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शक्ति-संवर्धन का माध्यम: अणुव्रत / २०९
अनुपम है, आपको कौन-सी उपमा दूं !
जब स्थान या मर्यादा का परिवर्तन हो जाता है, किसी के स्थान पर कोई दूसरा आकर बैठ जाता है तब अनेक समस्याएं पैदा हो जाती हैं। इस समस्या का समाधान यही है कि जिसका जो स्थान हो उसे वही स्थान दिया जाए। भारतीय मानस में जो व्रत का स्थान है, उसे व्रत का स्थान दें और जो उपासना का स्थान है, उसे उपासना का स्थान दें । एक-दूसरे के स्थान का परिवर्तन न करें । व्रत का स्थान पहला होगा। उपासना का स्थान दूसरा होगा । उपासना व्रत का सहयोग करेगी, उसमें प्राण फूंकेगी, उसे शक्तिशाली बनाएगी | किन्तु वह व्रत की आत्मा नहीं बन सकती । व्रत की आत्मा का संबंध हमारी आन्तरिक चेतना से है और उपासना बाह्य चेतना को छूती है ।
अणुव्रत आन्दोलन का प्रवर्तन इसीलिए हुआ कि व्यक्ति व्रतों का वास्तविक मूल्य आंक सके और व्यक्ति में संकल्पशक्ति को जगा सके। आज व्रतों का और संकल्पशक्ति का मूल्य हमारी दृष्टि से ओझल हो चुका है, वह पुनः स्थापित हो और व्रत अपनी शक्ति की स्थापना करें ।
विदेश के कुछ अर्थशास्त्रियों ने भारतीय धर्मों पर यह आरोप लगाया था कि भारतीय धर्मों में नैतिक आचार-संहिता नहीं है। जहां अणुव्रत की आचार-संहिता विद्यमान है, फिर नैतिकता की आचार संहिता कैसे नहीं ? अणुव्रत आज का शब्द नहीं है । भगवान् महावीर ने अपने समय में गृहस्थ के लिए बारह व्रतों की आचार संहिता दी थी। उसमें अणुव्रतों का समावेश था ही। उन्हीं व्रतों को आधारभूत मानकर, आज अणुव्रतों की आचार संहिता आचार्यश्री ने प्रस्तुत की है । यह गृहस्थ के लिए पूरी आचार संहिता है ।
बुराइयों का इतिहास अच्छाइयों के इतिहास जितना ही पुराना है । प्राचीन काल में अच्छाइयां थीं, तो बुराइयां भी थीं। आज बुराइयां है तो अच्छाइयां भी हैं । मिलावट पहले भी होती थी, आज भी होती है । चाणक्य ने लिखा है— मछली पानी में तैरती है। संभव है वह आकाश में उड़ने लग जाए पर यह सर्वथा असंभव है कि राज्य कर्मचारी रिश्वत न लें । यह पुरानी बीमारी है । कोई भी बीमारी नयी नहीं होती । आदमी भी नया नहीं है । आदमी का स्वभाव भी नया नहीं है। हजारों-हजारों वर्षों से उसका इतिहास प्राप्त होता है। जो था, वह है । दो सौ वर्षों के पहले भी पिता पुत्र को कहता
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