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________________ १९८ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता समझता, पर यह अवश्य जानता हूं कि इस व्यापार के विस्तार में तुम्हारे लोभ की वृत्ति बहुत काम कर रही है । इस मौलिक मनोवृत्ति को फीड करने के लिए क्या-क्या नहीं कर रहे हो, यह भलीभांति जानते हैं । 'नो हाऊ' नहीं जानते, पर 'नो हाऊ' को फीड करने वाली वृत्ति को जानते हैं । यह वृत्ति सब कुछ कराती है, जिसे नहीं करना चाहिए । मेरी दृष्टि में लोभ की समस्या पहले नम्बर की समस्या है और व्यवस्था की समस्या दूसरे नम्बर की समस्या है। पहले नम्बर की समस्या गरीब में भी है और अमीर में भी है । निर्धन में भी है और धनपति में भी है। भगवान् महावीर से पूछा-भंते ! छह खंडों का अधिपति चक्रवर्ती और एक चींटी-क्या दोनों परिग्रही हैं ? भगवान् ने कहा—हां, दोनों परिग्रही है । उसने कहा—सम्राट् परिग्रही है यह बात बुद्धिगम्य है, पर बेचारी चींटी जिसके पास अपना कुछ भी नहीं, वह परिग्रही कैसे ? बात समझ में नहीं आती । भगवान् ने कहा-सम्राट् के पास अपार वैभव है, पदार्थों का संग्रह है, चींटी के पास कुछ भी नहीं है यह दूसरे नम्बर की बात है । परिग्रह के संदर्भ में पहली बात है लोभ की वृत्ति | वह वृत्ति सम्राट और चींटी की बराबर है । दोनों उस वृत्ति से आक्रान्त हैं । अन्तर इतना ही है कि सम्राट् उस वृत्ति को रूपायित कर सकता है और चींटी वैसा कर नहीं सकती । सम्राट् में शक्ति है, चींटी में उसका अभाव है। बहुत महत्वपूर्ण बात कही भगवान् महावीर ने । गरीब हो या अमीरदोनों में लोभ की वृत्ति काम कर रही है । अन्तर इतना ही है कि अमीर साधनसंपन्न है, अनेक सुविधाओं का वह उपभोग करता है और लोभ को मूर्त रूप देता है । गरीब के पास कोई साधन नहीं है । वह अन्दर ही अन्दर उस वृत्ति का पोषण करता है । मौलिक मनोवृत्ति की दृष्टि से दोनों समान हैं। प्रश्न है कि हम उस मूल मनोवृत्ति का परिष्कार कैसे करें ? अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि ध्यान का प्रयोग परिष्कार को घटित कर सकता है । जैसे-जैसे हम भीतर में प्रवेश करते हैं, वैसे-वैसे चेतना का परिष्कार होता जाता है । चेतना पर क्रोध, अहंकार, लोभ, भय, ईर्ष्या, घृणा आदि वृत्तियों का आवरण है । ध्यान से यह आवरण शिथिल होता है, टूटता है, और चेतना अपने रूप में आ जाती है । यही परिष्कार की प्रक्रिया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003111
Book TitleMain Hu Apne Bhagya ka Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size12 MB
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