही हैं । ये दोनों साथ-साथ चलते हैं। भय का संकट बहुत बड़ा होता है । सोते-जागते भय बना रहता है कि कहीं पता न चल जाए । कहीं पकड़-धकड़ न हो जाए । भय ने मनुष्य को आक्रान्त कर रखा है । भय अनेक बीमारियों का कारण है । आज की मानसिक विकृतियों का कारण है भय । ऐसी विषम परिस्थिति में क्या ध्यान एवं योग की बात बतानी होगी ? आज का युग योग एवं ध्याम के लिए स्वर्णयुग है । बुरा युग भी कभी अच्छाई के लिए स्वर्ण युग बन जाता है । यदि मनुष्य सीधा-सादा हो, सरल जीवन जीने वाला हो, आदिवासी जैसा अविकसित हो, जीवन में माया-कपट न हो, छिपाव न हो, लूट-खसोट न हो, पदार्थ का विकास और पदार्थ की उपलब्धि कम हो तो मन इतना चंचल नहीं बनता कि वह अशांति पैदा करे | मन उस बिन्दु पर नहीं पहुंचता जहां पहुंचने पर आदमी पागल बन जाता है । मन की चंचलता कम रहती Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान युग में योंग की आवश्यकता । १४३ है। ऐसी स्थिति में ध्यान और योग की बात आदमी को नहीं सूझती या उस ओर कम ध्यान जाता है । उसकी आवश्यकता भी महसूस नहीं होती । आवश्यकता तब महसूस होती है जब चंचलता उस बिन्दु पर पहुंच जाती हे जहां पहुंचने पर मनुष्य सोचता है कि इसकी चिकित्सा होनी चाहिए । आज चंचलता और विक्षोभ स्वयं चिकित्सा की मांग कर रहे हैं । वे चिकित्सा की प्रतीक्षा में हैं । इतनी चंचलता, इतना विक्षेप और विक्षोभ बढ़ गया है कि उनका निदान होना आवश्यक है । आज ध्यान योग का जो प्रबल स्वर सुनाई दे रहा है, वह आध्यात्मिक चेतना का प्रतिफलन नहीं है किन्तु चंचलता की उच्च बिन्दु की मांग है । चंचलता द्वारा पैदा की गई परिस्थिति की मांग है, वातावरण की मांग है। - बुराई से भी अच्छाई निकलती है | चंचलता एक बुराई है । इस बुराई ने अच्छाई को उजागर किया है । इसने ध्यान और योग की उपयोगिता को महसूस कराया है। भारत ने ध्यान को बहुत भुला दिया । इतना भुला दिया कि ध्यान भी आज राजाओं की भांति इतिहास की वस्तु बन गया । जैसे राजा-महाराजा आज परियों की कथाओं की भांति इतिहास की बातें बनकर रह गये हैं, वैसे ही ध्यान को भी लोगों ने वैसा बना डाला । एक युग में जैन परम्परा ने ध्यान पर बहुत बल दिया था, किन्तु हम स्वयं अनुभव करते हैं कि इन शताब्दियों में जैनों में भी ध्यान एक इतिहास की बात बन गया । दूसरी-दूसरी परम्पराओं में भी ऐसा ही हुआ है । बौद्ध परम्परा और वैदिक परम्परा में भी लगभग ऐसा ही हुआ है । यदि विकसित और संपत्तिशाली देशों में पदार्थ की प्रचुरता और उपभोग सामग्री की सुलभता नहीं होती और इसमें रचे-पचे लोग मानसिक अशांति से ग्रस्त नहीं होते तो संभवतः ध्यान की बात आज भी हमारे सामने नहीं आती | पदार्थ की प्रचुरता और भोग की अतिरिक्तता ने एक और रिक्तता पैदा कर दी है कि पदार्थों की प्रचुरता को भोग लेने पर भी मन भरा नहीं, बेचैनी हो गई । मन की तृप्ति नहीं हुई, अतृप्ति और बढ़ गई । मन प्यासा का प्यासा रह गया । इस स्थिति में नया रास्ता खोजना पड़ा और उस खोज में से ध्यान और योग का विकास हुआ । मैं मानता हूं, सत्य की खोज हमेशा असत्य के विकास में से होती है । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता अच्छाई की खोज बुराई का अतिरेक होने पर होती है । यदि सब लोग भले हों तो अच्छाई को अलग देखने की जरूरत नहीं पड़ती । किन्तु कुछ लोग बुरे होते हैं तब अच्छाई के लिए कुछ सोचना पड़ता है । संसार का कोई ऐसा नियम नहीं है कि बुराई अच्छाई के कन्धे पर बैठकर चलती है । और अच्छाई को सामने आने के लिए भी बुराई का कंधा चाहिए। दोनों का गठबंधन है । ऐसा ही कोई योग है कि कोरी अच्छाई या कोरी बुराई कहीं नहीं मिलती। एक के सहारे दूसरे के दर्शन होते हैं । चंचलता बढ़ाने वाले इस युग ने स्थिरता का प्रश्न हमारे सामने उपस्थित किया । इस विक्षेप बढ़ाने वाले युग ने ही एकाग्रता और ध्यान का प्रश्न उजागर किया है । इसलिए वर्तमान युग को श्रेय देना चाहिए कि उसने हमारी विस्मृत विरासत का स्मरण दिलाया और भूली हुई निधि की स्मृति कराई | इस युग ने एकाग्रता का मूल्यांकन करना सिखाया । यह सच है कि वर्तमान युग की कमियां हो सकती हैं, किन्तु उन कमियों में से एक जो अच्छाई निकली है, उसके लिए वर्तमान युग को धन्यवाद ही देना होगा । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यनिष्ठा गुडा हि कफहेतुःस्याद् नागरं पित्तकारणम् । द्वयात्मनि न दोषोऽस्ति, गुणनागरभेषजे ॥ —गुड़ कफ पैदा करता है और सूंठ पित्त करती है । दोनों को मिलाने पर न कफ होता है और न पित्त । उनके मूल दोष मिट जाते हैं और तीसरा गुण पैदा हो जाता है । दोनों यदि अलग-अलग होंगे तो दोनों की दूरी बनी रहेगी । वे एक दृष्टि से दोषकारक ही होंगे, गुणाकारक नहीं । दोनों का योग होने पर गुणवत्ता आ जाती है । चेतना दो प्रकार की है- सूक्ष्म चेतना । मनोविज्ञान की भाषा में सूक्ष्म चेतना को अवचेतन मन कहा जाता है और दर्शन की भाषा में वह सूक्ष्म चेतना है या कर्मशरीर के साथ काम करने वाली चेतना है | मनोविज्ञान के चेतन मन का अर्थ है स्थूल शरीर के साथ, मस्तिष्क के साथ काम करने वाली चेतना, स्थूल चेतना । ___ मन दो हैं । एक मन भीतर है, दूसरा मन बाहर है । एक सूक्ष्म है, दूसरा स्थूल है । इस सूक्ष्म और स्थूल के बीच दूरी है । प्रश्न होता है कि वह दूरी क्यों है ? हमने अपनी ही मान्यताओं के कारण यह दूरी बना रखी है । आदमी बाहरी जगत् में जीता है और उस जगत् के विषयों को मानता है । बाहरी जगत् के दो मुख्य विषय हैं । आदमी डरता है | आदमी के मन में लालच है, प्रलोभन है । वह प्रसन्नता चाहता है, गरिमा और बड़प्पन चाहता है । वह पद चाहता है । ये चार बड़े प्रलोभन हैं । आदमी में भय है । भय भी प्रलोभन का ही हिस्सा है | आदमी निरन्तर डरता रहता है कि प्रसन्नता कम न हो जाए, गरिमा घट न जाए, बड़प्पन में कोई कमी न आ जाए, पद Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता नीचा न हो जाए। इस सन्दर्भ में मूल समस्या है— बाहरी जगत् । भीतर का जगत् एक प्रकार का है और बाहर का जगत् दूसरे प्रकार का है । भीतर में बुराइयों के संस्कार हैं, बुरे विचारों के संस्कार हैं । जब वे संस्कार बाहर प्रकट होते हैं, तब अच्छा नहीं लगता । आदमी निरन्तर सोचता है, कोई दूसरा देख न ले । कोई दूसरा जान न ले । इस स्थिति में वह माया का जाल बुनता है, माया का निर्माण करता है । यह बहुत बड़ा संघर्ष है बाहर का और भीतर का । भीतर का दबाव है एक प्रकार का और बाहर का प्रदर्शन है दूसरे प्रकार का । वह बुराई करता है, पर दिखाना नहीं चाहता । यह बहुत बड़े भय का कारण है । एक क्रिश्चियन साध्वी थी । वह कपड़े पहनकर स्नान करती थी । लोगों ने पूछा- तुम एकान्त में, बन्द स्नानगृह में स्नान करती हो, फिर कपड़े पहने क्यों रहती हो ? उसने कहा- तुम नहीं जानते। वहां और तो कोई नहीं रहता, परन्तु प्रभु तो सर्वव्यापी है, वह तो सर्वत्र है । उसके सामने कपड़े कैसे खोलूं ? लोगों के सामने तो नग्न न होऊं तो क्या प्रभु के सामने नग्न हो जाऊं ? प्रत्येक आदमी छिपाना चाहता है । ―― दो के संघर्ष में तीसरा तत्त्व पनपा । संघर्ष था भीतर और बाहर का और पनपी माया । जगत् का मूल रूप है— मायावी । मायाजाल या इन्द्रजाल दोनों पर्यायवाची शब्द हैं । दो प्रकार के पुरुष होते हैं—- मायावी और तथागत । तीर्थंकर का एक नाम है तथागत | बुद्ध का नाम भी तथागत है । तथागत का अर्थ है— जो वर्तमान में घटित होता है, उसे स्वीकार करने वाला । तथागत, यथार्थवादी, वीतराग- ये सब एकार्थक शब्द हैं । तथागत होना यानी वर्तमान को स्वीकार कर लेना । भीतर में यदि कामवासना की तरंग आ रही हो तो यह स्वीकार कर लेना कि क्रोध उठ रहा है । भीतर में यदि अहंकार की तरंग उठ रही ‘हो तो उसे स्वीकार कर लेना । जो बाहर के जगत् में जीता है, उसे सारी बातें स्वीकार कर चलना होगा । परन्तु आदमी स्वीकार नहीं करता वह अस्वीकार करता है । इसलिए उसके दो चेहरे बन गए। एक है यथार्थ का Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यनिष्ठा / १४७ चेहरा और दूसरा है मुखौटे का चेहरा । प्रत्येक आदमी मुखौटे के चेहरे को प्रदर्शित करता है । स्थूल चेतना वाला आदमी मुखौटे के चेहरे को जानता है और सूक्ष्मदर्शी व्यक्ति यथार्थ के चेहरे को जानता है । अनेक व्यक्ति आचार्य या गुरु के पास आते हैं । उनके मन में कुछ और होता है और वे प्रदर्शन किसी और भावना का ही करते हैं। गुरु तत्काल जान जाते हैं कि यह माया की रचना कर रहा है। वे उसे पकड़ लेते हैं । आचार्य भिक्षु में यह विशेषता थी कि वे दूसरे के मन को पढ़ लेते थे आचार्य श्री पढ़ लेते हैं । अनेक प्रसंग हमारे सामने हैं । आचार्य भिक्षु बैठे थे | एक भाई ने आकर पूछा- भीखनजी ! घोड़े के पैर कितने होते हैं ? आचार्य भिक्षु कुछ क्षणों तक चिन्तन की मुद्रा में रहे, फिर गिनने लगे — एक, दो, तीन और चार । गिनकर बताया- घोड़े के चार पैर होते हैं । उस व्यक्ति ने कहा- मैंने तो सोचा था कि आप बड़े बुद्धिमान हैं । परन्तु घोड़े के पैर बताने में आपको गणित करना पड़ा । इतना समय लगा ? आचार्य भिक्षु बोले- यह गणित करना आवश्यक था क्योंकि मैं जानता था कि तुम्हारे मन में क्या है । तुमने सोचा- पहले मैं भीखनजी से पूछूंगा कि घोड़े के पैर कितने होते हैं । वे तत्काल उत्तर दे देंगे कि घोड़े के चार पैर होते हैं । तब मैं अगला प्रश्न यह पूछूंगा - कनखजूरे के पैर कितने हैं ? वे बता नहीं पाएंगे, अटक जाएंगे। मैं कहूंगा अब बताओ तो जानें ? भीखनजी की यह बात सुनकर वह व्यक्ति अवाक् रह गया । उसने कहामैं पूछना तो यही चाहता था । आपने मेरे मन की बात जान ली । I जो तत्त्वदर्शी होता है, वह मुखौटे का नहीं देखता, वह असली चेहरे को देखता है । सामान्य आदमी होता है स्थूलदर्शी । वह मुखौटे को देखता है और उसी के आधार पर निर्णय करता है । वह अच्छे-बुरे का निर्माण इसी आधार पर करता है । तत्त्वदर्शी व्यक्ति के निर्णय का आधार दूसरा होता है, असली चेहरा होता है । आज के विज्ञान ने अनेक सूक्ष्म नियमों की खोज की है ! मेरे मन में एक प्रश्न उभरता रहता था कि यथार्थ में सत्य क्या है ? बहुत सोचने-समझने पर भी यह प्रश्न समाहित नहीं हो रहा था । सत्य की सैकड़ों व्याख्याएं प्रस्तुत थीं, किंतु कोई भी व्याख्या व्यावहारिक नहीं बन रही थी । चिन्तन चालू रहा । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता एक बार मैंने शिविर में सत्य की व्याख्या प्रारम्भ की, चर्चा चली । चर्चा करतेंकरते सत्य की व्याख्या स्पष्ट हो गयी । ० सत्य का अर्थ है- नियम की खोज । ० सत्य की खोज है- नियम की खोज । ० सत्य का बोध है— नियम का बोध । ० सत्य का आचारण है-नियम का आचरण । सत्य की यह व्याख्या बहुत ही व्यावहारिक और व्यापक है । यथार्थ में सत्य का अर्थ है- नियम | यह संसार नियमों से बंधा हुआ है । प्रत्येक वस्तु और मनुष्य नियम के आधार पर चल रहा है । नियम को वह जाने न जाने, यह दूसरी बात है किन्तु नियम अपना काम कर रहा है | नियम एक नहीं है, हजारों-हजारों नियम हैं। अनेकान्त का सिद्धान्त नियमों को जानने का साधन है । अनेकान्त ने नियमों की व्याख्या की है, फिर चाहे वह वाणीगत नियम हो या वस्तुगत नियम हो । पर्याय दो प्रकार के होते हैं... व्यंजन पर्याय और अर्थ पर्याय | यह सारा नियमों का बोध है । जो व्यक्ति नियमों को जानता है, वह सत्य को पकड़ लेता है । वैज्ञानिक जगत् में यंत्रों का जितना निर्माण हुआ है, वह सारा नियमों के अवबोध के आधार पर हुआ है । वैज्ञानिक वह होता है, जिसमें नियम को पकड़ने की, समझने की क्षमता होती है । नियम को बनाने वाला कोई नहीं होता । नियम अनादि है, यूनिवर्सल है । जो उन नियमों को पकड़ता है, वह होता है ऋषि, वह होता है मुनि और वह होता है वैज्ञानिक— दोनों पर्यायवाची शब्द हैं । मुनि का अर्थ है- ज्ञानी, नियमों को जानने वाला | मुनि शब्द 'मुण ज्ञाने' धातु से निष्पन्न होता है | इसलिए मुनि का अर्थ ज्ञानी ही होना चाहिए । मुनि कहो या वैज्ञानिक कहो, कोई अन्तर नहीं पड़ता | मुनि वह होता है, जो नियमों को जानता है । वैज्ञानिक वह होता है, जो नियमों को जानता है । मुनि का अर्थ संयमी क्यों चल पड़ा, यह अन्वेषणीय है । संयम मुनि की क्रिया है, वह मुनि का अर्थ नहीं है | Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यनिष्ठा / १४९ विज्ञान प्रत्येक नियम की खोज करता है। उसने प्रत्येक क्षेत्र के नियमों को जानने का प्रयास किया है । एक आदमी बुरा आचरण करता है, हत्या करता है, अपराध करता है । प्राचीन काल में चोर को चोर या हत्यारे को हत्यारा प्रमाणित करने के लिए साधक होता है गवाह या साक्षी कोई यह प्रमाणित कर देता कि मैंने इसे चोरी करते या हत्या करते देखा है तो उस आधार पर अपराधी को सजा दे दी जाती । अपराधी की पहचान का दूसरा साधन यह था कि उसे भय दिखाकर या अत्यधिक यातना देकर उससे अपराध स्वीकार करा लिया जाता । तीसरा साधन यह था कि उसे ऐसी वस्तु खिला दी जाती, जिससे वह बेहोशी में सारी बात उगल देता । महावीर के समय की घटना है। मगध के प्रसिद्ध चोर रोहिणेय का आतंक सारे राज्य में व्याप्त था । उसको पकड़ने के लिए अनेक प्रयत्न किये, पर सब व्यर्थ सिद्ध हुए । अन्त में यह कार्य महामंत्री अभय कुमार को सौंपा गया । उसने चोर को पकड़ लिया । चोर ने अपना एक भी अपराध स्वीकार नहीं किया । अभयुमार ने युक्ति लगाई । उसने उस चोर को मदिरा पिलायी । चोर नशे में धुत हो गया | अभयकुमार ने एक कमरे को ऐसे सजाया, मानो कि वह स्वर्ग का ही एक खण्ड हो । चोर को वहां लाकर सुला दिया । अप्सराओं की वेशभूषा पहने पांच-सात स्त्रियां वहां उपस्थित हुईं। उन्होंने चोर से पूछाआपने ऐसी कौन-सी करणी की है, ऐसी कौन सी तपस्याएं कीं, ऐसा कौन सा- आचरण किया जिससे कि आप आकर इस स्वर्ग लोक में उत्पन्न हुए, हमारे स्वामी बने, नाथ बने । आप हमें बताएं कि आपने क्या दान दिया ? क्या-क्या कार्य किये ? यह सारा नाटक इसलिए किया गया कि चोर इस चकाचौंध को देखकर, अपनी सारी बात बताए । पर यह उपाय भी कारगर नहीं हुआ । चोर को कुछ होश आया । उसने चारों ओर देखा । पहले क्षण में उसे ऐसा आभास हुआ कि वह स्वर्ग में है | फिर कुछ विचार आया । उसने अप्सराओं के पैरों की ओर देखा । उसने महावीर से सुना था कि देवताओं के, अप्सराओं के पैर जमीन पर नहीं टिकते । वे जमीन से चार अंगल ऊपर रहते हैं। वहां उपस्थित स्त्रियों के पैर जमीन को छू रहे थे । उसने मन ही मन समझ लिया कि यह सब माया है, षड्यंत्र है । ये अप्सराएं नहीं वेश्याएं हैं । यह स्वर्ग Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता में नहीं, अभयकुमार का नाटकमात्र है । वह बोला- ओह, मैंने अपने जीवन बहुत धर्म किया है, पुण्य किया है, अहिंसा और दया का पालन किया है, इसलिए यहां (इस स्वर्ग में) आकर उत्पन्न हुआ हूं। अभयकुमार का षड्यंत्र विफल हो गया । आज के वैज्ञानिकों ने अनेक सूक्ष्म नियमों की खोज की है । अपराधों को पकड़ने के लिए उन्होंने अनेक साधन आविष्कृत कर उसमें सफल हुए हैं। अपराधी को एक यंत्र के सामने खड़ा किया जाता है। अपराधी से अपराध के विषय में पूछा जाता है । यदि वह झूठ बोलता है, तो यंत्र की सुई घूमती है और भिन्न प्रकार का ग्राफ उभर आता है। यदि वह अपराध को स्वीकृति देता है तो भिन्न प्रकार का ग्राफ उभर आता है। यंत्र के माध्यम से यथार्थ जान लिया जाता है । इसका भी ठोस आधार है । यदि कोई व्यक्ति झूठ बोलता है, यथार्थ को छिपाता है तो उसके भीतर एक प्रकार की प्रक्रिया होती है, एक प्रकार के प्रकंपन होते हैं और जो सत्य बोलता है, उसके भीतर भिन्न प्रकार की प्रक्रिया होती है, भिन्न प्रकार के प्रकंपन होते हैं। यंत्र का काम है प्रकंपनों को पकड़ना और उन्हें ग्राफ पर अंकित करना । उस अंकन के आधार पर निर्णय कर लिया जाता है कि अमुक अपराधी है, और अमुक अपराधी नहीं है । यह सब नियम के आधार पर होता है। अपराध की खोज केवल यंत्र ही नहीं, कुत्ते भी करते हैं । आज पुलिस अपराधियों को पकड़ने के लिए कुत्तों का उपयोग कर रही है और यह प्रमाणित हो चुका है कि कुत्ते इसमें शत-प्रतिशत सफल रहे हैं। कुत्ते को हत्या के स्थान पर या चोरी के स्थान पर ले जाया जाता है। कुत्ता वहां सूंघता है और उस गंध के आधार पर हजार मील पर जाकर भी अपराधी को पकड़ लेता है। आश्चर्य होता है कि कुत्ते को इतना ज्ञान कैसे हो जाता है ? हजार मील पर गये चोर को पकड़ पाना पुलिस के लिए भी कम संभव है तो भला कुत्ता उसे कैसे पकड़ लेता है ? इसका अर्थ यह होता है कि कुत्ता आदमी से अधिक ज्ञानी है । आश्चर्य होता है । पर नियम को समझ लेने पर इसमें आश्चर्य जैसी कोई बात नहीं है । कुत्ते की घ्राणशक्ति बहुत तीव्र होती है। गंध के आधार पर वह अपराधी को पकड़ने में समर्थ हो जाता है । सत्य का अर्थ है --- नियम- प्राकृतिक नियम और चेतना के नियम | Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यनिष्ठा | १५१ वस्तु जगत् के नियम, चेतन जगत् के नियम- ये दो प्रकार के नियम हैं। वस्तु जगत् के नियमों को जानना अस्तित्ववादी सत्य है और चेतना जगत् के नियमों को जानना उपयोगितावादी सत्य है, साधना का सत्य शास्त्र है। कर्मशास्त्र पूरा का पूरा नियमशास्त्र है | जो कर्म किया जाता है, वह अमुक अमुक समय तक अपरिपाक, अनुदय की स्थिति में रहता है । उसे अबाधकाल कहा जाता है । जब वह उदय में आता है तब फल देना प्रारम्भ करता है | इस प्रकार कर्म का शास्त्र चेतना के नियमों का शास्त्र है । एक आदमी छिपकर कर्म करता है और इतनी चतुराई से करता है कि किसी को पता ही नहीं चलता । पूजा-प्रतिष्ठा में कोई कमी भी नहीं आती । पद बना रहता है । बड़प्पन और साधुत्व बना का बना रहता है। किसी को कोई अनुभव ही नहीं होता कि इसने यह जघन्य कार्य किया है । आदमी स्थूल जगत् से तो छिपा लेता है । उसके पास छिपाने के अनेक साधन हैं | उसके पास अंधेरा है, एकान्त है, आंखमिचौनी है, कपड़े है । वह छिपाना जानता है । वह छिपाने में निपुण है | स्थूल जगत् में उसके छिपाव को कोई जान नहीं पायेगा, पर क्या वह सूक्ष्म जगत से भी छिपाने में भी सक्षम हो सकेगा ? सूक्ष्म जगत् से कभी नहीं छिपा पायेगा । आदमी जो भी आचरण करेगा, उसका अंकन सूक्ष्म शरीर में अवश्य होगा । उसको नकारा नहीं जा सकता । इस अंकन से बचा नहीं जा सकता । वह अंकन होकर रहेगा और वह अपना फल अवश्य ही देगा । अनेक शारीरिक और मानसिक बीमारियां ऐसी होती हैं, जिनको डॉक्टर भी नहीं पकड़ पाते और यंत्र भी उन्हें नहीं पकड़ पाते । सब व्यर्थ हो जाते हैं । इसका कारण है कि वे बीमारियां शारीरिक नहीं, मानसिक नहीं किन्त कर्म से निष्पादित हैं । इस तथ्य को आयुर्वेद के आचार्यों ने बहुत ही सूक्ष्मता से पकड़ा । उन्होंने कहा- बीमारी केवल शरीर के दोषों से ही नहीं होती। सारी बीमारियां वात, पित्त और कफ के दोषों से ही नहीं होती । बीमारी केवल बाहरी वातावरण से ही पैदा नहीं होती । बीमारी का एक कारण कर्म भी है । जो संस्कार किया है, वह भी बीमारी का कारण बनता है । जिस बीमारी का कारण कर्म होता है, वह बीमारी दवाइयों से ठीक नहीं होती । कोई भी वैद्य या डॉक्टर उसे नहीं मिटा सकता । उसकी सही दवाई है प्रायश्चित । पारपत। . Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता इसलिए रोग की चिकित्सा कराते समय, डॉक्टर और वैद्य का परामर्श लेते समय अपने स्वयं के डॉक्टर और वैद्य से भी परामर्श ले लें । दोनों का योग होने पर रोग जल्दी मिट सकता है | डॉक्टर का परामर्श होगा, अमुक बीमारी है तो अमुक दवा लो | यह परामर्श लेने के बाद फिर स्वयं से पूछो, रोग का कारण कर्म तो नहीं है ? संस्कार तो नहीं है ? मैंने कोई ऐसा आचरण तो नहीं किया है, जिससे यह रोग उत्पन्न हुआ है । इस प्रकार की बीमारी किस-किस कर्म के उदय से उत्पन्न हो सकती है ? इसका प्रायश्चित क्या हो सकता है । यदि ये दोहरे प्रयोग —डॉक्टर और वैद्य का परामर्श और औषधि तथा स्वयं के चिन्तन से उचित कर्म का उचित प्रायश्चित—चले तो रोग बहुत जल्दी मिट सकता है । इन दोनों विधियों का प्रयोग होना चाहिए । साधु-साध्वियों के लिए यह बहुत आवश्यक है । दूरी को मिटाना बहुत जरूरी है । भीतर और बाहर की दूरी मिटनी चाहिए । असत्य कहां पनपता है ? आदमी भीतर में तो अनेक विकारों का पालन-पोषण कर रहा है और बाहर से अपने आपको साफ-सुथरा प्रदर्शित करता है, वहां असत्य पनपता है । वहां माया की दुर्बलता मुझे सताती है तो वहां असत्य नहीं पनपेगा । कोई यह मानकर चले कि आज साधु बना है और आज सिद्ध हो गया, यह बहुत बड़ी भ्रान्ति होगी । जब तक यह भ्रान्ति नहीं निकलेगी तब तक सत्य की संभावना कम होगी । दीक्षा के दिन से ही कोई यह दिखाना चाहे कि उसके सारे विकार शान्त, सारी वासनाएं और बुराइयां शान्त, यह भ्रम है | अभी तो साधना में पैर रखा है । सिद्धि बहुत दूर है । पहले चरण में ही यदि मंजिल पाने की बात सोच ली जाती है तो वहां भ्रम होता है । अपने में भ्रान्ति और दूसरों में भ्रान्ति । भ्रान्ति मिटनी चाहिए कि साधना के लिए प्रस्थान किया है, यात्रा शुरू की है, अभी मंजिल तक नहीं पहुंचे हैं । इस अवस्था में मोहनीय कर्म के सारे विपाक रहते हैं । उसमें डर भी है, मूर्छा भी है, आकांक्षा भी है । अतः यहां साधना के लिए मार्गदर्शन अपेक्षित होता है । उसे यह जानना चाहिए कि अमुक विकार या दोष सता रहा है । उसके निवारण के लिए कौन-सा उपाय कारगर हो सकता है ? उपाय की खोज़ साथ-साथ चलनी चाहिए | उपाय की खोज सत्य की खोज है । इससे सत्य का विकास होगा, सत्य जीवन का केन्द्र बनेगा । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यनिष्ठा | १५३ आज सर्वत्र द्वन्द्व है । भीतर के प्रकंपन और प्रकार के हैं, बाहर भिन्न प्रकार का प्रदर्शन हो रहा है । भीतर और बाहर में जो दूरी है, वह मिटनी चाहिए । यह दूरी तब मिट सकती है, जब दृटिकोण परिष्कृत हो । एक प्रकार से यह सत्य गणित का सत्य है । आज के व्यावहारिक जगत् में गणित का सत्य सबसे बड़ा सत्य है । गणित में कोई भूल नहीं होती । एक आदमी आया । उसने कहा- मन में आप कुछ सोच लें । सोच लिया । उसने पूछा- क्या सोचा ? सोचने वाले ने कहा- गुलाब का फूल | फिर उसने कहा- किसी पन्ने पर दो पंक्तियां लिखकर पन्ने को मरोड़कर मुझे दे दें। वैसा ही किया गया । उसको कुछ भी ज्ञात नहीं था कि पन्ने में क्या लिखा है। उसने गणित किया और गणित के आधार पर दोनों पंक्तियां सामने रख दी। आपको आश्चर्य होगा कि कितना बड़ा ज्ञानी है वह । बिना देखे, बिना जाने उसने कैसे जान लिया कि कागज के टुकड़े पर क्या लिखा है । पर गणित के नियम को जानने वाले को यह आश्चर्य नहीं होगा, वह जानता है कि ऐसा किया जा सकता है । ज्योतिष-विज्ञान, गणित-विज्ञान- ये सारे नियमों की व्याख्या करने वाले विज्ञान हैं । इनमें आश्चर्य की कोई बात नहीं विज्ञान की बहुत सारी बातें आश्चर्यजनक लगती हैं । एक रेशमी कपड़ा है । उस पर अंगारा रखा और उस अंगारे पर मूंगा रख दिया | अब वह अंगारा रेशमी कपड़े को कैसे नहीं पकाएगा ? आश्चर्य उसी को होगा जो नियम को नहीं जानता । यह सामान्य बात है कि मूंगे में ताप अवशोषण की क्षमता है । वह अंगारे के ताप का शोषण कर लेता है, कपड़ा जलता नहीं । प्राचीनकाल में रत्नकंबल बनते थे। उनकी धुलाई अग्नि से होती थी। वे अग्नि में नहीं जलते थे, क्योंकि उनमें ताप-अवशोषण की क्षमता होती थी । ईंटें भी ऐसी होती हैं, जिन पर अग्नि का कोई प्रभाव नहीं होता । नियमों को जान लेने पर आश्चर्य जैसा कुछ नहीं रहता । हम स्थूल चेतना के नियमों को जानें, सूक्ष्म चेतना के नियमों को जानें । इसका तात्पर्य है कि हम स्थूल शरीर के नियमों को जानें और कर्म शरीर के नियमों को भी जानें । इन नियमों के ज्ञात होने पर सत्य की चेतना बहुत स्पष्ट हो जाती है । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता आदमी की प्रकृति चंचल होती है । उसका रूप क्षण-क्षण बदलता है । 'क्षणे रुष्टः क्षणे तुष्टः, रुष्टतुष्टः क्षणे क्षणे' । आदमी एक क्षण में क्रोध से लाल हो जाता है और एक क्षण में वीतराग जैसा बन जाता है, क्षमाशील बन जाता है । मोह के कारण आदमी चंचल होता है । भीतर में चंचलता के और वीतराग के दोनों संस्कार संचित हैं । भीतर में जब मोह का संस्कार बढ़ता है, तब आदमी चंचल बन जाता है और जब मोह का संस्कार उपशान्त रहता है, तब आदमी वीतराग - सा बन जाता है । कभी-कभी आदमी वीतराग का मुखौटा धारण कर वीतराग-सा दिखाई देने का नाटक रचता है । कोई आदमी गुस्से में लाल हो रहा है। उससे कहा जाये कि गुरु आ रहे हैं, तुम्हारे अधिकारी आ रहे हैं, तो वह शांत हो जाएगा । तत्काल ऐसे बैठ जायेगा, जैसे कोई वीतरागी बैठा हो । बचपन की घटना है | हम कुछ बालमुनि तुलसी के पास पढ़ते थे मुनि तुलसी का अनुशासन कठोर था । हमारे भीतर की प्रेरणा थी कि हम बालमुनि परस्पर बातें करें। मुनि तुलसी चाहते थे कि हम अध्ययन में मन लगाये रहें । भीतर और बाहर का यह संघर्ष था । भीतर की प्रेरणा प्रबल होती थी । जब कभी मुनि तुलसी कार्यवश बाहर जाते तो हम पूर्व योजना के अनुसार एक साधु को सीढ़ियों में चौकीदारी करने बिठा देते और शेष गप्पें मारने लग जाते । ज्यों ही मुनि तुलसी के पैरों की आहट सुनाई देती, वह साधु सबको सावधान कर देता और तब हम सब पाठ याद करने लग जाते । बाहर यह द्वैध सर्वत्र दिखाई देता है । आदमी भीतर में कुछ और है, में कुछ और दिखाई देना चाहता है । यह द्वन्द्व है । सत्य का अवतरण तंब होता है, जब भीतर और बाहर का यह द्वन्द्व समाप्त हो जाता है । सत्य तब उपलब्ध होता है या भीतर और बाहर की दूरी तब मिटती है जब हम भीतर के विकारों का शोषण करना सीख जाते हैं। कोरा सत्य का ज्ञान, कोरा सत्य का बोध, कोरा सत्य का संगान करने से कुछ नहीं होता । वह प्राप्त होता है विचार या मोह के उपशमन से । इस दृष्टि से हम मूल प्रश्न पर आ जाते हैं— साधना किसलिए ? साधना का एकमात्र उद्देश्य है विकारों का उपशमन । भीतर के उपद्रव, विकार, बुराइयां और भीतर की बीमारियां जितनी कम होती जाएंगी, उतना Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यनिष्ठा | १५५ ही जीवन में सत्य प्रज्ज्वलित होता जाएगा और सत्य की निष्ठा पनपती जाएगी। हमारे मस्तिष्क में अरबों-खरबों सेल्स हैं । सब अपना-अपना कार्य करते हैं । जिस व्यक्ति में सत्य का प्रकोष्ठ (सेल्स) जागृत हो जाता है, सक्रिय हो जाता है, उसमें गहरी सत्यनिष्ठा जाग जाती है । वह अपने नियम या प्रण से बंध जाता है । उसमें प्रामाणिकता आ जाती है । प्रामाणिकता भी नियम के कारण आती है । वह जाने-अनजाने अप्रामाणिक कार्य नहीं करता । यह सत्यनिष्ठा विकार-शमन से प्राप्त होती है । जब आन्तरिक दोष न्यून होते जाते हैं, तब ये सेल्स जागृत होते जाते हैं। चाणक्य मगध साम्राज्य का प्रधानमंत्री था, सर्वेसर्वा था । वह राजनीति का प्रवर्तक माना जाता है । उसकी बुद्धि और सूझबूझ से मगध सम्राट आश्वस्त थे । वह इतने बड़े पद पर था, उसका आचरण पवित्र और विश्वस्त था । वह पूरे साम्राज्य का संचालन करता था । उसके इशारे पर चन्द्रगुप्त कार्य करता । इतना शक्तिशाली, प्रज्ञावान होने पर भी चाणक्य बहुत संतुष्ट था । वह स्वयं में अकिंचन-सा जीवन जीता । वह घासफूस की बनी एक झोंपड़ी में रहता | कई विदेशी लोग उससे मिलते और उसकी सादगी देखकर दंग रह जाते । फाहियान ने मगध देश में आचार्य चाणक्य की प्रशंसा सुनी। वह उससे मिलने राजधानी में आ पहुंचा । वह चाणक्य से मिलने रात्रि में गया । उस समय चाणक्य अपना कार्य कर रहा था । तेल का एक दीपक जल रहा था । आगंतुक विदेशी अतिथि को जमीन पर बिछे आसन पर बैठने का अनुरोध किया और एक ही फूंक में जलते दीपक को बुझा डाला । अंदर गया और दूसरा दीपक जलाकर ले आया । आगंतुक विदेशी व्यक्ति आश्चर्य में पड़ गया । वह इस रहस्य को नहीं समझ सका कि जलते हए दीपक को बुझाकर, बुझे हुए दूसरे दीपक को जलाना, कैसी बुद्धिमानी हो सकती है । उसने संकोच करते हुए चाणक्य से पूछा यह क्या खेल है ? जलते हुए दीपक को बुझाया और दूसरा जलाया । जलाना था तो बुझाया क्यों और बुझाना था तो फिर जलाया क्यों ? रहस्य क्या है ? चाणक्य ने मुसकराते हुए कहा--- इतनी देर मैं अपना निजी कार्य कर रहा था । इसलिए मेरा दीया जल रहा था । अब आप आ गए । मुझे राज्य के कार्य में लगना होगा, इसलिए यह Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता सरकारी दीया जलाया है । आगन्तुक इस प्रामाणिकता और नीतिमत्ता को प्रत्यक्ष कर विस्मित रह गया । क्या ऐसा व्यक्ति हो सकता है ? क्या इस प्रामाणिकता की कल्पना की जा सकती है ? ऐसा होता है । किसी-किसी व्यक्ति की पवित्र आत्मा में सत्यनिष्ठा का प्रकोष्ठ जाग जाता है और उसका अणु-अणु प्रामाणिकता से भर जाता है । वह कभी अप्रामाणिक नहीं हो सकता । जो साधना का जीवन जीते हैं, उन्हें इस सत्यनिष्ठा का अभ्यास ही नहीं, इसे जीवनगत करना जरूरी है । सत्य में बाधा डालने वाले विकारों और वासनाओं का अतिक्रमण करना आवश्यक है । यह होने पर ही सत्यनिष्ठा प्रज्वलित हो सकती है । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता दो समस्याएं सामने हैं । एक ओर है अहंकार की समस्या और दूसरी ओर है हीन भावना की समस्या । दोनों ओर समस्याएं हैं। कुछ लोगों ने इस सिद्धान्त का प्रदिपादन किया-मैं ही हूं अपने भाग्य का निर्माता | यह अहंकार को बढ़ाने का सिद्धान्त लगा । कुछ विचारकों ने कहा- 'मैं कुछ भी नहीं हूं, सब कुछ परमात्मा है । परमात्मा ही भाग्य का विधाता है, भाग्य का कर्ता है । वह जैसे चलाता है, वैसे चलता हूं | मेरा अपना स्वतंत्र अस्तित्व कुछ भी नहीं है।' इस सिद्धान्त से अहंकार तो पुष्ट नहीं बना किन्तु हीन भावना की वृद्धि हुई है। दोनों ओर समस्याएं उभर गयीं । एक ओर अहंकार का दैत्य • खड़ा है तो दूसरी ओर हीन भावना का दानव तांडव नृत्य कर रहा है | आदमी दोनों के बीच किंकर्तव्यविमूढ़ होकर खड़ा है कभी इधर झांकता है, कभी उधर झांकता है। जैन दर्शन ने दोनों बातों को स्वीकार नहीं किया । उसने न अहंकार की बात को स्वीकारा और न हीन भावना की बात को स्वीकारा । उसने कहा—प्रत्येक कथन को अनेकान्त की दृष्टि से देखो, नय की दृष्टि से देखो। आगम का वाक्य है-'अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य'-आत्मा ही सुख की कर्ता है और आत्मा ही दुख की कर्ता है। _ 'पुरिसा ! तुम मेव तुम मित्तं'-पुरुष ! तू ही तेरा मित्र है । इन आगम वाक्यों को एकान्तदृष्टि से नहीं समझा जा सकता | इन्हें अनेकान्तदृष्टि से ही समझा जा सकता है। आचार्य भद्रबाहु और उत्तरवर्ती सभी जैन आचार्यों ने एक महत्त्वपूर्ण बात कही कि ‘णत्थि णयविहूण जिणवयणं'-कोई भी जिन-वचन ऐसा नहीं है, जो नयदृष्टि से निरपेक्ष हो । प्रत्येक कथन को नयदृष्टि से देखो, सच्चाई Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता हाथ लग जाएगी । यदि नयदृष्टि को छोड़कर किसी वचन को समझना चाहोगे तो अहंकार बढ़ेगा या हीन भावना बढ़ेगी। या तो आग्रह पनपेगा या मिथ्या दृष्टिकोण पनपेगा । इन दोनों से बचने के लिए अनेकान्त दृष्टि का सहारा लेना आवश्यक होता है । I तर्कशास्त्र में कर्ता और भोक्ता की चर्चा है । जो कर्त्ता है वही भोक्ता है । कृतित्व और भोक्तृत्व — ये दोनों एक में ही होती हैं । यह सिद्धान्त बन गया— जो कर्त्ता, वही भोक्ता । पर अनेकान्तदृष्टि से विचार करने पर नय का सहारा लेना पड़ेगा । आदमी ने इस जन्म में एक कर्म किया। यहां से मरा और दूसरी योनि में चला गया । वह वहां अपने पूर्व कर्म का फल भोगता है। यहां उसने अच्छा कर्म किया था तो देव बनकर उसका अच्छा फल भोग रहा है । यहां उसने बुरा कर्म किया था तो नारक या पशु बनकर उसका बुरा फल भोग रहा है । लगता है करने वाला कोई दूसरा था और भोगने वाला कोई दूसरा है । यहां एक समस्या उपस्थित हो जाती है। इसे समाहित करने के लिए नयदृष्टि से विचार करना होगा । दो दृष्टियां हैं। एक है पर्याय या अवस्थान्तर की दृष्टि और एक है द्रव्य की दृष्टि — मूलदृष्टि । पर्याय की दृष्टि से विचार करने पर यह फलित होता है कि जो कर्त्ता होता है वह भोक्ता नहीं होता है । कर्त्ता दूसरा होता है और भोक्ता कोई दूसरा होता है, दोनों एक नहीं होते । द्रव्य की दृष्टि से विचार करने पर यह फलित होता है कि कर्त्ता और भोक्ता — दोनों एक हैं। जो कर्ता है वही भोक्ता है। जो अच्छा-बुरा कार्य करता है वही उनके अच्छे-बुरे फल भोगता है। करने वाला कोई और, भोगने वाला कोई औरऐसा नहीं होता । छोटा बच्चा था । सामने जहरीली गोली पड़ी थी। उसने खा ली । बचपन बीता । युवावस्था में उस जहर का तीव्र असर हुआ और वह आदमी बीमार हो गया । जहर तो खाया था बचपन में, अज्ञान अवस्था में और फल भुगत रहा है युवावस्था में | करने वाला तो अज्ञानी था, भोगने वाला ज्ञानी है । ऐसा होता है । आदमी बुरा काम कर लेता है अज्ञान अवस्था में किन्तु उसका परिणाम ज्ञान की अवस्था में भुगतता है । I I हम एकान्त की दृष्टि से नहीं चल सकते कि जो कर्त्ता होता है वही Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता / १५९ भोक्ता होता है । यह द्रव्य की दृष्टि है । किन्तु पर्याय की दृष्टि से यह स्पष्ट है कि करने वाला तो अज्ञानी था, भोगने वाला ज्ञानी है । कुछेक व्यक्ति कहते हैं कि अज्ञान अवस्था में किया हुआ पाप नहीं होता । पाप हो या न हो, पर उसका परिणाम तो भोगना ही पड़ता है । जहर चाहे ज्ञात अवस्था में पीओ या अज्ञात अवस्था में पीओ, उसका फल भोगना ही पड़ेगा। केवल द्रव्यदृष्टि को ही न पकड़ें कि 'मैं ही मेरे भाग्य का विधाता हूं।' नयदृष्टि को साथ रखना होगा | इसके बिना कठिनाइयों को पार नहीं किया जा सकता। 