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९० / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता
`बदलता है और स्वास्थ्य में भी परिवर्तन आता है । आयुर्वेद ने ऋतुचक्र के परिवर्तन के साथ-साथ स्वास्थ्य परिवर्तन और शरीर - परिवर्तन की विशद चर्चा की है। इसमें केवल स्वास्थ्य और शरीर ही नहीं बदलता, भाव भी बदलते हैं । भाव बदलता है तो मन बदलता है । भाव और मन दोनों बदलते हैं । यह आयुर्वेद और अध्यात्म का मिला-जुला योग है । यह आवश्यक है कि ऋतु - परिवर्तन के साथ मनुष्य में होने वाले परिवर्तनों का संयुक्त अध्ययन किया जाए और यह जाना जाए कि क्या-क्या परिवर्तन घटित होते हैं ।
आयुर्वेद की मान्यता है कि ऋतु के साथ-साथ भोजन का परिवर्तन भी हो जाना चाहिए । आयुर्वेद में किस ऋतु का भोजन क्या है, इसकी उन्मुक्त चर्चा है | शरीर के लिए कब कैसा भोजन अपेक्षित होता है, इस विषय में बहुत सुन्दर प्रतिपादन वहां प्राप्त होता है । ज्योतिष के ग्रन्थों ने इस विषय को आगे बढ़ाते हुए प्रतिपादन किया कि किस ऋतु में किस प्रकार के भाव पैदा होते हैं और उनका क्या-क्या असर होता है ।
वर्ष के दो अयन हैं— उत्तरायन और दक्षिणायन । हमारे मन के भी दो अयन होते हैं ---- उत्तरायण और दक्षिणायन । तपस्या, तेजस्विता, उग्रतायह हमारे मन का उत्तरायण है। जड़ता और नींद की शांति- यह हमारे मन का दक्षिणायन है । ऑकल्ट साइंस अध्यात्म की दुविधा शाखा है। उसमें दो ध्रुवों की चर्चा है— एक है उत्तरी ध्रुव और दूसरा है दक्षिणी ध्रुव । दोनों का मन के साथ गहरा संबंध है । रीढ़ की हड्डी के ऊपर का भाग— ज्ञानकेन्द्र —– उत्तरी ध्रुव है और रीढ़ की हड्डी का निचला भाग — शक्तिकेन्द्र और कामकेन्द्र — दक्षिणी ध्रुव है । इस प्रकार ऋतुओं और अयनों के साथ मन का संबंध जुड़ा हुआ है । उपाध्याय मेघविजयजी ने एक ग्रन्थ लिखा । उसका नाम है— अर्हत् गीता । उसमें ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि से मानसिक स्थितियों का सूक्ष्म विचार प्रस्तुत किया गया है । उन्होंने पूरे वर्ष, बारह मास, बारह राशियां, दो अयन, छह ऋतु और सात वार- प्रत्येक के साथ मन के संबंध की चर्चा की है । यह बहुत महत्त्वपूर्ण विषय है और इसका सूक्ष्म विवेचन वहां प्रस्तुत है । मैं यह सारी चर्चा इसलिए कर रहा हूं कि मानसिक शांति के प्रश्न पर सोचने वाले लोगों को एक ही कोण से नहीं सोचना चाहिए । अनेक कोणों से सोचना चाहिए । मन की अशान्ति हजार व्यक्तियों में मिलती
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