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________________ २०८ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता पर चलते-चलते वह मुख्य बन गया । सहयोगी मुख्य बन गया और योगी गौण हो गया । योग और सहयोग, योगी और सहयोगी । एक योग और उसके साथ काम करने वाला सहयोग | पर योगी गौण होकर पीछे चला गया और सहयोगी मुख्य बनकर आगे आ गया । यह तो ऐसा ही कुछ हो गया है कि वर तो है नहीं, और बराती मुख्य बनकर कन्या विवाहने आ गए हैं । कैसा विचित्र संयोग ! एक वर नहीं है तो कुछ भी नहीं है । एक योगी नहीं है तो सहयोगियों की कतार से कुछ भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता । योगी और सहयोगी इनके प्रति हमारा दृष्टिकोण स्पष्ट होना चाहिए | हमारा अवबोध स्पष्ट होना चाहिए | योगी प्रथम रहे, सहयोगी द्वयं रहे । जब सहयोगी प्रथम बन जाता है और योगी द्वयं में चला जाता है तब सब-कुछ गड़बड़ा जाता है | वर के बिना कन्या किसके गले में वरमाला डाले ? एक वर नहीं है, बाराती अनेक हैं पर उनसे क्या हो ? गौण गौण होता है और मुख्य मुख्य । आज का भारतीय मानस सहयोगी तत्त्वों को पकड़े हुए है और योगी को विस्मृत किए हुए है । माला जपना, ईश्वर का नाम-स्मरण करना, सामायिक करना—ये प्रतिदिन किए जा रहे हैं, पर मूल योगी का कहीं अता-पता ही नहीं है । अणुव्रत आन्दोलन इसी आधार पर शुरू किया गया कि भारतीय मानस में यह विवेक जागृत हो कि जिसका प्रथम स्थान है उसे प्रथम स्थान दे और जिसका द्वयं स्थान है उसे द्वयं स्थान दे । स्थानों की व्यत्यय न कर । इसी में दोनों की सार्थकता है, अन्यथा दोनों व्यर्थ हो जाएंगे | अन्तर रहेगा । यह विवेक स्पष्ट होना चाहिए । स्थान का विवेक और मर्यादा न हो तो बड़ी कठिनाई पैदा हो जाती है । एक ब्राह्मण यात्रा कर रहा था । रास्ते में उसे रसोई बनानी थी। उसने एक स्थान चुना | उस स्थान को बुहारा, गाय के गोबर से लीपा और वस्तुएं लाने चला गया । इतने में उधर से एक गधा आया और पवित्र स्थान पर आकर बैठ गया । ब्राह्मण ने देखा कि उस लिपे-पुते स्थान पर गर्दभराज विराजमान हैं । वह गधे के समक्ष गया, हाथ जोड़कर बोला-महाशय ! यदि यहां कोई दूसरा आकर बैठता तो मैं कहता, बना-बनाया गधा है । पर अब मेरे सामने समस्या है कि आप खुद गर्दभराज आ गए हैं। आपको किस उपमा से उपमित करूं? दूसरे के लिए आपकी उपमा दी जाती है, पर आप तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003111
Book TitleMain Hu Apne Bhagya ka Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size12 MB
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