'ठाणं' सूत्र में दो अवस्थाओं का उल्लेख है—भाविए, अभाविएभावित और अभावित | एक है भावित अवस्था । व्यक्ति अनेक प्रभावों के बीच जी रहा है । कितने प्रभाव ? एक साध्वी का उदाहरण लें । सबसे पहले उस पर है आचार्य का प्रभाव, फिर साध्वी प्रमुखा का प्रभाव, फिर अग्रगामी साध्वी का प्रभाव और फिर सहभागी साध्वियों का प्रभाव । इतना ही नहीं, फिर देश, काल, भाव और वातावरण का प्रभाव, परिस्थिति का प्रभाव । इन सब बाह्य प्रभावों के अतिरिक्त और भी अनेक प्रभाव हैं । शरीर का प्रभाव, शरीर के रसायनों के प्रभाव, शरीर की विद्युत का प्रभाव और सबसे बड़ा प्रभाव है--सौरमंडल का प्रभाव । इस प्रकार प्रभावों को गिनते चले जाओ, बहुत लम्बी तालिका बन जाएगी। इन प्रभावों के अतिरिक्त है चौमासे के क्षेत्र का प्रभाव, व्याख्यान में उपस्थित परिषद् का प्रभाव, भिक्षा देने वालों का प्रभाव, अन्न-पानी का प्रभाव, श्रद्धा-पूजा करने वालों का प्रभाव | कितने प्रभाव ! इतने प्रभावों के बीच जीवन यापन करना पड़ता है एक साध्वी को । यह बात प्रत्येक साधु या व्यक्ति के लिए कही जा सकती है; अनेक-अनेक प्रभाव हैं । इन प्रभावों के बीच जीने वाला पूर्ण स्वतंत्र कैसे हो सकता है ? कभी नहीं हो सकता । यह भी सच है कि इन प्रभावों को समाप्त नहीं किया जा सकता । बड़ी समस्या है | इस संदर्भ में हम अपने परतंत्र व्यक्तित्व को समझें कि हम कितने परतंत्र हैं ? ___ 'हम स्वयं अपने भाग्य के विधाता हैं'—इसका रहस्य क्या हो सकता है ? इस रहस्य को समझने के लिए हमें भाग्य को समझना होगा, हमें नयदृष्टि से चलना होगा। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता है कारण दो प्रकार के होते हैं— उपादान और निमित्त । उपादान होता मूल कारण और निमित्त होता है बाहरी कारण । आचार्य कुन्दकुन्द ने इस पर बहुत विचार किया । उन्होंने कहा - आत्मा अपने भावों का कर्त्ता है । वह परभावों का कर्त्ता नहीं हो सकता । वह सुख - दुःख का कर्त्ता नहीं हो सकता | सुख-दुःख स्व-भाव नहीं, पर भाव है। वह तो हमारा संवेदन है । उसका कर्त्ता आत्मा नहीं हो सकता । आज का आदमी 'पर' के आधार पर चलता है। यह सबसे बड़ी समस्या है । पत्थर से ठोकर खाकर आदमी सारा दोष पत्थर पर आरोपित कर देता है । दो मित्र भोजन कर रहे थे। लड़का भी साथ ही था । रसोई से बर्तन गिरने की आवाज आयी। लड़के ने कहा- 'मेरी मां के हाथ से कोई बर्तन गिर गया है ।' मित्र ने पूछा- यहां से रसोईघर दिखाई नहीं देता, फिर तुम्हें कैसे पता लगा कि मां के हाथ से बर्तन गिरा है ? तुम्हारी पत्नी के हाथ से भी बर्तन गिर सकता है । वह भी तो रसोईघर में ही होगी ? लड़का बोलानहीं, मैं जानता हूं कि अभी जो बर्तन गिरा है; वह मेरी मां के हाथ से गिरा है क्योंकि यदि मेरी पत्नी के हाथ से बर्तन गिरा होता तो बर्तन गिरने की झंकार के साथ मां की टंकार भी होती। किंतु केवल झंकार ही सुनाई दिया, इसलिए निश्चित है कि बर्तन मां के हाथ से ही गिरा है। दूसरे के हाथ से गिरता तो झंकार और टंकार दोनों होते । आदमी 'पर' को देखता है। वह दोषों का आरोपण दूसरों पर करता है । वह अपना निरीक्षण कभी नहीं करता । वह सोचता है, उसने मेरा यह कर दिया, वह कर दिया। सारा आरोपण दूसरों पर करता है । एक संस्कृत कवि ने बहुत मार्मिक बात कही है, किन्तु उसका प्रयोग नहीं हो रहा है । उसने लिखा 'सुखस्य दुखस्य न कोऽपि दाता । परो ददातीति कुबुद्धिरेषा ।' 'सुख-दुख देखने वाला कोई नहीं है । वह मानना कि सुख और दुःख दूसरा कोई देता है, वह कुबुद्धि है । आज प्रयोग इस कुबुद्धि का ही हो रहा है । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता / १६१ प्रत्येक व्यक्ति दूसरों पर आरोप करता है । हजार आदमी का सर्वेक्षण करने पर भी यही तथ्य सामने आयेगा कि सब 'पर' पर आरोप करते हैं । सब यही सोचते हैं, उसने मुझे गिरा दिया । उसने मेरे काम में बाधा डाल दी । उसने यह किया । उसने वह किया । कोई भी आदमी यह नहीं सोचता कि मेरे अपने प्रमाद के कारण यह घटित हुआ है, यह बाधा आयी है । आचार्य भिक्षु ने लिखा है, आदमी रसलोलुप होकर खूब खा जाता है। जीभ वश में नहीं रहती | बीमार हो जाता है । वैद्य के पूछने पर कहता हैमौसम ठीक नहीं है । आज वैसा हो गया । आज ऐसा हो गया । वह यह कभी नहीं कहेगा कि मेरी लोलुपता ने इस बीमारी को निमंत्रण दिया है । मैंने डटकर खा लिया, ऐसा कभी नहीं कहेगा । एक मार्मिक श्लोक है । उसमें अनेक सत्य प्रकट हुए हैं । कहा है-—- व्याधयः । लोभमूलानि पापानि, रसमूलाहि स्नेहमूला यतः शोकाः त्रीणि त्यक्त्वा सुखी भवेत ॥ प्रश्न हुआ कि पाप का मूल क्या है ? पाप क्यों होता है ? उत्तर में कहा गया कि पाप का मूल है लोभ । हमारे जीवन केन्द्र में लोभ बैठा है और सब पाप परिधि में हैं । केन्द्र में है लोभ और शेष सब दोष या पाप उसकी परिक्रमा करते हैं । जब सब पाप नष्ट हो जाते हैं तब लोभ समाप्त होता है । जैन दर्शन के अनुसार कषाय चार हैं-क्रोध, मान, माया, लोभ । प्रथम तीन कषाय नौवें गुणस्थान तक समाप्त हो जाते हैं और लोभ दसवें गुणस्थान में समाप्त होता है । लोभ केन्द्र में है । वह सारे पाप कराता है । यही सब पापों की जड़ है । एक दृष्टि से कहा जा सकता है कि राग सब पापों की जड़ है । लोभ उसकी प्रतिक्रिया है । वह मूल पाप नहीं है। मूल पाप है राग । व्याधियों का मूल है रसलोलुपता । इसीलिए कहा गया 'रसमूलाहि व्याधयः' | खाने का असंयम, लोलुपता बीमारी पैदा करती है । अनेक बीमारियों का यही एकमात्र कारण है । बहाने अनेक बनाये जा सकते हैं, परन्तु खाने के बारे में सम्यक् ज्ञान नहीं होता, असंयम बरता जाता है, तब बीमारी पैदा होती है । 1 शोक का मूल है स्नेह 'स्नेहः मूलाः यतः शोकाः ।' शोक करना नहीं पड़ता, वह होता है क्योंकि भीतर में स्नेह काम कर रहा है । स्नेह शोक का Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता जनक है । हर प्रकार के शोक के पीछे स्नेह का प्रवाह रहता है। इस संसार में प्रत्येक व्यक्ति लोभ से भाषित है, रस से भाषित है और स्नेह से भाषित है । इस स्थिति में अप्पा कत्ता—विकत्ता य—यह बात कैसे समझ में आ सकती है। आत्म-कर्तृत्व की समस्या क्यों है ? कर्तृत्व के विज क्या हैं ? आत्म-कर्तृत्व की बात को एक बार छोड़ दें । हम पुरुषार्थ को प्रज्वलित करने की बात सोचें । आज प्रत्येक क्षेत्र में बाधाओं और विघ्नों को कोई कमी नहीं है । हजारों-हजारों विघ्न हैं । हजारों-हजारों बाधाएं हैं। उनका पार हम कैसे पाएं ? उन पर हम अपना प्रभूत्व कैसे जमाएं ? । अध्यात्म के आचार्यों ने इस प्रश्न के उत्तर में कहा— 'उपादान को प्रबल करो, निमित्त को क्षीण करो ।' दो दृष्टियां हैं । एक है उपादान को मानने वाली दृष्टि और दूसरी है निमित्त को मानने वाली दृष्टि, परिस्थिति या वातावरण को मानने वाली दृष्टि । जब तक हमारी दृष्टि 'पर' पर टिकी रहेगी, तब तक उपादान कमजोर होता चला जाएगा । एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति में दो बातें हैं—एक है दवा और दूसरी है रोग-निरोधात्मक शक्ति । दवा तब तक ही काम करती है जब तक शरीर में रोग-निरोधात्मक शक्ति है । जब यह शक्ति कमजोर हो जाती है तब दवा कुछ भी असर नहीं कर पाती । जब उपादान शक्ति जागृति होती है तब 'अप्पा कत्ता—'विकत्ता य'यह सिद्धान्त उदित होता है । उपादान की दृष्टि निश्चय-नय की दृष्टि है | आचार्य भिक्षु ने इस विषय पर बहुत लिखा । वे भी निश्चय दृष्टि पर चलने वाले थे । अध्यात्म पथ का प्रत्येक पथिक निश्चय नय पर चलेगा । फिर चाहे आचार्य कुन्दकुन्द हों, आचार्य हरिभद्र हों या आचार्य भिक्षु हों । कोई भी हों निश्चय नय अध्यात्म की दृष्टि है । उसका प्रतिपाद्य है कि आत्मा अपने भावों का कर्ता है । इस स्थिति में उपादान प्रबल होता है और वह निमित्तो पर प्रशासन करने लग जाता है | निमित्त पर प्रशासन करने का एकमात्र उपाय है उपादान को जागृत करना । उपादान को प्रबल बनाओ, निमित्त कमजोर हो जाएंगे । निमित्तों को प्रबल बनाओ, उपादान कमजोर हो जाएगा। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता । १६३ एक शिष्य ने गुरु से पूछा— 'गुरुदेव ! यह चट्टान इतनी विशाल और मजबूत है । क्या इस पर किसी का शासन है ?' गुरु ने कहा-'इस पर शासन है लोहे के हथौड़े का । जब हथौड़ा और छेनी चलती है तब चट्टान चूर-चूर हो जाती है।' _ 'गुरुदेव ! लोहा इतना मजबूत है तो क्या उस पर भी किसी का शासन - 'हां, अग्नि उस पर शासन करती है | लोहा अग्नि से पिघल जाता है । वह पानी बन जाता है ।' 'गुरुदेव ! आग इतनी शक्तिशाली है तो क्या उस पर भी किसी का शासन है ?' 'हां, पानी अग्नि पर शासन करता है । प्रज्वलित आग पानी बुझा देता 'पानी पर किसका शासन है ?' 'वायु पानी पर शासन करता है । आकाश में कितनी ही घनघोर घटा उमड़ी हो, हवा उसको एक क्षण में बिखेर देता है, छिन्न-भिन्न कर देता है ।' 'वायु पर किसका शासन है ?' 'वायु पर हमारी संकल्पशति का शासन है ।' संकल्पशक्ति बहुत बड़ी शक्ति है । श्वास प्रेक्षा से संकल्पशक्ति का विकास होता है । बड़े आश्चर्य की बात है कि एक मिनट में पचास-साठ श्वास भी लिये जा सकते हैं और एक मिनट में एक श्वास भी लिया जा सकता है। यह सारा होता है संकल्पशक्ति के आधार पर । संकल्प कर लिया कि एक मिनट में एक ही श्वास लेना है तो वैसा घटित हो जाएगा | संकल्पबल श्वास का नियंत्रक है । जब संकल्पशक्ति, इच्छाशक्ति और एकाग्रता की शक्ति का विकास होता है तो उपादान प्रबल होता है । हम उपादान शक्तिशाली बनाने के उपाय पर ध्यान दें और साथ-साथ निमित्तों को गौण करें । इसके उपाय को जान लेना भी जरूरी है । सौरमंडल के विकिरणों से आदमी बहुत प्रभावित होता है । ज्योतिष का आधार भी यही है । सौरमंडल का प्रभाव बहुत प्रबल होता है । मैं यह कहना तो नहीं चाहता कि प्रत्येक व्यक्ति को ज्योतिष के चक्कर में पड़ना Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता चाहिए | पर इतना अवश्य सुझाना चाहता हूं एक उपाय के रूप में कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने भविष्य के बारे में जानकारी होनी चाहिए । कब, किस समय, कैसा समय बिताना है, उसका क्या उपाय करना है, इसकी जानकारी होनी चाहिए | इस जानकारी से अनेक लाभ मिल सकते हैं । नमस्कार महामंत्र का जप, इष्टदेव का जप, आचार्यों के नाम का जप-ये सारे जप आने वाले प्रभावों से व्यक्ति को बचाते हैं । इनसे प्रतिरोधात्मक शक्ति का विकास होता है । जो प्रतिरोधात्मक शक्ति से शून्य होता है वह अपना विकास नहीं कर सकता । जो अपना सारा समय गप्पों में बिताता है, प्रमाद और आलस्य में बिताता है, उसकी प्रतिरोधात्मक शक्ति चुक जाती है । वह प्रभावों से बचने के लिए कवच का निर्माण नहीं कर सकता । व्यक्ति इतने प्रभावों से घिरा हुआ है तो क्या सुरक्षा कवच का निर्माण आवश्यक नहीं होता ? आगमों का कथन है कि व्यन्तर और भूत-प्रेत उसी को सताते हैं जो प्रमादी होता है । जो प्रमाद नहीं करता, उसे कोई नहीं सताता .। पार्श्वनाथ की परम्परा के एक संत थे मुनि सुदर्शन | वे तपस्वी, स्वाध्यायी और ध्यानी थे । कायोत्सर्ग सधा हुआ था । एक बार सुकर्ण कापालिक ने उन्हें जलाने के लिए एक तांत्रिक प्रयोग किया । मुनि सुदर्शन अपने साथी संतों के साथ पाद-विहार में थे । उस समय कापालिक ने महाज्वाला का प्रयोग किया । महाज्वाला चली, रास्ते में एक वृद्ध संत को जला डाला । मुनि सुदर्शन को तांत्रिक प्रयोग का आभास हुआ । उन्होंने अपने साथ वाले संतों से कहा—सब कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित हो जाएं । मुनि सुदर्शन ने भी कायोत्सर्ग किया । एक वलय बन गया । महाज्वाला आयी । उसने उस वलय के चारों ओर चक्कर काटा, पर भीतर प्रवेश पाने में वह असमर्थ रही । सब मुनि कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित थे । महाज्वाला का यत्न व्यर्थ गया । वह मुड़ी और शांब कापालिक के पास पहुंच उसे अर्द्धदग्ध कर डाला | उपद्रव मिट जाने पर कायोत्सर्ग पूरा कर सभी मुनि चले गये । कायोत्सर्ग प्रतिरोधात्मक शक्ति को विकसित करने का उपाय है । जो व्यक्ति निरंतर स्वाध्याय, ध्यान, जप आदि में रत रहता है, प्रमाद नहीं करता, वह प्रतिरोधात्मक शक्ति को जागृत कर लेता है । वही व्यक्ति 'अप्पा कत्ता विकत्ता य' के अनुसार आत्म-कर्तृत्व को समझ सकता है । अन्यथा जो निरंतर Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता / १६५ प्रमाद में रहता है, वह इस सिद्धान्त को कैसे समझ पाता है ? उसने तो आत्मा को गौण ही कर डाला । उसकी आत्मा पर तो भूत-प्रेत सवार हो गया । समूचा धर्म-प्रवचन अप्रमाद, जागरण के लिए हुआ है | अप्रमाद का अर्थ है--प्रतिरोधात्मक शक्ति का विकास, उपादान का विकास या सुरक्षाकवच का निर्माण । मंत्र साधना में सुरक्षा कवच के निर्माण का बहुत बड़ा महत्त्व है | जो सुरक्षा कवच का निर्माण कर मंत्र-साधना करता है, उसके मार्ग में कोई उपद्रव नहीं आता, कोई विघ्न नहीं आता । यदि हमें अपने कर्तृत्त्व को विकसित करना है और 'मैं अपने भाग्य का विधाता हूं'—इस तथ्य को हृदयंगम करना है तो निरंतर अप्रमाद की साधना करनी होगी । जो अप्रमत्त नहीं है, दूसरे के प्रभावों से घिरा हुआ है, उसके लिए 'मैं ही अपने भाग्य का विधाता हूं'--यह सूत्र कार्यकर नहीं होता । उसके लिए सूत्र होगा— 'दूसरे ही तेरे भाग्य के विधाता हैं ।' जो व्यक्ति प्रारंभ से ही अप्रमत्त रहता है, जागरूक होता है, वह अपने भाग्य का विधाता बन जाता है और जो प्रारंभ से प्रमादी होता है, जागरूक नहीं होता, जीवन भर उसका भाग्य-विधाता दूसरा बना रहता है । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और विज्ञान मनुष्य में सत्य की जिज्ञासा और उसकी खोज का प्रयत्न चिरकाल से रहा है । उसका स्थूल रूप हमारे सामने है । मनुष्य केवल स्थूल से संतुष्ट नहीं होता । वह निरन्तर स्थूल और सूक्ष्म की ओर प्रस्थान करता है । धर्म की खोज सूक्ष्म तत्त्व की खोज है | आत्मा, परमात्मा, परमाणु, कर्म—ये सभी सूक्ष्म तत्त्व हैं । साधारण जीवन-यात्रा में इनका सीधा संबंध नहीं है । इस खोज का माध्यम रहा है—अन्तर्दृष्टि, अतीन्द्रिय चेतना और गम्भीर एवं एकाग्र चिन्तन । विज्ञान ने भी सूक्ष्म सत्यों को खोजा है । उसकी खोज के माध्यम हैं सूक्ष्मदर्शी उपकरण | वैज्ञानिक जगत् में ये उपकरण प्रचुर मात्रा में विकसित हुए हैं । इनके द्वारा एक सामान्य आदमी सूक्ष्म तत्त्वों को जान सकता है | किन्तु एक वैज्ञानिक के लिए ये उपकरण ही पर्याप्त नहीं हैं । उसके लिए अन्दृष्टि, चिन्तन की एकाग्रता और निर्विचारता उतने ही आवश्यक हैं, जितने एक धर्म की खोज करने वाले के लिए । धर्म भी सत्य की खोज है और विज्ञान भी सत्य की खोज है । जहां तक सत्य की खोज का प्रश्न है, दोनों एक बिन्दु पर आ जाते हैं । पर उद्देश्य की दृष्टि से दोनों के अवस्थिति-बिन्दु भिन्न हैं । धर्म के क्षेत्र में सत्य की खोज का उद्देश्य है-अस्तित्व और चेतना का विकास । विज्ञान के क्षेत्र में सत्य की खोज का उद्देश्य है-अस्तित्व और पदार्थ का विकास । क्षेत्र की सीमा में दोनों का उद्देश्य समान हो जाता है । किन्तु उपादेय की सीमा में वे भिन्न हो जाते हैं। विज्ञान ने जीवन-यात्रा के लिए उपयोगी अनेक तत्त्व खोजे हैं। खाद्य, चिकित्सा व सुविधा के क्षेत्र में पर्याप्त प्रगति हुई है ? धर्म ने सुविधा देने Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और विज्ञान / १६७ वाला कोई तत्व नहीं खोजा । उसने चेतना के उन आयामों की खोज की जो सुविधा के अभाव में होने वाली असुविधा को सह सकें । कुछ धार्मिक नेता कहते हैं – विज्ञान ने धर्म का सत्यानाश कर दिया । उसके कारण जनता की धर्म के प्रति आस्था डगमगा गयी है । किन्तु मुझे इसमें सचाई नहीं लगती है । यदि धर्म सत्य की खोज है, तो कोई दूसरी शक्ति उसके प्रति अनास्था पैदा नहीं कर सकती । उसे पदच्युत नहीं कर सकती । मेरी धारणा यह है कि विज्ञान ने धर्म को उपकृत किया है । स्थूलदृष्टि वाले लोग धर्म के सूक्ष्म सत्यों पर विश्वास नहीं करते थे, उसे निरी गप्प या कपोलकल्पना मानते थे । वे अब ऐसा नहीं सोचते । विज्ञान के द्वारा सूक्ष्म सत्यों का उद्घाटन होने पर जनता की दृष्टि में परिवर्तन हुआ है । अब वह सूक्ष्म सत्यों के प्रति आस्थाहीन और संदिग्ध नहीं है । निगोद वनस्पति के सुई की नोंक टिके उतने भाग में अनन्त जीव होते हैं - यह एक धार्मिक सिद्धान्त है । यह सहज बुद्धिगम्य नहीं है, इसलिए चिरकाल तक सन्देह का विषय बना रहा । किन्तु अब इस सूक्ष्मता में सन्देह नहीं किया जा सकता | शरीरशास्त्र के अनुसार शरीर के पिन की नोंक टिके उतने भाग में दस लाख कोशिकाएं हैं। पांच फुट के मानव शरीर में छह सौ खरब कोशिकाएं हैं । यह विशाल संख्या वनस्पति विषयक संख्या को संभव बना देती है । मनोविज्ञान के क्षेत्र में जिस दिन चेतन मन की सीमा को पार कर. अवचेतन और अचेतन मन की अवधारणा निश्चित हुई, उस दिन चेतनाजगत् की सूक्ष्मता की दिशा में एक अभिनव अभियान शुरू हो गया । - लेश्या या आभामंडल का सिद्धान्त समझ से परे हो रहा था । प्रत्येक जीव के आस-पास एक आभामंडल होता है । भाव - परिवर्तन के साथ-साथ वह परिवर्तित होता रहता है । मृत्यु के आस-पास वह क्षीण होने लगता है, और मृत्यु के साथ वह समाप्त हो जाता है। अथवा इस प्रकार कहा जा सकता है कि उसके क्षीण होने पर प्राणी की मृत्यु हो जाती है । विज्ञान के क्षेत्र में आभामंडल का सिद्धान्त प्रतिष्ठित हो चुका है । किर्लियन दंपति के इस विषय में किए गए प्रयोग बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। उन्होंने पदार्थ और प्राणी दोनों के आभामंडल के फोटो लिये। उन दोनों में एक Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा मास्तष्क की कोशिकाओं के १६८ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता प्रकाशमय ढांचा बना हुआ था । सिक्के का आभामंडल नियत था, जबकि प्राणी का आभामंडल परिवर्तनशील था। पहले मृत्यु की घोषणा हृदय की धड़कन और नाड़ी की गति बंद होने तथा मस्तिष्क की कोशिकाओं के निष्क्रिय होने पर की जाती थी। अब उसकी घोषणा आभामंडल के आधार पर की जाती है । जब तक आभामंडल क्षीण नहीं होता है, प्राणी की मृत्यु नहीं होती है । इसलिए तथाकथित मृत्यु की घोषणा होने के बाद भी अनेक मनुष्य जी उठते हैं । कर्म-परमाणुओं के प्रत्येक स्कन्ध में असंख्य संस्कारों के स्पंदन अंकित होते हैं । यह विषय बुद्धिगम्य नहीं है । किन्तु क्रोमोसोम (गुणसूत्र) और जीन (संस्कार-सूत्र) की वैज्ञानिक व्याख्या के पश्चात् वह विषय अस्पष्ट नहीं रहा । प्रत्येक जीन में छह लाख आदेश अंकित माने जाते हैं । जीन और कर्म का तुलनात्मक अध्ययन बहुत ही दिलचस्प विषय है। कर्म के संक्रमण का सिद्धान्त—पूण्य को पाप के रूप में और पाप को पुण्य के रूप में बदलने की प्रक्रिया में अब सन्देह नहीं किया जा सकता। जेनेटिक इंजीनियरिंग के अनुसार जीन के परिवर्तन का सिद्धान्त मान्य हो चुका है और उसके परिवर्तन के उपाय खोजे जा रहे हैं । खनिज धातु में जीव का सिद्धान्त बहुत ही विवादास्पद रहा । किन्तु अब विज्ञान के चरण उस विवाद के समाधान की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। कुछ भूवैज्ञानिक मानते हैं कि पत्थर और पहाड़ भी बढ़ते रहते हैं । धातु पर प्रहार करने पर उसमें थकान आती है । कुछ समय बाद आराम के क्षणों में वह पूर्ववत् हो जाती है | थकान आना, आराम के क्षणों में पूर्व स्थिति में चले जाना—ये जीव के लक्षण हैं, जो खनिज धातु में भी पाए जाते है। . वनस्पति की चेतना और उसकी संवेदनशीलता चर्चा का विषय बनी हुई थी । उसमें क्रोध, अहंकार, कपट और लोभ, भय और मैथुन की प्रवृत्ति होती है । इसे स्वीकारना सहज सरल नहीं था । किन्तु वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा वनस्पति में इन सबका अस्तित्व प्रमाणित हो जाने पर अब वह विषय संदेहास्पद नहीं रहा । इस विषय में 'सीक्रेट लाइफ ऑफ प्लान्ट्स' पुस्तक पठनीय है। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और समाज / १६९ धर्म से प्रभावित लोग मानते हैं—विज्ञान ने मनुष्य जाति को संहार के कगार पर पहुंचा दिया है । विज्ञान से प्रभावित लोग मानते हैं—धर्म ने मनुष्य को परंपरावादी या रूढ़िवादी बना दिया है । इस आरोप और प्रत्यारोप में सचाई नहीं है | सचाई यह है कि धर्म और विज्ञान सत्य को उपलब्ध करने की पद्धतियां हैं । धर्म का रूढ़िवाद से और विज्ञान का संहारक शस्त्रों से कोई संबंध नहीं है। जैसे धर्म-स्थान धर्म नहीं है, वैसे ही प्रौद्योगिकी (टेक्नोलोजी) विज्ञान नहीं है । जिसका उपयोग होता है, उसका दुरुपयोग भी हो सकता है । उपयोग और दुरुपयोग के बीच में कभी भी लक्ष्मणरेखा नहीं खींची जा सकती । दुरुपयोग धर्म का भी हो सकता है और विज्ञान का भी हो सकता है । जो धर्म सत्ता और संपत्ति के साथ जुड़ जाता है, वह घातक बन जाता है । ठीक इसी प्रकार विज्ञान भी साम्राज्यवादी मनोवृत्ति के साथ जुड़कर संहारक बन रहा है । संहार विज्ञान की प्रवृत्ति नहीं है । उसका स्वरूप नहीं है । धर्म और विज्ञान दोनों की प्रकृति है— स्थूल से सूक्ष्म की दिशा में प्रस्थान—जागतिक नियमों की खोज, सामान्यीकरण, सत्य की परिक्रमा । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्ति और समाज दो जगत् हैं। एक है परोक्ष जगत् और दूसरा है प्रत्यक्ष जगत् । प्रत्यक्ष जगत् में जो है वह अपूर्ण है । हमने पूर्णता की कल्पना परोक्ष जगत् में की है । इस दृश्य जगत् में एक भी तत्त्व ऐसा उपलब्ध नहीं है, जिसे हम पूर्ण कह सकें । इस अपूर्णता ने सापेक्षता के सिद्धान्त को जन्म दिया । हम निरपेक्ष होकर कुछ भी नहीं सोच सकते और कुछ भी नहीं कर सकते । प्रत्येक चिन्तन और क्रिया के साथ अपेक्षा जुड़ी हुई है । गति सापेक्ष होती है । एक पैर आगे बढ़ता है तो दूसरा पैर पीछे हट जाता है । दूसरा पैर आगे बढ़ता है तो एक पैर पीछे हट जाता है । गति सापेक्ष होती है । मंथन की क्रिया भी सापेक्ष होती है । प्रत्येक वस्तु दूसरी वस्तु के साथ जुड़ी हुई होती है । इसीलिए कहा गया है, एक के साथ सब और सब के साथ एक । इस अपूर्णता ने ही समाज की अवधारणा उत्पन्न की और समाज निर्मित हुआ । व्यक्ति और समाज को हम यदि दूसरी भाषा में प्रस्तुत करें तो कहना होगा - अपूर्णता से पूर्णता की ओर प्रस्थान करना । व्यक्ति अपूर्ण है । वह सापेक्षता के द्वारा पूर्णता को उपलब्ध करना चाहता है । एक व्यक्ति के जीवन में हजारों-हजारों अपेक्षाएं हैं । वह कभी उन्हें पूरा नहीं कर सकता । उसने विकल्प ढूंढ़ा | उसने सोचा, समाज बना लें तो सब बातें पूरी होंगी । व्यक्ति को कपड़ा चाहिए, अनाज चाहिए, शृंगार की सामग्री चाहिए, मकान चाहिए । न जाने कितने उपकरण चाहिए। अकेला व्यक्ति इन सबका निर्माण नहीं कर सकता । किन्तु समाज बना । हजारों शिल्प, हजारों काम बन गए। हजारों काम करने वाले हो गए । कृति है, संपूर्ति है, विनिमय है, वितरण है और इस प्रकार व्यक्ति की हजारों-हजारों अपेक्षाएं पूरी हो जाती हैं । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्ति और समाज | १७१ व्यक्ति की एक परिभाषा है— संवेदना | संवेदना का नाम है व्यक्ति । संवेदन वैयक्तिक होता है, कभी सामूहिक नहीं होता । कुछ बातें नितान्त वैयक्तिक होती हैं । प्रत्येक घटना का संवेदन वैयक्तिक होता है । अपना सुख होता है, अपना दुःख होता है। सुख-दुःख का संवेदन वैयक्तिक होता है । वह सुख-दुःख का संवेदन दूसरों में प्रसरणशील होता है, पर वह संवेदन होता है नितान्त वैयक्तिक । संवेदन व्यक्ति की सीमा है और प्रसरणशीलता समाज की सीमा है | संवेदन समूचे समाज में भी फैलता है । कोई घटना किसी देश में घटती है, पर वह अनेक देशों में फैल जाती है । तो देश और काल की सीमा में जैसे घटना का विस्तार होता है, वैसे ही संवेदन का विस्तार हो सकता है, पर संवेदन का मूल बिन्दु है व्यक्ति । संवेदन के साथ दो बातें और जुड़ती हैं। एक है सहानुभूति और दूसरी है सहयोग | ये सामाजिक तत्त्व बन जाते हैं। सहानुभूति और सहयोग वैयक्तिक नहीं हो सकता । ये दोनों समाज की सीमा में आ जाते हैं । संवेदन, सहानुभूति और सहयोग — ये तीन तत्त्व व्यक्ति और समाज की सही व्याख्या प्रस्तुत करते हैं । हम सीमा का कभी अतिक्रमण नहीं कर सकते । हमारा सीमा-बोध बहुत स्पष्ट है । प्रत्येक व्यक्ति की अपनी सीमा है | उसे अपनी सीमा का अवबोध होना ही चाहिए । यह शरीर हमारी सीमा है । हम कितना ही प्रयत्न करें, समाज की कितनी ही अवधारणा करें, पर इस सीमा का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता । यह स्वभाविक सीमा है । न शरीर की सीमा का अतिक्रमण किया जा सकता है और न संवेदन की सीमा का अतिक्रमण किया जा सकता है। न ज्ञान की सीमा का अतिक्रमण किया जा सकता है और न बोध की सीमा का अतिक्रमण किया जा सकता है। कुछ बातें नितान्त वैयक्तिक होती हैं । वे व्यक्ति के व्यक्तित्व को बनाए रखती हैं | कुछ बातें निनान्त सामाजिक होती हैं जो समाज के अस्तित्व को धारण करती हैं । कुछ बातें सर्व सामान्य होती हैं, जो व्यक्ति और समाज दोनों से संबंध रखती हैं । सहानुभूति और सहयोग - ये दो तत्त्व उभयमुखी हैं । ये व्यक्ति और समाज में से निकलने वाली ऐसी धारणाएं हैं जिनसे सब प्रभावित होते हैं । इनसे व्यक्ति भी प्रभावित होता है और समाज भी प्रभावित होता है । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता प्रश्न आता है कि हम व्यक्ति हैं या समाज ? एकांगी भाषा में इसका कोई उत्तर नहीं दिया जा सकता । यदि हम एकान्ततः यह कहें कि हम व्यक्ति हैं तो यह गलत उत्तर होगा । यदि हम कहें कि हम समाज हैं, तो वह भी गलत उत्तर होगा । इसका उत्तर सापेक्ष ही हो सकता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी सीमा में व्यक्ति है और सामाजिक संपर्कों में वह समाज है, सामाजिक है । कोई भी व्यक्ति सामाजिक संपर्कों से कटकर जी नहीं सकता। मछली पानी में जीती है। मछली का अपना अस्तित्व है । वह व्यक्ति है, पर वह पानी से अलग होकर जी नहीं सकती। मछली के लिए पानी की अनिवार्यता है । वैसे ही प्रत्येक व्यक्ति के जीवन-निर्वाह के लिए समाज की अनिवार्यता है । सामाजिक संबंधों के आधार पर जो निष्कर्ष निकलते हैं, वे चिन्तनीय हैं | समाज व्यवस्था मांगता है । व्यक्ति के लिए न भाषा की जरूरत है और न व्यवस्था की जरूरत है। जहां एक से दो हुए, व्यक्ति से समाज बना, वहां व्यवस्था का प्रश्न सामने आता है। अकेला व्यक्ति जहां चाहे वहां बैठ सकता है। जहां दो होंगे, वहां बैठने की व्यवस्था करनी होगी। समाज व्यवस्था प्रधान होता है और व्यक्ति ज्ञान या संवेदन प्रधान होता है । व्यक्ति की सापेक्ष मीमांसा के बाद हम इस पहलू पर विचार करें कि क्या ध्यान वैयक्तिक नहीं है ? यदि यह वैयक्तिक है तो समाज को इससे क्या लाभ हो सकता है ! समाज में ध्यान की प्रतिष्ठा करने के लिए इतना प्रयत्न क्यों किया जा रहा है ! इतने अध्यापकों को ध्यान सिखाना क्या जरूरी है ? इतने विद्यार्थियों को ध्यान का प्रशिक्षण देना क्यों आवश्यक है ? ध्यान की साधना नितान्त वैयक्तिक है जिसकी रुचि हो वह करे, जिसकी रुचि न हो वह न करे । इसे प्रायोगिक रूप क्यों दिया जाए ? यह चिन्तन अस्वाभाविक नहीं है । किन्तु हमें यह सोचना चाहिए कि व्यक्ति समाज से जुड़ा हुआ है । समाज व्यक्ति से प्रभावित होता है । हम यथार्थ के धरातल पर जाकर देखें । समाज का पूरा संचालन व्यक्ति करता है । शक्ति है समाज में, पर जहां प्रक्रिया का प्रश्न है वहां यह मानना ही होगा कि संचालन या नेतृत्व व्यक्ति या व्यक्तियों द्वारा ही होता है । प्रत्यक्षतः समाज का संचालन एकतंत्र में एक व्यक्ति और जनतंत्र में कुछ व्यक्ति करते हैं । परोक्षतः वह संचालन समाज द्वारा भले ही निर्दिष्ट हो, किन्तु प्रत्यक्षतः उस संचालन में Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्ति और समाज | १७३ कुछ व्यक्ति ही जुड़े होते है । यदि संचालन में जुड़े हुए वे व्यक्ति प्रामाणिक हैं, सत्यनिष्ठ हैं, सम्यक् दृष्टि वाले हैं तो समाज की व्यवस्था का संचालन सम्यक् होगा और यदि वे व्यक्ति सही नहीं हैं तो समाज का संचालन दोषपूर्ण हो जाएगा। संचालन के महत्त्वपूर्ण घटक हैं—चिन्तन और निर्णय | कोई भी व्यवस्था यदि बनती है तो वह संचालन के आधार पर बनती है । व्यवस्था का संचालन करने वाला व्यक्ति किस प्रकार सोचता है, और किस प्रकार निर्णय लेता है, इस तथ्य पर पूरे समाज का भविष्य और भाग्य टिका रहता है । एक सेनापति के निर्णय पर आधारित होती है सेना की हार या जीत | एक शासक के निर्णय पर आधारित होता है देश का जीवन और मरण । एक प्रशासक निर्णय लेता है, उसके साथ प्रजा के हितों का संबंध जुड़ा रहता है । वाटरलू के युद्ध में नेपोलियन हार गया । युद्ध विशेषज्ञों ने हार के कारणों की खोजबीन की । सर्वत्र विजय पाने वाला नेपोलियन हार गया, क्यों ? इसकी खोज के निष्कर्षों में डॉक्टर ने कहा कि उस समय नेपोलियन की पिच्यूटरी ग्लैण्ड निष्क्रिय हो गई, फेल हो गयी । इसीलिए वह सही निर्णय नहीं ले सका और उसके फलस्वरूप उसे हारना पड़ा । हमारे निर्णयों के लिए यह पिच्यूटरी ग्लैण्ड बहुत जिम्मेदार है । जब यह ग्रन्थि विकृत होती है तब निर्णय गलत होने लगते हैं । एक व्यक्ति की पिच्यूटरी विकृत होने पर सारी सेना को पराजय का मुंह देखना पड़ा । न जाने प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवनसंग्राम में कितनी पराजयों को झेलता जाता है । ये सारी पराजय गलत निर्णयों के कारण होती हैं । ये गलत निर्णय होते हैं उन ग्रन्थियों की अस्वस्थता और विकृति के कारण | क्या समाज का भविष्य, समाज का भाग्य, व्यक्ति के साथ जुड़ा हुआ है ? हम इस बात को गौण नहीं कर सकते कि समाज पर शासन करने वाले व्यक्ति या समाज का नेतृत्व करने वाले व्यक्ति का चरित्र कैसा है ? उसकी स्थिति क्या है ? उसका स्वास्थ्य कैसा है ? उसका सौन्दर्य कैसा है ? स्वास्थ्य का तात्पर्य केवल हाड़-मांस से नहीं है। स्वास्थ्य का तात्पर्य है कि उस वयक्ति का नाड़ी-संस्थान कितना स्वस्थ है ? उसका ग्रन्थितन्त्र कितना स्वस्थ है ! आखिर हम लोग बाह्य दृष्टि वाले हैं, चर्मचक्षु से देखते हैं | मांसल व्यक्ति को स्वस्थ मान लेते हैं और अच्छे रंगरूप वाले को सुन्दर मान लेते हैं । सौन्दर्य भीतर का होता है । सुन्दर वह होता है जिसका मस्तिष्क Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता स्वस्थ और सुन्दर है । स्वस्थ वह होता जिसका नाड़ीतंत्र और ग्रन्थितंत्र स्वस्थ होता है । मैंने एक बार कविता की पंक्तियों में लिखा था 'बाहर का सौन्दर्य यहां तो अन्दर का प्रतिबिम्ब रहा है।' बाहर का सौन्दर्य आन्तरिकता का प्रतिबिम्ब होता है । बाहर का रंगरूप कितना ही सुन्दर हो, यदि मस्तिष्क की संरचना सुन्दर नहीं है तो वह बाहर का सौन्दर्य कुछ भी काम का नहीं रहेगा । यदि हम आन्तरिक सौन्दर्य और आन्तरिक स्वास्थ्य पर ध्यान देते हैं तो हमें नाड़ी-संस्थान, ग्रन्थि-संस्थान और मस्तिष्क-इन तीनों पर गहराई से विचार करना होगा । जिस व्यक्ति का मस्तिष्क और पृष्ठरज्जु स्वस्थ है, जिस व्यक्ति का ग्रन्थितंत्र स्वस्थ है, वह सही सोचता है, सही निर्णय लेता है और समाज को सही दिशा में प्रस्थित करता है । उस व्यक्ति से ही समाज उत्तरोत्तर विकास करता है। जिस व्यक्ति का मस्तिष्क, नाड़ीतंत्र और ग्रन्थितंत्र स्वस्थ नहीं है, वह व्यक्ति सही ढंग से नहीं सोच सकता । वह व्यक्ति सही निर्णय नहीं ले सकता । उस व्यक्ति के गलत चिन्तन और गलत निर्णयों से समाज दिग्भ्रान्त होता है और विनष्ट हो जाता है । इस स्थिति में हमारे सामने एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न उपस्थित होता है कि हम मस्तिष्क, ग्रन्थितंत्र और नाड़ीतंत्र को स्वस्थ कैसे रख सकते हैं ? एक व्यक्ति को यह कैसे सिखाया जाए कि आन्तरिक संस्थानों को स्वस्थ रखने के क्या-क्या उपाय हैं ? ज्ञानवाही और कार्यवाही तन्तुओं को स्वस्थ कैसे रख सकते हैं ? इसका शिक्षण देना बौद्धिक शिक्षा से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण है । निर्णय में केवल बुद्धि काम नहीं देती । प्राचीन काल में यह माना जाता था कि निर्णय करना बुद्धि का काम है, किन्तु आधुनिक खोजों ने यह स्पष्ट प्रतिपादित किया है कि निर्णय में ग्रन्थि संस्थान का सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान है । ग्रन्थितंत्र के स्राव जितने संतुलित और व्यवस्थित होते है, हमारा निर्णय भी उतना ही व्यवस्थित होता है | इस संदर्भ में यह स्पष्ट हो जाता है कि हम अपने आन्तरिक संस्थान को स्वस्थ करने वाली प्रक्रिया की उपेक्षा नहीं कर सकते । अनेक भारतीय सेना अधिकारी मिले । उन्होंने कहा—हमारे लिए यह अनिवार्य है कि हम तनावमुक्त क्षणों में निर्णय लें । तनावमुक्ति के लिए Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्ति और समाज | १७५ हमें ध्यान का प्रयोग करना जरूरी होता है । तनाव की स्थिति में लिया गया निर्णय उतना सफल नहीं होता । अंतरिक्ष यात्री को अकेले रहने का अभ्यास करना होता है । आदमी अकेला रह नहीं सकता, वह घबरा जाता है । धृति, सहिष्णुता, कष्ट सहने की क्षमता, एकान्त में रहने का अभ्यास, प्रकाश और अंधकार की स्थितिमें अविचलन-ये सारी स्थितियां अंतरिक्ष-यात्री के लिए अनिवार्य हैं । अंतरिक्ष-यात्री को इन सबका पूर्वाभ्यास कराया जाता है । जब वह इन सब में उत्तीर्ण हो जाता है तब उसे अंतरिक्ष यात्रा के योग्य माना जाता है। यह जीवन की यात्रा अंतरिक्ष की यात्रा से भी जटिल यात्रा है । यह जीवन-संग्राम किसी भी युद्ध से कम नहीं है । हम ऐसी स्थिति में आदमी को केवल बुद्धि के भरोसे नहीं छोड़ सकते । बौद्धिक विकास से वह अपने जीवन-संग्राम में सफल हो जाएगा, यह मानना भ्रांति होगी, न्याय नहीं होगा । न व्यक्ति के साथ न्याय होगा और न समाज के साथ न्याय होगा । हमारा यह अनिवार्य चिन्तन होना चाहिए कि जीवन की डोरी को केवल बुद्धि के हाथ में न सौंपे । उसको ऐसे मजबूत हाथों में थमाएं जिनमें बुद्धि, भावना और मन—तीनों का समुचित योग हो । ये तीनों मिल कर ही जीवन-संग्राम में विजयी हो सकते हैं; अन्यथा आदमी को पग-पग पर पराजय का सामना करना पड़ता है । इस संदर्भ में यह तथ्य निरस्त हो जाता है कि ध्यान वैयक्तिक है, सामाजिक नहीं | उससे समाज को कैसे लाभ मिल सकता है ? यह भ्रम मिट जाता है । एकाग्रता का प्रयोग, संकल्पशक्ति के विकास का प्रयोग, इच्छाशक्ति के विकास का प्रयोग, नाड़ीतंत्र और ग्रन्थितंत्र को स्वस्थ रखने का प्रयोग व्यक्ति करता है किन्तु उसका पूरा लाभ समाज में संक्रान्त होता है । इस दृष्टि से यह साधना नितान्त वैयक्तिक नहीं, सामाजिक भी है | पूरा समाज इससे प्रभावित होता है। समाज का एक घटक यदि अपराधी होता है तो पूरा समाज प्रभावित होता है । और यदि एक घटक सदाचारी होता है तो उससे पूरा समाज प्रभावी होता है । यदि पड़ोसी गलत मिल जाता है, तब पता चलता है कि एक व्यक्ति का क्या प्रभाव होता है। गांव में एक उद्दण्ड व्यक्ति होता है तो सारा गांव उसके आतंक से आतंकित रहता है। एक व्यक्ति की अपराधी वृत्ति, हिंसक मनोभाव से पूरा समाज प्रभावित होता Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता है, पूरा गांव प्रभावित होता है । एक व्यक्ति अध्यात्म-प्रधान होता है, तो परिवार, समाज और गांव उससे लाभान्वित होते हैं । हम व्यक्ति के आचारव्यवहार को व्यक्तिगत आचार-व्यवहार कहकर टाल नहीं सकते । क्योंकि प्रभाव संक्रान्त होता है और हम इस संक्रमण की दुनिया में जी रहे हैं। संक्रमणों से हम सर्वथा बच नहीं सकते । इसलिए यह दृढ़ विकल्प हमारे सामने प्रस्तुत होता है कि व्यक्ति को सुधारने का उतना ही प्रयत्न होना चाहिए जितना समाज को सुधारने का होता है । यदि हम केवल समाज को सुधारने का प्रयत्न करें और व्यक्ति - सुधार की बात को गौण कर दें तो वही बात होगी कि हम बगिया को हरी-भरी रखने के लिए फूल और पत्तों को सींचते हैं, पर जड़ में एक बूंद भी पानी नहीं डालते । क्या जड़ को सींचे बिना वृक्ष या पौधा हरा-भरा रह जाएगा ? क्या वह फूल और फल देगा ? कभी नहीं । जड़ को सींचना होगा तभी वृक्ष हरा-भरा रहेगा । फूल आएंगे, फल आएंगे और तब सब कुछ मिलेगा जो वृक्ष से मिलता है । जो जड़ को सींचता है उसके फूल अपने आप हरे-भरे रहते हैं । फूलों और पत्तों को सींचता है तो जड़ सूख जाती है । फूल मुरझा जाते हैं । हम समस्या की जड़ को पकड़ते हैं तो समस्या का समाधान होता है और यदि केवल फूलों और पत्तों तक ही हमारी पहुंच होती है तो समस्या सुलझती नहीं, उलझती है । • व्यक्ति समाज की जड़ है। हम उसे पकड़ें और उसे स्वस्थ करने और रखने का उपक्रम करें। उसके आधार पर समाज स्वस्थ रहेगा, देश स्वस्थ होगा | यदि हम व्यक्ति को विस्मृत कर समाज को सुधारना चाहेंगे तो जड़ को सींचने के बदले फूल और पत्तों को सीचेंगे। इससे कुछ नहीं होगा । व्यक्ति का निर्माण अत्यन्त महत्त्व का निर्माण है। गांधीजी आए। वे स्वयं तपस्वी की जीवन जीते रहे । सादगी और स्वस्थ जीवन जीने का उन्होंने प्रयास किया और सफल रहे । साथ-साथ उन्होंने अनेक व्यक्तियों का निर्माण किया और उन्हें सादगीमय जीवन जीने की कला सिखाई । स्वयं गांधीजी ने और उनके द्वारा निर्मित व्यक्तियों ने जो नेतृत्व प्रदान किया, वह आज कहां है ! उसका मूल कारण है कि व्यक्ति-निर्माण की प्रक्रिया ढीली हो गयी । और नेतृत्व ऐसे व्यक्तियों के हाथों में चला गया जिनके जीवन में न तपस्या है, न साधना Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्ति और समाज | १७७ है और न त्याग है । चंद्रगुप्त का साम्राज्य शक्तिशाली था । उसकी शक्ति का मूल घटक था महामंत्री चाणक्य । यदि चाणक्य नहीं होता तो चंद्रगुप्त नहीं होता और वह इतने बड़े साम्राज्य की नींव डालने में कभी सफल नहीं होता । चाणक्य इतने बड़े साम्राज्य का महामंत्री, सर्वेसर्वा, पर वह रहता था एक घास-फूस की झोंपड़ी में, कुछेक साधनों के साथ | वह तपस्वी और त्यागी का जीवन बिताता था । और निष्ठा के साथ इतने बड़े साम्राज्य का संचालन करता था । शक्ति का संचय व्यक्ति के आधार पर होता है । निर्णय और चिन्तन के आधार पर होता है । ऐसा एक व्यक्ति समूचे राष्ट्र को प्रभावित कर देता है । व्यक्ति-निर्माण को हम गौण नहीं कर सकते । यदि एक व्यक्ति का आज निर्माण होता है तो संभव है उसका फल बीस वर्ष बाद मिले । किन्तु यदि हम व्यक्ति-निर्माण की बात को गौण कर देते हैं तो कालान्तर में मिलने वाले फल की आशा ही कैसे कर सकते हैं ? यदि आज हम यह सोचें कि कब आदमी का निर्माण होगा और कब उसका उपयोग होगा तो मान लेना चाहिए कि काम कभी होगा ही नहीं । एक बूढ़ा आदमी आम का बीज बो रहा था । एक युवक ने कहाअरे बूढ़े ! यह क्या कर रहे हो ? तुम तो मरने वाले हो, आम बोकर क्या करोगे ? कौन खाएगा ! बूढ़े ने कहा- मैं नहीं रहूंगा तो क्या, मेरी आने वाली पीढ़ी तो खाएगी ! यदि हमारे पूर्वज भी यही सोच लेते तो आज हमें आम कहां से मिलता ? मैं आम बो रहा हूं। अगली पीढ़ी इसके फल चखेगी । यह निरर्थक काम नहीं है, सार्थक है । ___ हम निराश न हों यह सोचकर कि आज यदि हम व्यक्ति का निर्माण करते हैं तो हमें तो उसका फल मिलेगा नहीं । आज यदि अच्छे व्यक्ति के निर्माण की प्रक्रिया चलती है तो दस-बीस वर्ष बाद फल आएगा, वह फल अवश्य लाभदायी होगा । यदि हम उस दिशा में प्रस्थान ही नहीं करेंगे तो परिणाम कभी आएगा ही नहीं ।। व्यक्ति-निर्माण के पांच घटक हैं१. कर्तव्य-निष्ठा २. प्रामाणिकता ३. सहिष्णुता Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता ४. आत्मानुशासन ५. विनम्र व्यवहार यदि इन गुणों से युक्त व्यक्ति समाज में होते हैं तो समाज की सारी व्यवस्था बदल जाती है । जापान देश आज बहुत समृद्ध है । उसकी समृद्धि के पीछे दो तत्त्व प्रत्यक्ष हैं-आत्मानुशासन और विनम्र व्यवहार । अभी एक व्यक्ति जापान की यात्रा कर आया । उसने दोनों तथ्यों की मुक्तकंठ से प्रशंसा की । उसने कहा—उन जापानियों का व्यवहार इतना नम्र है कि व्यक्ति पिघल जाता है | उनका आत्मानुशासन अनुकरणीय है । जहां इतना विनम्र व्यवहार, आत्मानुशासन और शालीनता होती है, वहां समृद्धि कैसे नहीं होगी ! समाज की प्रगति के ये पांच मुख्य आधार हैं । हमें इन गुणों का बीजारोपण विद्यार्थियों में करना चाहिए | मैं पुनः यह कहना चाहता हूं कि इन पांच गुणों का विकास बौद्धिक विकास से संभव नहीं है । बौद्धिक विकास का कार्य दूसरा है । बुद्धि से विनम्रता आए, यह संभव नहीं है, क्योंकि बुद्धि तर्क पैदा करती है । जहां तर्क होगा, वहां विनम्रता गौण हो जाएगी । बौद्धिक विकास और आत्मानुशासन का कोई तालमेल नहीं है । बौद्धिक विकास के साथ-साथ आत्मानुशासन का विकास होगा, यह मानना भ्रान्ति है | उससे अनुशासन भी नहीं आता तो फिर आत्मानुशासन की बात तो बहुत दूर रह जाती है। तर्क और अनुशासन की कोई संगति नहीं है । तर्क हर बात का खंडन करके चलेगा। उसके परिपार्श्व में ऐसा सोचा जाएगा—यह कैसे कहा ? क्यों कहा ? क्या मैं नहीं समझता ? क्या मैं बच्चा हूं ? क्या मैं चिन्तन नहीं कर सकता? यह तर्क की प्रकृति है । तर्क की और बुद्धि की प्रकृति एक नहीं है ।(हमें ज्ञानचेतना की रश्मियों की प्रकृति का विश्लेषण करना चाहिए | विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट हो जाएगा कि विनम्रता, सहिष्णुता और आत्मानुशासन---इनकी प्रकृति है भावनात्मक । इनका विकास भावनात्मक विकास के द्वारा हो सकता है । बौद्धिक विकास के द्वारा नहीं हो सकता । बुद्धि हमारे मस्तिष्क का एक केन्द्र है । भावनात्मक प्रवृत्तियों का संबंध है ग्रन्थितंत्र से । बुद्धि का संबंध है मस्तिष्क से । दोनों का केन्द्र भिन्न है, प्रकृति भिन्न है तो हम एक के माध्यम से दूसरे का विकास कैसे कर सकेंगे? इसलिए संपूर्ण व्यक्तित्व विकास के लिए हम भावनात्मक विकास करें, बौद्धिक विकास Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्ति और समाज / १७९ करें और मानसिक विकास करें । मन के विकास का तात्पर्य है, एकाग्रता का विकास, संकल्पशक्ति और इच्छाशक्ति का विकास | यह बौद्धिक विकास से कभी संभव नहीं है । अनेक बड़े-बड़े पंडित हैं, वैज्ञानिक और विद्वान् हैं | उनका बौद्धिक विकास शिखर को छू रहा है । पर उनमें संकल्पशक्ति और एकाग्रता का विकास नाम मात्र का भी नहीं है । वे पग-पग पर अपना संतुलन खो देते हैं और अनर्थकारी घटनाएं घटित कर लेते हैं । इसका फलित यही होता है कि केवल बौद्धिक विकास खतरे पैदा करता है । बौद्धिक विकास के साथ यदि भावनात्मक विकास होता है तो बुद्धि के खतरे टल जाते हैं। संतुलित विकास की बात बहुत महत्त्वपूर्ण और तथ्यपूर्ण है । समाज इस संतुलित विकास के आधार पर ही शालीन बन सकता है । इस सारी चर्चा का निष्कर्ष यह है कि ध्यान व्यक्तिगत नहीं, सामाजिक है । उससे समाज लाभान्वित होता है । उसका प्रयोग व्यक्ति-व्यक्ति करता है पर प्रभाव पूरे समाज पर पड़ता है । ध्यान का प्रयोग व्यक्ति को प्रभावित करता है और व्यक्ति के चरित्र के माध्यम से पूरे समाज को प्रभावित करता है | यह धारणा जैसे-जैसे स्पष्ट होगी, हम सही मूल्यांकन करने लगेंगे और समुचित प्रयोगों के पश्चात् हमारी आस्था मजबूत बन जाएगी । जब ध्यान या एकाग्रता का प्रयोग व्यक्तित्व-निर्माण का अनिवार्य अंग बन जाता है तब समाज को सुधरने में समय नहीं लगता । व्यक्ति और समाज का क्रम है । व्यक्ति से समाज और समाज से व्यक्ति । व्यक्ति बीज है । बीज से वृक्ष बनता है और उससे फिर बीज निष्पन्न होते हैं । दोनों का संबंध जुड़ा हुआ है । बीज को ठीक करें, अगले बीज ठीक होंगे। che ho Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संप्रदाय और धर्म आचार्य समन्तभद्र काशी - नरेश की सभा में गए। राजा ने पूछा- आप कौन हैं ? आप अपना परिचय प्रस्तुत करें । आचार्य ने कहा आचार्योऽहं कविरहमहं वादिराट् पंडितोऽहं, दैवज्ञोऽहं भिषगहमहं मान्त्रिकस्तान्त्रिकोऽहम् । राजन्नस्यां 'जलधिवलयामेखलायामिलाया-' माज्ञासिद्धः किमिति बहुना सिद्धसारस्वतोऽहम् ॥ ‘मैं आचार्य हूं, कवि हूं, पंडित हूं, ज्योतिषी हूं, दैवज्ञ हूं, मांत्रिक हूं, तांत्रिक हूं, वाद-विवाद-कुशल हूं, वैद्य हूं । राजन् ! इस समस्त पृथ्वी पर मैं आज्ञासिद्ध हूं, और सरस्वती देवी मुझे सिद्ध हैं, मैं सारस्वत - सिद्ध हूं ।' इस श्लोक को पढ़ते ही लगता है कि आचार्य ने अपना अहं प्रदर्शित किया है । उन्होंने अभिमान की गाथा गा दी । प्रत्येक शब्द में अहं बोल रहा है । किन्तु यह अभिमान नहीं, तेजस्विता का सूत्र है । प्रश्न होता है कि कौन संप्रदाय तेजस्वी हो सकता है । वही संप्रदाय तेजस्वी हो सकता है जिसमें आचार्यत्व होता है, कवित्व होता है, पांडित्य और दैवज्ञता होती है, ज्योतिर्विज्ञान का अगाध ज्ञान होता है, देश और काल को जानने की क्षमता होती है, जिसमें तंत्र-मंत्र की शक्ति होती है, जिसे तितिक्षा का सूत्र उपलब्ध है, जिसका दर्शन-केन्द्र या आज्ञाचक्र जागृत होता है, जिसकी अन्तर प्रज्ञा जागृत होती है और जिसे सरस्वती का वरदान प्राप्त है । यह सारा तेजस्विता का सूत्र है । संप्रदाय थे, संप्रदाय हैं और संप्रदाय रहेंगे। हम यदि कल्पना करें कि संप्रदाय न हो, यह असंभव बात है । प्रश्न होता है कि यह असंभव क्यों ? Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संप्रदाय और धर्म / १८१ इसका उत्तर है, जब तक विचार की स्वतंत्रता है तब तक संप्रदाय का होना भी स्वीकृत है | यदि हम कल्पना करें कि एक राज्य, एक संप्रदाय, एक विचार, एक आचार और एक दृष्टिकोण हो जाए तो वह अति - कल्पना होगी और यह कल्पना मानव जाति के विकास में बाधक ही होगी, प्रतिरोध पैदा करने वाली होगी । इससे विकास कुंठित होता है । यदि सारे लोग एक दृष्टि से सोचने लग जाएं तो वह सबसे बड़ा दुर्भाग्य होगा मनुष्य समाज का । पांचों अंगुलियों को जिस दिन एक कर दिया जाएगा, उस दिन हमारी सारी कार्यक्षमता समाप्त हो जाएगी। ये पांचों अंगुलियां अलग-अलग हैं, इसलिए हम अनेक कार्य सम्पन्न कर सकते हैं। कुछेक कार्य एक अंगुली से निष्पन्न होते हैं और कुछेक कार्य तीन या पांच अंगुलियों से निष्पन्न होते हैं। सबका अपनाअपना कार्य है । संप्रदाय का होना एक अनिवार्य प्रक्रिया है । एक बार राजा भोज के मन में यह बात उत्पन्न हुई कि विभिन्न विचार रखने वाले धर्माचार्यों को एक कर दूं। उसने धर्मगुरुओं को बुलाया और सबको कारागृह में डालते हुए कहा- जब तक आप सब एकमत नहीं हो जाते, एक विचार वाले नहीं हो जाते तब तक आपको कारागृह से मुक्ति नहीं मिल सकेगी | सब कारागृह में चले गये, बन्दी बन गये । यह बात सर्वत्र फैल गई । एक शक्तिशाली जैन आचार्य ने यह सब सुना । वे राजा के पास आए। राजा ने पूछा- 'महाराज ! आपने धारा नगरी देखी है ?' आचार्य बोले— 'हां, राजन ! मैंने नगरी का अवलोकन किया है ।' 'कैसी लगी नगरी ? ' 'नगरी सुन्दर है, किन्तु अव्यवस्थित है ।' 'कैसी अव्यवस्था ।' 'बाजार अच्छे नहीं हैं ।' 'क्यों ?' 'बाजार में सैकड़ों सैंकड़ों दूकानें हैं। क्या आवश्यकता है उन दूकानों की ? क्या सब दूकानों को एक कर एक बड़ी दूकान नहीं की जा सकती है ? जब एक ही बड़ी दूकान होगी तो वह बाजार सुन्दर दीखने लग जाएगा ।' 'महाराज ! यह बात अव्यावहारिक है । आप व्यवहार की दुनिया को Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता नहीं जानते । आदमी के जीवन को चलाने के लिए सैकड़ों चीजें चाहिए । किसी को आटा चाहिए, किसी को नमक और किसी को चावल । किसी को सोना चाहिए तो किसी को चांदी | फिर भला सबकी आवश्यकताएं एक ही दूकान पूरी कर सके, यह कैसे संभव हो सकता है ? एक दूकान में ये सारी चीजें कैसे रखी जा सकती हैं ? कैसे उन्हें बेचा जा सकता है ? दूकानें अलग-अलग होने से यह दुविधा नहीं होती । सबकी आवश्यकताएं पूरी होती हैं और कोई अव्यवस्था नहीं रहती ।' ‘राजन् ! आपका कथन यथार्थ है । आप सर्वशक्ति-सम्पन्न हैं । फिर भी जब आप सभी दूकानों को एक नहीं कर सकते और एक करने की उपयोगिता नहीं मानते तो भला विचारों की दूकानें एक कैसे हो सकती हैं ? वे अलग-अलग हैं तब उनकी उपयोगिता है ।' राजा को बात समझ में आ गई । उसने तत्काल सब धर्म-गुरुओं को कारागृह से मुक्त कर दिया । यह अतिकल्पना है कि सब एक ढंग से सोचें, एक ही ढंग से कार्य करें । संप्रदाय का विकास विचार-स्वतंत्रता का विकास है । यह था, है और रहेगा । इसे रोका नहीं जा सकता, मिटाया नहीं जा सकता । जब तक रागद्वेष है, चिन्तन और विचार की स्वतंत्रता है, बुद्धि की क्षमता है, तब तक संप्रदाय रहेगा । अब प्रश्न है तेजस्विता का । सब दूकानें समान रूप से समर्थ नहीं होतीं। दुकानदार का अपना धर्म होता है, आचार-संहिता होती है । उसका पालन अनिवार्य होता है । ग्राहक स्वतंत्र है । वह किसी भी दूकान पर जाकर वस्तु खरीद सकता है । कोई दूकानदार यदि ग्राहक की इस स्वतंत्रता का विरोध करता है तो वह आचार-संहिता का उल्लंघन करता है । तेजस्विता की भी एक आचार-संहिता होती है । धर्मसंघ या संप्रदाय तेजस्वी बनता है ज्योति से, शक्ति से । शक्तिशाली बनने के लिए चार बातें आवश्यक हैं--श्रद्धा, आचार, विचार और अभिव्यक्ति की क्षमता । जिस संप्रदाय में आस्था या श्रद्धा का बल नहीं है, वह संप्रदाय बुझी हुई आग है, जिससे तेजस्विता की ज्योति कभी प्रज्वलित नहीं हो सकती । आस्था जिसने खो दी, श्रद्धा का बल जिसने खो दिया, उसके पैर लड़खड़ाते रहते हैं । वह चल नहीं पाता । चलेगा भी तो लड़खड़ाते हुए चलेगा । पता नहीं कब, कहां Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संप्रदाय और धर्म | १८३ गिर पड़े । जिस संप्रदाय में श्रद्धा का बल होता है, वही तेजस्वी होती है, दूसरा कोई तेजस्वी नहीं बन सकता । तेजस्विता का दूसरा सूत्र है—आचार | जिसका आचार पवित्र है, वह तेजस्वी बनता है | आचार्य भिक्षु ने यह अनुभव किया कि चरित्र को पवित्र करने की आवश्यकता है । उन्होंने एक आचार-संहिता का निर्माण किया । किन्तु विचारशून्य आचार कब तक चल सकता है ? इसलिए आचार के साथ-साथ विचार का बल भी होना चाहिए | विचार कितना परिपक्व है, सिद्धान्त कितना पुष्ट है, आचार की भित्ति कितनी दृढ़ है, यह भी तजेस्विता का सूत्र होता है। अभी राणावास चातुर्मास सन् ८२ में हम आचार्य भिक्षु के जीवन ग्रंथों का पारायण कर रहे थे । हमने देखा कि प्रत्येक आचार की पृष्ठभूमि में विचारों की पवित्रता और दृढ़ता है । कोई भी आचार विचारशून्य नहीं मिला । प्रत्येक आचार के लिए पूछा जा सकता है कि इसका आधार क्या है ? दर्शन क्या है ? आचार के साथ-साथ विचार भी होना चाहिए । केवल विचार उतने प्रभावक नहीं होते । प्रभावक होती है उन विचारों की अभिव्यक्ति की क्षमता । मैं तेरापंथ के परिप्रेक्ष्य में मीमांसा कर रहा हूं | आचार्य भिक्षु आचारतंत्र को लेकर चले और आचार के संबंध में कुछ अवधारणाएं प्रस्तुत की । यदि उनमें विचारों की दृढ़ता नहीं होती, बौद्धिक क्षमता नहीं होती और अभिव्यक्ति की क्षमता नहीं होती तो वे स्वयं साधना कर सिद्ध हो जाते, उनका निर्वाण हो जाता, पर तेरापंथ का उदय नहीं होता । आचार्य भिक्षु में विचारों को अभिव्यक्त करने की प्रबल क्षमता थी । वे कुशाग्रबुद्धि से सम्पन्न थे । प्रत्येक बात की तह तक पहुंचकर वे उसके हार्द को पकड़ लेते थे। बुद्धि चार प्रकार की होती है१. औत्पत्तिकी बुद्धि-तत्काल और सहज उपज वाली बुद्धि । २. कार्मिकी बुद्धि-कार्य करते-करते परिष्कृत होने वाली बुद्धि । ३. वैनयिकी बुद्धि-विनय से उपलब्ध बुद्धि । ४. पारिणामिकी बुद्धि-आयु बढ़ने के साथ-साथ विकसित होने वाली बुद्धि । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता आचार्य भिक्षु औत्पत्तिकी बुद्धि से सम्पन्न थे । यह बुद्धि विशुद्ध होती है । 'शुद्धा बुद्धिः किल कामधेनुः'-शुद्ध बुद्धि कामधेनु होती है । बुद्धिहीन व्यक्ति कोई काम कर नहीं सकता, करता है तो वह काम सम्यक् नहीं होता। बुद्धिमान व्यक्ति प्रत्येक समस्या का समाधान खोज लेता है | आचार्य भिक्षु ने निर्णय किया कि कोई भी आचार स्थापित करना है तो उसका बौद्धिक कारण भी प्रस्तुत करना आवश्यक है। एक राजा था । उसे प्रधानमंत्री की आवश्यकता थी, बुद्धिमान प्रधानमंत्री की । खोज करने पर पता चला कि एक गांव में एक लड़का बुद्धिमान है | उसकी परीक्षा के लिए राजा ने तिलों से एक गाड़ी भरवाकर उस गांव में भेज दी और गांव के मुखिया से कहा कि गाड़ी में तिलों की संख्या करके बताओ । यदि संख्या नहीं बता सके तो गांव के सभी लोगों को मौत के घाट उतार दिया जाएगा। इस आदेश से गांव के सारे लोग चिन्तित हो गए । वे एकत्रित हुए । तिलों को कैसे गिना जाए? सबका मन तिलमिला उठा । मौत सामने दीखने लगी। कुछ भी समाधान दृष्टिगत नहीं हुआ । गांव के उस बुद्धिमान लड़के तक बात पहुंची । वह वहां आया जहां गांव के सारे मुखिया लोग एकत्रित थे । उसने पूछकर सारी समस्या जान ली। वह बोला—आप चिंता न करें । यह कोई समस्या नहीं है । मैं इसका उत्तर दे दूंगा, उपाय बता दूंगा | उत्तर प्रेषित करने की जो अवधि निर्धारित थी, उसके अन्तर्गत एक पत्र में समस्या का समाधान लिखकर राजा के पास भेज दिया । गांववाले वहां एकत्रित हुए । राजा ने सबके समक्ष पत्र खोला । उसमें लिखा था—हमने तिलों की गणना कर ली है । आकाश में जितने तारे हैं, उतने ही तिल हैं । अब आप आकाश के तारे गिनकर तिलों की संख्या ज्ञात कर लें । हमारे पास तारों को गिनने वाले गणितज्ञ नहीं हैं। आपके राज्य में तो वे होंगे ही। अब आप उनसे तारे गिनवाकर, फिर तिलों को भी गिन लें । हमने जो कहा है, वह सच निकलेगा । राजा ने देखा, उत्तर बहुत बुद्धिमत्तापूर्वक दिया गया है । उसने उत्तर-प्रदाता लड़के को प्रधानमंत्री बना दिया । जहां बौद्धिक क्षमता होती है, वहां तेजस्विता आती है । आचार्य भिक्षु को पढ़ने पर लगता है कि उस महान् व्यक्ति ने कितनी गहराई में जाकर Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संप्रदाय और धर्म / १८५ समस्याओं का समाधान खोजा था। बड़ा आश्चर्य होता है । राजा भोज और कालिदास के संस्मरण, अकबर और बीरबल के किस्से बहुत प्रसिद्ध हैं । वे बहुत बुद्धिमत्तापूर्ण हैं। उनसे भी ज्यादा वेधक और बुद्धिमत्तापूर्ण रचनाएं, कहानियां और संस्मरण आचार्य भिक्षु के हैं । आचार्य भिक्षु विचक्षण व्यक्ति थे । उनकी प्रज्ञा जागृत थी। एक बार एक व्यक्ति ने आचार्य भिक्षु से कहा – अमुक-अमुक संप्रदाय वाले एक-दूसरे को असाधु कहते हैं । एक संप्रदाय वाला कहता है कि उस संप्रदाय वाले असाधु हैं और उस संप्रदाय वाले कहते हैं कि वे असाधु हैं । आप क्या कहते हैं ? आचार्य भिक्षु बोले- दोनों सही हैं, सच्चे हैं । प्रश्न पूछने वाला समझा या नहीं, हम नहीं जानते, किन्तु हम जानते हैं कि आचार्य भिक्षु के कथन का आशय क्या था । तेजस्विता का चौथा सूत्र है— अभिव्यक्ति की क्षमता । तेरापंथ की तेजस्विता बढ़ी है, क्योंकि उसमें अभिव्यक्ति की क्षमता है । उसमें अपने विचारों को, अपने सिद्धान्तों को संप्रेषित करने की क्षमता है । आचार्य भिक्षु ने एक कार्य प्रारंभ किया था साहित्य-निर्माण का । आश्चर्य होता है कि उन्हें यह बात कैसे सूझी ? इतने संघर्षों के बावजूद उन्होंने विपुल साहित्य का निर्माण किया । आज के युग में कहा जाता है कि अमुक विचार कितना अच्छा है । इसका मूल्य नहीं, मूल्य इस बात का है कि वह अच्छा विचार कितने लोगों तक पहुंच पाता है। आचार्य भिक्षु ने साहित्य - निर्माण की पहल की । श्री मज्जयाचार्य ने उसमें अत्यधिक वृद्धि की और आचार्य श्री तुलसी के शासनकाल में इसका और अधिक विकास हुआ । हमारे विचार लोगों तक पहुंचे हैं । लोगों में साहित्य पढ़ने की रुचि बढ़ी है । ये चार सूत्र प्रत्येक संप्रदाय को तेजस्वी बनाने के लिए आवश्यक हैं । एक प्रश्न बार-बार दोहराया जाता है कि क्या संप्रदाय संप्रदाय ही रहे या असंप्रदाय बनकर काम करे, संप्रदाय की सीमा को पार कर जाए ? मैं सोचता हूं कि सांप्रदायिकता और संप्रदाय की सीमा दोनों एक नहीं हैं, भिन्नभिन्न बातें हैं । संप्रदाय की सीमा में रहना बुरा नहीं है, रहना ही चाहिए । कल्पना करें कि घर की चहारदीवारी को हटा दिया जाए, दरवाजे को हटा दिया जाए, मुक्त आकाश रहे, तो क्या कोई वहां रह पाएगा ? कैसा लगेगा Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता आदमी को ? यह उपयोगी बात नहीं है । ऐसा होना संभव भी नहीं है । यह कोई समस्या का समाधान भी नहीं है । यह समाधान के बदले और नयीनयी समस्याएं खड़ी कर देगा। सर्दी की समस्या, गर्मी की समस्या, आंधी और धूल की समस्या, वर्षा की समस्या – ये सारी समस्याएं खड़ी हो जाएंगी । घरों को तोड़ने की आवश्यकता नहीं है । संप्रदायों को मिटाने की जरूरत नहीं है | असांप्रदायिकता का अर्थ है-अपने घर में रहते हुए यह सोचना कि दूसरे के घर में भी आकाश है, केवल मेरे घर में ही आकाश नहीं है । आदमी का आग्रह होता है कि वह अपने घर में तो आकाश का अस्तित्व मान लेता है, पर दूसरों के घर में आकश का अस्तित्व नहीं मानता । तेरापंथ तेजस्वी बना और इसका एक कारण यह है कि आचार्य भिक्षु ने सृजनात्मक दृष्टिकोण अपनाया और उत्तरवर्ती सभी आचार्यों ने उसका अनुसरण किया । 'मंडनात्मक नीति आगे बढ़ाती है । खंडनात्मक नीति शक्ति को क्षीण कर, आदमी को पीछे ढकेल देती है ।' तेरापंथ की इस नीति ने उसे शक्ति-संचय का अवसर दिया और आज सवा दो सौ वर्षों के इतिहास में उस पर अनेक प्रहार हुए; पर उसने खंडनात्मक नीति का सहारा नहीं लिया । उसने किसी अन्य संप्रदाय के विरोध में या अपने विरोध के उत्तर में आक्षेपात्मक लेख या पुस्तिका नहीं लिखी । जैन समाज में परस्पर विरोध में ऐसी-ऐसी पुस्तकें निकली हैं, जिनका नाम लेने में भी लज्जा का अनुभव होता है। एक-दूसरे पर इतना कीचड़ उछाला गया है कि लज्जा से सिर नीचा हो जाता है । तेरापंथ ने किसी भी जैन- अजैन धर्म-संप्रदाय के विरोध में दो शब्द भी नहीं लिखे । यह उसकी मंडनात्मक नीति का ही प्रभाव है । आचार्यश्री तुलसी बाईस वर्ष की छोटी अवस्था में आचार्य बन गए । बीकानेर चातुर्मास हुआ । चातुर्मास की संपन्नता हुई । दूसरे दिन विहार था | वहां एक अन्य संप्रदाय के आचार्य का भी चातुर्मास था । चातुर्मास पूर्ण हुआ । आचार्यश्री तुलसी हजारों की भीड़ के साथ बीकानेर की मुख्य सड़कों से होते हुए विहार कर रहे थे । उधर दूसरे संप्रदाय के आचार्य भी हजारों लोगों के साथ सामने से आ रहे थे । दोनों जुलूसों का ऐसे बिन्दु पर मिलन होने वाला I था, जहां का रास्ता अत्यंत संकीर्ण था । रांगड़ी का प्रसिद्ध चौक। कौन किसको रास्ता दे ? दोनों बड़े संप्रदाय के आचार्य थे । कौन हटे ? स्थिति गंभीर बन Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संप्रदाय और धर्म / १८७ गई । शक्ति-प्रदर्शन की दोनों ओर तैयारी हो गई । आचार्यश्री तुलसी ने तत्काल निर्णय लिया और स्वयं एक ओर हटते हुए आदेश दिया कि सब सड़क को छोड़कर एक ओर हट जाएं । निर्णय लेते समय मंत्री मुनि से भी परामर्श नहीं लिया । आदेश सुनते ही कुछेक साधु गरमा गए । श्रावक भी उत्तेजित होने की स्थिति में आ गए | किन्तु तेरापंथ के आचार्य के आदेश की अवहेलना करना सहज सरल बात नहीं थी । सब एक ओर हट गए । दूसरे आचार्य का जुलूस पास से नारे लगाता हुआ गुजर गया । तत्कालीन बीकानेर-नरेश गंगासिंहजी के पास यह घटना पहुंची । उन्होंने टिप्पणी करते हुए कहा—आचार्यश्री तुलसी ने छोटी अवस्था में बड़ी समझदारी और प्रौढ़ावस्था की बुद्धि का परिचय दिया । यदि रांगड़ी चौक में दोनों दलों की मुठभेड़, जो सहज थी, हो जाती तो मेरे राज्य की बड़ी बदनामी होती, खून-खच्चर होता और दीर्घकाल के लिए वैर बंध जाता । ... ऐसा क्यों हुआ? इसलिए हुआ कि जिस संघ का दृष्टिकोण रचनात्मक होता है, निर्माणात्मक होता है, वह संघ दूरदर्शी होता है । वह तेजस्वी बनता है, प्रगति और उन्नति करता है । आज अन्य समाज वालों को यह आश्चर्य-सा लगता है कि तेरापंथ धर्मसंघ के मुमुक्षुओं में साहित्य-निर्माण की इतनी क्षमता, वक्तृत्व-कला की निपुणता कैसे बढ़ रही है ? वे भी अपने-अपने समुदाय में इसका विकास चाहते हैं, प्रयत्न भी करते हैं । __तेजस्विता के लिए दो बातें जरूरी होती हैं—संगठन और अनुशासन तथा रचनात्मक दृष्टिकोण । तेरापंथ में ये दोनों हैं । हर संप्रदाय इन्हें प्राप्त कर तेजस्वी बन सकता है । तेरापंथ ने सारी शक्ति रचनात्मकता में लगाई, ध्वंसात्मक कार्य में नहीं। शक्ति शक्ति है | वह यदि प्राप्त है तो कहीं-नकहीं लगेगी ही, फिर चाहे निर्माण में लगे या ध्वंस में लगे । मंडन में लगे या खंडन में लगे । जो अपनी शक्ति खंडन में लगाते हैं वे सदा हानि उठाते हैं । दिन-रात वे सोचते रहते हैं, इसको तोड़ना है, उसको बिगाड़ना है, यह करना है, वह करना है । ऐसा करने से उन्हें मिलता कुछ भी नहीं । केवल वे दूसरों का अहित ही करते हैं । जो लोग तोड़ने की नीति पर चलते हैं, वे हैं सांप्रदायिक । दूसरों को Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता तोड़ने की नीति का नाम है- सांप्रदायिकता । संप्रदाय का अर्थ है— गुरुपरंपरा —‘संप्रदायो गुरुक्रमः ।' तर्क का संप्रदाय है, आगम और ज्योतिष का संप्रदाय है । जो एक गुरु-परंपरा के आधार पर चलता है वह है संप्रदाय । उसे समाप्त करना उचित नहीं है । आज यदि कहा जाए, भारत में ज्ञान, विज्ञान या विद्या का जो विकास हुआ है उसे समाप्त कर दिया जाए, नया वाद चलाया जाए तो आदमी 'रामू भेड़िया' बन जाएगा । संप्रदाय को समाप्त नहीं, विकसित करना है । गुरु-परंपरा को समाप्त नहीं करना है, उसे आगे बढ़ाना है । समाप्त करना है सांप्रदायिकता को । सांप्रदायिकता का एक अर्थ है— दूसरों को बुरा बताना, दूसरों की निन्दा करना, दूसरों को गिराने का प्रयत्न करना । असांप्रदायिकता का अर्थ है— निर्माणात्मक दृष्टिकोण का विकास करना, उसे विस्तार देना । जिस संप्रदाय का दृष्टिकोण असांप्रदायिक होता है, रचनात्मक होता है, वही संप्रदाय अणुव्रत आंदोलन जैसा आंदोलन प्रवर्तित कर सकता है । दूसरों द्वारा प्रवर्तित नहीं हो सकता । अपने कल्याण के साथ-साथ जिसमें जन-कल्याण की भावना व्याप्त होती है, वह संप्रदाय निश्चित ही तेजस्वी बनता है । मैं मानता हूं जिस दिन से आचार्यश्री ने अणुव्रत आंदोलन का सूत्रपात किया, उस दिन से तेरापंथ और अधिक तेजस्वी बना है । इसमें कुछ लोगों को यह भ्रम हुआ कि आचार्य तुलसी इस बहाने दूसरों को अपने संप्रदाय में मिलाने का प्रयत्न कर रहे हैं । किन्तु धीरे-धीरे यह भ्रम टूट गया । उन्हें यह ज्ञात हो गया कि तेरापंथ के आचार्य का दृष्टिकोण कभी ध्वंसात्मक नहीं रहा है । वह सदा रचनात्मक रहा है, व्यापक और कल्याणकारी रहा है । हम चार बातों को स्पष्ट समझ लें-- संप्रदाय, सांप्रदायिकता, असांप्रदायिकता और तेजस्विता । तेजस्विता उसी संप्रदाय की बढ़ती है जो असांप्रदायिक होता है । