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२०० / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता के कारण एक-दूसरे के परिणामों में संश्लेष कर देते हैं, जोड़ देते हैं एक दूसरे के साथ । संतोष के ये परिणाम हो नहीं सकते । संतोष का अर्थ यह नहीं है कि हम कठिनाइयों को भुगतें । संतोष आन्तरिक वृत्ति है और लोभ बाह्य वृत्ति है । लोभ सर्वथा त्याज्य है, ऐसा मैं नहीं कहता | गृहस्थ जीवन के लिए वह एक मात्रा तक आवश्यक होता है । यह सापेक्ष बात है । एक कवि ने कहा है-'असन्तुष्टो द्विजो नष्ट: सन्तुष्टश्चापि पार्थिवः'- ब्राह्मण यदि असंतोष को पालता है तो वह नष्ट हो जाता है और राजा यदि संतोषी होता है तो वह भी नष्ट हो जाता है । यह सारा कथन सापेक्ष है | आदमी को जीवन-निर्वाह के लिए अनेक वस्तुएं चाहिए और यदि वह संतोष को धारण कर यह कहे कि मैं न खेती करूंगा, न व्यापार करूंगा, न कुछ अर्जन करूंगा तो यह संतोष नहीं अकर्मण्यता मानी जाएगी । हम यहां अकर्मण्यता की चर्चा नहीं कर रहे है । लोभ एक संवेग है। मनोविज्ञान की भाषा में वह एक मोशन है । एक सीमा तक यह सामाजिक जीवन का उपयोगी तत्त्व माना जाता है | सभी संवेग अलग-अलग सामाजिक परिस्थितियों में अच्छे-बुरे बनते हैं । क्रोध एक संवेग है । वह बुरा है | पर बच्चे को सुधारने की भावना से लोग बुरा नहीं मानते । इस परिस्थिति में क्रोध को भी अच्छा मान लिया गया । यही बात लोभ के विषय में है । हम कहते हैं कि लोभ बुरा है, इसका तात्पर्य भी सापेक्ष है । आवश्यकता से अतिरिक्त अर्जन की जो मनोवृत्ति है, उसमें काम करने वाला लोभ अच्छा नहीं माना जाता । उस स्थिति में लोभ बुरा बन जाता है । संतोष अच्छा है पर उसकी भी अपनी सीमा है । अकर्मण्यता और संतोष एक नहीं है । ये दोनों दो हैं । संपन्नता और विपन्नता—यह लोभ और संतोष के परिणाम नहीं हैं । इसे हम कर्मण्यता और अकर्मण्यता का परिणाम मानें तो अच्छा है। इसे हम अवसर-प्राप्ति और अवसर-अप्राप्ति मानें तो अच्छा है।
आज सत्ता का लोभ सीमा पार कर गया है । प्रत्येक व्यक्ति एक दौड़ में भाग लेना चाहता है । वह मानता है कि सत्ता है तो सब कुछ है । सत्ता नहीं है तो कुछ भी नहीं है । एक व्यंग्य है । परिवार नियोजन के अधिकारी एक राजनेता के यहां गए । उसके पांच सन्तानें थीं । अधिकारियों ने परिवार नियोजन के लिए कहा । उसने कहा—मैं समझता हूं और इसे अच्छा मानता
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