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मन की शान्ति / ९१ है तो हजार व्यक्तियों के लिए अशान्ति का कारण एक ही नहीं होता अनेक कारण होते हैं और उन अनेक कारणों के लिए एक ही समाधान देंगे तो वह पर्याप्त नहीं होगा | भिन्न-भिन्न समाधान भी चाहिए । किसकी किस प्रकार की समस्या है और किस प्रकार का हेतु मन की अशान्ति को उत्पन्न कर रहा है, जब तक इसका विश्लेषण नहीं कर लिया जाएगा और इसका सम्यक् बोध नहीं होगा, तब तक दिया हुआ समाधान असमाधान ही बना रहेगा ।
चिकित्सा की एक शाखा 'मनोचिकित्सा' विस्तार पा रही है । आज बड़े अस्पतालों के साथ एक मनोचिकित्सक भी रहता है । वह मन की चिकित्सा करता है । यह एक शाखा तो बन गई । किन्तु मन की बीमारियों की एक शाखा तो नहीं है । वटवृक्ष तो शतशाखी है। सैंकड़ों-हजारों शाखाएं हो सकती हैं। अब एक शाखा से कैसे समाधान होगा ? और समाधान इसलिए भी नहीं होता है कि जो समाधान देने वाला है वह स्वयं समाधान प्राप्त नहीं हुआ है । हमारा अनुभव है और अनेक लोगों का अनुभव है कि जो मनः चिकित्सक है, वह स्वयं समाहित नहीं है, अपने आप में उलझा हुआ है, अपने आप में उतना ही तनावग्रस्त है । वह अपने आप में उतना ही मानसिक दृष्टि से . बीमार है, किन्तु वह दूसरों की चिकित्सा करता चला जा रहा है। स्वयं समाहित नहीं, स्वयं की चिकित्सा नहीं और दूसरों का इलाज कर रहा है। बड़ी विचित्र बात है और यही हमारे जीवन की विसंगति है । आदमी इतना विसंगति का जीवन जी रहा है, जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती । वह यह समझ नहीं पाता । उसका विवेक प्रस्फुटित नहीं होता कि वह क्या कर रहा है । वह अपने आचरण को भी नहीं समझ पाता । एक अनपढ़ व्यक्ति की बात छोड़ दूं, किन्तु बड़े-बड़े पढ़े लिखे लोग भी समझ नहीं पाते ।
छोटा-सा एक गांव | पचास घरों की बस्ती । वहां कोई पढ़ा-लिखा नहीं था । जब कोई पत्र आता तो वे लोग पास वाले एक नगर में जाते और पत्र पढ़ाकर आ जाते । एक दिन एक व्यक्ति पत्र लेकर नगर में गया । एक पढ़े लिखे व्यक्ति के पास जाकर बोला- "भाई साहब ! मेरी पत्नी का पत्र आया है, पढ़कर सुना दीजिए ।" उसने कहा- " बैठो, अभी सुना देता हूं ।" वह पढ़ने लगा | ग्रामीण सुन रहा था । सुनते-सुनते वह अचानक उठा और पढ़ेलिखे व्यक्ति के कानों में अपनी अंगुलियां ठूंस दीं। वह अवाक् रह गया ।
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