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैतिकता : क्या ? कैसे प्रत्येक धार्मिक व्यक्ति आस्था के सहारे जीवन चलाता है । उसकी आस्था का बिन्दु है—धर्म | आज धर्म तीन आयामों में विभक्त हो गया है । वे तीन आयाम हैं—आध्यात्मिकता, नैतिकता और उपासना । आध्यात्मिकता मूल केन्द्र है, उपासना भक्ति-संबद्ध केन्द्र है और नैतिकता समाज-संबद्ध केन्द्र है | धर्म का सर्वोपरि मूल्य है आध्यात्मिकता, प्राणी मात्र के प्रति समता । प्रत्येक आत्मा में समत्व का अनुभव करना आध्यात्मिकता है । लगभग सभी धर्मों की यह स्वीकृति है कि सब जीव एक हैं, समान हैं । या तो अन्यान्य धर्मसंप्रदाय जीवों को समान मानते हैं या एक मानते हैं । इन दो मान्यताओं में सब समा जाते हैं। अध्यात्म में न संप्रदाय होता है, न वेश होता है, न रूप होता है और न मान्यता होती है । वह वेशातीत, रूपातीत और मान्यतातीत होता है । यही वास्तव में धर्म है । प्रत्येक प्राणी में एक-जैसा चेतना का प्रवाह है, एक-जैसी प्राणधारा है । इसकी आन्तरिक अनुभूति का नाम है आध्यात्मिकता । यह अनुभूति नयी दृष्टि का सृजन करती है और इसके आधार पर व्यक्ति सब में साम्य या एकत्व का अनुभव करता है । कबीर का पुत्र कमाल घास काटने गया | घास के प्रति तन्मय हुआ और उसे यह स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगा कि जैसी प्राणधारा उसमें प्रवाहित हो रही है, वैसी ही प्राणधारा घास के कणकण में प्रवाहित है । जिसको यह अनुभव हो जाता है, वह फिर घास नहीं काट सकता । कमाल घास काटे बिना घर लौट आया । जिस व्यक्ति को इतनी गहरी अनुभूति हो जाती है, आध्यात्मिक अवबोध हो जाता है, वह सही अर्थ में धार्मिक बन जाता है । ऐसा व्यक्ति न किसी को धोखा दे सकता Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता है, न भ्रष्टाचार कर सकता है और न ठगाई कर सकता है । ऐसा आध्यात्मिक व्यक्ति ही मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा कर सकता है । किन्तु यह बात बहुत स्पष्ट है कि सभी धार्मिक व्यक्ति इतनी गहरी आत्मानुभूति लिये हुए नहीं होते । बहुत सारे धार्मिक व्यक्ति धर्म के दूसरे या तीसरे आयाम में जीने वाले होते हैं । धर्म के दूसरे आयाम-नैतिकता में जीने वाले भी कम होते हैं । बहुत सारे धार्मिक व्यक्ति तो धर्म के तीसरे आयाम में जीते हैं । वे उपासना-प्रधान होते हैं । वे मानते हैं ईश्वर की पूजा करो, माला जपो, इष्ट का स्मरण करो, सब कुछ ठीक हो जायेगा, पाप सारे समाप्त हो जाएंगे । भगवान् क्षमा कर देगा । इस आशा के आधार पर वे उपासना में लगे रहते हैं और उसे आगे बढ़ाते रहते हैं । मैं यह कहना नहीं चाहता कि उपासना व्यर्थ है । उपासना बहुत आवश्यक है। किन्तु उसके सही स्वरूप को समझने का प्रयत्न करें । एकांगी धारणा ने उसके स्वरूप को भी विपरीत बना डाला है । आदमी मानता है, दिन भर जो बुराई होती है, उसके पाप से छूटने का सरलतम रास्ता है उपासना । दिन भर कुछ भी करो, सुबह-शाम भगवान के समक्ष प्रार्थना कर लो, माला जप लो बस, सारे पाप समाप्त हो जाएंगे । इस दृष्टि से उपासना बुराई का उन्मूलन करने वाली नहीं रही, वह उस बुराई को समर्थन देने वाली या प्रश्रय देने वाली बन गई । यदि पेट का कोई रोगी डॉक्टर के पास जाकर कहे कि आप मुझे ऐसी दवा दें, जिससे जो कुछ खाऊ पच जाए, हजम हो जाए । अब यदि वह दवा लेता है तो वह दवा उसकी लोलुपता को बढ़ाने वाली ही मानी जायेगी । वह लोलुपता को मिटाने वाली नहीं, उसको प्रोत्साहन देने वाली होगी । वह खाने को रोक नहीं सकता । अतः भोजन को पचाने में असमर्थ है तो दवा उसे पचाये । उपासना का भी यही रूप बन गया है | उपासना का शुद्ध स्वरूप यह है कि आज यदि बुरा काम हो गया है तो वह व्यक्ति भगवान् की साक्षी से कहता है- 'भगवान् ! मैं संकल्प करता हूं कि यह बुराई पुनः कल नहीं करूंगा । 'इयाणिं नो जमहं पुव्बमकासी पमाएणं-अब मैं वैसा आचरण कभी नहीं करूंगा जो मैंने प्रमादवश कर लिया था ।) यदि उपासना का यह स्वर हो तो उपासना का वास्तविक मूल्य हो सकता है । आज यह नहीं रहा । आदमी भगवान् के सामने भूल स्वीकार कर लेता है, किन्तु फिर उसी भूल को करने में नहीं हिचकिचाता । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैतिकता : क्या ? कैसे ? | १९१ वह भगवत्-कृपा से पाप को नष्ट कर देना चाहता है, पर पापकारी प्रवृत्ति को छोड़ना नहीं चाहता । उपासना की यह धारणा, यह स्वरूप धर्म के लिए बहुत घातक बन गया । धर्म की इस मिश्रित धारणा के आधार पर पाश्चात्य लोगों ने भारतीय धर्म पर टिप्पणी करते हुए कहा—'भारतीय धर्म सामाजिक दायित्व नहीं सिखाता ।' ब्रिटेन के कुछ अर्थशास्त्रियों ने अध्ययन के बाद यह निष्कर्ष प्रकाशित किया कि भारतीय धर्म सामाजिक चेतना को जागृत करने में अक्षम रहा है । उसमें नैतिकता की अवधारणाएं नहीं हैं, इसीलिए भारत में भ्रष्टाचार, अनैतिकता और अप्रामाणिकता अधिक है ।' मैं नहीं कहना चाहता कि उनकी यह अवधारणा या उनका यह निष्कर्ष सही है । यह गलत तथ्यों पर आधारित है । पर हमें कुछ सचाइयों को स्वीकार करना ही होगा । उन सचाइयों का आधार हमारी सैद्धान्तिकता नहीं है, व्यावहारिकता है । सभी धर्मों के सिद्धान्तों में नैतिकता पर बल दिया गया है और सदाचार को प्रथम स्थान प्राप्त है । 'आचारः प्रथमो धर्मः'-जैसा स्वर यहां गुंजित हुआ है, फिर भी व्यवहार में धर्म की कमी सर्वत्र दृष्टिगोचर होती है | आदमी ने शॉर्टकट रास्ता अपना लिया है । संयम और तपस्या करना कठिन होता है । उसमें खपना पड़ता है, तपना पड़ता है, कठिनाइयां झेलनी पड़ती हैं । आदमी खपना नहीं चाहता, तपना नहीं चाहता । वह सीधा, आरामप्रद रास्ता चाहता है । टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर वह नहीं चलना चाहता । वह सीधा रास्ता है उपासना धर्म | इष्ट के समक्ष हाथ जोड़कर समर्पण कर दो, सब पाप समाप्त हो जायेंगे । और इससे सस्ता रास्ता धर्म का और कौनसा होगा? इसका परिणाम यह आया है कि नैतिकता से आदमी का विश्वास उठ गया है । आध्यात्मिकता से विश्वास उठ गया है । आध्यात्मिकता और नैतिकता केवल दोहराने की बात रह गयी । नैतिकता के प्रति आदमी का झुकाव नहीं रहा । एक ओर है आध्यात्मिकता, दूसरी ओर है उपासना और बीच में है नैतिकता । अकेला व्यक्ति आध्यात्मिक हो सकता है । आध्यात्मिकता और उपासना व्यक्ति के लिए बहुत उपयोगी है । किन्तु आध्यात्मिकता और उपासना का लाभ केवल व्यक्ति को मिलता है । उसका प्रतिफल समाज में होना चाहिए । यदि वह नहीं होता है तो लगता है कि आध्यात्मिकता भी एक छलावा है, उपासना भी एक छलावा है । दोनों का परिणाम समाज में आना चाहिए । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता नैतिकता का अर्थ है—दो से संबंध | अध्यात्म अकेले में हो सकता है। नैतिकता दो के बिना नहीं हो सकती । अकेले व्यक्ति का प्रामाणिक होना या न होना, कोई सिद्धान्त नहीं बनता, कोई कसौटी नहीं बनती। जहां दूसरा व्यक्ति आता है वहां नैतिकता-अनैतिकता का स्वर उभरता है । नैतिकता का क्षेत्र है-समाज । आध्यात्मिकता और उपासना का क्षेत्र है—व्यक्ति । यह इनकी भेदरेखा है | धर्म का यह दूसरा आयाम (नैतिकता) समाज से संबंधित है । एक व्यक्ति चोरी करता है, विश्वासघात करता है, ठगता हैयह सब अनैतिकता है | इसे अनैतिकता कहा जाएगा | इसे न अधर्म कहना चाहिए, न अन-आध्यात्मिक कहना चाहिए और न अनुपासना कहना चाहिए | यह है अनैतिकता, जो धर्म का पृथक् रूप है । धर्म ने एक महत्त्वपूर्ण पाठ पढ़ाया कि दूसरों के साथ कैसा व्यवहार होना चाहिए । जहां तक व्यवहार का प्रश्न है, धर्म ने कुछ निश्चित मानदण्ड दिए, सूत्र दिए | धर्म की इस अवस्था का अवबोध देने वाला प्रसिद्ध सूक्त है—'आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचेत्'-दूसरों के साथ वैसा व्यवहार मत करो जो स्वयं के लिए प्रतिकूल हो । यह कसौटी है व्यवहार की । क्या आज भ्रष्टाचार करने वाला इस कसौटी को काम में लेता है ? क्या कोई धार्मिक व्यक्ति इस सूक्त को जीता है ? क्या वह कभी सोचता है, जो मेरे लिए प्रतिकूल है, उसका आचरण दूसरों के प्रति क्यों करूं? जब वह बाजार से घी खरीदने जाता है तो मिलावटी घी देखकर झल्ला उठता है । राज्य कर्मचारी को रिश्वत लेते देख, वह अप्रसन्न होता है । पर क्या वह इन्हीं बुराइयों को करते समय दुःख या कष्ट का अनुभव करता है ? क्या वह मिलावट की दवाइयां बेचते समय कष्टानुभूति करता है ? उसे अपनी इन बुराइयों से अर्थ का लाभ होता है और वह इन बुराइयों से प्रसन्न भी होता है कि आज इतना धन बटोर लिया । आज उसको ठगकर लाख रुपये कमा लिये । अब हम सोचें कि लाभ में कौन है । कौन नहीं ठगा जा रहा है ! पूरा समाज इस चक्रवयूह में फंसा हुआ है । अब इस चक्र को अभिमन्यु बनकर कौन तोड़े ! अभिमन्यु चक्रव्यूह में प्रवेश कर तो गया, पर बाहर निकलने में असमर्थ-सा हो रहा है । बड़ी कठिनाई हो गई है। स्थिति यह बन गई है कि एक आदमी दूसरे आदमी को ठगकर खुश होता है और जब स्वयं ठगा जाता है तो नाखुश होता है । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैतिकता : क्या ? कैसे ? | १९३ एक जाट घी का बड़ा बर्तन भरकर शहर में आया । एक बनिए की दुकान पर गया, बोला, मुझे गहने चाहिए । घी के बदले सोने के गहने दो । बनिए ने घी देखा । बड़ा बर्तन | सस्ते में आ रहा था। उसने स्वीकार कर लिया । बनिए ने घी का घड़ा लेकर, गहने दे दिए । बनिया इसलिए प्रसन्न है कि उसने घी लेकर पीतल के गहने किसान को दे दिए | किसान इसलिए प्रसन्न हो रहा है कि उसने घी के घड़े में गोबर देकर सोने के गहने ले लिये । जब बनिए ने घी का घड़ा खाली किया तो आश्चर्यचकित रह गया कि ऊपरऊपर तो घी था और नीचे गोबर भरा था । किसान गांव के सुनार के पास गया और गहनों की जांच करवाई । सुनार बोला—गहने पीतल के हैं । ऊपर स्वर्ण का झोल चढ़ा है। दोनों ठगे गए । किसान ने बनिए को ठगा और बनिए ने किसान को ठगा | दोनों नुकसान में रहे | आज अनैतिकता का चक्रव्यूह चल रहा है । हर आदमी दूसरे को ठग रहा है । हर आदमी खुश हो रहा है, सिर-दर्द पैदा कर रहा है । तीन आयाम या तीन बिन्दु बहुत स्पष्ट हैं । हम अध्यात्म की बहुत चर्चा कर रहे हैं। उपासना में बहुत रस लेते हैं। इतने उपासना-स्थल हैं । प्रतिदिन और नये-नये बनते जा रहे हैं। कोई अन्त नहीं है । किन्तु मध्य का बिन्दु जो नैतिकता का है, वह उपेक्षित पड़ा है । आने वाली पीढ़ी न आध्यात्मिक बनेगी और न उपासनात्मक । धर्म के दोनों बिन्दु हम अपने ही हाथों समाप्त कर रहे हैं | यदि हमें धर्म के मूल्यों को जीवित रखना है तो वर्तमान पीढ़ी का यह उत्तरदायित्व है कि वह नैतिकता का विकास करे और इस उपेक्षित बिन्दु को उभारे । यह बिन्दु उभरना चाहिए, अन्यथा अनर्थ होगा | आदमी स्वयं धर्म के मूल को समाप्त कर रहा है । कौन कितना आध्यात्मिक है, यह गूढ़ बात है । इसका दूसरे पर कोई प्रभाव नहीं होगा | कौन व्यक्ति कितनी उपासना करता है | कौन कितना समय उपासना में बिताता हैं, इसका भी दूसरे पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । दूसरे पर प्रभाव इस बात का होता है कि कौन व्यक्ति कैसा व्यवहार करता है । जब तक व्यावहारिक और नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठापना नहीं होगी तब तक धर्म हमारा सहयोग कर सके, मुझे कठिनाई लगती है । आज का ज्वलंत प्रश्न है नैतिकता । यह इसलिए ज्वलंत प्रश्न Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता बन गया है कि आज असदाचार, अप्रामाणिकता आदि दुर्गुण बहुत व्यापक हो गए हैं। लोग पूछते हैं कि जब भारत में इतने धर्म हैं, इतने साधु-संन्यासी हैं, इतने धर्मगुरु हैं, फिर भी ये बुराइयां क्यों नहीं मिटतीं ? इस पर मैंने गंभीरता से सोचा तो मुझे प्रतीत हुआ कि धर्म का तथा असदाचार और भ्रष्टाचार का कोई बुहत बड़ा संबंध नहीं है । इसलिए नहीं है कि जो लोग धर्म को नहीं मान रहे हैं वे भी भ्रष्टाचार कर रहे हैं और जो लोग धर्म को मानते हैं वे भी भ्रष्टाचार कर रहे हैं। कोई अन्तर नहीं दिखाई देता । इस प्रश्न का संबंध आध्यात्मिकता के साथ अवश्य जुड़ता है । यदि आदमी आध्यात्मिक है और भ्रष्टाचार करता है तो प्रश्न होता है कि आध्यात्मिक हो गया, फिर भ्रष्टाचार कैसे रह गया ? सचमुच यह तर्क आएगा कि आध्यात्मिक व्यक्ति भ्रष्टाचार नहीं कर सकता और जो भ्रष्टाचार करता है वह आध्यात्मिक हो ही नहीं सकता । यह एक निश्चित व्याप्ति है । श्रीमद् राजचंद्र आध्यात्मिक व्यक्ति थे । जैन संस्कारों में पले । छोटी अवस्था, किन्तु आध्यात्मिक चेतना इतनी प्रखर हो उठी थी कि वे जवाहरात का व्यापार करते हुए भी उस चेतना से ओतप्रोत रहते । एक बार हीरों का सौदा किया । भाव बढ़ गए । सामने वाले व्यक्ति को भारी नुकसान हो रहा था । वह अन्दर ही अन्दर गल रहा था | श्रीमद् राजचंद्र को ज्ञात हुआ । उन्होंने उस व्यापारी को बुला भेजा । वह आया । उन्होंने सौदे का प्रतिबंधित कागज लिया और उसके टुकड़े-टुकड़े करते हुए कहा-'राजचन्द्र दूध पी सकता है, किसी का खून नहीं पी सकता ।' यह है आध्यात्मिकता । आध्यात्मिक व्यक्ति कभी असदाचार नहीं कर सकता। किन्तु धार्मिक कहलाने वाले की यह इयत्ता नहीं है | आज के धार्मिक कहलाने वाले व्यक्ति में कोरी उपासना की चेतना विकसित है । वह व्यक्ति बड़े से बड़ा अनर्थ भी कर सकता है । इसलिए यह प्रश्न इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है कि इतने धार्मिक आदमी हैं, इतने उपासनागृह हैं, फिर भी बुराइयां नहीं मिट रही हैं । बुराइयां मिट ही नहीं सकतीं । उपासना धर्म में वह शक्ति है ही नहीं कि वह बुराइयों को मिटा दे । आध्यात्मिक धर्म में वह बल है कि वह बुराइयों को मिटा सकता है । पर आज लोग धार्मिक अधिक हैं, आध्यात्मिक कम । सारे व्यक्ति आध्यात्मिक बन जाएं, यह कभी संभव नहीं है । उनका प्रतिशत कम ही Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैतिकता : क्या ? कैसे ? | १९५ रहेगा | उपासना धर्म को मानने वाले शत-प्रतिशत हो सकते हैं, पर अध्यात्मधर्म में ओतप्रोत होने वाले कम ही होंगे । बहुत लोग यह मानते हैं कि गरीब आदमी या गरीब देश ज्यादा अनैतिक होता है । किन्तु गहराई से सोचने पर यह बहुत स्पष्ट प्रतीत होने लगता है कि गरीब आदमी जितना ईमानदार होता है उतना धनी आदमी नहीं होता। जैसे-जैसे धन बढ़ता है वैसे-वैसे बेईमानी भी बढ़ती ही जाती है । कोई गरीब यदि बेईमानी करता है, हेरा-फेरी करता है तो वह अल्प पैमाने पर होती है, किन्तु बड़ी आदमी जब बेईमानी करता है तो उसकी लपेट में अनेक व्यक्ति आ जाते हैं। आज यदि भारत का सर्वेक्षण किया जाए तो पता चलेगा कि गरीब जितना ईमानदार है, उतना धनी ईमानदार नहीं है । एक गरीब चाय वाले के यहां तीन युवक चाय पीने आए | चाय पी और चले गए। पैसे नहीं दिए । जाते-जाते वे ट्रांजिस्टर वहीं छोड़ गए । चायवाला लगंडा था । वह उस ट्रांजिस्टर को ले उनको खोजते-खोजते स्टेशन पहुंचा । उन युवकों ने ट्रांजिस्टर लिया और चाय के पैसे नहीं चुकाए । गाड़ी चली गई । ऐसी घटनाएं, एक नहीं अनेक, प्रतिदिन घटती रहती हैं। हमारा अनुभव है कि गरीब के साथ असदाचार का गठबंधन नहीं है। बाध्यता का प्रश्न आपवादिक होता है। फिर प्रश्न होता है कि असदाचार और अनैतिकता का कारण क्या है ? इसके समाधान में कहा जा सकता है कि इसमें दो कारण मुख्य हैं—मौलिक मनोवृत्ति और व्यवस्था । लोभ मनुष्य की मौलिक मनोवृत्ति है । भगवान् महावीर ने बहुत वैज्ञानिक बात कही-'जहां लाहो तहा लोहो'-जैसे-जैसे लाभ बढ़ता है, लोभ भी बढ़ता जाता है । यह बहुत मूल्यवान् तथ्य है । यह न माने कि लाभ बढ़ जाने मात्र से लोभ समाप्त हो जाएगा । ईंधन अग्नि को उद्दीप्त करता ही है । ईंधन से अग्नि बुझती नहीं, प्रज्वलित होती है | आदमी एक गलत धारणा को लिये जी रहा है कि भोग भोगने से शांत होते हैं । भोगों का उपभोग शांति का मार्ग नहीं है । अभोग से भोग मिटता है। भोग से भोग कभी शांत नहीं होता | भोग भोगने से भोग की ज्वाला और अधिक उद्दीप्त होती है । जैसे जैसे लाभ बढ़ता है, लोभ भी बढ़ता जाता है । मौलिक मनोवृत्ति है लोभ | जब तक लोभ रहेगा तब तक असदाचार Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता को समाप्त नहीं किया जा सकता | कोई जिज्ञासा कर सकता है कि यह नियम केवल भारत के लिए ही है या यह सार्वभौम नियम है ? यह लोभ सार्वभौम नियम है । आज तक कोई भी राज्य-प्रणाली इसको नहीं मिटा पायी । साम्यवादी प्रणालियों ने मनुष्य के इस स्वभाव को बदलने का प्रयत्न किया, पर वे भी पूरी सफल नहीं हो सकी । लोभ के कारण वहां के व्यक्ति भी बड़ेबड़े घोटाले कर देते हैं । यह उन देशों की रिपोर्ट से पता चलता है। अधिकारियों ने यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया कि सब व्यवस्थाएं बदली जा सकती हैं, पर आदमी का स्वभाव नहीं बदलता । स्वभाव नहीं बदलने का अर्थ है कि उसकी मौलिक मनोवृत्ति को नहीं बदला जा सकता । लोभ मनुष्य की मौलिक मनोवृत्ति है । उसको बदलना कठिन है । उसका परिष्कार किया जा सकता है। भ्रष्टाचार के पनपने का दूसरा कारण है—व्यवस्था । जब तक व्यवस्था में सामंजस्य नहीं होता, तब तक भ्रष्टाचार नहीं मिटता और नैतिकता को पनपने का मौका नहीं मिलता । भात के संदर्भ में व्यवस्था का प्रश्न बहुत महत्त्वपूर्ण है । इसमें एक कारण है एकाधिकार । आज ऐसी स्थिति बन गई है कि हास्पिटल में भर्ती करना है तो रिश्वत देनी होगी । रेलवे में टिकट लेना है तो रिश्वत देनी होगी। रिश्वत का कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है । यदि हास्पिटल और रेलवे की व्यवस्था व्यक्तिगत कंपनियों की होती है तो संभवतः ऐसी स्थिति न बने । किन्तु जहां एकाधिकार होता है, वहां ऐसी स्थिति का निर्माण अवश्यंभावी है । एकाधिकार की स्थिति में या तो बीमार बिना हास्पिटल में भर्ती हुए मर जाए, अपनी नैतिकता रखे या अनैतिकता का सहारा ले, रिश्वत देकर भर्ती हो जाए । वह नैतिक बने रहने के लिए या तो यात्रा स्थगित करे, रेल में आना-जाना बंद करे या फिर रिश्वत देकर टिकट खरीदे । जहां एकाधिकार होगा, एक व्यक्ति ही इतना शक्तिसंपन्न हो जाएगा कि वह जो चाहे सो करे, उस स्थिति में अनैतिक आचरण और अनैतिक व्यवहार को रोकने की दूसरी ताकत बचेगी ही नहीं । पुलिस या अन्य अधिकारी भी उसे बचा नहीं पाएंगे । यदि व्यापारियों का एकाधिकार होता है तो व्यापार में धांधली होगी । वे मनमानी करेंगे | वस्तुओं का अभाव पैदा कर देंगे । भाव बढ़ा देंगे । ये सारी व्यवस्थागत त्रुटियां हैं । ये भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन देती हैं। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैतिकता : क्या ? कैसे ? | १९७ मनुष्य की मौलिक वृत्ति का परिवर्तन और व्यवस्था का परिवर्तनये दो परिवर्तन नैतिकता को प्रस्थापित करने में समर्थ हैं । व्यवस्था के परिवर्तन की बात हमारे लिए सुलभ और हमारे अधिकार-क्षेत्र की परिधि की बात नहीं है। वह जनता के द्वारा चुने हुए राज्य प्रतिनिधियों के हाथ की बात है आज शासनतंत्र इतना मजबूत हो गया है कि वह हर व्यक्ति के जीवन में हस्तक्षेप करता है । व्यक्ति उसका पुर्जामात्र बना हुआ है । वह कुछ भी नहीं कर सकता । उसकी अपनी स्वतंत्रता नहीं है । तंत्र जैसा चाहता है, वैसा ही उसे करना पड़ता है | उसे वही पढ़ाना होता है, जो तंत्र चाहता है । एक ओर शासन की इतनी परतंत्रता, व्यवस्था की इतनी परतंत्रता कि चुने हुए प्रतिनिधि. जो चाहें वही करना है । चुनने वालों का अधिकार ही समाप्त है । इस स्थिति में व्यकिा कुछ भी नहीं कर सकता । यह उसके हाथ की बात नहीं है । तो व्यवस्था परिवर्तन हमारे अधिकार की बात नहीं है। दूसरा विषय है कि मनुष्य की मौलिक वृत्ति का परिष्कार करना हमारे वश की बात है । इस विषय में हम चिन्तन कर सकते हैं, प्रयत्न कर सकते हैं। यह हमारे अधिकार-क्षेत्र के अन्तर्गत आता है । लोभ मनुष्य की मौलिक मनोवृत्ति है । उसका परिष्कार हम कैसे करें? यदि हम यह परिष्कार करने में सफल हो जाते हैं तो हमारी जटिल समस्या शान्त हो जाती है । यदि यह नहीं होता है तो समस्याओं में अनावश्यक उभार आ जाता है। एक करोड़पति है | उसके पास धन बहुत है । उसे धन की इसलिए आवश्यकता है कि उसके लोभ ने अनेक कृत्रिम आवश्यकताएं पैदा कर दी हैं। उन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसे धन चाहिए । एक अरबपति से पूछा—तुम्हारे पास अपार धन है, फिर भी तुम रोज-रोज नयी फैक्टरियां खोल रहे हो, यह क्यों ? उसने कहा—महाराज ! आपने अर्थशास्त्र को नहीं पढ़ा है । एक कारखाने को चलाने के लिए, उसे फीड करने के लिए दूसरा कारखाना आवश्यक होता है । दूसरे को चलाने के लिए, फीड करने के लिए तीसरा और तीसरे को चलाने के लिए चौथा । यह क्रम चलता रहता है तब तो आर्थिक संतुलन बना रहता है, अन्यथा वह टूट जाता है । महाराज ! आप Know How को नहीं जानते । यह अर्थशास्त्र का रहस्य है । मैंने कहा-मैं तुम्हारे अर्थशास्त्र की बारीकियों को तो नहीं जानता Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता समझता, पर यह अवश्य जानता हूं कि इस व्यापार के विस्तार में तुम्हारे लोभ की वृत्ति बहुत काम कर रही है । इस मौलिक मनोवृत्ति को फीड करने के लिए क्या-क्या नहीं कर रहे हो, यह भलीभांति जानते हैं । 'नो हाऊ' नहीं जानते, पर 'नो हाऊ' को फीड करने वाली वृत्ति को जानते हैं । यह वृत्ति सब कुछ कराती है, जिसे नहीं करना चाहिए । मेरी दृष्टि में लोभ की समस्या पहले नम्बर की समस्या है और व्यवस्था की समस्या दूसरे नम्बर की समस्या है। पहले नम्बर की समस्या गरीब में भी है और अमीर में भी है । निर्धन में भी है और धनपति में भी है। भगवान् महावीर से पूछा-भंते ! छह खंडों का अधिपति चक्रवर्ती और एक चींटी-क्या दोनों परिग्रही हैं ? भगवान् ने कहा—हां, दोनों परिग्रही है । उसने कहा—सम्राट् परिग्रही है यह बात बुद्धिगम्य है, पर बेचारी चींटी जिसके पास अपना कुछ भी नहीं, वह परिग्रही कैसे ? बात समझ में नहीं आती । भगवान् ने कहा-सम्राट् के पास अपार वैभव है, पदार्थों का संग्रह है, चींटी के पास कुछ भी नहीं है यह दूसरे नम्बर की बात है । परिग्रह के संदर्भ में पहली बात है लोभ की वृत्ति | वह वृत्ति सम्राट और चींटी की बराबर है । दोनों उस वृत्ति से आक्रान्त हैं । अन्तर इतना ही है कि सम्राट् उस वृत्ति को रूपायित कर सकता है और चींटी वैसा कर नहीं सकती । सम्राट् में शक्ति है, चींटी में उसका अभाव है। बहुत महत्वपूर्ण बात कही भगवान् महावीर ने । गरीब हो या अमीरदोनों में लोभ की वृत्ति काम कर रही है । अन्तर इतना ही है कि अमीर साधनसंपन्न है, अनेक सुविधाओं का वह उपभोग करता है और लोभ को मूर्त रूप देता है । गरीब के पास कोई साधन नहीं है । वह अन्दर ही अन्दर उस वृत्ति का पोषण करता है । मौलिक मनोवृत्ति की दृष्टि से दोनों समान हैं। प्रश्न है कि हम उस मूल मनोवृत्ति का परिष्कार कैसे करें ? अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि ध्यान का प्रयोग परिष्कार को घटित कर सकता है । जैसे-जैसे हम भीतर में प्रवेश करते हैं, वैसे-वैसे चेतना का परिष्कार होता जाता है । चेतना पर क्रोध, अहंकार, लोभ, भय, ईर्ष्या, घृणा आदि वृत्तियों का आवरण है । ध्यान से यह आवरण शिथिल होता है, टूटता है, और चेतना अपने रूप में आ जाती है । यही परिष्कार की प्रक्रिया है Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैतिकता : क्या ? कैसे ? | १९९ और यही उसकी फलश्रुति है। यह प्रक्रिया दीर्घकालीन और निरन्तर की जाने वाली प्रक्रिया है। इससे ही परिष्कार घटित हो सकता है । दूसरा कोई विकल्प नहीं है । या तो हम यह कहना-मानना छोड़ दें कि भ्रष्टाचार बुरा है और यह कहने लगे कि भ्रष्टाचार स्वाभाविक है, या फिर हम इस प्रक्रिया में जुड़ें और तन-मन से इस प्रक्रिया में जुट जाएं । अन्यथा कुछ होना-जाना नहीं है । जैसे-जैसे लोग भ्रष्टाचार को बुरा बताते हैं, वह अपना पंजा वैसे-वैसे फैलाता जाता है । वह द्रोपदी का चीर बन रहा है । कहीं इसका अंत ही नजर नहीं आ रहा है । इस स्थिति में हमें यह निश्चित चुनाव करना होगा कि हम वास्तव में क्या चाहते हैं । क्या हम भ्रष्टाचार को वैसे ही पनपने देना चाहते हैं या उसकी गति को अवरुद्ध कर धीरे-धीरे उससे छुटकारा पाना चाहते हैं ? यदि हम उससे छुटकारा पाना चाहते हैं तो हमें उपाय करना होगा और वह उपाय ध्यान और अध्यात्म के अतिरिक्त और कुछ नहीं होगा। भ्रष्टाचार से लड़ने से भ्रष्टाचार नहीं मिटेगा । वह मिटेगा परिष्कार से । भूत से लड़ो, वह भूत शतगुणित शक्ति से पुनः प्रहार करेगा । भूत के समक्ष शान्त रहो, भूत की शक्ति क्षीण हो जाएगी। यक्ष ने सुदर्शन पर मुद्गर से प्रहार करना चाहा । सुदर्शन अहिंसा की भावनाओं में ओतप्रोत हो शान्त खड़ा रहा । क्षणभर में यक्ष वीर्यशून्य हो गया । उसके हाथ से मुद्गर गिर पड़ा । उसका आवेश समाप्त हो गया । हम वृत्तियों के परिष्कार में आस्था जमाएं और उस आस्था का धीरेधीरे क्रियान्वयन करें । हम सुखी होंगे और आने वाली पीढ़ी, इन सारी समस्याओं से मुक्त होकर ही सुख की सांस ले सकेगी । हम नैतिकता और अनैतिकता का चिन्तन सतही स्तर पर न करें, गहरे में उतरकर चिन्तन करें । मैं यह मानता हूं कि अनैतिकता, भ्रष्टाचार और असदाचार की समस्या ऐसी नहीं है, जिसका समाधान न हो सके । यह कोई असंभव बात नहीं है । बहुत संभव है । यह बीमारी असाध्य नहीं है, साध्य है, कष्टसाध्य हो सकती है। कुछ लोगों का यह तर्क आता है कि लोभ को मिटाने का अर्थ है, जो है, उसमें संतोष कर लेना । इस संतोष का परिणाम होगा गरीबी और कठिनाइयां । गरीबी और कठिनाइयां संतोष के परिणाम नहीं हैं । हम गलत चिन्तन Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता के कारण एक-दूसरे के परिणामों में संश्लेष कर देते हैं, जोड़ देते हैं एक दूसरे के साथ । संतोष के ये परिणाम हो नहीं सकते । संतोष का अर्थ यह नहीं है कि हम कठिनाइयों को भुगतें । संतोष आन्तरिक वृत्ति है और लोभ बाह्य वृत्ति है । लोभ सर्वथा त्याज्य है, ऐसा मैं नहीं कहता | गृहस्थ जीवन के लिए वह एक मात्रा तक आवश्यक होता है । यह सापेक्ष बात है । एक कवि ने कहा है-'असन्तुष्टो द्विजो नष्ट: सन्तुष्टश्चापि पार्थिवः'- ब्राह्मण यदि असंतोष को पालता है तो वह नष्ट हो जाता है और राजा यदि संतोषी होता है तो वह भी नष्ट हो जाता है । यह सारा कथन सापेक्ष है | आदमी को जीवन-निर्वाह के लिए अनेक वस्तुएं चाहिए और यदि वह संतोष को धारण कर यह कहे कि मैं न खेती करूंगा, न व्यापार करूंगा, न कुछ अर्जन करूंगा तो यह संतोष नहीं अकर्मण्यता मानी जाएगी । हम यहां अकर्मण्यता की चर्चा नहीं कर रहे है । लोभ एक संवेग है। मनोविज्ञान की भाषा में वह एक मोशन है । एक सीमा तक यह सामाजिक जीवन का उपयोगी तत्त्व माना जाता है | सभी संवेग अलग-अलग सामाजिक परिस्थितियों में अच्छे-बुरे बनते हैं । क्रोध एक संवेग है । वह बुरा है | पर बच्चे को सुधारने की भावना से लोग बुरा नहीं मानते । इस परिस्थिति में क्रोध को भी अच्छा मान लिया गया । यही बात लोभ के विषय में है । हम कहते हैं कि लोभ बुरा है, इसका तात्पर्य भी सापेक्ष है । आवश्यकता से अतिरिक्त अर्जन की जो मनोवृत्ति है, उसमें काम करने वाला लोभ अच्छा नहीं माना जाता । उस स्थिति में लोभ बुरा बन जाता है । संतोष अच्छा है पर उसकी भी अपनी सीमा है । अकर्मण्यता और संतोष एक नहीं है । ये दोनों दो हैं । संपन्नता और विपन्नता—यह लोभ और संतोष के परिणाम नहीं हैं । इसे हम कर्मण्यता और अकर्मण्यता का परिणाम मानें तो अच्छा है। इसे हम अवसर-प्राप्ति और अवसर-अप्राप्ति मानें तो अच्छा है। आज सत्ता का लोभ सीमा पार कर गया है । प्रत्येक व्यक्ति एक दौड़ में भाग लेना चाहता है । वह मानता है कि सत्ता है तो सब कुछ है । सत्ता नहीं है तो कुछ भी नहीं है । एक व्यंग्य है । परिवार नियोजन के अधिकारी एक राजनेता के यहां गए । उसके पांच सन्तानें थीं । अधिकारियों ने परिवार नियोजन के लिए कहा । उसने कहा—मैं समझता हूं और इसे अच्छा मानता Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैतिकता : क्या ? कैसे ? | २०१ हूं। पर एक ज्योतिषी ने कल ही कहा है—'आपकी नौवीं सन्तान मंत्री बनेगी। मैं इसी आशा को लिये बैठा हूं।' यह सत्ता का लोभ अवचेतन मन में इतना गहरा उतर गया है कि व्यक्ति सात पीढ़ी की बात सोच लेता है । सत्ता का लोभ केवल व्यर्थता का सूचक है । उसकी सार्थकता बहुत नहीं है | नीतियां दो प्रकार की होती हैं. अल्पकालीन नीति और दीर्घकालीन नीति । हम दीर्घकालीन नीति के आधार पर सोचें कि यदि हमारा प्रयत्न परिष्कार की दिशा में चलता है तो उसका तात्कालिक बड़ा परिणाम न भी आए, पर वह दीर्घकाल में वटवृक्ष बन जाएगा। आने वाली पीढ़ी उससे बहुत लाभान्वित होगी । यह प्रक्रिया इतनी द्रुतगामी नहीं है, पर है लाभप्रद । हम दीर्घकाल में मिलने वाले लाभों को नजर-अन्दाज न करें । वर्तमान में सुधार करते चलें, आगे अच्छी पृष्ठभूमि का स्वतः निर्माण हो जाएगा। इससे आस्था को बल मिलेगा । आस्था जब टूट जाती है तब मन को टिकने के लिए कोई आलंब ही नहीं प्राप्त होता । आस्था बढ़ती है तो आदमी ऊपर उठता जाता है । मूल प्रश्न है आस्था के निर्माण का । परिष्कार में हमारी आस्था बने । प्रसिद्ध इतिहासकार टायनबी ने लिखा है....मनुष्य के समक्ष दो विकल्प हैंआस्थाहीन रोटी या रोटीहीन आस्था । आस्थाहीन रोटी से मनुष्य का समाधान नहीं होगा । रोटीहीन आस्था से भी समाधान प्राप्त नहीं होता । हमें विकल्प यह खोजना है कि रोटी भी मिले और आस्था भी मिले । यह तीसरा विकल्प बहुत महत्त्वपूर्ण है। उपसंहार की भाषा में मैं कहना चाहूंगा कि उपासनात्मक धर्म से भ्रष्टाचार का कोई संबंध नहीं है | उपासनात्मक धर्म से भ्रष्टाचार को रोका नहीं जा सकता । भ्रष्टाचार को रोकने का एकमात्र उपाय है आध्यात्मिक धर्म का आचरण | आध्यात्मिक व्यक्ति कभी भ्रष्टाचार नहीं कर सकता । उपासनात्मक धर्म का आचरण करने वाला व्यक्ति भ्रष्टाचार से सर्वथा बच जाता हो, ऐसा नहीं लगता । हम आध्यात्मिकता को पनपाने का प्रयत्न करें, भ्रष्टाचार स्वतः मिट जाएगा। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शक्ति-संवर्धन का माध्यम : अणुव्रत आदमी परिवर्तन की बात दीर्घकाल से सोचता आ रहा है । वह अपने स्वभाव को बदलने के लिए लंबे समय से तत्पर है, सक्रिय है, और उस दिशा में प्रयत्न भी कर रहा है । स्वभाव को बदलने के लिए अनेक तथ्य खोजे गए । उनमें एक तथ्य है भावना का प्रयोग, संकल्प व्रत का प्रयोग । व्रत अध्यात्म जगत् की एक महत्त्वपूर्ण शक्ति है | आदमी में संकल्प की शिथिलता दो कारणों से हुई है । एक कारण है चित्त की चंचलता और दूसरा कारण है इन्द्रियों का असंयम । मैं मानता हूं कि सभी व्यक्ति एकाग्र नहीं बन सकते और सबका चित्त समाहित नहीं हो सकता । चित्त की चंचलता रहती है, इन्द्रियों का असंयम भी पूरा नष्ट नहीं होता, रहता है। किन्तु इन्द्रियों पर संयम पाना प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है और उस व्यक्ति के लिए तो नितान्त आवश्यक है जो अपना जीवन शांति और सुख से जीना चाहे | चाणक्य ने अपने राजनीतिशास्त्र में बताया है कि राजा के लिए यह अत्यन्त जरूरी है कि वह इन्द्रियों का संयम करे । यदि राजा इन्द्रिय-संयम को नहीं साधता है तो प्रजा उससे विपरीत हो जाती है और राज्य नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है । राजा साधु या संन्यासी नहीं है । वह विलासी है, भोगी है, फिर भी उसके लिए इन्द्रियों का संयम नितान्त आवश्यक है । जिन-जिन राजाओं ने इन्द्रियसंयम को नकारा, उनका राज्य नष्ट हुआ और वे स्वयं नष्ट हो गए । जिन राजाओं ने संयम के साथ जीवन जीया, वे सुखी रहे । उनकी प्रजा सुखी रही, राज्य में संपन्नता बढ़ी और चारों ओर खुशहाली रही । - भावना या संकल्पशक्ति के हास का मूल कारण है इन्द्रियों का असंयम | जब इन्द्रियां उच्छंखल होती हैं तब संकल्प का बल क्षीण हो जाता है । वह ऐसा प्रपात बनता है कि पानी नीचे की ओर ही बहता जाता है । