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१९६ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता को समाप्त नहीं किया जा सकता | कोई जिज्ञासा कर सकता है कि यह नियम केवल भारत के लिए ही है या यह सार्वभौम नियम है ? यह लोभ सार्वभौम नियम है । आज तक कोई भी राज्य-प्रणाली इसको नहीं मिटा पायी । साम्यवादी प्रणालियों ने मनुष्य के इस स्वभाव को बदलने का प्रयत्न किया, पर वे भी पूरी सफल नहीं हो सकी । लोभ के कारण वहां के व्यक्ति भी बड़ेबड़े घोटाले कर देते हैं । यह उन देशों की रिपोर्ट से पता चलता है। अधिकारियों ने यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया कि सब व्यवस्थाएं बदली जा सकती हैं, पर आदमी का स्वभाव नहीं बदलता । स्वभाव नहीं बदलने का अर्थ है कि उसकी मौलिक मनोवृत्ति को नहीं बदला जा सकता । लोभ मनुष्य की मौलिक मनोवृत्ति है । उसको बदलना कठिन है । उसका परिष्कार किया जा सकता है।
भ्रष्टाचार के पनपने का दूसरा कारण है—व्यवस्था । जब तक व्यवस्था में सामंजस्य नहीं होता, तब तक भ्रष्टाचार नहीं मिटता और नैतिकता को पनपने का मौका नहीं मिलता । भात के संदर्भ में व्यवस्था का प्रश्न बहुत महत्त्वपूर्ण है । इसमें एक कारण है एकाधिकार । आज ऐसी स्थिति बन गई है कि हास्पिटल में भर्ती करना है तो रिश्वत देनी होगी । रेलवे में टिकट लेना है तो रिश्वत देनी होगी। रिश्वत का कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है । यदि हास्पिटल और रेलवे की व्यवस्था व्यक्तिगत कंपनियों की होती है तो संभवतः ऐसी स्थिति न बने । किन्तु जहां एकाधिकार होता है, वहां ऐसी स्थिति का निर्माण अवश्यंभावी है । एकाधिकार की स्थिति में या तो बीमार बिना हास्पिटल में भर्ती हुए मर जाए, अपनी नैतिकता रखे या अनैतिकता का सहारा ले, रिश्वत देकर भर्ती हो जाए । वह नैतिक बने रहने के लिए या तो यात्रा स्थगित करे, रेल में आना-जाना बंद करे या फिर रिश्वत देकर टिकट खरीदे । जहां एकाधिकार होगा, एक व्यक्ति ही इतना शक्तिसंपन्न हो जाएगा कि वह जो चाहे सो करे, उस स्थिति में अनैतिक आचरण और अनैतिक व्यवहार को रोकने की दूसरी ताकत बचेगी ही नहीं । पुलिस या अन्य अधिकारी भी उसे बचा नहीं पाएंगे । यदि व्यापारियों का एकाधिकार होता है तो व्यापार में धांधली होगी । वे मनमानी करेंगे | वस्तुओं का अभाव पैदा कर देंगे । भाव बढ़ा देंगे । ये सारी व्यवस्थागत त्रुटियां हैं । ये भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन देती हैं।
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