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नैतिकता : क्या ? कैसे ? | १९७ मनुष्य की मौलिक वृत्ति का परिवर्तन और व्यवस्था का परिवर्तनये दो परिवर्तन नैतिकता को प्रस्थापित करने में समर्थ हैं । व्यवस्था के परिवर्तन की बात हमारे लिए सुलभ और हमारे अधिकार-क्षेत्र की परिधि की बात नहीं है। वह जनता के द्वारा चुने हुए राज्य प्रतिनिधियों के हाथ की बात है आज शासनतंत्र इतना मजबूत हो गया है कि वह हर व्यक्ति के जीवन में हस्तक्षेप करता है । व्यक्ति उसका पुर्जामात्र बना हुआ है । वह कुछ भी नहीं कर सकता । उसकी अपनी स्वतंत्रता नहीं है । तंत्र जैसा चाहता है, वैसा ही उसे करना पड़ता है | उसे वही पढ़ाना होता है, जो तंत्र चाहता है । एक ओर शासन की इतनी परतंत्रता, व्यवस्था की इतनी परतंत्रता कि चुने हुए प्रतिनिधि. जो चाहें वही करना है । चुनने वालों का अधिकार ही समाप्त है । इस स्थिति में व्यकिा कुछ भी नहीं कर सकता । यह उसके हाथ की बात नहीं है । तो व्यवस्था परिवर्तन हमारे अधिकार की बात नहीं है।
दूसरा विषय है कि मनुष्य की मौलिक वृत्ति का परिष्कार करना हमारे वश की बात है । इस विषय में हम चिन्तन कर सकते हैं, प्रयत्न कर सकते हैं। यह हमारे अधिकार-क्षेत्र के अन्तर्गत आता है । लोभ मनुष्य की मौलिक मनोवृत्ति है । उसका परिष्कार हम कैसे करें? यदि हम यह परिष्कार करने में सफल हो जाते हैं तो हमारी जटिल समस्या शान्त हो जाती है । यदि यह नहीं होता है तो समस्याओं में अनावश्यक उभार आ जाता है।
एक करोड़पति है | उसके पास धन बहुत है । उसे धन की इसलिए आवश्यकता है कि उसके लोभ ने अनेक कृत्रिम आवश्यकताएं पैदा कर दी हैं। उन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसे धन चाहिए । एक अरबपति से पूछा—तुम्हारे पास अपार धन है, फिर भी तुम रोज-रोज नयी फैक्टरियां खोल रहे हो, यह क्यों ? उसने कहा—महाराज ! आपने अर्थशास्त्र को नहीं पढ़ा है । एक कारखाने को चलाने के लिए, उसे फीड करने के लिए दूसरा कारखाना आवश्यक होता है । दूसरे को चलाने के लिए, फीड करने के लिए तीसरा और तीसरे को चलाने के लिए चौथा । यह क्रम चलता रहता है तब तो आर्थिक संतुलन बना रहता है, अन्यथा वह टूट जाता है । महाराज ! आप Know How को नहीं जानते । यह अर्थशास्त्र का रहस्य है ।
मैंने कहा-मैं तुम्हारे अर्थशास्त्र की बारीकियों को तो नहीं जानता
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