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शक्ति-संवर्धन का माध्यम : अणुव्रत / २०३ संकल्पशक्ति के हास का दूसरा कारण है चित्त की चंचलता | जब चित्त स्थिर नहीं रहता, तब संकल्प का बल बनता ही नहीं। संकल्प तब बनता है जब चित्त कहीं एकाग्र हो । सुबह संकल्प किया, मध्याह्न में टूट गया । विचार बदल गया । चित्त में इतने विकल्प आ गए कि संकल्प की बात बह गई । आदमी इस स्थिति में दिन में पचास बार संकल्प करता है और पचास बार तोड़ता है। चित्त की चंचलता और इन्द्रियों के असंयम से निपटने के लिए व्रत बहुत महत्त्वपूर्ण है । व्रत की साधना एक खुले दरवाजे को बन्द करने की साधना है | जब दरवाजा खुला होता है तब आंधी भी आ सकती है, रेत और कूड़ा-करकट भी आ सकता है । खुला दरवाजा अव्रत है, बंद दरवाजा व्रत है । ऊपर छत नहीं है तो वर्षा भी आएगी, आंधी भी आएगी, आदमी पानी से भीगेगा, धूल से मटमैला होगा । उसने कमरा बनाया, छत बनाई, पास की दीवारें और दरवाजे बनाए । अब वह न पानी से भीगता है और न धूल से मलिन होता है । खुला आकाश अव्रत है और बंद आकाश व्रत व्रत का अर्थ है—आच्छादन करना । आदमी की आकांक्षाएं और लालसाएं जो खुली पड़ी हैं, उन्मुक्त हैं, उनको ढक दिया, उन पर आवरण डाल दिया, यह व्रत है । व्रत की परम्परा भारतीय जीवन में बहुत महत्त्वपूर्ण रही है । व्रतों के कारण आदमी अनेक बुराइयों से बचता रहा है | व्रत के विकास से संकल्पशक्ति का विकास होता है, यह स्पष्ट है । जीवन में परिवर्तन घटित करने के लिए संकल्पशक्ति का महत्त्वपूर्ण योग रहता है | जैसे ध्यान का प्रयोग परिवर्तन का हेतु बनता है, वैसे ही भावना और संकल्प का प्रयोग भी परिवर्तन का हेतु बनता है । आदमी बदलता है । बदलने के लिए दो स्थितियां अपेक्षित होती हैं। एक है सम्मोहन और दूसरी है बल-संवर्धन । भावना का प्रयोग सम्मोहन की प्रक्रिया है । एक सुझाव दिया जाता है और व्यक्ति द्वारा सम्मोहित हो जाता है । सम्मोहन का प्रयोग स्वयं के द्वारा स्वयं पर भी किया जाता है । यह आत्मसम्मोहन की प्रक्रिया है । इसे आटो-सजेशन कहा जाता है । यह भावना का प्रयोग है । इसमें भीतर परिवर्तन घटित होने लगता है । भावना के द्वारा हम Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता जिसका बीज - वपन करते हैं, वह जाने-अनजाने अंकुरित हो जाता है। हमारे चेतन मन में जितनी शक्ति है, उससे हजार गुनी शक्ति है अवचेतन मन में । सुप्तावस्था में अर्थात् चेतन मन की निष्क्रिय अवस्था में जो भावना हमारे भीतर प्रवेश करती है, वह हमें सम्मोहित करती है और अवचेतन मन अपने आप सक्रिय हो जाता है और वह क्रिया संपन्न हो जाती है । भावना का प्रयोग सम्मोहन का प्रयोग है । हम संकल्प का प्रयोग करें। संकल्प को पूरी अवस्था और आत्मविश्वास के साथ दोहराएं | हमें अनुभव होगा कि असंभव लगने वाली बात संभव बनती जा रही है । एक बार भारत के एक राजा ने अपने अधिकारियों को बुलाकर कहातुम चीन देश में जाओ और इस रहस्य को ज्ञात करो कि भारत के राजा अल्पायु क्यों होते हैं और चीन के राजा दीर्घायु क्यों होते हैं ? उनके आयुष्य में इतना बड़ा अन्तर क्यों है ? अधिकारी वर्ग यहां से चला, चीन पहुंचा । राजा के पास जाकर अपने आगमन का प्रयोजन बताते हुए कहा कि हमारा सम्राट् आपकी दीर्घायु का रहस्य जानना चाहते हैं, आप हमें बताएं। चीन के राजा ने कहा – बताऊंगा, पर आज नहीं, कुछ दिनों बाद । आप सब मेरे अतिथिगृह में ठहरें । उस अतिथिगृह के ठीक सामने एक बरगद का बड़ा वृक्ष है । उस वृक्ष के पत्ते जब सूख जाएंगे, एक भी पत्ता हरा नहीं रहेगा, उस दिन मैं आपको रहस्य बता दूंगा । तब तक आपको प्रतीक्षा करनी होगी । अब उस समय से पूर्व आप अपने देश नहीं जा सकेंगे । अधिकारियों ने सुना । वे अवाक् रह गए। उन्होंने मन-ही-मन सोचा - कहां फंस गए | बरगद का हरा-भरा वृक्ष ! इतने पत्ते ! वे कब सूखेंगे और कब हम अपने देश जाएंगे ! कब हम अपने पारिवारिकजनों से मिल पाएंगे ! काल की सीमा नहीं । असीम काल ! कैसा झंझट ! सभी अधिकारी अतिथिगृह में चले गए । उन्होंने देखा, बरगद का बहुत विशाल वृक्ष हरे-भरे पत्तों से लहलहा रहा है । वे रोज बरामदे में बैठ जाते । सबकी दृष्टि बरगद पर टिक जाती। वे सोचते, इस बरगद के पत्ते कब सूखेंगे और कब हमें यहां से मुक्ति मिलेगी। यह बरगद का वृक्ष हमारे लिए शत्रु का काम कर रहा है | जल्दी क्यों नहीं सूख जाता ! वे अधिकारी प्रतिदिन Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शक्ति-संवर्धन का माध्यम : अणुव्रत / २०५ यह भावना करते और सोचते—सत्यानाश हो इस वृक्ष का, जल्दी सूखकर लूंठ बन जाए तो अच्छा है । क्यों नहीं उसमें आग लग जाती ! सब पत्ते झड़ क्यों नहीं जाते ! उनके मन में रात-दिन एक ही भावना, एक ही संकल्प । कुछ दिन बीते । देखते-देखते वह हरा-भरा विशाल बरगद का पेड़ सूख गया । पत्ते सूखकर झड़ गए । टहनियां टूट-टूटकर नीचे गिर पड़ीं । स्कंधमात्र रहा । वह श्रीहीन हो गया । ' अधिकारी लोग प्रसन्न हुए । वे चीन के सम्राट के पास जाकर बोलेसम्राट् ! अब हम भारत लौटना चाहते हैं । आपकी शर्त पूरी हो गई । अब आप हमें रहस्य बताएं और हमारी यात्रा का इन्तजाम करें । सम्राट बोला--अभी तक रहस्य समझ में नहीं आया ? गहराई से सोचा नहीं तुमने । तुम सबने देखा कि एक महीने पहले बरगद का जो पेड़ हराभरा था, हरे पत्तों से लहलहा रहा था, आज वह सूखकर लूंठ बन गया है । इसका कारण तुम लोगों ने नहीं पकड़ा । तुम सब प्रतिदिन इसके विनाश की भावना करते थे, संकल्प करते थे। उस भावना के पमाणुओं ने इस पर असर किया और यह आज लूंठ बन गया । इसी प्रकार भारत के राजा ऐसे काम करते हैं कि प्रजा की बद्दुआ उन्हें मिलती है और हम यहां ऐसे काम करते हैं कि हमारी प्रजा हमें सदा अच्छी दुआ देती है । हम निरंतर प्रजा का हित साधने की बात सोचते हैं और इसलिए जनता की हमारे प्रति शुभभावना रहती है । इसी शुभ-भावना और अच्छी दुआ के कारण हमारे देश के राजा दीर्घायु होते हैं और बदुआ और अशुभ-भावना के कारण भारत के राजा अल्पायु होते हैं। भावना का प्रभाव चेतन मनुष्य पर ही नहीं, अचेतन जड़ वस्तुओं पर भी होता है । संकल्प का प्रभाव अचूक होता है । प्रतिदिन आस्थापूर्वक किया जाने वाला संकल्प असंभव को सम्भव बना डालता है | आदमी जान नहीं पाता कि यह सब कैसे घटित हो गया, पर घटित होता अवश्य है । आज के मनोचिकित्सक सजेशन और आटोसजेशन का प्रयोग करते हैं और उन्हें सफलता मिलती है । यदि आदमी प्रतिदिन यह भावना करता है कि मैं बीमार हूं, बीमार हूं, बीमार हूं, तो वह बीमार न होते हुए भी बीमार हो जाएगा। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता इसी प्रकार एक व्यक्ति यदि यह भावना करता है कि मैं स्वस्थ हूं, मैं स्वस्थ हूं, मैं स्वस्थ हूं तो वह स्वस्थ होने लगता है। संकल्प शक्ति और भावना का विकास—यह व्रत का महत्त्वपूर्ण अंग है । व्रत का अर्थ है—अपनी संकल्प शक्ति को इतना मजबूत बना लेना कि चाहे जैसी परिस्थिति आ जाए, परिस्थिति को भले ही झुकना पड़े, अपने आपको न झुकाए । व्रत की यह आस्था है । भारतीय साहित्य में ऐसे हजारों व्यक्तियों के जीवन प्रमाणभूत हैं जिनके सामने परिस्थितियों ने घुटने टेक दिए, व्यक्तियों का बाल भी बांका नहीं हुआ । सम्राट सिकंदर विजय का अभियान पूरा कर अपने देश लौट रहा था । एक साधक के विषय में सुना और वह वहां गया । साधक अपने में मस्त था । बैठा रहा । सम्राट् ने कहा—देखो ! तुम्हारे सामने विजेता सम्राट् सिकंदर खड़ा है । साधक बोला—मुझे क्या, खड़ा होगा । सम्राट बोला-नहीं जानते तुम कि मेरे पास कितना वैभव है, कितनी सत्ता है, कितना सैन्यबल है ! 'होगा, मुझे क्या !' 'तुम मेरे साथ मेरे देश चलो । वहां तुम्हें सब सुविधाएं दूंगा।' 'मैं नहीं चल सकता ।' 'चलना होगा तुम्हें । एक सम्राट् की आज्ञा है ।' 'नहीं चलूंगा और हरगिज नहीं चलूंगा ।" 'आज्ञा का उल्लंघन करने का परिणाम होता है मौत, जानते हो तुम? नहीं देखते मेरी चमचमाती तलवार को, जिसने हजारों को मौत के घाट उतार डाला ।' ___ 'मैं तो कभी का मर चुका । मैं तो मरा हुआ ही हूं | आत्मा अमर है । उसे कोई नहीं मार सकता । मरे हुए शरीर को मारने में ही तुम समर्थ हो । मुझे इससे क्या ? सम्राट सिकंदर ने देखा, जो व्यक्ति मौत से नहीं डरता, मौत की परिस्थिति उत्पन्न कर देने पर भी जिसका एक रोम भी प्रकंपित नहीं होता, वहां सम्राट् क्या कर सकता है ! सम्राट् आगे बढ़ा और साधक के पैरों में झुक गया । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शक्ति-संवर्धन का माध्यम : अणुव्रत / २०७ (जिस व्यक्ति में अभय की चेतना जाग जाती है, व्रत और संकल्प की चेतना का जागरण हो जाता है, उस व्यक्ति को कोई शक्ति नहीं झुका सकती। ऐसी एक नहीं, हजारों-हजारों घटनाएं भारतीय साहित्य में लिखी पड़ी हैं। प्रत्येक धर्म-परंपरा का इतिहास व्रतों का और संकल्पशक्ति के विकास का इतिहास है । ऐसी एक भी धर्म-परंपरा नहीं होती, जिसमें किसी-न-किसी रूप में व्रतों का विकास न हो या संकल्पशक्ति के विकास की प्रेरणा न हो । अमेरिका से एक व्यक्ति यहां आया । वह पहले ईसाई धर्म का अनुयायी था, फिर वह इस्लाम धर्म का अनुयायी हो गया । ध्यान की परपंरा का अध्ययन करने वह तुलसी अध्यात्म नीडम् में आया । उसके संकल्प को हमने देखा। मुसलमान रोजा करते हैं अमुक महीने में | किन्तु वह व्यक्ति प्रतिदिन रोजा करता था । वहां ज्येष्ठ में भयंकर गर्मी पड़ती थी। फिर भी वह व्यक्ति दिन में न खाना खाता और न ही पानी पीता | वह पूरे दिन व्यस्त रहता | या तो वह प्रेक्षाध्यान की चर्चाएं करता, ध्यान करता या अन्यान्य दार्शनिक तत्त्वों की चर्चा करता | हमें स्वयं को आश्चर्य होता कि बिना पानी पीए, यह भयंकर गर्मी में कैसे रह पाता है ! पर उसका संकल्प बल अटूट था । प्रत्येक धर्म में संकल्पशक्ति के विकास तथा व्रतों के विकास की प्रेरणाएं रही हैं और आज भी हैं। ____ आचार्य तुलसी ने अणुव्रत आन्दोलन का प्रवर्तन किया । उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि वर्तमान में भारतीय जनता धर्म के व्रतात्मक रूप को विस्मृत कर उपासनात्मक धर्म को अपनाए हुए है । उपासना धर्म का प्रमुख घटक बन गई । मैं स्पष्ट कह देना चाहता हूं कि मैं उपासना को व्यर्थ नहीं मानता, किंतु जब नींव कमजोर होती है तब छत का और दीवारों का इतना महत्त्व नहीं रहता । उपासना छत और दीवारों का काम कर सकती है, पर नींव का काम कभी नहीं कर सकती । नींव का काम करती है व्रतशक्ति या संकल्पशक्ति । आज ऐसा लगता है कि धार्मिक जगत् में संकल्प और व्रत की शक्ति का हास हुआ है और प्रतिदिन हास होता जा रहा है । आज सुखसुविधा का भाव बढ़ रहा है। अव्रत का भाव बढ़ता जा रहा है, उपासना का मार्ग मुक्त होता जा रहा है । उपासना का मार्ग मुख्य मार्ग नहीं था, गौण मार्ग था । वह सहायक मार्ग था । हमारी उद्देश्यपूर्ति में वह सहयोगी था, Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता पर चलते-चलते वह मुख्य बन गया । सहयोगी मुख्य बन गया और योगी गौण हो गया । योग और सहयोग, योगी और सहयोगी । एक योग और उसके साथ काम करने वाला सहयोग | पर योगी गौण होकर पीछे चला गया और सहयोगी मुख्य बनकर आगे आ गया । यह तो ऐसा ही कुछ हो गया है कि वर तो है नहीं, और बराती मुख्य बनकर कन्या विवाहने आ गए हैं । कैसा विचित्र संयोग ! एक वर नहीं है तो कुछ भी नहीं है । एक योगी नहीं है तो सहयोगियों की कतार से कुछ भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता । योगी और सहयोगी इनके प्रति हमारा दृष्टिकोण स्पष्ट होना चाहिए | हमारा अवबोध स्पष्ट होना चाहिए | योगी प्रथम रहे, सहयोगी द्वयं रहे । जब सहयोगी प्रथम बन जाता है और योगी द्वयं में चला जाता है तब सब-कुछ गड़बड़ा जाता है | वर के बिना कन्या किसके गले में वरमाला डाले ? एक वर नहीं है, बाराती अनेक हैं पर उनसे क्या हो ? गौण गौण होता है और मुख्य मुख्य । आज का भारतीय मानस सहयोगी तत्त्वों को पकड़े हुए है और योगी को विस्मृत किए हुए है । माला जपना, ईश्वर का नाम-स्मरण करना, सामायिक करना—ये प्रतिदिन किए जा रहे हैं, पर मूल योगी का कहीं अता-पता ही नहीं है । अणुव्रत आन्दोलन इसी आधार पर शुरू किया गया कि भारतीय मानस में यह विवेक जागृत हो कि जिसका प्रथम स्थान है उसे प्रथम स्थान दे और जिसका द्वयं स्थान है उसे द्वयं स्थान दे । स्थानों की व्यत्यय न कर । इसी में दोनों की सार्थकता है, अन्यथा दोनों व्यर्थ हो जाएंगे | अन्तर रहेगा । यह विवेक स्पष्ट होना चाहिए । स्थान का विवेक और मर्यादा न हो तो बड़ी कठिनाई पैदा हो जाती है । एक ब्राह्मण यात्रा कर रहा था । रास्ते में उसे रसोई बनानी थी। उसने एक स्थान चुना | उस स्थान को बुहारा, गाय के गोबर से लीपा और वस्तुएं लाने चला गया । इतने में उधर से एक गधा आया और पवित्र स्थान पर आकर बैठ गया । ब्राह्मण ने देखा कि उस लिपे-पुते स्थान पर गर्दभराज विराजमान हैं । वह गधे के समक्ष गया, हाथ जोड़कर बोला-महाशय ! यदि यहां कोई दूसरा आकर बैठता तो मैं कहता, बना-बनाया गधा है । पर अब मेरे सामने समस्या है कि आप खुद गर्दभराज आ गए हैं। आपको किस उपमा से उपमित करूं? दूसरे के लिए आपकी उपमा दी जाती है, पर आप तो Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शक्ति-संवर्धन का माध्यम: अणुव्रत / २०९ अनुपम है, आपको कौन-सी उपमा दूं ! जब स्थान या मर्यादा का परिवर्तन हो जाता है, किसी के स्थान पर कोई दूसरा आकर बैठ जाता है तब अनेक समस्याएं पैदा हो जाती हैं। इस समस्या का समाधान यही है कि जिसका जो स्थान हो उसे वही स्थान दिया जाए। भारतीय मानस में जो व्रत का स्थान है, उसे व्रत का स्थान दें और जो उपासना का स्थान है, उसे उपासना का स्थान दें । एक-दूसरे के स्थान का परिवर्तन न करें । व्रत का स्थान पहला होगा। उपासना का स्थान दूसरा होगा । उपासना व्रत का सहयोग करेगी, उसमें प्राण फूंकेगी, उसे शक्तिशाली बनाएगी | किन्तु वह व्रत की आत्मा नहीं बन सकती । व्रत की आत्मा का संबंध हमारी आन्तरिक चेतना से है और उपासना बाह्य चेतना को छूती है । अणुव्रत आन्दोलन का प्रवर्तन इसीलिए हुआ कि व्यक्ति व्रतों का वास्तविक मूल्य आंक सके और व्यक्ति में संकल्पशक्ति को जगा सके। आज व्रतों का और संकल्पशक्ति का मूल्य हमारी दृष्टि से ओझल हो चुका है, वह पुनः स्थापित हो और व्रत अपनी शक्ति की स्थापना करें । विदेश के कुछ अर्थशास्त्रियों ने भारतीय धर्मों पर यह आरोप लगाया था कि भारतीय धर्मों में नैतिक आचार-संहिता नहीं है। जहां अणुव्रत की आचार-संहिता विद्यमान है, फिर नैतिकता की आचार संहिता कैसे नहीं ? अणुव्रत आज का शब्द नहीं है । भगवान् महावीर ने अपने समय में गृहस्थ के लिए बारह व्रतों की आचार संहिता दी थी। उसमें अणुव्रतों का समावेश था ही। उन्हीं व्रतों को आधारभूत मानकर, आज अणुव्रतों की आचार संहिता आचार्यश्री ने प्रस्तुत की है । यह गृहस्थ के लिए पूरी आचार संहिता है । बुराइयों का इतिहास अच्छाइयों के इतिहास जितना ही पुराना है । प्राचीन काल में अच्छाइयां थीं, तो बुराइयां भी थीं। आज बुराइयां है तो अच्छाइयां भी हैं । मिलावट पहले भी होती थी, आज भी होती है । चाणक्य ने लिखा है— मछली पानी में तैरती है। संभव है वह आकाश में उड़ने लग जाए पर यह सर्वथा असंभव है कि राज्य कर्मचारी रिश्वत न लें । यह पुरानी बीमारी है । कोई भी बीमारी नयी नहीं होती । आदमी भी नया नहीं है । आदमी का स्वभाव भी नया नहीं है। हजारों-हजारों वर्षों से उसका इतिहास प्राप्त होता है। जो था, वह है । दो सौ वर्षों के पहले भी पिता पुत्र को कहता Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता सावधान रहना, जमाना बड़ा खराब है । आज भी यही शब्द सुनने को मिलता है और आगे भी यही ध्वनि मिल सकती है। मनुष्य की शाश्वत वृत्तियां कभी नहीं बदलतीं। पर हर युग में परिवर्तन की बात सोची जाती रही है और अनेक उपायों को खोजा जाता रहा है । इसी श्रृंखला में आज यह अणुव्रत आन्दोलन प्रस्तुत हुआ है । आदमी को बदलना है | परिस्थितियों और युग को बहाना बनाकर परिवर्तन से मुंह नहीं मोड़ना है । बदलने का प्रयत्न करना है । हमारा काम है प्रयत्न करना और कांटों को बुहारकर मार्ग को साफ करना । यदि रेगिस्तान का आदमी यह सोचे कि यहां तो रेत आती ही रहती है, आंधियां चलती ही रहती हैं, मैं क्यों रेत को साफ करूं, क्यों झाडूं दूं, तो सोचें क्या दशा होगी । वह धूलमय बन जाएगा | पर आदमी प्रयत्न में विश्वास करता है । वह प्रयत्न कभी नहीं छोड़ता । जितनी बार रेत आती है, आंधियां आती हैं, वह बुहारता है, साफसफाई करता है । ऐसा कभी नहीं हो सकता कि रेत आए ही नहीं, आंधियां चलें ही नहीं । रेत आएगी, बुहारी लगेगी, सफाई होगी । यही वास्तविक प्रक्रिया है । दोनों बराबर चलेंगे । रेत का स्वभाव है आना, आदमी का काम है सफाई करना । संक्रमणों और परिस्थितियों से आने वाले विचलनों को इगनोर न करें। उनके साथ आंख-मिचौनी न खेलें । उनकी सफाई करें, सफाई करते जाएं, रुकें नहीं । यदि यह मानकर बैठा जाए कि बुराइयां बहुत हैं, भयंकर प्रकोप है बुराइयों का, तो आदमी उनसे भयंकर रूप में ग्रस्त होता जाएगा | आदमी आदमी ही नहीं रहेगा | सारा समाज रुग्ण बन जाएगा। हमारी दृष्टि साफ रहे कि बीमारी आए, हम उसकी चिकित्सा करें । चिकित्सा कर उसे मिटा दें। बुराई आए तो उसका प्रतिकार करें | अणुव्रत उसी दिशा का एक संकेत है कि आज जो शिथिलता का मनोभाव बन गया, स्वार्थ और सुविधावादी मनोवृत्ति विकसित हो गई, उसका प्रतिकार किया जाए। जहां सुविधावादी मनोवृत्ति पनपती है, वहां व्रतों में विचलन आता है, व्रत की भावना फिसलने लग जाती है । तेरापंथ के आद्य-प्रवर्तक खड़े-खड़े प्रतिक्रमण करते थे । अवस्था सत्तर वर्ष की थी । किसी ने उन्हें सुझाया, आप बैठेबैठे प्रतिक्रमण करें | आचार्य भिक्षु ने कहा-मुझे सुविधावादी नहीं बनना है । कष्ट होता है तो भले हो । इससे मेरा संकल्प दृढ़ होता है | आज मैं Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शक्ति-संवर्धन का माध्यम: अणुव्रत / २११ इस अवस्था में खड़े-खड़े प्रतिक्रमण करता हूं तो आने वाली पीढ़ी बैठे-बैठे तो करेगी और कभी संकल्पशक्ति को विकसित करने का प्रयत्न तो करेगी । अणुव्रत सुविधावादी मनोवृत्ति के प्रति एक विद्रोह है । आदमी की मनोवृत्ति सुविधावादी हो, यह भिन्न बात है। आदमी को श्रम से नहीं कतराना चाहिए | कठिनाइयों के सामने उसे घुटने नहीं टिकाने चाहिए । वह सहिष्णु बने, घबराए नहीं । यदि यह शक्ति जागती है तो दुनिया की कोई भी ताकत T उसे परास्त नहीं कर सकती । जिस समाज के लोग श्रम से कतराने लग जाते हैं, श्रम को नीचा समझने लग जाते हैं, असहिष्णु बन जाते हैं, कष्टों से घबरा जाते हैं, वे स्वयं परास्त हो जाते हैं, मर जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं । व्रतों का जीवन संयम का जीवन है, कठोरता का जीवन है, सहिष्णुता का जीवन है, त्याग का जीवन है। इससे संकल्पशक्ति बढ़ती है। जिस व्यक्ति, समाज या राष्ट्र की संकल्पशक्ति दृढ़ होती है, उसे दुनिया में कोई नहीं जीत. सकता । वह अनेक बन जाता है । जिस व्यक्ति, समाज या राष्ट्र की संकल्पशक्ति कमजोर हो जाती है, उसको पराजित करने के लिए दूसरे व्यक्ति, समाज या राष्ट्र की आवश्यकता नहीं होती, वह स्वयं नष्ट हो जाता है । हिब्रू सम्राट् का सेनापति उदास बैठा था । पत्नी ने देखा । उसने पूछाइतने उदास क्यों ? कभी आपको इस प्रकार मुंह लटकाए बैठे नहीं देखा । आज क्या बात है ? उसने कहा- बहुत बुरा हो रहा है । युद्धक्षेत्र में मेरी सेना हार रही है । शत्रुसेना जीत रही है । यही मेरी उदासी का कारण है । पत्नी ने कहा- मैंने तो और ही कुछ सुना है। बहुत बुरा समाचार है | लोग कहते हैं कि सेनापति का मनः संकल्प टूट गया है । अब उनमें संकल्पशक्ति नहीं रही है । यह सबसे बुरा हुआ है। इसे सुनकर मैं भी व्यथित हूं । सेनापतिं सुना। उसका आहत पराक्रम जाग उठा । मर्म पर तीर लगा। वह रणक्षेत्र में गया। सैनिकों का साहस बढ़ाया । इतनी वीरता से लड़ा कि पराजय जय में बदल गई । भागते सैनिकों के पैर जम गए । ने संकल्प टूटता है तो सब कुछ टूट जाता है । संकल्प बल मजबूत है तो सब कुछ दृढ़ हो जाता है । हम अणुव्रतों का मूल्यांकन करें - इस दृष्टि से नहीं कि यह केवल व्रतों Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता की आचार संहिता है, किन्तु इस दृष्टि से करें कि यह जीवन की आधारभूत नींव है। प्रत्येक व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के लिए यह अत्यावश्यक है कि वह अपनी संकल्प शक्ति को बढ़ाए। वह उसका इतना विकास करे कि संकल्प के बल पर जीवन का प्रासाद इस प्रकार खड़ा हो कि प्रलयकाल के पवन का झोंका भी उसे प्रकंपित न कर सके, धराशायी न कर सके । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्ति और विश्व-शांति हमारे सामने सबसे छोटी इकाई है व्यक्ति और बृहत्तम इकाई है विश्व । व्यक्ति और विश्व-ये दो छोर पर दो बातें हैं । किन्तु दोनों में अन्तर-संबंध है । दोनों परस्पर जुड़े हुए हैं । व्यक्ति से भिन्न विश्व नहीं और विश्व से भिन्न व्यक्ति नहीं । व्यक्ति और विश्व दोनों एक संदर्भ में भी देखे जा सकते हैं। व्यक्ति की समस्याओं को छोड़कर विश्व की समस्याओं पर विचार नहीं किया जा सकता और विश्व की समस्याओं को छोड़कर व्यक्ति की समस्याओं पर विचार नहीं किया जा सकता | दोनों पर एक साथ विचार करना संभव है। यह बहुत सुन्दर सूत्र है कि-'यथा विश्वे तथा ब्रह्माण्डे'----जो विश्व में है वही ब्रह्माण्ड में है, विश्व और ब्रह्माण्ड, व्यक्ति और समष्टि, इसको सर्वथा बांटा नहीं जा सकता। प्रश्न है विश्व-शांति का | हम इस प्रश्न पर चिन्तन नहीं करते | हमारा कोई चिन्तन नहीं है । बड़ा आश्चर्य है, चिन्तन होना चाहिए । हिन्दुस्तान में ऐसी मनोवृत्ति बन गई कि व्यक्तिवादी चिन्तन ज्यादा चलता है, समष्टिवादी चिन्तन कम चलता है । विश्व-शांति पर आज प्रत्येक राष्ट्र में ऊहापोह और चिंतन चल रहा है। यहां बहुत कम चल रहा है जब कि यहां ज्यादा चलना चाहिए । जबकि यहां अहिंसा है, अध्यात्म है तो चिन्तन करना और ज्यादा जरूरी है । मार्गदर्शन मिल सकता है, एक प्रकाश मिल सकता है, किन्तु पता नहीं क्यों हम विश्व के संदर्भ में कुछ सोचना नहीं चाहते । निराशा हो सकती है कि हम क्या कर पाएंगे? हमारे पास कौन-सी शक्ति है ? प्रश्न कर पाने का नहीं है, नियन्त्रण शक्ति का नहीं है, प्रश्न है मानवीय भावना का, चेतना के जागरण का । अगर हमारी भावना उदात्त है, हमारी चेतना जागृत है तो Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता एक व्यक्ति का स्वर कभी-कभी समूचे जगत् को प्रकम्पित कर सकता है, समूचे संसार को बदल सकता है और नया मोड़ दे सकता है । हम निराश न हों । हम चिन्तन के मोड़ को बदलें, चिन्तन करना सीखें । बहुत जरूरी है चिन्तन करना सीखना । हम ठीक ढंग से सोचना नहीं जानते, चिन्तन करना नहीं जानते । जब हम व्यक्ति की समस्याओं पर चिन्तन करें तो साथ-साथ जागतिक समस्याओं पर भी चिन्तन करें और व्यक्ति की समस्याओं पर चिन्तन जागतिक समस्याओं के संदर्भ में ही करें । क्या आप सोचते हैं कि जगत् की समस्याएं तो एक ओर रहें, और हम व्यक्ति की समस्याओं का समाधान दे सकेंगे? कभी संभव नहीं लगता ।। कानपुर की घटना है । एक व्यक्ति आचार्यश्री के पास आकर बोलामेरे मन में एक सपना है कि गीता जैसा महान् ग्रंथ सुरक्षित रहे । आज बड़ा खतरा पैदा हो गया है । न जाने कब युद्ध छिड़ जाए और सारी दुनिया समाप्त हो जाए | गीता भी समाप्त न हो जाए। मैं चाहता हूं एक ऐसा भूगृह बनाऊं और ऐसी सुरक्षित पेटिका बनाकर उसमें गीता को रख दूं जिससे कि संसार समाप्त हो तो भी गीता बच जाए | बड़ा प्रश्न है, बड़ी कल्पना है । आचार्यश्री ने पूछ लिया—गीता तो बच जाएगी पर उसे पढ़ने वाला कोई बचेगा या नहीं बचेगा ? प्रश्न है—पढ़ने वाले का । पढ़ने वाला कोई नहीं रहा तो ग्रन्थ का कोई उपयोग नहीं रहा । हमारा चिन्तन यह हो कि आज क्या बचना चाहिए? चैतन्य हमारा बचना चाहिए । हमारा चैतन्य बचता है तो सारी बातें बच जाती हैं । चैतन्य समाप्त हो जाए, तो फिर सब कुछ बच जाए | कुछ भी नहीं होगा । आज के वैज्ञानिकों को भी यह सूझा है । उन्होंने ऐसे अस्त्रों का आविष्कार शुरू किया है नाइट्रोजन बम जैसे, जिससे कि मनुष्य मर जाएगा पर मकान वैसे के वैसे खड़े रहेंगे । भूमि वैसी की वैसी रहेगी । पदार्थ वैसे के वैसे रहेंगे । न सोना-चांदी नष्ट होगा न और कुछ, केवल आदमी मर आएगा, क्योंकि शत्रुता सारी मनुष्य के साथ है, पदार्थ के साथ नहीं है । मुझे लगता है, पदार्थवादी दृष्टिकोण का इससे बड़ा कोई उपक्रम नहीं हो सकता । जहां पदार्थवादी दृष्टिकोण होगा वहां पदार्थ को बचाने की प्राथमिकता दी जाएगी, चैतन्य को बचाने की प्राथमिकता नहीं मिलेगी । आज चैतन्य को प्राथमिकता Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्ति और विश्व-शांति / २१५ नहीं मिल रही है, सारी प्राथमिकता मिल रही है पदार्थ को । कल किसी भाई ने कहा कि एक फैक्टरी में नये यंत्र लग रहे हैं। बहुत बड़ा काम होगा । केवल पांच मनुष्यों की जरूरत होगी । सारा काम ओटोमेटिक होगा | बात सुनने में तो बड़ी अच्छी लगती है और पदार्थवादी दृष्टिकोण से देखें तो बहुत महत्त्वपूर्ण बात है | किन्तु चैतन्य की दृष्टि से देखते हैं तो इससे घटिया कोई बात हो नहीं सकती । इससे खतरनाक कोई बात हो नहीं सकती कि यहां सारा मनुष्य का काम यंत्र करेगा | मनुष्य निकम्मा बनेगा और यंत्र सक्रिय बनेगा । मनुष्य पैरों तले कुचला जाएगा । उसकी गरीबी बढ़ेगी | यंत्र की समृद्धि बढ़ेगी । यह मनुष्य जाति के लिए सबसे दुर्भाग्यपूर्ण घटना होगी । जहां मनुष्य का मूल्य कम होता है, वहां पदार्थ का मूल्य बढ़ जाता है | आज विश्व की अशांति का हेतु यही लग रहा है कि मनुष्य का मूल्य कम हो गया, पदार्थ का मूल्य बढ़ गया । विज्ञान ने बहुत गति की है, किंतु एक विपर्यय हो गया। विज्ञान और राजनीति का समीकरण होगा—सर्वनाश [ विज्ञान + राजनीति = सर्वनाश ] | जब विज्ञान राजनीति के साथ जुड़ेगा तो सर्वनाश के अतिरिक्त कोई समीरण नहीं हो सकता | होना यह चाहिए था कि विज्ञान + अध्यात्म तो समीकण होता-विकास । समीकरण होता-समृद्धि । समीकरण होता अमीरी । ( विज्ञान + अध्यात्म = विकास, समृद्धि ) लेकिन सब कुछ उल्टा हो गया । आज का सबसे बड़ा दोष है कि विज्ञान राजनीति के साथ जुड़ा हुआ है । ज्ञान बहुत खतरनाक बन जाता है जब वह राज्यसत्ता के चंगुल में फंस जाता है । शिक्षा और विज्ञान इन दोनों पर राज्यसत्ता का कोई अंकुश नहीं होना चाहिए, किन्तु आज सारी की सारी राज्यसत्ता उस पर अपना अधिकार जमाए हुए है । राज्यसत्ता के साथ शिक्षा जुड़ेगी और राज्यसत्ता के साथ वैज्ञानिक उपलब्धियां जुड़ेंगी तो फिर आणविक अस्त्रों के निर्माण के सिवाय और कोई कल्पना नहीं की जा सकती । ___आचार्य विनोबा भावे ने इस पर बहुत बल दिया था कि शिक्षा पर सरकार का अधिकार नहीं होना चाहिए । उसका स्वतंत्र अस्तित्व होना चाहिए | पर दुर्भाग्यवश आज शिक्षा और शिक्षक—सभी एक मंत्री की सिफारिश की टोह में रहते हैं । अपना निजी कोई अस्तित्व नहीं है । कारण Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता यह है कि सारा भाग्य का दायित्व मंत्रियों के हाथों में आ गया है। महावीर, बुद्ध आदि हिन्दुस्तान में हुए । उन्हें बड़े-से-बड़े वैज्ञानिक से ऊंचा वैज्ञानिक माना जा सकता है । क्या कारण है ? उन्होंने हिंसा की बात नहीं कही, उन्होंने पदार्थवादी दृष्टिकोण, सुख-सुविधावादी दृष्टिकोण को महत्त्व नहीं दिया । कारण क्या ? उनका अहिंसात्मक दृष्टिकोण था । वे राज्यसत्ता के इशारे पर नहीं चलते थे, राज्यसत्ता उनके इशारे पर चलती थी। आज का वैज्ञानिक भी बहुत प्रबुद्ध है | उसने सूक्ष्म सत्यों को खोजा है और रहस्यपूर्ण तथ्य प्रकट किए हैं । उसने परमाणु के रहस्य का उद्घाटन किया है जो सचमुच आश्चर्य में डाल देता है | पदार्थ की सूक्ष्मता में उसने प्रवेश किया है । प्रकाश को उसने उपलब्ध कराया है, अन्तरिक्ष को खोजा है, भूमि को खोजा है और मनुष्य के लिए अनेक द्रुतगति के साधनों का आविष्कार किया है। फिर क्या कारण है कि वे महावीर और बुद्ध की कोटि में नहीं आ सके ? इसीलिए नहीं आ सके कि उनका अपना कोई त्याग नहीं है, उनका अपना कोई संयम नहीं है । वे राज्य-सत्ता से जुड़े हुए हैं | उन पर राज्य-सत्ता का अंकुश है । राज्य-सत्ता जैसा चाहती है वैसा वैज्ञानिकों से करवाती है । जो वैज्ञानिक वैसा नहीं करते उनकी पदोन्नति होते-होते रुक जाती है | कहीं-के-कहीं उन्हें स्थानान्तरित कर दिया जाता है । राज्य-सत्ता के इशारे पर सारे-के-सारे चल रहे हैं । जब ज्ञान सत्ता के साथ जुड़ जाता है तो अशांति के अतिरिक्त और कोई कल्पना नहीं की जा सकती । ऐसा लगता है कि अधिकार और सत्ता ज्ञान-विज्ञान आदि सबको अपने पंजे में समेटे रखना चाहते हैं। हम शांति की चर्चा करें और विश्व-शांति की चर्चा करें पर इस बात को न भूलें कि मनुष्य में हिंसा का भाव है, क्रोध का भाव है, लालसा है पद की, प्रतिष्ठा की, वैभव की, समृद्धि की, साम्राज्य-विस्तार की लिप्साएं हैं। वह स्वयं सबसे बड़ा बनना चाहता है, अपने राष्ट्र को सबसे बड़ा बनाना चाहता है । जब ये सारी भावनाएं सक्रिय हैं, उस स्थिति में हम कल्पना करें कि विश्व-शान्ति हो सकेगी, बड़ा कठिन लगता है । विश्व-शान्ति की संभावना कैसे हो सकती है जब कि ये सारी भावनाएं मनुष्य में हैं ? एक ओर बड़ेबड़े राष्ट्र सारे संसार पर अपना अधिकार जमाना चाहते हैं। आज की लड़ाई, Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्ति और विश्व-शांति / २१७ आज का संघर्ष, आज का युद्ध बाजार का युद्ध है | आज का युद्ध विचार का युद्ध है । यानी बाजार पर अधिकार और विचार पर अधिकार—ये दोनों बातें सारे युद्ध और संघर्ष को जन्म दे रही हैं । प्रत्येक राष्ट्र चाहता है कि विश्व के बाजार पर हमारा अधिकार हो । कहीं अमेरिका और जापान की होड़ होती है, कहीं अमेरिका और जर्मनी की होड़ होती है। होड़ चल रही है बाजार पर अधिकार पाने की । कुछ राष्ट्र चाहते हैं, सभी राष्ट्रों में साम्यवाद फैले । उनका लक्ष्य संसार में साम्यवाद फैलाना है । तो यह विचार का संघर्ष और बाजार का संघर्ष, विचार और बाजार पर अधिकार पाने के लिए अणु का निर्माण—इस स्थिति ने पूरी मनुष्य जाति के सामने एक प्रश्न उपस्थित कर दिया कि विश्व-शांति पर चिंतन किया जाए । पुराने जमाने में भी लड़ाइयां चलती थीं । उस समय भी उत्तेजना, आवेग और लिप्साएं थीं । कोई नयी बात नहीं । आज ही हुआ हो ऐसा नहीं है । मनुष्य की सारी प्रकृतियां, ये सारी आदतें अतीत में भी चलती थीं, आज भी चलती हैं । पुराने जमाने में तो आदमी बहुत जल्दी गरमा जाता था और तलवार बहुत जल्दी निकल जाती थी, बात-बात में तलवार निकल जाती थी । भाई-भाई के ऊपर तलवार निकल जाती थी । पर विश्व पर अधिक असर नहीं होता था । छोटे-मोटे सामंत लड़ लेते, राजा लड़ लेते तो सौ-पचास मील के क्षेत्र में थोड़ा उसका असर होता । उससे सारा विश्व प्रभावित नहीं होता था, किन्तु आज विज्ञान के द्वारा इतने त्वरित गति के उपकरण और इतने त्वरित गति के वाहन निर्मित कर दिए गए हैं कि एक छोटी-सी घटना को सारा संसार अनुभव कर लेता है और उससे प्रभावित हो जाता है । पुराने जमाने में स्थानीय शान्ति का महत्त्व था, पर आज स्थानीय शान्ति का महत्त्व नहीं रहा । आज विश्व-शान्ति का महत्त्व हमारे सामने रह गया । यह बड़ी समस्या है | आज कहीं किसी भी व्यक्ति को थोड़ी उत्तेजना, थोड़ा आवेग आ जाए, थोड़ा पागलपन आ जाए तो क्या हो सकता है, कल्पना नहीं की जा सकती । एक के पागलपन से सारा भस्मसात् हो सकता है । उत्तेजना आती है, गर्म हो जाता है, ठंडा नही रहता, भान भी नहीं रहता । पति और पत्नी दोनों का योग होता है । पत्नी