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नैतिकता : क्या ? कैसे ? | १९९ और यही उसकी फलश्रुति है। यह प्रक्रिया दीर्घकालीन और निरन्तर की जाने वाली प्रक्रिया है। इससे ही परिष्कार घटित हो सकता है । दूसरा कोई विकल्प नहीं है । या तो हम यह कहना-मानना छोड़ दें कि भ्रष्टाचार बुरा है और यह कहने लगे कि भ्रष्टाचार स्वाभाविक है, या फिर हम इस प्रक्रिया में जुड़ें
और तन-मन से इस प्रक्रिया में जुट जाएं । अन्यथा कुछ होना-जाना नहीं है । जैसे-जैसे लोग भ्रष्टाचार को बुरा बताते हैं, वह अपना पंजा वैसे-वैसे फैलाता जाता है । वह द्रोपदी का चीर बन रहा है । कहीं इसका अंत ही नजर नहीं आ रहा है । इस स्थिति में हमें यह निश्चित चुनाव करना होगा कि हम वास्तव में क्या चाहते हैं । क्या हम भ्रष्टाचार को वैसे ही पनपने देना चाहते हैं या उसकी गति को अवरुद्ध कर धीरे-धीरे उससे छुटकारा पाना चाहते हैं ? यदि हम उससे छुटकारा पाना चाहते हैं तो हमें उपाय करना होगा और वह उपाय ध्यान और अध्यात्म के अतिरिक्त और कुछ नहीं होगा।
भ्रष्टाचार से लड़ने से भ्रष्टाचार नहीं मिटेगा । वह मिटेगा परिष्कार से । भूत से लड़ो, वह भूत शतगुणित शक्ति से पुनः प्रहार करेगा । भूत के समक्ष शान्त रहो, भूत की शक्ति क्षीण हो जाएगी। यक्ष ने सुदर्शन पर मुद्गर से प्रहार करना चाहा । सुदर्शन अहिंसा की भावनाओं में ओतप्रोत हो शान्त खड़ा रहा । क्षणभर में यक्ष वीर्यशून्य हो गया । उसके हाथ से मुद्गर गिर पड़ा । उसका आवेश समाप्त हो गया ।
हम वृत्तियों के परिष्कार में आस्था जमाएं और उस आस्था का धीरेधीरे क्रियान्वयन करें । हम सुखी होंगे और आने वाली पीढ़ी, इन सारी समस्याओं से मुक्त होकर ही सुख की सांस ले सकेगी । हम नैतिकता और अनैतिकता का चिन्तन सतही स्तर पर न करें, गहरे में उतरकर चिन्तन करें । मैं यह मानता हूं कि अनैतिकता, भ्रष्टाचार और असदाचार की समस्या ऐसी नहीं है, जिसका समाधान न हो सके । यह कोई असंभव बात नहीं है । बहुत संभव है । यह बीमारी असाध्य नहीं है, साध्य है, कष्टसाध्य हो सकती है।
कुछ लोगों का यह तर्क आता है कि लोभ को मिटाने का अर्थ है, जो है, उसमें संतोष कर लेना । इस संतोष का परिणाम होगा गरीबी और कठिनाइयां ।
गरीबी और कठिनाइयां संतोष के परिणाम नहीं हैं । हम गलत चिन्तन
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