बहुत उत्तेजित, बहुत तेज । पति बेचारा बहुत शान्त । उल्टा योग मिल गया । जब-जब पति घर Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता में आता, पत्नी बड़ी क्रुद्ध होती, न जाने क्या-क्या कहती। एक दिन पति आया, आते ही पत्नी गालियां बकने लगी । वह बोली- यह भी कोई समय होता है, इतना विलम्ब कर दिया, इतनी देरी से आये हो - क्या मैं निकम्मी हूं, सारा भोजन ठंडा हो गया। मुझे भी खाना है। इतना कहा, इतना कहा— बेचारा सुनता रहा । पत्नी ने थाली परोसी और पति की ओर सरका दी । खाना ठंडा था । पति ने थाली उठाई, पत्नी के सिर पर रख दी। वह बोलीअरे, क्या कर रहे हो ? बोला - खाना ठंडा है थोड़ा गर्म कर रहा हूं क्योंकि अभी तुम्हारा सिर गरमाया हुआ है । आदमी में कितनी उत्तेजना होती है, कितना आवेग होता है, कितनी गरमाहट होती है कि भोजन ही क्या, आसपास का सारा वातावरण गरमा जाता है | अब ऐसी स्थिति में एक ओर इतनी उत्तेजना, इतना आवेग, इतनी अशांति तथा दूसरी ओर हम शान्ति की चर्चा करें तो यह कैसे संभव हो सकती है। जब तक मनुष्य बदलेगा नहीं, तब तक यह शांति की चर्चा बहुत कठिन है । जो सत्ता पर बैठे हैं उनका अपना दृष्टिकोण है और जो लोग सत्ता पर नहीं हैं, पूरा समाज है, मनुष्य जाति है, उसका अपना दृष्टिकोण है और अपना तर्क है । दोनों का मेल नहीं हो रहा है । जनता के दृष्टिकोण को सत्ता के आसन पर बैठे लोग नहीं समझ रहे हैं, यह एक बड़ी समस्या है। दुनिया में सौ-पचास लोग ऐसे हैं जो सारी अशांति के लिए जिम्मेदार हैं । इस स्थिति में जनता का कर्तव्य होता है कि अपने स्वर को इतना बुलन्द करे, अपनी आवाज को इतना शक्तिशाली बनाए कि सत्ता पर बैठे लोगों को वह स्वर सुनना पड़े। उनके कान में जूं रेंगे और उन्हें ध्यान देना पडे यह बहुत जरूरी है । राज्य का विस्तार, अपने विचारों का विस्तार और अधिकार का विस्तार, यह बहुत पुरानी मनोवृत्ति है। इसमें कोई संदेह नहीं । साम्राज्यवादी मनोवृत्ति कोई नयी बात नहीं है । एक जमाने में बुरा भी नहीं माना जाता था, किन्तु आज के प्रबुद्ध चिन्तन में साम्राज्वादी मनोवृत्ति हेय मान ली गई, वह उपादेय नहीं रही । पुराने जमाने में कोई सम्राट् अपने साम्राज्य का विस्तार करता, सैकड़ोंसैकड़ों राजाओं पर विजय पा लेता, उसकी गुणगाथा गायी जाती, 'कितना Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्ति और विश्व शांति / २१९ बड़ा सम्राट् है ।' सिकन्दर की विशेषताएं बताई जाती थीं, नेपोलियन की विशेषताएं बताई जाती थीं, नादिरशाह जैसे क्रूर शासकों की भी विशेषता बता दी जाती थी, कोई बुरा नहीं माना जाता था । यह अधिकार माना जाता था, कर्त्तव्य माना जाता कि जो राजा या जो सम्राट् अपने राज्य का विस्तार करता है, वह महान होता है, बड़ा होता है । किन्तु युग - चिन्तन में बहुत बड़ा परिवर्तन आ गया । आज मनुष्य जाति का चिन्तन इतना आगे बढ़ गया कि वैसी साम्राज्यवादी मनोवृत्ति को अच्छा नहीं समझा जाता । जो साम्राज्यवादी बने थे उन्हें अपने साम्राज्य का संकोच न करना पड़ा है, फैलाव वे नहीं कर सके । ब्रिटेन का कितना बड़ा साम्राज्य था । आज सिकुड़ गया । स्पेन का, फ्रांस का साम्राज्य सिकुड़ गया । जितने उपनिवेश थे सब समाप्त हो गए । जो कुछ बचे हैं, वे समाप्त होने की अवस्था में हैं। क्योंकि सारे संसार ने मान लिया कि यह साम्राज्यवादी मनोवृत्ति मनुष्य जाति के लिए हितकर नहीं है । और ऐसा करने वाला कोई बड़ा नहीं बनता, किन्तु दुनिया की नजरों में गिरता है | साम्राज्यवादी दृष्टिकोण तो बदल गया किन्तु दूसरा दृष्टिकोण पैदा हो गया । नया दृष्टिकोण जन्म गया । वह है — बिना भूमि को हड़पे, बिना शासन पर अधिकार जमाए परोक्षतः कान पकड़ लेना और 'द्राविडी प्राणयाम' करा लेना । एक नया फार्मूला सामने आया कि यहां न तो भूमि पर अधिकार, न शासन पर अधिकार किंतु अधिकार इतना कि शायद पुराने जमाने में भी नहीं होता था । साम्राज्यवादी लोग भी इतना नहीं करते थे । वैसे अधिकार की भावना का आज बहुत चतुराई और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ विस्तार हुआ है । खेमे बन गए । एक साम्यवादी देशों का खेमा, दूसरा पूंजीवादी देशों का खेमा – दो खेमे बन गए । या तो इस खेमे में आओ या उस खेमे में जाओ । अब दोनों को अपने - अपने खेमे को बचाना है । प्रश्न आया शक्ति-संतुलन का । शक्ति-संतुलन होगा तभी युद्ध नहीं होगा और शक्ति-संतुलन बिगड़ जाएगा तो युद्ध हो जाएगा । आज का बहुत महत्त्वपूर्ण और आश्चर्य पैदा करने वाला तर्क यह है कि शस्त्रों का निर्माण किया जा रहा है— शान्ति के लिए । पुराने जमाने में यह तर्क था कि शस्त्र का निर्माण होता है भय को मिटाने के लिए । भय है मनुष्य में और अपने भय को मिटाने के लिए वह शस्त्रों का निर्माण करता है । मनुष्य ने जिस Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता दिन पहला शस्त्र बनाया, चाहे पत्थर का बनाया, चाहे लोहे का बनाया, शस्त्र बनाया, डरकर बनाया । यदि आदमी डरा नहीं होता तो कभी शस्त्र का निर्माण नहीं करता । शस्त्र का अर्थ ही है कि डर को पालते रहना और साथ में लेकर चलना कि कभी कोई प्रहार न कर दे, कोई मार न दे, कहीं कोई चोट न पहुंचा दे । शस्त्र और भय दोनों पर्यायवाची हैं । यह बात तो समझ में आती है कि भय के कारण शस्त्र का निर्माण किया गया है | आज का तर्क है कि शान्ति के लिए शस्त्र का निर्माण किया जाता है | शक्ति-संतुलन का एक सिद्धान्त बन गया कि जब शक्ति-संतुलन है तो कोई युद्ध करने का साहस नहीं करेगा और शक्ति-संतुलन बिगड़ जाएगा तो संसार में युद्ध छिड़ जाएगा। एक प्रश्न उनसे पूछा जा सकता है कि शक्ति-संतुलन की बात भी हम मान लेते हैं, शान्ति के लिए शस्त्र के निर्माण की बात हम स्वीकार कर लेते हैं पर क्या पूरी मनुष्य जाति को नष्ट करने का अधिकार तुम्हें प्राप्त है, इसे भी हम स्वीकार कर लें ? या किसी भी राष्ट्र को यह अधिकार है कि पूरी मानव जाति को नष्ट कर दे ? हो सकता है, एक राष्ट्र अपने पड़ोसी राज्य को हड़प ले, उस पर अपना अधिकार जमा ले । बात समझ में आ सकती है कि यह मनुष्य की दुर्बलता है । पर क्या एक राष्ट्र दस-बीस करोड़ की आबादी वाला राष्ट्र, अरबों-खरबों मनुष्यों के भाग्य को हाथ में ले ले और पूरी मनुष्य-जाति को ही समाप्त कर दे ? यह अधिकार क्या उन्हें प्राप्त है ? बहुत बड़ा प्रश्न है । हमें इस प्रश्न पर विचार करना चाहिए और विश्व-शान्ति के संदर्भ में इस प्रश्न को उठाना चाहिए । भगवान् महावीर ने एक सूत्र दिया असंग्रह और अनाग्रह का । उसका फलित है अहिंसा | उसका समीकरण इस प्रकार होगा-असंग्रह + अनाग्रह = अहिंसा । आज असंग्रह और अनाग्रह-ये दोनों बातें भुला दी गई हैं । असंग्रह का विकास होता है तो बाजार पर अधिकार करने की बात कमजोर पड़ती है । अनाग्रह का विकास होता है तो विचार पर अधिकार करने की बात समाप्त होती है । ये दोनों बातें हमारे सामने हैं । इस दिशा में चिन्तन करें, सोचें और अपना दायित्व अनुभव करें । हर व्यक्ति यह अनुभव करे कि अगर आज विश्व में अशांति है तो उसका एक जिम्मेवार मैं भी हूं और विश्व में शान्ति का प्रचार होना चाहिए, उसमें एक आहुति मेरे विचार की भी लगनी चाहिए । इस प्रकार Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्ति और विश्व शांति / २२१ प्रत्येक व्यक्ति अपने दायित्व का अनुभव करे । विश्व शान्ति का प्रश्न किसी एक राष्ट्र का प्रश्न नहीं, किसी एक समाज का प्रश्न नहीं, किसी एक धर्म का प्रश्न नहीं, पूरी मानवजाति का प्रश्न है और पूरी मानवजाति का भाग्य उसके साथ जुड़ा हुआ है । इसलिए प्रत्येक व्यक्ति इस विषय पर चिन्तन करे, मनन करे, मन्थन करे और अपनी शक्ति का नियोजन करे और ऐसा वातावरण हिन्दुस्तान में भी निर्मित करे जिससे संसार के दूसरे देशों को भी यह सोचने का मौका मिले कि इतना बड़ा लोकतंत्रीय राष्ट्र विश्व शान्ति के पक्ष में अपने पक्ष को कितना प्रबुद्ध कर रहा है, इसलिए हमें भी इस विषय में चिंतन करना है । - Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैतन्य-जागरण का अभियान तेरापंथ एक अध्यात्म का प्रयोग है, चैतन्य जागरण का प्रयोग है । अध्यात्म का अर्थ है—मूर्छा को तोड़ना, मोह के व्यूह का भेदन करना । मूर्छा का एक चक्रव्यूह है । मोह जितना प्रगाढ़ होता है, उतना ही प्रगाढ़ होता है राग और द्वेष | राग और द्वेष जितने प्रगाढ़ होते हैं, उतने ही प्रगाढ़ होते हैं अहंकार और ममकार | अध्यात्म का अर्थ है—अहंकार और ममकार का विसर्जन । तेरापंथ का अर्थ है अहंकार और ममकार का विसर्जन । वैज्ञानिकों ने खोजा कि मूल तत्त्व क्या है ? दार्शनिकों ने इस विषय पर बहुत मनन किया । खोज की कि मूल तत्त्व क्या है ? किसी ने कहापानी मूल तत्त्व है । किसी ने कहा-अग्नि मूल तत्त्व है । मूल तत्त्वों के सम्बन्ध में पश्चिम तथा भारतीय दार्शनिकों ने अपनी-अपनी स्थापनाएं प्रस्तुत की । उनमें से पांच भूतों का विकास हुआ । वैज्ञानिक अभी तक मूल तत्त्व की खोज में हैं । खोज अभी भी चल रही है ! आचार्य भिक्षु ने भी सोचा, इस समस्या का, दुःख के चक्र का मूल कारण क्या है ? उन्होंने बताया कि मूल कारण है राग । राग और द्वेष ये दो माने जाते हैं । पर आचार्य भिक्षु ने द्वेष पर विशेष बल नहीं दिया । क्योंकि वह मूल बात नहीं है । द्वेष, अप्रियता मूल तत्त्व नहीं है । वह प्रतिक्रिया है | मूल तत्त्व एक है राग । और राग की प्रतिक्रिया है द्वेष । राग होता है, तब द्वेष होता है । प्रियता का संवेदन होता है, तब अप्रियता का संवेदन होता है। यदि प्रियता न हो, राग न हो तो द्वेष का जन्म नहीं होगा । द्वेष प्रतिक्रियास्वरूप पैदा होता है । मूल तत्त्व नहीं है । मूल तत्त्व है राग । एक संस्कृतं कवि ने बहुत अच्छा लिखा है— दुनिया में बहुत सारे बन्धन हैं । किन्तु प्रेम-रज्जु का बन्धन यानी राग-रज्जु Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैतन्य-जागरण का अभियान | २२३ का बन्धन सबसे ज्यादा विकट है । उदाहरण बहुत साफ है | भंवरा काष्ठ को भेद देता है, वही भवरा कमल-कोष में बंध जाता है । काष्ठ जैसे कठोर वस्तु को भेद डालने वाला भंवरा कमल कोष में बन्दी बन जाता है । उसका कारण है राग । .. आचार्य भिक्षु ने तेरापंथ की व्याख्या में जो सबसे बड़ा सत्य खोजा, वह था राग की प्रधानता । उन्होंने कहा कि द्वेष की प्रधानता को तो सब लोग जान लेते हैं, सब लोग समझ लेते हैं | किन्तु राग को समझना बड़ा कठिन है । बहुत कठिन समस्या है राग को समझना, प्रियता को समझना । एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को गाली देता है, तत्काल समझ में आ जाता है कि वह गाली दे रहा है | अमुक काम कर रहा है | किन्तु एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को वासना के चक्र में फंसा रहा है, यह नहीं समझा जाता कि कोई गैर काम कर रहा है । बड़ा प्रिय लगता है । कारण यह है कि राग को समझना बड़ा जटिल काम है। तेरापंथ का अर्थ है राग के प्रति दृष्टिकोण की निर्मलता । हमारा दृष्टिकोण द्वेष के प्रति जितना स्पष्ट, प्रत्यक्ष और निर्मल है, उतना राग के प्रति नहीं है । इसीलिए तेरापंथ के विषय में कुछ भ्रान्तियां हो जाती हैं । वे राग-जनित भ्रांतियां हैं, क्योंकि जहां राग का प्रश्न आया, वहां धर्म नहीं हैइस घोषणा ने, राग में रत मनुष्य के मन में भ्रान्तियां पैदा कर दीं । किन्तु यह बात समझ में आ जाए कि समस्या का मूल तत्त्व है राग । दुःख के चक्र का मूल तत्त्व है प्रिय-संवेदन तो बात बहुत साफ हो जाती है, कोई भ्रान्ति नहीं रह पाती। हमारी समस्या क्या है ? अप्रिय व्यक्ति एक छोटी-सी गलती करता है, राई जितनी, तो पहाड़ जैसी दीखने लग जाती है । और प्रिय व्यक्ति पहाड़ जितनी बड़ी गलती करता है तो वह राई जितनी बड़ी भी नहीं लगती। लगता है कि अच्छा काम कर रहा है । यह बड़ी समस्या है । हम ध्यान दें। कोई व्यक्ति पक्षपात नहीं चाहता 1 सबसे बड़ा कष्ट होता है—पक्षपात । एक व्यक्ति था, सब प्रकार से संपन्न । माता-पिता सब विद्यमान थे। फिर भी बड़ा दुःखी था । उससे पूछा कि तुम्हें इतना दुःख क्यों ? कोई कमी नहीं । जितनी सुविधा चाहिए सारी तुम्हें प्राप्त हैं | सामग्री चहिए, सारी तुम्हें Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता प्राप्त है । फिर भी तुम इतने दुःखी क्यों ? उसने कहा-और तो सब कुछ है किन्तु एक बात से बहुत दुःखी हूं | मेरे पिता छोटे भाई को लेकर बहुत पक्षपात कर रहे हैं । इस बात से बहुत दुःखी हूं । सब कुछ होते हुए भी एक पक्षपात के कारण इतना बड़ा दुःख हो जाता है | आज की समस्या है पक्षपात । राजनीति के क्षेत्र में, वैचारिक क्षेत्र में और धर्म के क्षेत्र में सबसे बड़ी समस्या है पक्षपात । जो लोग चैतन्य-जागरण के अभिमुख हुए हैं उन्होंने सबको सावधान किया । राजनीति के क्षेत्र में राजनीति के विद्वानों ने राजनेता को सावधान किया कि यदि राज्य का सम्यक् संचालन करना है तो वह पक्षपात में न जाए । समान दृष्टि से सबको देखे | विचार के क्षेत्र में, दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र के उस श्लोक को नहीं भुलाया जा सकता "पक्षपातो ने मे वीरे न द्वेषःकपिलादिसु ! युक्तिमद् वचनं यस्य, तस्य कार्य परिग्रहः ।।" महावीर के प्रति मेरा पक्षपात नहीं है । कपिल आदि दार्शनिकों के प्रति मेरा द्वेष नहीं है । जिसका वचन मुझे युक्तियुक्त लगता है, उसे स्वीकार करने के लिए मैं तैयार हूं | उन्होंने तो आगे जाकर इतना तक कह दिया मैं महावीर को क्यों मानता हूं ! महावीर मेरे कोई चाचा नहीं हैं,दादा नहीं हैं, मेरे कोई सगे-संबंधी नहीं हैं । उनके साथ मेरा कोई पक्षपात नहीं है । केवल युक्ति के आधार पर मैं महावीर को स्वीकार करता हूं | विचार के क्षेत्र में भी इस बात पर बल दिया गया कि पक्षपात नहीं होना चाहिए | परमार्थ के क्षेत्र में और धर्म में भी जरूरी बात है। सबसे बड़ी युग की समस्या है पक्षपात । आज समस्या के समाधान के रूप में दो बातें बहुत साफ उभरकर सामने आ गई हैं—एक तटस्थता और दूसरी समता । तटस्थता का प्रयोग अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में निर्गुट राष्ट्रों के माध्यम से हो रहा है। दो मुख्य पक्ष बन गए हैं—एक साम्यवादी पक्ष और दूसरा पूंजीवादी पक्ष । तीसरा पक्ष है निर्गुट राष्ट्रों का, जो किसी पक्ष विशेष के साथ में जुड़े हुए नहीं हैं । तटस्थ रहना चाहते हैं। दोनों के बीच में एक संतुलन बनाए Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैतन्य-जागरण का अभियान | २२५ हुए हैं । आज के वैचारिक क्षेत्र में इस तटस्थता को बहुत महत्त्व दिया गया है । इसका बहुत मूल्यांकन किया गया है । तटस्थ राष्ट्र दोनों राष्ट्रों के बीच में एक सीमा-रेखा का काम कर रहे हैं। समता का प्रयोग अपरिग्रह के क्षेत्र में और अर्थ के क्षेत्र में किया गया । अर्थ के क्षेत्र में साम्यवाद, समाजवाद, रूप चाहे जैसे बना हो, किन्तु उसकी पृष्ठभूमि में समता का सिद्धान्त बोल रहा है | इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता | वर्तमान की सारी समस्याओं के समाधान में दो तत्त्व उजागर हुए हैं—एक तटस्थता और दूसरा समानता । तेरापंथ तटस्थता का प्रयोग है, समता का प्रयोग है । अहंकार और ममकार तटस्थता को भंग करने वाले तत्त्व हैं । अध्यात्म की भाषा में हम ममकार का अर्थ समझें । जो अनात्मीय भाव हैं, जो अपने नहीं हैं, स्व नहीं हैं, जो आत्मा के नहीं हैं, वे सब अनात्मीय हैं, जैसे शरीर । वह शरीर कर्मजनित है। यह स्थूल शरीर बना है कर्मशरीर से, जो सूक्ष्म शरीर है। उसने इस स्थूल शरीर का निर्माण अपने सहभागी शरीर के रूप में किया है । वह आत्मा का नहीं है, चैतन्य का नहीं है। शरीर भिन्न है। आत्मा भिन्न है । जितना भी पुद्गल है, वह अनात्मीय है । अनात्मीय में आत्मीय का अभिनिवेश होना ममकार है । यह मेरा शरीर, यह मेरा धन-यह अभिनिवेश ममकार दूसरा तत्त्व है अहंकार | कर्म के कारण मनुष्य की नाना प्रकार की अवस्थाएं बनती हैं । उन कर्मजनित अवस्थाओं में 'यह मैं हूं'—इस प्रकार का अभिनिवेश करना ‘अहंकार' है । जैसे—मैं भाग्यवान् हूं, मैं रूपवान् हूं, मैं बलवान् हूं—ये सारी अवस्थाएं कर्म और सूक्ष्म संस्कारों के कारण निर्मित होती हैं | उन अवस्थाओं में 'अहं' का अभिनिवेश करना अहंकार है । अहंकार और ममकार ये दोनों मिलकर पक्षपात का निर्माण करते हैं | अहंकार जुड़ा पक्ष बन गया । ममकार जुड़ा पक्ष बन गया । आचार्य भिक्षु बड़े तत्त्वज्ञानी और प्रबुद्ध तत्त्वदर्शी थे । उन्होंने देखा, धर्मसंघ चल रहे हैं अध्यात्म के आधार पर, फिर उनमें इतना वैमनसय क्यों ? एक संघ के साधु-साध्वियों में भी इतना अलगाव क्यों ! परस्पर में कटुता का भाव क्यों ? सौहार्द क्यों नहीं ! उन्होंने इन सारी समस्याओं पर विचार किया । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता उन्हें लगा कि अध्यात्म का मूल तत्त्व नहीं पकड़ा जा रहा है | इन भावों के घटक बिन्दुओं, अहंकार और ममकार को नहीं पकड़ा जा रहा है | शिष्य बना लिये । दो-चार-दस शिष्य हो जायें। आचार्य बनने की बात मन में उभर आती है | पढ़-लिखकर विद्वान् बन गए, शक्ति-संपन्न हो गए तब सोचने का ढंग होता है—अब मैं किसी को गुरु या आचार्य मानकर क्यों चलूं ? मुझे स्वयं गुरु और आचार्य बनकर चलना है । मैं योग्य हो गया हूं। इस विचार ने पृथक् शाखा के उद्भव का बीज वपन किया । शाखा और शाखा का विस्तार होता गया । शाखाएं और उपशाखाएं और उनकी भी अवान्तर शाखाएं—न जाने कितना विस्तार हो गया । शायद वटवृक्ष में भी उतनी शाखाएं नहीं होंगी, जितनी एक समाज में बन गईं। भगवान् महावीर के समय में कोई शाखा नहीं थी । भगवान् महावीर के दो सौ वर्षों के बाद तक कोई शाखा नहीं बनी । फिर शाखाओं का विस्तार होता गया । यह धारणा बना ली कि जहां वटवृक्ष है वहां शाखा का होना अनिवार्य है । अखंड शासन शाखाओं में बंट गया । जब एक शाखा थी, तब अहंकार और ममकार प्रबल नहीं था । जैन शासन अनेक शाखाओं में विभक्त हुआ और अहंकार भी प्रबल हो गया, ममकार भी प्रबल हो गया। जब अहंकार और ममकार प्रबल हुआ तब शाखाओं का विस्तार भी होता गया । उसका अन्त नहीं आया । आचार्य भिक्षु ने इस मूल समस्या पर विचार किया। उन्होंने देखा— ममकार भी प्रबल है और अहंकार भी प्रबल है । उन्होंने सोचा क्या ममकार और अहंकार को छोड़ने के लिए अपने शिष्यों को उपदेश दूं? फिर सोचाउपदेश से बात बनेगी नहीं, क्योंकि चैतन्य अभी जागृत नहीं है ! उनके चैतन्य को जागृत करना है । उसका एक प्रायोगिक रूप सामने लाना है । केवल उपदेश कार्यकर नहीं होगा । प्रयोग से यदि बात सफल हो जाए तो बार बार उपदेश भी नहीं देना पड़ेगा । यदि प्रयोग सामने नहीं होगा तो उपदेश का कहीं अंत भी नहीं होगा । उपदेश देते चले जाओ । शिष्य बनाने वाले शिष्य बनाते चले जाएंगे । होगा वही जो संस्कार बना हुआ है। आचार्य भिक्षु ने एक प्रायोगिक रूप प्रस्तुत किया । दीर्घकालीन चिन्तन और मनन के पश्चात् उन्होंने एक रूप तैयार किया । उसको तैयार करने Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैतन्य-जागरण का अभियान / २२७ में उनको सोलह वर्ष लगे । उन्होंने प्रयोग की कुछ रेखाएं खींचीं । उन्होंने कहा—मेरा संघ प्रायोगिक संघ होगा । उसमें पहला प्रयोग यह होगा कि कोई भी सदस्य अपना शिष्य नहीं बना सकेगा | उसे सबसे पहले 'मेरा शिष्य' - इस ममकार का विसर्जन करना होगा । ममकार को कहीं अवकाश नहीं । न 'मेरा कपड़ा', न 'मेरी पुस्तकें कुछ भी मेरा नहीं । यदि कोई साधु कहे कि यह कपड़ा मेरा है, ये पुस्तकें मेरी हैं तो यह भाषा का गलत प्रयोग है । वह कहेगा—ये कपड़े मेरी निश्रा में हैं, ये पुस्तकें मेरी निश्रा में हैं, मैं इन्हें काम में ले रहा हूं | ये मुझे संघ द्वारा प्रदत्त हैं । मैं इनका उपयोग कर रहा हूं । उपभोग कर रहा हूं | आचार्य भिक्षु ने ममत्व-विसर्जन के इस बिन्दु को और आगे बढ़ाया । उन्होंने कहा—साधु-साध्वियों के संघाटक (ग्रुप) गांवगांव में विहरण करेंगे । उनमें एक मुखिया होगा, शेष उसके सहयोगी । वे सहयोगी या सहगामी साधु-साध्वी उन मुखियों के शिष्य नहीं होते, सहयोगी होते है । कोई किसी का शिष्य नहीं होता । सब गुरु-भाई हैं । जब वे विहार कर गुरु-चरण में आएंगे तब मखिया साध-साध्वी को ये शब्द उच्चस्वर से, सभा के बीच कहने होंगे-'गुरुदेव ! मैं प्रस्तुत हूं | मेरे साथ वाले साधु या साध्वियां प्रस्तुत हैं । ये पुस्तक-पन्ने प्रस्तुत हैं । आप मुझे जहां रखें, वहां रहने के लिए मैं सहर्ष तैयार हूं, प्रस्तुत हूं।' इतना कहे बिना वह अग्रगामी साधु या साध्वी पानी तक नहीं पी सकता । कुछ भी नहीं खा सकता । उसे ये शब्द उच्चारित करने ही होते हैं । आचार्य भिक्षु ने ममत्व-विसर्जन और अहंकार-विसर्जन के प्रयोग को और आगे बढ़ाया । उन्होंने कहा-तेरापंथ धर्मसंघ का कोई भी सदस्य पद के लिए उम्मीदवार नहीं बन सकता | बहुत बड़ी बात है । उन्होंने विचार और चिन्तन की पूरी स्वतंत्रता दी, किन्तु उम्मीदवार बनने पर प्रतिबन्ध लगा दिया । उम्मीदवार बनने का अर्थ होता है अहंकार का पल्लवन । मैं बहुश्रुत होना चाहता हूं। मैं चैतन्य-जागरण की दिशा में बढ़ना चाहता हूं | मैं कलाकार बनना चाहता हूं, यह सोचा जा सकता है । पर मैं अग्रगामी बनना चाहता हूं, मैं आचार्य बनना चाहता हूं, यह नहीं सोचा जा सकता । उम्मीदवार बनने की चाह पर ही उन्होंने नियंत्रण कर डाला । योग्य बनने की बात सोची जा सकती है । आचार्य पद के योग्य तथा अग्रगामी पद के योग्य बनने की बात Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता सोची जा सकती है, पर आचार्य बनूं या अग्रणी बनूं, यह सोचना इष्ट नहीं है । उन्होंने नियम बनाया--कोई भी साधु या साध्वी पद के लिए उम्मीदवार नहीं बनेगा। विचार का भी अहंकार और ममकार होता है । किसी साधु ने मान लिया कि मैं बहुत बड़ा चिन्तक हूं, विद्वान् हूं, सोच-समझ सकता हूं उसने अपना एक विचार बना लिया । जब उसमें आग्रह होगा कि मेरा विचार पूरी तरह से मान्य हो | पर वैसा होता नहीं । वही विचार मान्य हो सकता है जो संघ का विचार बनता हो । किसी व्यक्ति-विशेष का विचार सर्वमान्य बने, यह आवश्यक नहीं है । व्यक्ति में इससे आग्रह पनपता है | आग्रह से पक्ष प्रबल करने की बात आती है और उसका अन्त होता है संघ से पृथक् हो जाना । वह कहता है-मेरा विचार मान्य नहीं हुआ, इसलिए मैं संघ से अलग हो गया । आचार्य भिक्षु ने इस दिशा में अध्यात्म का एक प्रयोग किया । बहुत सुन्दर प्रयोग किया। पूरे वैचारिक और दर्शन-विकास के इतिहास में वैचारिक ममत्व के विसर्जन का जो सूत्र आचार्य भिक्षु ने दिया, वैसा संभवतः अन्य आचार्यों ने नहीं दिया । उन्होंने इसकी एक पूरी आचार-संहिता प्रस्तुत की। उन्होंने लिखा--'तुमने जो विचार बनाया है, उसकी पृष्ठभूमि खोजो । तुम तत्त्वद्रष्टाओं के अनुभव का अनुसरण करो । तुम सोचो, मेरा जो विचार बना है, उसके पीछे किस व्यक्ति का अनुभव काम कर रहा है । तुम्हारे उस विचार का कोई आधार प्राप्त होता है या नहीं, इसे देखो । जो लोग अनुभव के क्षेत्र में उतरे हैं, उन्होंने अनुभव की वाणी में जो कहा है, उसका आधार मिल जाए तो बात सीधी बन जाती है | जहां समस्या उलझती है, वहां हम आगमवाणी को उद्धृत करते हैं । आगम की वाणी अनुभव की वाणी है । भगवान् महावीर ने दीर्घकालीन साधना के बाद जो अनुभव प्राप्त किया और जो वाणी प्रस्तुत की वह अनुभव की वाणी है, प्रजा की वाणी है | सबको अनुभव की वाणी का आधार खोजना चाहिए । यह उस आचार-संहिता की पहली कड़ी है। ___आचार्य भिक्षु ने दूसरी बात कही—तुम अपना विचार आचार्य तथा बहुश्रुत साधुओं के समक्ष रखो । वे जो समाधान दें, उसे स्वीकार करो । यह Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैतन्य-जागरण का अभियान / २२९ उस आचार-संहिता की दूसरी कड़ी है। उन्होंने तीसरी कड़ी प्रस्तुत करते हुए कहा- उनके द्वारा दिया गया समाधान तुम्हारे बुद्धिगम्य हो तो तुम उसे बुद्धि से स्वीकार करो । यदि वह तुम्हारी बुद्धि में न बैठे तो तुम उसे श्रद्धा से स्वीकार कर लो । यदि वह तथ्य बुद्धिगम्य भी न हो और श्रद्धागम्य भी न हो तो तुम उसको लेकर खींचातान मत करो | उसे केवलीगम्य कर दो । यह सोचकर संतोष करो कि मैं केवली या सर्वज्ञ नहीं हूं | अतीन्द्रिय ज्ञानी नहीं हूं। मैं क्यों आग्रह करूं ? 'मुझे इसे आगे के चिन्तन के लिए छोड़ देना चाहिए | जिस दिन मेरा ज्ञान बढ़ेगा, अतीन्द्रिय क्षमताएं जागेंगी, मेरा चैतन्य और प्रबल होगा, उस दिन समाधान मिल जाएगा । आज ही पूरा समाधान हो जाए, यह आवश्यक नहीं है । उस वैचारिक आग्रह को, ममत्व को, चैतन्य की मूर्छा को हेतुभूत बनाओ । चैतन्यजागरण की प्रतीक्षा करो । खींचातान मत करो । वैचारिक क्षेत्र में यह ममत्वविसर्जन का महत्त्वपूर्ण सूत्र है। अहिंसा के क्षेत्र में तेरापंथ ने जो नयी स्थापनाएं की वे चैतन्य-जागरण की दिशा में बहुत मूल्यवान् हैं । एक व्यक्ति ने आचार्य भिक्षु से पूछा—कोई गाय हरी घास चर रही है। आप क्या करेंगे? उस गाय को वहां से हटाएंगे या नहीं ? घास में जीव है । वह सचेतन है । एक जीव दूसरे जीव को खा रहा है | गाय भी जीव है, घास भी जीव है। आप साधु हैं। आप छह जीवनिकायों के, सभी जीवों के रक्षक हैं । आप क्या करेंगे? गाय को वहां से हटाएंगे तो गाय को दुःख होगा और यदि नहीं हटाएंगे तो जीवों के प्रतिपालक कहां रहे ! आचार्य भिक्षु बोले—मैं गाय को नहीं रोकूँगा । उसने कहा—फिर आप छह जीव-निकायों के रक्षक नहीं रहे । आचार्य भिक्षु ने कहा—रोकने या हटाने में मैं अध्यात्म, अहिंसा या धर्म नहीं मानता | धर्म की मेरी कसौटी यह है, चैतन्य जागा या नहीं जागा ! हृदय बदला या नहीं बदला ! गाय का चैतन्य जाग जाए तो वह अपने आप वहां से हट जाएगी | गाय का चैतन्य यदि नहीं जागा है और मैं उसे वहां से हटाऊंगा तो वह अधर्म होगा, पाप होगा । यह मेरा कर्तव्य नहीं है | ___ आचार्य भिक्षु ने एक कसौटी रखी । कोई किसी को मारता है, कोई Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता किसी को खाता है, उस समय बचाए या नहीं बचाएं, हटाएं या न हटाएं, यह निर्णय व्यवहार की भूमिका पर जो व्यक्ति, जिस समय, जैसा उचित समझे वैसा करे । हमें इसमें क्या आपत्ति है ? यह अपनी-अपनी स्थिति, परिस्थिति और वातावरण का प्रश्न है | धर्म का और चैतन्य-जागरण का प्रश्न इससे सर्वथा भिन्न है । काण्ट ने लिखा है-—दया के अभिनिवेश में कोई आचारण करना धर्म नहीं है । यह एक नैतिक दुर्बलता या मानसिक बीमारी है । यह भी एक प्रकार का अभिनिवेश है, आवेश है । जैसे क्रोध का आवेश होता है, वैसे ही करुणा का भी आवेश होता है । करुणा के आवेश में किया जाने वाला आचरण धर्म नहीं हो सकता । ईसाइयों का एक सम्प्रदाय है—टोई सम्प्रदाय । उस संप्रदाय के सदस्य करुणा के आवेश को पास में भी नहीं फटकने देते । वे कहते हैं, मानते हैं कि आवेश में, फिर चाहें व करुणा का हो या क्रोध का, कोई भी काम होगा वह गलत होगा । वह धर्म नहीं हो सकता । आचार्य भिक्षु ने एक कसौटी दी । चाहे गाय घास खा रही हो, चाहे कसाई बकरों को मार रहा हो, चाहे कोई पशु या सिंह अन्य पशु को मार रहा हो, कुछ भी हो रहा हो । वहां कसौटी यह है कि सामने वाले ने हिंसा छोड़ी, उसका चैतन्य जागा, हृदय बदला तो वह धर्म है और अध्यात्म है | यदि उसका चैतन्य नहीं जागा, हृदय नहीं बदला तो उसे धर्म की सीमा में कभी प्रविष्ट नहीं किया जा सकता । चैतन्य-जागरण कसौटी है । जहां चैतन्य का जागरण है वहां धर्म है जहां चैतन्य का जागरण नहीं, वहां धर्म नहीं । एक आदमी किसी को मार रहा है । चाहे आदमी को ही मार रहा हो । दूसरा आया । उसने जोर-जबरदस्ती उसे छुड़ा दिया । पूछा जाए कि छुड़ाने वाले को क्या हुआ ! आचार्य भिक्षु का उत्तर वही होगा--तुमने बल-प्रयोग से छुड़ाया है तो वह लोक की भूमिका का कर्तव्य है। अगर उसका अध्यात्म जागा, हृदय बदला तो वह अध्यात्म और धर्म होगा । आचार्य भिक्षु ने चैतन्य जागरण और अध्यात्म की भूमिका को और आगे बढ़ाया । उन्होंने एक सूत्र प्रस्तुत किया । उस सूत्र का उल्लेख अध्यात्म जगत् में भी कम मिलता है । उन्होंने कहा- 'पुण्य की इच्छा करना भी पाप है | सारे लोग पुण्य के लिए काम कर रहे हैं। सभी जगह एक ही स्वर सुनाई Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैतन्य-जागरण का अभियान | २३१ देता है—पुण्य चाहिए, पुण्य चाहिए, पुण्य चाहिए । किन्तु आचार्य भिक्षु का स्वर है—पुण्य की इच्छा करना पाप है । उनकी भाषा है—'जिण पुण्य तणी वंछा करी, ते वंछ्या कामभोग ।' जिस व्यक्ति ने पुण्य की इच्छा की, उसने कामभोग की इच्छा की, यह विचित्र-सा कथन लगता है कि पुण्य की इच्छा कामभोग की इच्छा है । पुण्य की इच्छा पाप की इच्छा है ! कैसे है—यह प्रश्न होता है । प्रत्येक व्यक्ति जीवित रहना चाहता है, कोई मरना नहीं चाहता । हमारा चिन्तन यह है कि जो जीना चाहता है, वह मरना चाहता है । ऐसा कौन व्यक्ति है जो जीना चाहता हो, मरना न चाहता हो ! जीना चाहने वाला निश्चित ही मरना चाहता है । पुण्य की इच्छा करने वाला निश्चित ही पाप की इच्छा कर रहा है । इन दोनों को अलग नहीं किया जा सकता । जीवन और मरण को बांटा नहीं जा सकता । पुण्य और पाप को पृथक् नहीं किया जा सकता | ये युगल हैं । इनको अलग-अलग देखा जा सकता है, किन्तु अलग किया नहीं जा सकता | अलग देखना एक बात है किन्तु अलग करना सर्वथा दूसरी बात है । अलग रूप में आप देख रहे हैं कि यह पुण्य है और यह पाप है । किन्तु अलग किया नहीं जा सकता । जीवन और मरण को अलग देखा जा सकता है, किन्तु विभक्त नहीं किया जा सकता । आचार्य भिक्षु ने बिलकुल ठीक लिखा है कि जो व्यक्ति पुण्य की इच्छा. कर रहा है, वह पाप की इच्छा कर रहा है । वह कामभोग की इच्छा कर रहा है । और जो कामभोग की इच्छा कर रहा है वह संसार-चक्र की—जन्म, मरण, शोक, हर्ष, पूरे चक्र की इच्छा कर रहा है ।। __आचार्य भिक्षु ने चैतन्य-जागरण का बहुत बड़ा सूत्र दिया- 'तुम पुण्य की इच्छा मत करो । केवल चैतन्य-जागरण की इच्छा करो ।' शायद पूरे धार्मिक और अध्यात्म के इतिहास में इस सूत्र की घोषणा विरल व्यक्तियों ने की है। उनमें एक प्रमुख प्रवक्ता हैं आचार्य भिक्षु । चैतन्य सुषुप्त होता है और चैतन्य जागता है । एक सोया हुआ बच्चा और एक जागा हुआ बच्चा । एक सोया हुआ चैतन्य और एक जागा हुआ चैतन्य । हमारी दो अवस्थाएं हैं । जब अहंकार और ममकार प्रबल होते हैं, चैतन्य सो जाता है । जब अहंकार और ममकार कम होते हैं, चैतन्य जाग Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता जाता है | जब चैतन्य सोया हुआ होता है, तब चलता है पक्षपात का दौर और जब पक्षपात होता है तब हिंसा, झूठ, चोरी, काम-वासनाएं ये सारी प्रतिक्रियाएं पैदा होती हैं। ___हिंसा कोई मूल बात नहीं है । असत्य और चोरी कोई मूल बात नहीं है। अब्रह्मचर्य कोई मूल बात नहीं है। मूल बात है परिग्रह । ये सब उसकी प्रतिक्रियाएं हैं। लोगों ने कहा- 'अहिंसा परमो धर्मः ।' मैं समझता हूं कि जैन शासन का यह सही घोष नहीं है । घोष होना चाहिए—'अपरिग्रहः परमो धर्मः ।' अधर्म का मूल है परिग्रह,न कि हिंसा | परिग्रह के लिए हिंसा होती है, न कि हिंसा के लिए परिग्रह । मूल जड़ है परिग्रह । भगवान् महावीर ने सूत्रकृतांग सूत्र में इस पर बहुत विस्तार से प्रकाश डाला है । तीन प्रकार का परिग्रह होता है--शरीर-परिग्रह कर्म परिग्रह और द्रव्य-परिग्रह । हमने तो परिग्रह मान लिया धन को, कपड़ों को, मकान को | ये मूल परिग्रह नहीं हैं । परिग्रह का मूल कारण है-शरीर । उसका दूसरा कारण है कर्म, संस्कार | आदमी ने संस्कारों का परिग्रह कर रखा है। उसके पास बड़ा परिग्रह है शरीर । शरीर के लिए वह वस्तुओं का परिग्रह करता है और फिर उनके लिए हिंसा आदि का जाल बिछाता है । तेरापंथ ने एक अध्यात्म के प्रयोग का सूत्रपात किया । उसमें शरीर के ममत्व का त्याग मुख्य है । आचार्य भिक्षु ने कहा—विनीत साधु वह होता है जो गुरू के आदेश देने पर धूप में खड़े-खड़े सूख जाने में भी प्रसन्नता का अनुभव करता है । अपने शरीर की चिन्ता नहीं करता । उसके ममत्व को त्याग देता है। महासती गुलाबां छोटी थी । वह इधर-उधर घूमती रहती । एक बार जयाचार्य ने उसे बार-बार चक्कर लगाते देख लिया । जयाचार्य ने कहा'गुलाबां ! जा, उस आले में बैठ जा ।' वह तत्काल गई, वहां बैठ गई । भोजन का समय हो गया । सब साधु-साध्वियां आहार करने बैठ गए । साध्वियों का ध्यान गया । उन्होंने देखा कि वह छोटी साध्वी गुलाबां नहीं है । खोजा गया | खोजते-खोजते देखा कि वह दुबकी हुई-सी एक आले में स्थिर बैठी है । साध्वियों ने कहा- 'चलो, आहार करो ।' उसने कहा-नहीं, आचार्यश्री ने मुझे यहां बैठने के लिए कहा है । उनकी आज्ञा के बिना मैं नहीं चलूंगी । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैतन्य-जागरण का अभियान | २३३ साध्वियां जयाचार्य के पास गयीं । गुलाबां की स्थिति बताई । जयाचार्य ने कहा—उसे यहां बुला लाओ । गुलाबां आयी । आचार्य ने पूछा-अरे ! इतनी देर वहीं बैठी रही ! आहार करने क्यों नहीं आयी ? उसने कहा—गुरुदेव ! आपने तो वहां बैठ जाने के लिए कहा था, आने के लिए तो कहा ही नहीं था । आपकी आज्ञा के बिना कैसे आती ? यह है तेरापंथ में शरीर के ममत्व का विसर्जन । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधन-शुद्धि का सिद्धान्त भारतीय चिन्तन में चार दृष्टिकोण प्रधान रहे हैं—काम, अर्थ, धर्म और मोक्ष । इनके आधार पर चार पुरुषार्थ बने । चार ही दृष्टिकोण और चार ही पुरुषार्थ । एक दृष्टिकोण काम-प्रधान है, दूसरा अर्थ-प्रधान, तीसरा धर्म-प्रधान और चौथा मोक्ष-प्रधान | चारों दृष्टिकोण जीवन के परिपार्श्व में हैं, किन्तु दृष्टिकोण की प्रबलता के कारण एक प्रधान बन जाता है, शेष गौण । फ्रायड ने जो कहा, वह कोई नयी बात नहीं थी । काम-प्रधान दृष्टि वाले जितने व्यक्ति होते हैं, वे सब यही बात कहते हैं, इसी सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं। मार्क्स ने अर्थ को प्रधानता दी । वह भी नयी बात नहीं थी। महामात्य चाणक्य ने अर्थशास्त्र बनाया । उसका नाम है 'कौटिल्य अर्थशास्त्र' । उन्होंने चार पुरुषार्थों में कौन-सा पुरुषार्थ प्रधान है, इस चर्चा के प्रसंग में अनेक मत उद्धृत किए हैं। उन्होंने लिखा है—'कोई काम को प्रधान मानता है, कोई धर्म को प्रधान मानता है और कोई मोक्ष को प्रधान मानता है | किन्तु मैं अर्थ को प्रधान मानता हूं | अर्थ के बिना कुछ भी नहीं होता | अर्थ के आधार पर ही समाज बनता है बिगड़ता है।' मार्क्स की अवधारणा भी यही थी । मार्क्स से पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व चाणक्य ने इस अवधारणा का सूत्रपात किया था । फ्रायड ने 'काम' को प्रधान माना । काम मौलिक मनोवृत्ति है । उसके आधार पर ही कलाओं का विकास हुआ है | काम का उदात्तीकरण हुआ वात्स्यायन ने 'कामसूत्र' रचा | उसमें उन्होंने काम को बहुत महत्त्व Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधन-शुद्धि का सिद्धान्त / २३५ दिया । पर एक बात बहुत ही महत्त्वपूर्ण लिखी — 'काम बहुत जरूरी है, फिर भी हमें स्वीकार करना होगा कि चार पुरुषार्थों में धर्म और मोक्ष स्थविर हैं, बड़े हैं, ज्येष्ठ हैं।' इस कथन से वात्स्यायन ने धर्म और मोक्ष को प्रधानता दी । कुछ लोगों ने धर्म को मुख्यता देते हुए कहा, सब कुछ धर्म से हो जाता है । धर्म के दो अर्थ किए गए हैं । पुरुषार्थ-चतुष्टयी में धर्म का एक अंग है कानून | कानून का नाम है धर्म । न्यायालय का नाम है— धर्माधिकरण और न्यायाधीश का नाम है धर्मी । धर्म शब्द कानून के अर्थ में प्रचलित था । धर्म का दूसरा अर्थ है मोक्ष का साधन, आत्मा का साधन । चौथा पुरुषार्थ है मोक्ष, निर्वाण । जैन परंपरा, निर्ग्रन्थ परंपरा निर्वाणवादी परंपरा है। महावीर की स्तुति में कहा गया है— 'व्वाणवादीणिह णायपुत्ते' – निर्वाणवादियों में ज्ञातपुत्र, नागपुत्र यानी महावीर श्रेष्ठ हैं । यह निर्वाण-प्रधान दृष्टिकोण रहा है । ----- ये चार दृष्टिकोण थे और इन चारों के आधार पर चार पुरुषार्थ निर्मित हुए । इनमें एक युगल है काम और अर्थ का दूसरा युगल है धर्म और मोक्ष का । इन दोनों युगलों में एक साध्य है, दूसरा साधन । काम साध्य है, अर्थ साधन है । मोक्ष साध्य है, धर्म साधन है । एक साध्य और एक साधन | साध्य-साधन का चिन्तन भारतीय चिन्तनधारा का प्रमुख अंग रहा है। जब से इस पुरुषार्थ चतुष्टयी का निर्धारण हुआ तब से साध्य और साधन का चिन्तन होता रहा है । काम की सिद्धि होती है अर्थ के द्वारा । अर्थ के बिना काम की संपूर्ति नहीं हो सकती । व्यक्ति के मन में जितनी कामनाएं उभरती हैं, उनकी पूर्ति का एकमात्र साधन है अर्थ | अर्थ से 'काम' सिद्ध होता है | व्यक्ति की कामना है 'मोक्ष' | उसकी संपूर्ति धर्म के बिना नहीं हो सकती । धर्म मोक्ष का साधन बन जाता है । साध्य और साधन का चिन्तन बहुत पुराना है, पर प्रश्न है साधन की शुद्धि का । हम किसे शुद्ध साधन मानें और किसे अशुद्ध साधन मानें | बड़ा जटिल प्रश्न है | शुद्धि और अशुद्धि का नियामक तत्त्व कौन होगा ? उसकी कसौटी क्या होगी ? हम किस आधार पर कहेंगे कि अमुक साधन शुद्ध है और अमुक साधन अशुद्ध है । नियामक तत्त्व है— साध्य । साध्य के आधार पर साधन की शुद्धि और Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता अशुद्धि का निर्णय होता है । यदि मनुष्य का साध्य है काम तो अर्थ उसका साधन होगा | साध्य जब काम है तो अर्थ को अशुद्ध साधन नहीं कहा जा सकता । काम की संपूर्ति का वह एकमात्र साधन है । वह साधन शुद्ध माना जाएगा, अशुद्ध नहीं । साध्य की अनुरूपता में यदि साधन का विचार किया जाए तो कोई फर्क नहीं पड़ता । अन्तर तब आता है जब साध्य कोई दूसरा होता है, साध्य के अनुरूप साधन नहीं होता है । एक आदमी को सवारी करनी थी, अपने बड़प्पन का प्रदर्शन करना था । उसने घोड़ा मंगवाया । घोड़े पर सवारी करना बड़प्न का प्रदर्शन है। नौकर गया । घोड़ा नहीं मिला । उसने सोचा–सवारी ही तो करनी है । घोड़ा नहीं है तो क्या । खच्चर ले जाऊं। वह खच्चर ले आया । मालिक ने खच्चर को देखा । क्रोध का पारा चढ़ आया | नौकर को डांटा । नौकर बोला'मालिक ! चढ़ना ही तो है । सवारी ही तो करनी है | घोड़े पर भी जाया जा सकता है और खच्चर पर भी जाया जा सकता है | यात्रा दोनों पर हो सकती है। साधन सही नहीं रहा । घोड़े का काम घोड़ा करता है और खच्चर का काम खच्चर करता है | साध्य था बड़प्पन का प्रदर्शन । यदि साध्य बड़प्पन का प्रदर्शन नहीं होता, केवल यात्रा ही होता तो घोड़ा भी साधन बन सकता था और खच्चर भी साधन बन सकता था और गधा भी साधन बन सकता था । कोई अन्तर नहीं आता । पर जब साध्य ही दूसरा था, बड़प्पन का प्रदर्शन था तो वहां घोड़ा ही साधन बन सकता था, खच्चर और गधा नहीं बन सकता था । जब साध्य दूसरा होता है और साधन दूसरा होता है तब साधन-शुद्धि और साधन-अशुद्धि की बात प्राप्त होती है । आचार्य भिक्षु ने साध्य और साधन की बहुत मीमांसा प्रस्तुत की है | उन्होंने इस संदर्भ में चार विकल्प प्रस्तुत किए--- १. साध्य शुद्ध, साधन अशुद्ध । २. साध्य अशुद्ध, साधन शुद्ध । ३. साध्य अशुद्ध, साधन अशुद्ध । ४. साध्य शुद्ध, साधन शुद्ध | इनमें प्रथम तीन विकल्प निष्पत्ति तक नहीं पहुंचाते । चौथा विकल्प Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधन-शुद्धि का सिद्धान्त / २३७ ही मंजिल तक पहुंचाता है, सिद्धि तक पहुंचाता है । जहां साध्य शुद्ध होता है और साधन भी शद्ध होता है तब सिद्धि तक पहुंचा जा सकता है। दोनों की शुद्धि अपेक्षित है। साध्य-साधन के विषय में भारतीय साहित्य में काफी चिन्तन प्राप्त होता है । किन्तु आचार्य भिक्षु ने जितनी प्रखरता से इस प्रश्न को उभारा, उतनी प्रखरता अन्यत्र प्राप्त नहीं होती । मैं यह नहीं कहना चाहता कि आचार्य भिक्षु ने ही इस प्रश्न को उपस्थित किया है । यह प्रश्न उपस्थित तो पहले से ही था, चर्चित भी हुआ था, किन्तु आचार्य भिक्षु ने इस विषय पर बहुत गंभीर चिन्तन प्रस्तुत किया है । उन्होंने हिंसा और अहिंसा के संदर्भ में इस प्रश्न पर बहुत मंथन किया और उसका नवनीत भी प्रस्तुत किया । इस शताब्दी में वही प्रश्न दो महान् व्यक्तियों द्वारा चर्चित हुआ, एक गांधी और दूसरा मार्क्स । यह चर्चा राजनैतिक प्रणाली में हुई । राजनैतिक क्षेत्र में यह माना जाता था कि साधन-शुद्धि पर अधिक विचार करने की कोई जरूरत नहीं है। मार्क्स का दृष्टिकोण कोई नया नहीं था । मार्क्स ने साधन-शद्धि पर विचार किया है । उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि गलत साधनों का उपयोग कर लेना चाहिए। उन्होंने इस बात पर बल दिया है कि हमारे साधन शुद्ध होने चाहिए | साधन-शुद्धि पर उन्होंने बल अवश्य दिया, पर उसे एकान्ततः अनिवार्य नहीं माना । किन्तु उनके उत्तरवर्ती व्याख्याताओं एंजल्स और लेनिन ने इसमें अन्तर डाल दिया और अशुद्ध साधन को भी मान्यता दे दी । प्राचीन काल की राजनीति में भी साधन-शुद्धि की बात बहुत मान्य थी। वह मानती थी-राजनीति है, काम बनाना है, जैसे भी हो उसे साध लेना चाहिए | राजनीति का एक श्लोक है _ 'उत्तम प्रणिपातेन, तुल्यं स्वस्यपराक्रमैः । नीचं स्वल्पप्रदानेन, शूरं भेदेन योजयेत् ।। सामने वाला व्यक्ति बड़ा हो तो उसके सामने नत हो जाओ । काम हो जाएगा । उससे भिड़ो मत | उसके समक्ष विनम्रता करो । वहां विनम्रता ही साधन होगा। यदि सामने वाला पराक्रमी है, क्रूर है तो उसके सामने विनम्रता कार्यकर नहीं होती । वहां भेदनीति का सहारा लो | ऐसा भेद डालो कि काम बन जाए। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता यदि नीच वृत्ति वाले आदमी का सामना हो जाए तो उसे अर्थ का प्रलोभन दो । तुम्हारा हित सधने लग जाएगा । यदि कोई बराबर बल वाला सामने आ जाए तो ये पहले के तीनों साधन गलत हो जाएंगे। वहां अपना पराक्रम प्रदर्शित कर उसे भगा दो । ये राजनीति के चार सूत्र हैं । एक बार एक गीदड़ जंगल में कहीं जा रहा था । उसने देखा कि हाथी का मृत कलेवर पड़ा है और कोई पशु-पक्षी वहां नहीं है। उसने सोचा, यह मेरे लिए अनेक दिनों का पर्याप्त भोजन होगा । इतने में ही एक सिंह वहां आ गया । गीदड़ ने कहा- महाराज ! यह किसी अन्य पशु के द्वारा मारा गया है । आप इसे क्या खाएंगे ? आपके लिए शोभा नहीं देता । सिंह चला गया | थोड़े समय पश्चात् एक चीता आया । उसने हाथी के कलेवर को देखा और मन ललचा उठा । इतने में ही गीदड़ ने भेदनीति का सहारा लेते हुए कहा – अरे, आप यहां ! अभी-अभी केशरीसिंह इसे मारकर गया है । वह पुन: लौटने वाला है । आपको देखते ही वह आपको मार देगा । चीता वहां से भाग गया । गीदड़ की भेदनीति काम कर गई । इतने में ही कौवे इकट्ठे होकर कांव-कांव करने लगे । गीदड़ ने सोचाइनकी आवाज़ से और भी पशु-पक्षी एकत्रित हो जाएंगे। मेरे भक्ष्य में बाधा आएगी । उसने हाथी के शरीर से मांस का एक लोंदा निकाला और कौवों की ओर फेंक दिया । वे उसके टुकड़े-टुकड़े लेकर उड़ गए । कुछ क्षण बीते । गीदड़ आ गया। पहले वाले गीदड़ ने उससे लड़ना प्रारंभ किया और उसे भगा डाला । राजनीति के चारों सूत्रों को उसने काम में ले लिया । (राजनीति में साधन-शुद्धि पर विचार नहीं किया जाता ।) मैं इसे दूसरी दृष्टि से देखता हूं। क्या राजनीति में इसे अशुद्ध साधन माना जाए ? यह चिन्तनीय है । इस पर चिन्तन होना चाहिए । चिन्तन हो भी रहा है | हर जगह एक ही दृष्टि से किसी साधन को अशुद्ध कहें तो चिन्तन में गड़बड़ी होगी । एक बात । भारतीय चिन्तन में बहुत पैनापन नहीं रहा । बहुत ऊपरऊपर की बात का चिन्तन होता है । कैसे सोचना चाहिए ? चिन्तन की प्रक्रिया Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधन-शुद्धि का सिद्धान्त / २३९ क्या है ? चिन्तन में कहां तक पहुंचना चाहिए ? इसमें थोड़ी रुकावट या बाधा भारतीय मानस में रही है । साधन-शुद्धि का प्रश्न बहुत महत्त्व का है । पर साध्य को सामने रखे बिना उस पर चिन्तन नहीं किया जा सकता । यदि साध्य को नजर अन्दाज कर चिन्तन किया जाता है तो वह गड़बड़ा जाता है । ऐसी गड़बड़ियां हुई हैं। हमें साध्य के संदर्भ में ही साधन का चिन्तन करना होगा । महात्मा गांधी ने साधन-शुद्धि पर विचार किया । हम मार्क्स और गांधी को एक दृष्टि से नहीं देख सकते । गांधी अध्यात्म-प्रधान व्यक्ति थे । वे प्रत्येक प्रश्न को अध्यात्म की दृष्टि से देखते थे और वे कहते भी थे 'मैं एक आध्यात्मिक व्यक्ति हूं, राजनैतिक व्यक्ति नहीं हूं । मैं धार्मिक हूं। राजनीति तो मेरा कार्यक्षेत्र है ।' गांधीजी अपने आपको राजनैतिक व्यक्ति मानकर राजनीति का चिन्तन नहीं करते थे । वे मूलतः आध्यात्मिक प्रकृति के थे, इसलिए अध्यात्म के आधार पर चिन्तन करते थे । उनके सामने लक्ष्य था -- सत्य की प्राप्ति, न राज्य की प्राप्ति और न स्वतंत्रता की प्राप्ति । स्वतंत्रता पाना उनका प्रधान लक्ष्य नहीं था । किन्तु यदि शुद्ध साधनों के द्वारा वह मिले तो वह काम्य था । किन्तु उद्देश्य उनका था सत्य की प्राप्ति । इस दृष्टि से विचार करेंगे तो आध्यात्मिक साध्य को सामने रखकर करेंगे, सत्य-प्राप्ति को सामने रखकर करेंगे | इस आधार पर उनका साधन शुद्ध ही होगा, क्योंकि जहां अध्यात्म, धर्म और मोक्ष का प्रश्न है, वहां साधन का शुद्ध होना अनिवार्य है । अशुद्ध साधन नहीं हो सकता । कुछ विपर्यय हुआ है । साध्य तो है निर्वाण और मोक्ष, साधन बना लिया धन को । यह प्रश्न प्रज्वलित हुआ । आचार्य भिक्षु को भी यह बात क्यों सूझी ? इस पर उन्होंने इतना चिन्तन क्यों किया ? इसका भी पुष्ट कारण था । उन्होंने देखा कि धर्म के क्षेत्र में भी साध्य के अनुरूप साधन का निर्वाचन नहीं किया जा रहा है । साध्य तो है निर्वाण और साधन माने जाते हैं प्रलोभन, बल-प्रयोग | ये निर्वाण की दृष्टि से गलत साधन हैं । प्रलोभन से निर्वाण का साध्य कैसे सधेगा ? निर्वाण की पहली शर्त है अभय । धर्म का पहला चरण है अभय । जब अभय घटित नहीं हुआ, भय नहीं मिटा तो मोक्ष कैसे मिलेगा ? निर्वाण कैसे होगा ? धर्म कैसे होगा ? अहिंसा पहला Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता कदम नहीं है | पहला कदम है अभय । अहिंसा मुख्य बात नहीं है । मुख्य बात है अपरिग्रह । मैं फिर कहना चाहता हूं कि लोग कहते हैं कि महावीर ने अहिंसा पर बहुत बल दिया । कहने वालों के लिए यह स्वाभाविक है कि वे परिधि को पकड़कर ऐसा कह रहे हैं । वे केन्द्र तक नहीं पहुंच पाते । महावीर ने अहिंसा पर बाद में बल दिया, पहले बल दिया अभय पर | महावीर ने अभय के विषय में जो कहा, वह अनुभव की वाणी है, भारतीय साहित्य में विरल वाणी है । उन्होंने कहा—'डरो मत । किसी से मत डरो | न बीमारी से डरो, न मौत से डरो, न कष्ट से डरो और न भूत से डरो । किसी मत डरो | जो प्राप्त हो, उसे स्वीकार करो | भूत उसी को सताता है, जो डरता है । जो नहीं डरता, उसे भूत नहीं सताता | भूत पुरुषों को कम, स्त्रियों को अधिक सताता है | क्यों ? क्या भूत भी कोई अन्तर करता है स्त्री और पुरुष में ? भूत का स्वभाव है कि जो ज्यादा डरता है, उसे वह ज्यादा सताता है । स्त्रियां ज्यादा डरती हैं, इसलिए भूत भी उन्हें अधिक सताते हैं । जो चूहे से डरे, उसे भूत न डराए यह कैसे संभव हो सकता है ? जो चूहे से भी डर जाती है, भूत उसे अवश्य डराएगा | यह स्वाभाविक है ।। महावीर ने अभय की साधना पर बल दिया । अभय अहिंसा का साधन है | जहां भय है वहां अहिंसा नहीं हो सकती । भय और अहिंसा का कोई मेल नहीं, कोई संगति नहीं । फिर भी कुछ व्यक्तियों ने भय को अहिंसा का साधन मान लिया । एक बिल्ली चूहे पर झपट रही है । किसी ने बिल्ली को डराकर अलग कर दिया । प्रश्न पूछा गया- इस क्रिया में क्या होगा? उत्तर मिलता है-धर्म होगा । फिर पूछा गया--धर्म कैसे हुआ ? उत्तर मिलता है—चूहा बच गया, इसलिए धर्म हुआ । - चूहे को तो बचा लिया पर बिल्ली को डरा कर भगा दिया । बिल्ली को भयभीत कर तुमने भगा दिया और अहिंसा मान लिया । यह दोहरी भूल है । भय के द्वारा यदि अहिंसा फलित होती है तो आज सबसे बड़ी अहिंसक होती राज्य-सत्ता, जिसके पास भय पैदा करने के प्रचुर साधन हैं । आज के शासकों के पास इतनी शक्ति नहीं है, पर प्राचीन राजाओं के पास इतनी शक्ति थी कि ऐसी घोषणाएं करवा देते । भय के सिवाय और कुछ होता ही नहीं । ऐसी स्थिति में सारा धर्म राजाओं के पास चला जाता और डरने ternational Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधन-शुद्धि का सिद्धान्त / २४१ वाली प्रजा अधार्मिक ही रह जाती । धर्म का और अहिंसा का मूल मंत्र है अभय । डराकर कुछ भी किया, वह साधन शुद्ध नहीं माना जा सकता। फिर पूछा गया-डराकर किए जाने वाले कार्य में क्या हुआ? स्पष्ट है, हिंसा हुई। किसी को भी डराना हिंसा है । हिंसा को अहिंसा कैसे माना जा सकता है ? हिंसा को धर्म कैसे माना जा सकता है ? किन्तु ऐसा माना जाने लगा। तब आचार्य भिक्षु ने कहा--- भय के प्रयोग को अहिंसा कैसे माना जा सकता है ? यह कहा जा सकता है कि देखा नहीं गया, रहा नहीं गया और हमने भय का प्रयोग कर बचा डाला | व्यवहार में यह बात ठीक मानी जा सकती है । गांधीजी से पूछा गया-छिपकली आदि जीव दूसरे छोटे-मोटे जीवों को मारते हैं, हम देखते हैं, नहीं छुड़ाते हैं तो आप और हम अहिंसक रह पाएंगे? गांधीजी ने उत्तर दिया-प्रकृति के काम में हस्तक्षेप करना मेरा धर्म नहीं है । प्रकृति अपना काम करती है । मैं कहां-कहां उसमें हस्तक्षेप करूंगा। आचार्य भिक्षु ने कहा-भय पैदा कर अहिंसा की निष्पत्ति करना, अशुद्ध साधन का प्रयोग है। प्रश्न होता है कि इस साधन को अशुद्ध साधन क्यों माना ? यह साधन अशद्ध है निर्वाण और स्वतंत्रता के संदर्भ में। किसी प्राणी की स्वतंत्र चेतना पर आघात या प्रहार करना निर्वाण या मोक्ष का साधन नहीं हो सकता । उस दृष्टि से यह साधन अशुद्ध है । यदि राजनीति की दृष्टि से विचार किया जाए तो यह साधन अशुद्ध नहीं है किन्तु जब हमने साध्य माना है मोक्ष और निर्वाण, उस साध्य के आधार पर चिन्तन करने पर कहना होगा कि भय का प्रयोग शुद्ध साधन नहीं है। दूसरा है-बल-प्रयोग । एक आदमी किसी प्राणी को मार रहा है । एक कसाई बकरे को मार रहा है । एक दयालु व्यक्ति उसके पास गया । उसके हाथ से शस्त्र छीनकर उसे ही मारने लग गया । बकरे को बचा लिया । कसाई को बल-प्रयोग से परास्त कर डाला और समझ लिया कि मैंने बड़ा धर्म किया, अहिंसा का आचरण किया । ____ आचार्य भिक्षु ने इस संदर्भ में कहा—ठीक है । तुम्हें वैसा लगा और कर डाला | तुमने अपना कर्तव्य समझा और उसका आचरण कर लिया । यहां तक तो यह ठीक है । किन्तु अपनी उस प्रवृत्ति को अहिंसा समझ लेना, Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता यह कुछ दुरूह-सा लगता है । क्योंकि बल-प्रयोग शुद्ध साधन की कोटि में नहीं आता । तुमने बल-प्रयोग किया । कसाई का हृदय नहीं बदला । उसका चैतन्य नहीं जागा । यदि बल-प्रयोग से अहिंसा होती तो रक्तक्रान्ति को हम अशुद्ध साधन नहीं कह सकते । मार्क्स ने स्पष्ट शब्दों में कहा—वर्ग-संघर्ष संसार की स्वाभाविक प्रक्रिया है । यह एक ऐतिहासिक दृष्टिकोण है मार्क्सवाद का | वर्ग-संघर्ष शाश्वत है। बुर्जुआ वर्ग या धनी वर्ग सारे साधनों पर अपना एकाधिकार स्थापित कर लेता है तब दूसरे वर्ग में संघर्ष की स्थिति पैदा होती है और वह संघर्ष निरंतर चलता रहता है | इस संघर्ष में विजय प्राप्त करने के लिए श्रमिक वर्ग क्रान्ति का सहारा लेता है और कभी-कभी वह क्रान्ति रक्त-क्रान्ति में परिणत हो जाती है | बल-प्रयोग के द्वारा किसी को बचाना अहिंसा है तो एक गरीब श्रमिक के लिए रक्तक्रान्ति होती है, उसे भी अहिंसा मान लेना चाहिए | उसे हिंसा क्यों माना जाए ? किन्तु हम विचार कर रहे हैं निर्वाण के संदर्भ में । जब निर्वाण की दृष्टि से विचार करेंगे तो हिंसक क्रान्ति, बलप्रयोग, सत्ता का प्रयोग—ये शुद्ध साधन नहीं बन सकते । इन्हें अशुद्ध साधन ही मानना होगा। तीसरी बात है---प्रलोभन के द्वारा अहिंसा की सिद्धि | साध्य है अहिंसा और निर्वाण, साधन है प्रलोभन | लालच देकर हिंसा को रोक दिया और उसे मान लिया अहिंसा । अहिंसा साध्य और उसकी सिद्धि प्रलोभन या लालच के द्वारा होती है । कहीं मेल नहीं बैठता । आचार्य भिक्षु ने एक महत्त्वपूर्ण घोषणा की और वह धार्मिक जगत् के लिए बहुत मूल्यवान है । आचार्य भिक्षु ने कहा—धन से धर्म नहीं होता । यह निश्चित तथ्य है । इतनी स्पष्ट घोषणा धार्मिक जगत् में कभी-कभी ही हुई है । जैसे आर्थिक क्षेत्र में मार्क्स की कुछ घोषणाएं महत्त्वपूर्ण हैं, वैसे ही धार्मिक क्षेत्र में आचार्य भिक्षु की घोषणाएं बहुत महत्त्वपूर्ण हैं । उन घोषणाओं में सबसे महत्त्वपूर्ण है कि धन से धर्म नहीं होता। भय और प्रलोभन ये दोनों धर्म के कीटाणु हैं, धर्म के साधक तत्त्व नहीं, बाधक तत्त्व हैं। सूफी मत की प्रसिद्ध साधिका राबिया एक बार हाथ में झाडू और बाल्टी Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधन-शुद्धि का सिद्धान्त | २४३ लेकर जा रही थी । लोगों ने देखा । वे आश्चर्यचकित रह गए । उन्होंने पूछाएक हाथ में झाडू और दूसरे में पानी से भरी बाल्टी से तात्पर्य क्या है ? राबिया बोली-धर्म के क्षेत्र में भय और प्रलोभन—-ये दोनों बड़ी बीमारियां हैं । मैं भय के कचरे को बुहार देना चाहती हूं और प्रलोभन की आग जो धधक रही है, उसे बुझा देना चाहती हूं | स्वर्ग का प्रलोभन और नरक का भय, पुण्य का प्रलोभन और पाप का भय-ये दोनों वास्तव में बीमारियां हैं। महावीर ने कहा-नरक से मत डरो । स्वर्ग की कामना मत करो । जो कुछ भी करो, आत्मशुद्धि के लिए करो । निर्जरा के लिए करो | यह निर्वाण का सूत्र हो सकता है । निर्वाण का साधन है निर्जरा, यानी संस्कारों को क्षीण करना | पुण्य निर्वाण का साधन नहीं है और पाप भी निर्वाण का साधन नहीं है | भय भी निर्वाण का साधन नहीं है और प्रलोभन भी निर्वाण का साधन नहीं है । ऐसी विडम्बना हो गई कि अहिंसा के नाम से प्रलोभन दिया जाने लगा, आत्मप्रवंचनाएं की जाने लगीं। इन सारे संदर्भो में आचार्य भिक्षु को बहुत चिन्तन करना पड़ा । उन्होंने एक बात बहुत महत्त्वपूर्ण बताई कि भय, बल-प्रयोग और प्रलोभन इनसे प्रतिक्रिया पैदा होती है । भय की अपनी प्रतिक्रिया है, बल-प्रयोग की अपनी प्रतिक्रिया है, प्रलोभन की अपनी प्रतिक्रिया है । वह प्रतिक्रिया हिंसा को जन्म देती है । छुड़ाने चले हिंसा को और हिंसा का और अधिक उपक्रम हो गया। इसलिए ये सारे साधन गलत हैं । फिर प्रश्न आया कि हिंसा को न छुड़ाएं? क्यों नहीं छुड़ाएं, छुड़ाना है । तो फिर प्रश्न हुआ-कैसे छुड़ाए : हिंसा से आदमी को कैसे बचाएं ? आचार्य जिने सूत्र दिया--अहिंसा का शुद्ध साधन है हृदय-परिवर्तन । हिंसा करने वाले का हृदय बदले । हिंसा करने वाले का चैतन्य जागे तो अहिंसा होगी । अहिंसा का और कोई भी उपाय नहीं है । एकमात्र उपाय है हृदय परिवर्तन । सामने वाले का हृदय बदले । हिंसा करने वाले का हृदय बदले तो अहिंसा सिद्ध होगी। प्रक्रिया जटिल है हृदय-परिवर्तन की । किन्तु दूसरा और कोई उपाय भी नहीं है । अहिंसा कैसे हो सकेगी ? आज तो यह बात समझ में आने लग गई है । राजनीति के क्षेत्र में भी कि इस पर बहुत लिखा जाने लगा है। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता कानून कानून है । बल-प्रयोग बल-प्रयोग है । जब तक जनता का हृदयपरिवर्तन नहीं होगा, तब तक वास्तव में कृतार्थता नहीं होगी । यह अनुभव कर लिया गया है कि कानून के बल पर जनता को नहीं बदला जा सकता। कानून पर कानून बनाए गए । इतने कानून बना दिए गए कि कानूनों का अंबार लग गया । एक वकील की लायब्रेरी देखो तो ऐसा लगेगा कि बेचारा क्या करता होगा? कहां-कहां घूमता होगा? कितनी माथापच्ची करता होगा | कितनी कानून की नयी-नयी पुस्तकें आती रहती हैं । कैसे काम चलता होगा? इतना कानून होने पर भी, क्या अपराध कम हुए ? क्या चोरियां कम हुईं ? क्या डकैतियां कम हुईं ? क्या लूट-खसोट कम हुई ? सब कुछ वैसे ही चल रहा है | कानून अपना काम कर रहा है । चोर अपना काम कर रहे हैं । दोनों ने समझौता कर लिया कि तुम भी चलो, हम भी चलें । तुम भी जीओ और हम भी जीएं। ऐसा समझौता कर लिया कि अपराध भी चले और कानून भी चले । बराबर का समझौता हो गया । बल-प्रयोग से यदि अहिंसा होती तो काम बन जाता, हृदय बदल जाता तो साम्यवादी राष्ट्रों की सारी जनता बदल जाती । किन्तु साम्यवादी सूचनाओं के अनुसार यह ज्ञात होता है कि इतने वर्षों के सत्ता के नियन्त्रण के बाद भी आदमी नहीं बदला है। लाखों के घोटाले हो जाते हैं, मिलावटें हो जाती हैं, भ्रष्टाचार होता है साम्यवादी राष्ट्रों में । निर्वाण का मुख्य साध्य है—-आदमी बदले । निर्वाण का अर्थ है आदमी का बदलना | आदमी की वृत्तियों का बुझ जाना । आदमी की वृत्तियों का शान्त हो जाना | हमारे सामने साध्य है कि आदमी बदले, आदमी की वृत्तियां बदलें, दृष्टिकोण बदले, उसका चरित्र बदले । यह हमारा साध्य है । जब हृदय नहीं बदलेगा वे सारे कैसे बदलेंगे ? उनको बदलने का एकमात्र कोई साधन है तो वह है चैतन्य का जागरण । जब चैतन्य जागता है, हृदय का परिवर्तन होता है, तब ये सारी बातें बदल जाती हैं । यह काम न भय से हो सकता है और न बल-प्रयोग से हो सकता है और न आर्थिक प्रलोभन से हो सकता है । इस सारे संदर्भ में जब साधन-शुद्धि का विचार करते हैं तो इस निष्कर्ष पर पहुंचना होता है कि अहिंसा का साधन हिंसा नहीं हो सकती । भय भी हिंसा है । बल-प्रयोग भी हिंसा है । सत्ता का प्रदर्शन भी Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधन-शुद्धि का सिद्धान्त । २४५ हिंसा है । आर्थिक प्रलोभन भी हिंसा है । धन से धर्म नहीं हो सकता । हिंसा से अहिंसा नहीं हो सकती । प्रश्न थोड़ा आगे बढ़ सकता है । कुछ लोगों ने आगे बढ़ाया भी है कि हिंसा से तो धर्म होता है । एक व्यक्ति कोई भी धर्म का काम करता है, अहिंसा का काम करता है, तो पहले हिंसा करता है, बाद में अहिंसा होती है । आचार्य भिक्षु ने इस पर बहुत सुन्दर प्रकाश डाला है । एक व्यक्ति ने आकर कहापुस्तकें नीचे नहीं रखनी चाहिए । क्योंकि यह ज्ञान है । आचार्य भिक्षु ने कहाबड़ी अजीब बात है । सुझाव अच्छा है । पुस्तकें नीचे नहीं रखनी चाहिए, उनका सम्मान करना चाहिए । पर पुस्तकें ज्ञान है, यह बात गलत है । अगर पुस्तक ज्ञान है, तो फिर पुस्तक खो गई तो ज्ञान भी खो गया । पुस्तक फट गई तो ज्ञान भी फट जाएगा । पुस्तक चुरा ली गई तो ज्ञान भी चुरा लिया जाएगा । पुस्तक ज्ञान कहां है ? पुस्तक ज्ञान का साधन नहीं है, निमित्त है | बहुत बड़ा अन्तर है निमित्त और साधन में । साधन वह होता है जो साधकतम होता है | ज्ञान का साधन है—हमारी बुद्धि, न कि पुस्तक | घी निकाला । घी का साधन क्या है ? दही । दही का साधन है दूध । दूध का साधन है गाय । गाय के दूध बनने का साधन है घास । घास का साधन है उसे उगाने वाला पानी और भूमि | चलते चलो | साधन-माला इतनी लंबी हो जाएगी कि दुनिया का एक पत्ता भी नहीं बचेगा, जो साधन नहीं बनता हो । वास्तव में घी का साधन है दूध । शेष सारे निमित्त हैं । इसी प्रकार धर्म का साधन है अहिंसा । हिंसा साधन नहीं बन सकता धर्म का, वह कहीं लम्बी श्रृंखला में निमित्त बन सकता है। साध्य-साधन की मीमांसा के संदर्भ में आचार्य भिक्षु का सूत्र है—शुद्ध साध्य के लिए शुद्ध साधन ही कार्यकर होते हैं । अशुद्ध साधनों से शुद्ध साध्य की उपलब्धि नहीं हो सकती । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा सार्वभौम और अणुव्रत हिंसा और अहिंसा जीवन-कालचक्र के रात और दिन हैं । जीवन के लिए हिंसा अनिवार्य मानी जाती है । समाज-रचना के लिए अहिंसा अनिवार्य है। कोई भी व्यक्ति अकेला नहीं जी सकता ! उसे समाज में ही जीना होता है । कोई भी जीवन केवल हिंसा से नहीं चलता और समाज की रचना हिंसा से हो ही नहीं सकती । हिंसक मनुष्य कभी अपना समाज नहीं बना सकता। समाज के मूल में अहिंसा की प्रेरणा रही है । एक साथ रहना, एक साथ जीना, अहिंसा की प्रेरणा के बिना संभव नहीं हो सकता । आज अहिंसा का प्रश्न एक नये संदर्भ में उपस्थित हो रहा है । और आज का नया संदर्भ है आज का 'अणु-अस्त्र' । आज की आणविक अस्त्रों की विभीषिका ने अहिंसा को फिर से पुनर्जीवन प्रदान किया । धार्मिक दृष्टि से अहिंसा पर विचार प्राचीनकाल से चलता आ रहा है। एक समय था जब अहिंसा का मूल्य केवल धार्मिक था, किन्तु आज उसका सामाजिक मूल्य भी है और जब संपूर्ण मानवजति की समाप्ति का चित्र प्रस्तुत होता है तब हर आदमी कांप उठता है । लगता है मानवजाति का अस्तित्व ही समाप्त होने की स्थिति में है । इस स्थिति के संदर्भ में यह अत्यावश्यक हो गया है कि अहिंसा को नये संदर्भ में देखा जाए, समझा जाए और हिंसा की भयानकता को कम करने की दिशा में मनुष्य के चरण आगे बढ़ें। अहिंसा के तीन आयाम हो जाते हैं— व्यक्ति की अहिंसा, समाज की अहिंसा और जागतिक अहिंसा । आज व्यक्ति की अहिंसा और समाज की अहिंसा का मूल्य कम हो गया है । जागतिक अहिंसा का नया मूल्य स्थापित होने जा रहा है । किन्तु कठिनाई यह है कि जगत् बहुत बड़ा है | जो जितना Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा सार्वभौम और अणुव्रत / २४७ बड़ा होता है, उसका नियमन भी उतने ही शक्तिशाली बड़े शस्त्र से किया जा सकता है। धर्म के क्षेत्र में अहिंसा की जो अवधारणा रही, वह वैयक्तिक अधिक थी । आज का आदमी सोचता है जागतिक भाषा में और यह एक विचारभेद भी है। किन्तु प्रश्न वहीं का वहीं स्थिर हो गया । क्या अहिंसा के विकास के बिना सार्वभौम या जागतिक अहिंसा का विकास संभव है ? __ प्रश्न होता है कि अहिंसा का प्रारंभ कहां से होगा ? एक वलय है । उसका आदि-बिन्दु नहीं खोजा जा सकता। वह कहीं से प्रारंभ नहीं हो सकता। वलय चक्राकार है, वर्तल है। उसका आदि-बिन्द नहीं मिलता। किन्त अहिंसा वलय नहीं है । वह एक सीधी रेखा है । रेखा का प्रारंभ-बिन्दु होता है । हर रेखा बिन्दुओं से निर्मित होती है। अहिंसा एक सीधी रेखा है । उसका आरंभ बिन्दु हमें खोजना है। अहिंसा का आरंभ बिन्दु है व्यक्ति । अहिंसा का आरंभ व्यक्ति से होता है । व्यक्ति-व्यक्ति से, बिन्दु-बिन्दु से एक रेखा बनेगी और वह रेखा बढ़ते-बढ़ते महारेखा बन जाएगी । महारेखा सार्वभौम और जागतिक होगी । अहिंसा सार्वभौम और जागतिक हो जाएगी। किन्तु क्या बिन्दु के बिना रेखा निर्माण किया जाना संभव होगा? कभी संभव नहीं है । अणुव्रत आन्दोलन का यह चिन्तन रहा है और इसी आधार पर अणुव्रत-अनुशास्ता ने एक सूत्र दिया- सुधरे व्यक्ति, समाज व्यक्ति से, राष्ट्र स्वयं सुधरेगा | व्यक्ति सुधरेगा तो समाज सुधरेगा, समाज सुधरेगा तो राष्ट्र सुधरेगा, राष्ट्र सुधरेगा तो जगत सुधरेगा । हमें पहले बिन्दु को पकड़ना होगा । पहले बिन्दु को पकड़े बिना यदि अहिंसा सार्वभौम की बड़ी कल्पना को लेकर चलेंगे.तो बहुत सार्थक बात नहीं होगी । व्यक्ति की अपनी समस्या है | उसमें आसक्ति है, आवेश और आग्रह है । भय और प्रतिक्रिया है, असहिष्णुता और असंतुलन है । हिंसा के जितने बीज हैं, वे सारे के सारे प्रत्येक व्यक्ति में विद्यमान हैं । हिंसा के पनपने के लिए प्रत्येक व्यक्ति उर्वरा भूमि है । कोई भी व्यक्ति बंजर भूमि नहीं है । उस भूमि में हिंसा के हर बीज को बोया जा सकता है, पल्लवित और पुष्पित किया जा सकता है । यदि हिंसा के लिए व्यक्ति बंजर भूमि होता तो हिंसा का खतरा कभी नहीं बढ़ता । आज हिंसा का खतरा इसीलिए बढ़ा है कि Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता व्यक्ति की भूमि बहुत उर्वरा है । उसे उर्वरक देने की भी जरूरत नहीं होती। बिना उर्वरक के ही वहां बीज पल्लवित हो जाता है | बीज बोने के लिए समय ही नहीं लगता । यह यथार्थ स्थिति है । हिंसा के विकसित होने के सारे कारण विद्यमान हैं । ऐसी अवस्था में हम अहिंसा सार्वभौम की कल्पना कैसे करें ? एक विरोधाभास और विसंगति-सी लगती है । किन्तु आदमी अपने प्रत्यन से हर असंभव बात को संभव बना सकता है | असफल को सफल बना सकता है। एक व्यक्ति ने एक कन्या से पूछा- तुम किसकी लड़की हो ? कन्या विदुषी थी । उसने कहा—मैं उसकी लड़की हूं, जिसने भयंकर नागों को विषहीन बना डाला, जिसने मदोन्मत्त हाथियों को शान्त कर डाला और जिसने बड़े-बड़े शूरवीर योद्धाओं को वीर्यहीन कर डाला । कैसे संभव है कि सांप निर्विष हो जाए? कैसे संभव है कि हाथी शान्त और विनीत बन जाए ? कैसे संभव है कि आक्रामक योद्धा शान्त और शक्तिहीन हो जाए? असंभव लगता है। किन्तु कन्या ने कहा- मैं उसकी पुत्री हूं जिसने ये तीनों असंभव काम किए हैं। तात्पर्य समझने में कठिनाई नहीं हुई कि वह चित्रकार की पुत्री थी। चित्रकार ने विषधर का चित्र बनाया । कैसे होता उसमें विष ? उसने मदोन्मत्त हाथी का चित्र बनाया, पर उसमें से मद कैसे झरता ? उसने योद्धा का चित्र बनाया । वह शक्ति से पूर्ण तथा आक्रामक स्थिति में अवस्थित है, पर है शान्त । __केवल चित्र का ही ऐसा निर्माण नहीं होता, ऐसे व्यक्तित्व का भी निर्माण संभव है, असंभव नहीं । कारण क्या रहा ? अहिंसा की चर्चा बहुत होती है, केवल चर्चाएं होती हैं | आज अहिंसा में शक्ति कहां है ? आज युद्ध में जाने के लिए कहां हैं वे अहिंसक सैनिक ? कहीं नहीं हैं । अहिंसा शक्तिहीन हो गई। चित्र में चित्रित-सी हो गई। अहिंसा देवी का सुन्दर चित्र आज उपलब्ध है । चित्र को दखने से लगता है कि अहिंसा देवी के अंग-प्रत्यंग से शक्ति का क्षरण हो रहा है, पर वह है चित्रगत । यह जीवित अहिंसा की बात नहीं हो सकती । आज जहां भी अहिंसा की चर्चाएं हो रही है, लगता है वे सारी चर्चाएं चित्रकार की अहिंसा की चर्चाएं हैं, चित्रकला की निपुणता की चर्चाएं हैं, परमार्थ की चर्चाएं नहीं हैं। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा सार्वभौम और अणुव्रत / २४९ अहिंसा में बहुत बड़ी शक्ति नहीं है, पर आज की सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि आज न तो अहिंसक बनने के बारे में प्रशिक्षण दिया जा रहा है। और न अहिंसा के विषय में कोई प्रयोग चल रहा है, न कोई शोध हो रही है । कुछ भी नहीं हो रहा है । केवल चर्चा ही चर्चा है । अहिंसा की चर्चा और अहिंसा का उपदेश । मुझे नहीं पता कि अहिंसा का निरन्तर उपदेश देने वाले व्यक्तियों में अहिंसा के प्रति कितनी आस्था है । उनका उपदेश क्या सुनी-सुनाई बातों पर ही तो आद्धृत नहीं है ! अहिंसा की रट लगाने वालों में अहिंसा के प्रति कितनी श्रद्धा है, यह एक प्रश्नचिह्न है | आस्थाशून्य स्वर क्या अहिंसा को प्रतिष्ठित कर पाएंगे? यह महत्त्व का प्रश्न है। ___ आज हिंसा शक्तिशाली बन रही है, क्योंकि हिंसक में हिंसा के प्रति गहरी निष्ठा है, आस्था है | वह मानता है कि अहिंसा से कभी काम सफल नहीं हो सकता। हिंसा का यह चमत्कार है कि वह दो मिनट में कार्य संपादित करा सकती है । हिंसक के मन में यह संदेह नहीं होता कि कार्य होगा या नहीं ! वह निश्चित जानता है कि हिंसा का प्रयोग होते ही कार्य हो जाएगा। मां बच्चे को समझाती है । वह नहीं मानता, तब मां उसे मारती है, पीटती है । बच्चा शान्त हो जाता है । मां का हिंसा में विश्वास है, वह और पक्का हो गया | मां का तर्क है, जब तक मारा-पीटा नहीं तब तक बच्चा रोता रहा । मार पड़ते ही शान्त हो गया। आदमी जीवन के हर क्षेत्र में अनुभव कर रहा है कि जो काम समझाने-बुझाने से नहीं होता, वह काम हिंसा के सहारे तत्काल हो जाता है । हिंसा के प्रति लोगों की गहरी आस्था जम गई । उनमें ईंट के प्रति पत्थर का प्रयोग करने की गहरी आस्था है। दो गाली देने के बदले पचास गाली देने में उनकी निष्ठा है । हिंसक के मन में हिंसक के प्रति प्रचुर आस्था है । दूसरी बात है कि हिंसा का प्रयोग करते ही कार्य संपन्न हो गया, यह बात हिंसा के लिए अवकाश उपस्थित करती है । हिंसक को न उपदेश देने की जरूरत होती है और न प्रचार करने की । उसे हिंसा का संस्थान भी नहीं बनाना पड़ता | फिर भी उसकी हिंसा को प्रोत्साहन मिलता है। उसकी हिंसा सफल होती है । आज पुलिस के जवानों और सैनिकों को व्यवस्थित प्रशिक्षण दिया जाता है कि प्रहार कैसे किया जाए ? अपराधी को कैसे पकड़ा जाए ? उसे यातनाएं कैसे दी जाएं ? जुलूस को कैसे तितर-बितर किया जाए ? Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता इनका पूरा-पूरा प्रशिक्षण दिया जाता है । यह सारा हिंसा का ही प्रशिक्षण है । हिंसा के साधनों को विकसित करने के लिए अपार धनराशि का व्यय हो रहा है । अरबों-खरबों रुपए के शस्त्रास्त्र बनाए जा रहे हैं । कितने बड़ेबड़े कारखाने चल रहे हैं हिंसा की सामग्री को तैयार करने के लिए | हिंसा का प्रयोग चल रहा है । हिंसा की शोध हो रही है | नये-नये मार्ग, नये-नये साधन खोजे जा रहे हैं । हिंसा की पूरी तैयारी है। इसकी तुलना में बेचारी अहिंसा को कहां खड़ी करें । एक ओर है हिंसा की शक्ति, दूसरी ओर है अहिंसा की शक्ति । अहिंसा की शक्ति के प्रति न आस्था है और न उसके प्रशिक्षण का व्यवस्थित क्रम है । न प्रयोग है, न अनुसंधान है और न पूरी सामग्री है । केवल अहिंसा के प्रतिष्ठान स्थापित हैं । इससे ज्यादा कुछ भी नहीं है । कभी-कभार अहिंसा के विषय में सेमीनार हो जाते हैं, कुछ गोष्ठियां और चर्चाएं हो जाती हैं, बात समाप्त । अहिंसा की इतनी कमजोर शक्ति और हिंसा की इतनी प्रचंड शक्ति । दोनों की तुलना करता हूं तो, 'अहिंसा सार्वभौम' एक मजाक और मखौल-सा लगने लग जाता है | इस संदर्भ में अहिंसा का जो स्वर उठ रहा है, उसे निरर्थक माना जाए? उसे अस्वाभाविक माना जाए! नहीं, उसे अस्वाभाविक नहीं माना जा सकता। आज अहिंसा को कोई जिलाए हुए है तो वह है हिंसा की विभीषिका । हिंसा की इतनी विभीषिका नहीं होती तो अहिंसा की चर्चा बन्द हो जाती । किन्तु हिंसा ने मनुष्य के सामने मृत्यु का तांडव नृत्य प्रस्तुत कर डाला है । इसलिए आदमी विकल्प खोज रहा है कि इस मृत्यु के मुख से कैसे बचा जाए | मुंडेर । पर खड़ी मृत्यु से कैसे बचा जाए? जब विकल्प खोजने की बात सामने आती है तब अहिंसा के सिवाय दूसरा कोई विकल्प प्रस्तुत नहीं होता । एक समय था अहिंसा के कंधे पर चढ़कर हिंसा जी रही थी और आज हिंसा के कंधे पर चढ़कर अहिंसा जीने का प्रयास कर रही है । सहारा हिंसा दे रही है । इस स्थिति में, अन्य विकल्प के अभाव में समूचे संसार में अहिंसा , का स्वर मुखरित हो रहा है। हम भी अहिंसा के स्वर को धार्मिक और आध्यात्मिक संदर्भ में नहीं खोज रहे हैं किन्तु जागतिक हिंसा के संदर्भ में खोज रहे हैं। आज का जागतिक संदर्भ हिंसा का है | उसके लिए अहिंसा की चर्चा करें और वह भी व्यक्ति के विन्दु को सामने रखकर, अणुव्रत के मंच से । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा सार्वभौम और अणुव्रत / २५१ हिंसा का सारा विकास व्यक्ति की आकांक्षा के कारण हुआ है । उसको कैसे मिटाया जाए ? व्यक्ति को कैसे बदलें ? व्यक्ति की अक्रामक मनोवृत्ति में कैसे परिवर्तन ला सकें ? केवल आदेशों के द्वारा यह बात संभव नहीं हो सकती । उपदेश भी होगा, चिंतन भी होगा, अहिंसा से व्यक्ति प्रभावित भी होगा, किन्तु वह प्रभाव अस्थायी न बने, क्षणिक न बने । उसका स्थायित्व हो । उस स्थायित्व के लिए क्या किया जाए, इस पर वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करना होगा । व्यक्ति का मस्तिष्क रसायनों का भंडार है । हमारी ग्रन्थियां और मस्तिष्क बहुत रसायन पैदा कर रहे हैं। मस्तिष्क को सुपर केमीकल प्लाण्ट कहा जाता है । रसायनों को पैदा करने वाला मस्तिष्क एक बड़ा कारखाना है । मस्तिष्क में 'टेरोपिन' और 'थेरोपिन' नामक रसायन उत्पन्न होते हैं । ये दोनों संतुलन बनाए रखते हैं कि व्यक्ति आक्रान्ता न बने । किन्तु जब इनका संतुलन बिगड़ जाता है तब व्यक्ति की आक्रामक वृत्तियां जाग जाती हैं । आज बड़े-बड़े राष्ट्राध्यक्षों और सैनिक मनोवृत्ति वाले राजनेताओं का संतुलन बिगड़ा हुआ है । उनकी आक्रामक वृत्ति प्रबल हो रही है । यह संतुलन बिगड़ता है 'हाइपोथेरेप' का संतुलन बिगड़ने के बाद । जब व्यक्ति में आसक्ति और आवेग का प्रबल वेग होता है तब संतुलन अस्त-व्यस्त हो जाता है । वह लड़खड़ा जाता है । ऐसे व्यक्तियों में यदि रासायनिक संतुलन स्थापित किया जा सके तो बहुत बड़ी बात होती है । मैं देखता हूं कि अनेक दिशाओं से प्रयत्न होना जरूरी है— धार्मिक और आध्यात्मिक मंच से, मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक मंच से, प्रायोगिक और राजनैतिक मंच से—इन सभी मंचों से मिला-जुला एक ऐसा प्रयत्न हो, जो हिंसा की भयानकता का निदान खोज सके । उसका कोई विकल्प खोज सके । ऐसा करने से सारी मनुष्य जाति का भला हो सकेगा । किन्तु चुनना होगा व्यक्ति को । व्यक्ति से प्रारंभ करना होगा। एक व्यक्ति से क्या होगा ? एक व्यक्ति से अनेक व्यक्ति होंगे। जब अनेक व्यक्ति शक्तिशाली बनते हैं तो सारे संसार को प्रभावित कर देते सबसे पहली बात है कि व्यक्तिव्यक्ति में गहरी आस्था जगा दे । गांधी कोई जगत् नहीं था, मार्टिन लूथर • Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता कोई जगत् नहीं था । व्यक्ति जगत् नहीं होता, पर वह इतना शक्तिशाली होता है कि समूचे जगत् को प्रभावित कर देता है । महावीर और बुद्ध जगत् नहीं थे । किन्तु जिस व्यक्ति में जितनी गहरी आस्था होगी, उस व्यक्ति में उतनी ऊंचाई आ जाएगी, वह ऊंचाई उसके लिए दृश्य बन जाएगी । प्रश्न है आस्था का । आज सबसे बड़ी कमी है आस्था की | मनुष्य ने आस्था खो दी । आदमी की सत्य के प्रति आस्था नहीं है । अहिंसा के प्रति आस्था नहीं है। किसी बात के प्रति आस्था नहीं है । मनुष्य के प्रति भी उसकी आस्था नहीं है । विश्वास नहीं है । मिश्रा और वर्मा दोनों मित्र थे । एक बार वर्मा अपने मित्र मिश्रा के घर गया । घर का द्वार बंद था । नीचे से पुकारा । मिश्रा ने अपने नौकर से कहा- कह दो मिश्राजी अंदर नहीं हैं। नौकर ने ऊपर से कहा- भाई साहब ! मिश्राजी भीतर नहीं हैं। बाजार गए हैं। वर्मा अपने घर लौट गया । कुछ दिनों बाद कार्यवश मिश्रा वर्मा के घर गया । नीचे का द्वार बंद था । खटखटाया । ऊपर से वर्मा ने कहा— वर्माजी अभी बाहर गए हुए हैं । घर में नहीं हैं | मिश्रा बोले-अरे, तुम सामने खड़े हो और अपनी उपस्थिति को स्वयं नकार रहे हो ! तुम तो बड़े विचित्र मित्र निकले ! वर्मा ने कहा- वाह ! मैंने तो तुम्हारे नौकर पर भी भरोसा कर लिया था और तुम मुझ पर भरोसा नहीं कर रहे हो ! तुम बड़े विचित्र मित्र हो । आज आदमी आदमी पर ही नहीं, किसी पर भरोसा नहीं करता । भरोसा स्वयं पर भी नहीं है और साथ रहने वालों पर भी नहीं | पति का भरोसा पत्नी पर नहीं है और पत्नी का भरोसा पति पर नहीं है । किसी का किसी पर भरोसा नहीं है । 'आस्था' नाम के तत्त्व का आज जितना ह्रास हुआ है, अतीत में हुआ या नहीं, इसका अनुसंधान करना होगा । जब आस्था टूटती है तब आदमी के पैर लड़खड़ा जाते हैं । आज अहिंसा के प्रति आदमी के मन में कोई आस्था नहीं रही । यह कहने में कोई कठिनाई नहीं है । अहिंसा का अर्थ है- राग द्वेष-मुक्त जीवन जीना, स्वतंत्रता का जीवन जीना, निष्पक्षता का जीवन जीना । किन्तु आज प्रत्येक व्यक्ति आवेश का जीवन जी रहा है । राग-द्वेष का जीवन जी रहा है और पक्षपात का जीवन जी रहा है । राग-द्वेष मुक्त जीवन जीने के प्रति उसकी कोई आस्था नहीं Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा सार्वभौम और अणुव्रत । २५३ है । इस विषम स्थिति में पहला काम यह होता है कि आदमी में अहिंसा के प्रति आस्था निर्मित की जाए । पांच-दस व्यक्ति भी यदि गहरे आस्थावान् बनाए जा सकें तो जागतिक काम हो सकेगा। पूरे जगत् पर कभी पानी नहीं छिड़का जा सकता, किन्तु पानी के अपने-अपने स्रोत हैं । अगर एक स्रोत कहीं शक्तिशाली होता है तो उसकी पहुंच सारे संसार तक हो सकती है । यदि अहिंसा का प्रयोग कहीं सफल होता है तो आदमी की उसके प्रति आस्था अवश्य जागती है । कठिनाई है प्रयोग और प्रशिक्षण की । आज भी यह एक प्रश्न बना हुआ कि अहिंसा में विश्वास करने वाले जितने संस्थान हैं, क्या उनमें कहीं वैज्ञानिक प्रणाली से अहिंसा का शोध हो रहा है ? प्रयोग हो रहा है ? क्या कहीं हृदय परिवर्तन का प्रयोग किया जा रहा है ? यह तो सुनने को मिलेगा कि साम्यवादी देशों में ब्रेन-वाशिंग का प्रयोग चल रहा है, प्रशिक्षण चल रहा है ? किन्तु कहीं भी अहिंसा का प्रशिक्षण दिया जा रहा हो ऐसा सुनने में नहीं आता । एक ओर तो शक्तिशाली अस्त्रों का प्रयोग और एक और केवल भाषण । दोनों में सामंजस्य कहां है ? आज प्रत्येक अहिंसावादी के सामने यह चिन्तन का प्रश्न है। जब तक इस पर गंभीरता से चिंतन नहीं किया जाएगा, अहिंसा की दुहाई देने वाला व्यक्ति स्वयं हास्यास्पद बनता चला जाएगा । अणुव्रत आन्दोलन को चलते कितने वर्ष बीत गए । अहिंसा उसका पहला अणुव्रत है । 'संकल्पपूर्वक किसी जीव की हिंसा नहीं करूंगा' यह उसका पहला संकल्प है। क्या इतना सा संकल्प स्वीकारने से अणुव्रत आन्दोलन चरितार्थ हो जाएगा ? उसकी उपयोगिता प्रमाणित हो जाएगी ? यह एक प्रश्नचिह्न है । इसी प्रश्न को समाहित करने के लिए चिन्तन चला और चलता रहा है । अहिंसा के संकल्प को स्वीकारने से अहिंसा चरितार्थ नहीं होती । उस संकल्प में बाधा डालने वाले जितने तत्त्व व्यक्ति में हैं, उनकी सफाई की जाए । उनके परिष्कार की कोई प्रक्रिया प्रस्तुत की जाए । व्यक्ति को बदला जाए | जब व्यक्ति बदलेगा तो उस बदलाव की प्रक्रिया होगी, अभ्यास और प्रशिक्षण होगा। इससे एक नहीं, अनेक व्यक्ति बदलेंगे। जो भी इस प्रक्रिया से गुजरेगा, वह बदलेगा । बिना अभ्यास के व्यक्ति नहीं बदलता । हर व्यक्ति को अभ्यास करना होता है । अभ्यास जैसे-जैसे पकता Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता है, व्यक्ति में बदलाव आता है और तब अभीप्सित कार्य संपन्न होता है । छोटा बच्चा जब पढ़ने जाता है तब सबसे पहले वह वर्णमाला का अभ्यास करता है । कोई भी अणुव्रती बनने वाला अहिंसा की लिपि को नहीं सीखता तो वह अणुव्रतों की भावना को कैसे जीवन में उतार सकता है ? अणुव्रती ही नहीं, महाव्रती बनने वाला भी अहिंसा की वर्णमाला का अभ्यास नहीं करता । मैंने आज केवल एक प्रश्न को उभारा है । यह इसलिए उभारा है कि ब्रेललिपि का प्रचलन चल रहा है । यह लिपि अंधे व्यक्तियों के लिए है । यह उभरी हुई लिपि है, अंधे पढ़ नहीं सकते, पर अंगुलियों के स्पर्श से उभरी हुई लिपि के आधार पर पढ़-लिख सकते हैं । अहिंसा की लिपि को पढ़ने के लिए व्यक्ति को जितना चक्षुष्मान् होना चाहिए, उतना वह चक्षुष्मान् नहीं है । उस लिपि को पढ़ने के लिए आंख में जितनी ज्योति और शक्ति अपेक्षित है, वह नहीं है । इसलिए उस लिपि को एक बार उभार देना अपेक्षित लगता है । इसलिए मैंने यह प्रश्न उभारा है । इस विषय पर बहुत लंबी चर्चाएं जरूरी हैं। चर्चा ही नहीं, मैं कल्पना करता हूं कि अणुव्रत के मंच से अहिंसा सार्वभौम का कार्यक्रम प्रारंभ हो । उसका तीन सूत्री कार्यक्रम होगा १. अहिंसा के विषय में अनुसंधान २. अहिंसा के प्रयोग ३. अहिंसा का प्रशिक्षण इसके क्रियान्वयन से यह आशा की जा सकती है कि आज अहिंसा को हिंसा से जो चुनौती मिल रही है तो एक समय ऐसा आ सकता है कि अहिंसा हिंसा के सामने चुनौती बनकर उपस्थित हो। इससे मानवजाति की जो विकट समस्या है, उस समस्या का समाधान का एक छोटा-सा बिन्दु, एक छोटी सी प्रकाश-किरण मानव के भाग्याकाश में चमक सकती है और तब पूरी मानवजाति को सुख की सांस लेने का अवसर मिल सकता है । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वास्थ्य और प्रसन्नता शब्दों के बिना हमारी यात्रा नहीं चलती । हमारे भाव सदा शब्दों से आंख मिचौनी किया करते हैं । दोहरी कठिनाई है । शब्दों का संसार बहुत बड़ा है और उसकी वयाख्या भी बहुत बड़ी है । भाव का संसार भी बड़ा है | शब्द उसकी व्याख्या नहीं कर पाते । हम दो शब्दों से परिचित हैं | एक है हर्ष और दूसरा है विषाद । हम प्रसन्नता से परिचित नहीं हैं । यह दोनों से भिन्न है । मुसकराना, हंसना, चेहरे पर मुसकान का दौड़ जाना यह हर्ष है, प्रसन्नता नहीं । हर्ष के साथ विषाद का होना अवश्यंभावी है । दोनों जुड़े हुए हैं । एक के बाद दूसरा होता है । दिन के बाद रात और रात के बाद दिन का होना अटल नियम है । इसी प्रकार हर्ष के बाद विषाद और विषाद के बाद हर्ष का होना अनिवार्य है । केवल हर्ष या केवल विषाद कभी नहीं होता । यह द्वन्द्व सदा साथ रहता है । यह कभी नहीं बिछुड़ता । प्रसन्नता तीसरी स्थिति है । यह न हर्ष से जुड़ी हुई है और न विषाद से जुड़ी हुई है । यह इस द्वन्द्व से अतीत है, दोनों से परे की स्थिति है । प्रसन्नता का अर्थ है चित्त की निर्मलता | प्रसन्नं आकाशं—आकाश प्रसन्न तब होता है जब वह निर्मल होता है, बादलों से शून्य होता है । जब सारे बादल बिखर जाते हैं, तब आकाश को प्रसन्न कहा जाता है। बहुत बड़ा अन्तर है प्रसन्नता में और हर्ष में । हर्ष होता है इष्ट वस्तु की उपलब्धि होने पर | जब सारे विघ्न मिट जाते हैं, अनुकूलताएं होती हैं, तब हर्ष होता है | जब अनुकूल बात प्राप्त नहीं होती, तब विषाद छा जाता Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता साधना के क्षेत्र में यह द्वन्द्व एक विघ्न है | साधना के क्षेत्र में जितना हर्ष का मूल्य है उतना विषाद का मूल्य है । हर्ष का कोई अतिरिक्त मूल्य नहीं है | साधना करने वाले साधक भी प्रवाहपाती होकर मन की अनुकूलता पर अतिरिक्त हर्षित हो जाते हैं और मन की प्रतिकूलता पर विषादग्रस्त हो जाते हैं । अनुकूलता पर हर्षित होना और प्रतिकूलता पर कुम्हला जाना यह द्वन्द्व के घेरे में जीने वालों की स्थिति है । यह साधना की स्थिति नहीं है । यह पदार्थ जगत् में जीने वालों की स्थिति है । जो लोग पदार्थ से हटकर आत्मा का जीवन जीना चाहते हैं, उन्हें हर्ष और विषाद से दूर हटकर प्रसन्नता का जीवन जीने का अभ्यास करना होगा, चित्त की निर्मलता का जीवन जीने का अभ्यास करना होगा । महर्षि पतंजलि के सामने प्रश्न आया कि प्रसन्नता कब प्राप्त होती है ? उन्होंने कहा-- निर्विचारवैशारद्येऽध्यात्मप्रसाद:--बहुत मार्मिक बात है। निर्विचार ही विशारदता से अध्यात्म की विशारदता प्राप्त होती है और उससे प्रसाद प्राप्त होता है । प्रसाद यानी गुरु या देव की कृपा । यही है प्रसन्नता । मंदिर में जाते हैं और प्रसाद लेना चाहते हैं | उसके साथ प्रसन्नता जुड़ी हुई होती है । अध्यात्म की विशारदता प्राप्त होती है, तब प्रसन्नता प्राप्त होती है । फिर प्रश्न होता है कि अध्यात्म की विशारदता कब आती है ? वह हर किसी में नहीं आती । साधना के मार्ग पर चलने वाले में भी नहीं आती। उसकी प्राप्ति में कुछ बाधाएं हैं, कुछ आवरण हैं | जब तक ये बाधाएं या आवरण नहीं मिटते, तब तक प्रसन्नता प्राप्त नहीं होती । एक संन्यासी अपने भक्त पर प्रसन्न हुआ | उसने सोचा- यह भक्त मेरी सेवा करता है, इसे कुछ दूं । उसने देने की बात सोची । उसने अपने चिमटे से बंधा एक पत्थर निकाला और उसे भक्त को देते हुए कहा-'यह पारसमणि पत्थर है। इससे लोहा सोना बन जाता है। मैं तुम पर प्रसन्न हूं | इसे ले जाओ । मालामाल हो जाओगे।' भक्त ने सोचा–पत्थर से लोहा सोना कैसे हो सकता है ? उसका मन संदिग्ध हो गया । संन्यासी समझ गया । उसने लोहे की एक सूई ली, पारसमणि पत्थर से उसको छुआ और वह सोने की हो गई | भक्त का संदेह नहीं मिटा । उसने संन्यासी से कहा- 'आप मुझे धोखा दे रहे हैं ।' संन्यासी ने कहा.— 'धोखा कैसे ? तुम्हारे सामने ही Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वास्थ्य और प्रसन्नता / २५७ तो मैंने लोहे की सूई को सोने की बनाई है, फिर धोखा कैसे ?' भक्त बोला'यह पत्थर इतने दिनों तक चिमटे में बंधा हुआ ही था | चिमटा लोहे का है, फिर वह मणि-पत्थर के प्रभाव से सोने का क्यों नहीं हुआ ? संन्यासी ने कहा-'तम ठीक कहते हो । तम्हारा संदेह ठीक है। यह मणि चिमटे से बंधा हुआ था, पर इसके बीच में कपड़े की परतें थीं । चिमटे से इसका सीधा संपर्क नहीं था । इसलिए चिमटा सोने का नहीं हो सका ।' . भक्त का संदेह दूर हो गया। प्रसन्नता भीतर में होती है । वह बाहर कहीं से लानी नहीं पड़ती । हर्ष और विषाद लाना पड़ता है | प्रसन्नता चेतना की सहजता है । वह बाहर फूटती है। पर बीच में कुछ बाधाएं हैं इसलिए वह अभिव्यक्त नहीं होती। प्रसन्नता को अभिव्यक्त होने से पूर्व चार बाधाओं को पार करना पड़ता है. पहली बाधा है—मिथ्या दृष्टिकोण । दूसरी बाधा है—आकांक्षा, इच्छा, चाह । तीसरी बाधा है—भय चौथी बाधा है-अब्रह्मचर्य । ये चार बड़ी बाधाएं हैं, जो प्रसन्नता को प्रकट नहीं होने देतीं। एक बात हमें जान लेनी चाहिए कि प्रसन्नता उत्पन्न नहीं होती, वह प्रकट होती है, अभिव्यक्त होती है । उत्पन्न होना और प्रकट होना- दो बातें हैं । उत्पन्न वह माना जाता है, जो पहले नहीं था और आज हो रहा है । जो नहीं था, उसे उत्पन्न किया जाता है । प्रकट वह होता है, जो पहले से था, पर आवरण के कारण दिखाई नहीं दे रहा था । आवरण हटा और वह दिखाई देने लग गया। सांख्य दर्शन मानता है कि कार्य उत्पन्न नहीं होता, वह प्रकट होता है । इसी प्रकार केवल ज्ञान, अवधिज्ञान, अतीन्द्रियज्ञान होता है, उत्पन्न नहीं किया जाता | ज्ञान बाहर से नहीं लाया जाता । वह तो आत्मा में है। वह आवरण के हटने पर प्रकट होता है । इसी प्रकार. जब ये चार बाधाएं मिट जाती हैं, तब प्रसन्नता प्रकट होती है । चित्त की निर्मलता या प्रसन्नता की पहली बाधा है—मिथ्या दृष्टिकोण । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ । मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता आदमी प्रत्येक बात को गलत ढंग से ग्रहण करता है, मानता है । नीतिकारों का मत है कि अच्छी बात चाहे कोई भी कहे, उसे मान लेनी चाहिए। परन्तु आदमी इस नीतिवाक्य को कहां मानता है ? वह अच्छी बात कहने वाले को कहता है-उपदेश देना सरल है। इस पर अमल करो तो जानूं । उपदेश देना एक ऐसी प्रवृत्ति है जो बिना सीखे भी हस्तगत हो जाती है और प्रायः सभी मनुष्य इसमें निपुण होते हैं । इसके जैसी सरल वस्तु और कोई भी नहीं है । इसमें सोचना-विचारना नहीं पड़ता । यह मिथ्या दृष्टिकोण है । इससे प्रसन्नता प्रकट नहीं हो सकती | प्रसन्नता की दूसरी बाधा है-आकांक्षा । जिसके मन में आकांक्षा रहती है वह प्रसन्न नहीं रह सकता । वह व्यक्ति हर्षित हो सकता है, विषण्ण हो सकता है । जिस व्यक्ति ने हर्ष और विषाद को ही समझा है, वह व्यक्ति प्रसन्नता को नहीं समझ सकता । हमारी जितनी मनोवृत्तियां होती हैं, शरीर में उतने ही केन्द्र होते हैं। यदि हजार प्रकार की मनोवृत्तियां हैं तो शरीर में हजार केन्द्र होंगे और लाख प्रकार की मनोवृत्तियां हैं तो लाख केन्द्र होंगे । हर मनोवृत्ति का एक केन्द्र होता है शरीर में । आज के शरीर शास्त्र में और मनोविज्ञान में इस विषय पर सूक्ष्मता से विचार किया है । हमारे शरीर में 'जीन्स' होते हैं, गुणसूत्र होते हैं क्रोमोसोम होते हैं। ये जीन्स हमारे संस्कार-सूत्र हैं। एक-एक कोशिका एक-एक संस्कार-सूत्र है । यह संसार इतना बड़ा है कि जिसका पार नहीं पाया जा सकता | कोई भी मनोभाव ऐसा नहीं है, जिसका संवाहक केन्द्र शरीर में न हो । इन संस्कारों को, उनके केन्द्रों को बदला जा सकता है । यह तथ्य आज विज्ञान की कसौटी पर खरा उतर चुका है। __ अध्यात्म की दिशा में जाने वाला व्यक्ति यदि अपने पूर्व संस्कारों को नहीं बदलता है तो एक प्रश्नचिह बना रहता है । मैं यह नहीं कहता कि साधु बनते ही, पहले चरण में ही वह वीतराग बन जायेगा। वीतराग बनना बहुत दूर की बात है । किन्तु यदि साधु बनने के बाद एक सूत भी न बदले तो चिन्तनीय होता है | साधक को यह लेखा-जोखा करना चाहिए कि आज कितना बदला,महीने में कितना बदला और वर्ष में कितना बदला । अगर पचास वर्ष बीत जाने पर भी कुछ बदलाव नहीं आया और वैसा का वैसा, Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वास्थ्य और प्रसन्नता | २५९ जहां का तहां रहा तो सचमुच एक प्रश्नचिह्न खड़ा हो जाता है । साधना का अर्थ है-क्रमशः बदलना, बदलते चले जाना । साधना का मार्ग बदलने का मार्ग है, परिवर्तन का मार्ग है | किन्तु जो साधक वृत्तियों के केन्द्रों को नहीं जानता, वह बदलने में सक्षम नहीं होता | किस वृत्ति का कौन-सा केन्द्र है, यह जानना आवश्यक है | आज के वैज्ञानिकों ने हजारों केन्द्रों को खोज निकाला है । हमारे मस्तिष्क में हर्ष का केन्द्र कौन-सा है, विषाद और दुःख का केन्द्र कौन-सा है, काम-वासना और क्रोध का केन्द्र कौनसा है, वैज्ञानिकों ने इनकी खोज की है और इनको बदलने के उपायों की भी खोज की है | ऑपरेशन या औषधि के द्वारा उन केन्द्रों में परिवर्तन करने का सफल प्रयास किया है । यह बहुत बड़ी उपलब्धि है | आज का प्रत्येक प्रबुद्ध साधु-साध्वी समाज इसका उपयोग कर लाभान्वित हो सकता है । आज कोई भी आध्यात्मिक साधना वैज्ञानिकता से हटकर सफल नहीं हो सकती । आज के वैज्ञानिक साहित्य से इतना बड़ा सहयोग मिल सकता है कि साधना को नया आयाम दिया जा सकता है और असंभव बात संभव बनाई जा सकती वैज्ञानिकों ने प्रयोग किया । बन्दर को चार केले दिए । केलों को देख बंदर का आकांक्षा-केन्द्र सक्रिय हो गया | वह खाने के लिए ललचा उठा। खाने के लिए केले को छीला । इतने में ही वैज्ञानिक ने उसके आकांक्षा केन्द्र पर इलेक्ट्रॉड लगा दिया । बंदर की खाने की आकांक्षा मिट गई । उसने केले को फेंक दिया । उसे अनुभव हुआ कि केला नहीं खाना चाहिए। एक विशाल मैदान है । हजारों दर्शक खड़े हैं । एक व्यक्ति मैदान के बीच लाल झंड़ी लेकर खड़ा है । आयोजकों ने एक खूखार सांड़ को छोड़ा। सांड ने आदमी को देखा, लाल झंडी को देखा । उसका क्रोध बढ़ा और वह आदमी को मारने दौड़ा । लाल रंग की झंडी ने उसको और अधिक खूखार बना डाला । दर्शक सारे कांप उठे । उन्होंने सोचा- आदमी अब मरा, अब मरा । सांड आदमी के पास आया । आदमी ने उसके मस्तिष्क पर, क्रोध केन्द्र पर, इलेक्ट्रॉड लगाया । सांड का गुस्सा शांत हो गया। वह एक पालतू कुत्ते की तरह शांत खड़ा रह गया । यह कोई नयी बात नहीं है | तीर्थंकर के सामने शेर और बकरी एक Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता घाट पानी पीते हैं । नित्य वैरी पशु-पक्षी भी अपना वैर-भाव भूल जाते हैं। साधक के मन में अहिंसा के प्रति या तो आस्था नहीं है या उसके प्रति निष्ठा का भाव नहीं जगा है, इसीलिए वह छोटी-सी बात पर मैत्री-भाव को भुलाकर विरोध पैदा कर देता है, भेद पैदा कर देता है। आज के इस वैज्ञानिक और तार्किक युग में साधना करने वाले व्यक्ति के सामने एक बहुत बड़ा प्रश्न उभरकर आ रहा है कि अहिंसक व्यक्तियों के होते हुए भी वैर-विरोध क्यों बढ़ रहा है ? पुराने जमाने में शायद यह प्रश्न इतना उभरकर सामने नहीं आया था । आज प्रत्येक साधक या धार्मिक व्यक्ति के सामने यह प्रश्न चिन्ह है । छोटी-छोटी बातें, छोटे छोटे विघ्न सारी प्रसन्नता को गायब कर, मैत्री-भावना को लुप्त कर वैर-भावना को पैदा कर रहे हैं। हमें वैज्ञानिकों से सीखना होगा कि केन्द्रों को शान्त कर स्थिति को कैसे बदला जा सकता है ? हमारे पास भी केन्द्रों को शांत करने के उपाय हैं, साधना के सूत्र हैं। जो काम वैज्ञानिक इलेक्ट्रॉड के द्वारा, विद्युत प्रकंपनों के द्वारा करते हैं, वही काम उस केन्द्र पर ध्यान करने से हो जाता है । ऐसा होता है, और हो सकता है । प्रसन्नता की दूसरी बाधा है आकांक्षा यानी समता को आत्मसात् न कर पाना । प्रसन्नता की तीसरी बाधा है भय और चौथी बाधा है अब्रह्मचर्य । आयुर्वेद का एक प्रसिद्ध श्लोक है 'चित्तायतं धातुबद्धं शरीरं, चित्ते नष्टे धातवो यान्ति नाशम् । तस्माच्चित्तं सर्वथा रक्षणीयं, स्वस्थे चित्ते बुद्धयः प्रस्फुरन्ति ।।' मनुष्य का शरीर चित्त के और धातुओं के अधीन है । जब चित्त नष्ट हो जाता है तब धातुएं क्षीण होने लगती हैं । जब यह स्थिति घटित होती है तब सारी प्रसन्नता नष्ट हो जाती है । वृत्तियां लड़खड़ा जाती हैं । आदमी अर्ध-विक्षिप्त-सा हो जाता है । इसका मूल कारण है—वीर्यनाश अर्थात् धातु की क्षीणता | चिड़चिड़ापन बढ़ता है । भय, कंपन आदि की वृद्धि होती है । निराशा और बुरी बातें, बुरी कल्पनाएं आने लगती हैं । दृष्टिकोण बदल जाता हैं। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'चित्तायत्तं नृणां शुक्रं, शुक्रायत्तं च जीवितम् । तस्मात् शुक्रं मनश्चैव, रक्षणीयं प्रयत्नतः ॥ स्वास्थ्य और प्रसन्नता / २६१ हमारा पूरा जीवन चित्त के अधीन है, वीर्य के अधीन है। जिसने वीर्य को गंवा दिया, उसने जीवन के रस को गंवा डाला । इसलिए चित्त और वीर्य की रक्षा करना परम आवश्यक है । सारी इन्द्रियों की सुरक्षा एक ओर और मन तथा वीर्य की रक्षा एक ओर । इन्द्रियों की लोलुपता से भी वीर्य का क्षरण होता है, यह एक तथ्य है । यह बार-बार दोहराया जाता है कि आत्मा की रक्षा करो । आत्मा की क्या रक्षा करें ? इसका अर्थ बोध नहीं है । इसका तात्पर्य है— मन की रक्षा करो, वीर्य की रक्षा करो, चित्त की रक्षा करो । प्रसन्नता के लिए ब्रह्मचर्य की रक्षा बहुत जरूरी है । एक व्यक्ति मेरे पास आया और फूट-फूटकर रोने लगा। मैंने रोने का कारण पूछा । उसने कहा— पत्नी का वियोग हो गया। दूसरा विवाह नहीं किया । मन पर नियंत्रण नहीं रहा । अप्राकृतिक मैथुन की आदत पड़ गई । आज मेरी सारी शक्ति चुक गई है। सूना हो गया हूं। ऐसा अनुभव होता है कि 'मैं बीमार हूं । विस्मृति का रोग उभर गया है । " यह एक व्यक्ति की कहानी नहीं है । ऐसे हजारों व्यक्ति हैं जो वीर्य क्षरण के भयंकर परिणाम भोग रहे हैं । दाम्पत्य-जीवन में भी जो अत्यधिक मैथुन का सेवन करते हैं, वे भी इन भयंकर परिणामों के शिकार होते हैं । सुकरात से पूछा गया - स्त्री - सहवास कितनी बार किया जाना चाहिए ? सुकरात ने कहा- जीवन में एक बार । 'यदि वह संभव न हो तो ?' 'वर्ष में एक बार ।' 'यदि वह भी संभव न हो तो ?" 'महीने में एक बार ।' 'यदि वह भी संभव न हो तो ?' 'दिन में एक बार ।' 7 'यह भी संभव न हो तो ? 'फिर सिर पर कफन बांध लो और जैसा चाहे वैसा करो !' प्रसन्नता की सबसे बड़ी बाधा है— अब्रह्मचर्य का सेवन | Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २.६२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता हम आज हर्ष से अधिक परिचित हैं, इसलिए प्रसन्नता को समझ नहीं पा रहे हैं। एक आदमी की आकृति बहुत डरावनी थी । वह अपने मित्रों के बीच बैठा बात कर रहा था । मित्र ने कहा मेरा लड़का बहुत डरता है। उसने कहा—मेरा लड़ता तो बिलकुल ही नहीं डरता । मित्र ने कहा--तुम्हारी शक्ल को देखते-देखते वह डर का आदी हो गया । अब क्या डरेगा ! इसी प्रकार आदमी हर्ष और विषाद का आदी हो गया है । उसको प्रसन्नता को पहचान पाने में कठिनाई हो रही है । हम अध्यात्म की विषमता को प्राप्त करें, आत्मा को प्रसन्न करें, निर्मल करें । जैसे-जैसे हमारी निर्मलता बढ़ेगी, चित्त निर्मल होगा । हम यदि प्रिय-अप्रिय संवेदनाओं से दूर रहने का अभ्यास करेंगे तो निर्मलता का विकास होगा | प्रेक्षा का अर्थ है-देखना, अनुभव करना । इसके साथ एक बात और जुड़ी हुई है, प्रिय-अप्रिय संवेदनाओं से मुक्त होकर देखना और अनुभव करनां । यदि इस प्रेक्षा का दस-बीस मिनट प्रतिदिन अभ्यास होता है तो एक दिन ऐसा आ सकता है, जब प्रियता और अप्रियता, हर्ष और विषाद- दोनों नीचे चले जाएंगे और प्रसन्नता, चित्त की निर्मलता ऊपर आ जाएगी । 00 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य महाप्रज्ञ की प्रमुख कृतियां • मन के जीते जीत आभा मण्डल किसने कहा मन चंचल है जैन योग चेतना का ऊर्ध्वारोहण एकला चलो रे • मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि अपने घर में एसो पंच णमोक्कारो मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता समस्या को देखना सीखें नया मानव : नया विश्व ● भिक्षु विचार दर्शन अर्हम् मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति समय के हस्ताक्षर आमंत्रण आरोग्य को महावीर की साधना का रहस्य घट-घट दीप जले अहिंसा तत्व दर्शन • अहिंसा और शान्ति कर्मवाद संभव है समाधान • मनन और मूल्यांकन • जैन दर्शन और अनेकान्त शक्ति की साधना धर्म के सूत्र जैन दर्शन : मनन और मीमांसा आदि-आदि + w Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में हं अपने सातयकातिांता आचार्य महाप्रज्ञ