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नैतिकता : क्या ? कैसे ? | २०१ हूं। पर एक ज्योतिषी ने कल ही कहा है—'आपकी नौवीं सन्तान मंत्री बनेगी। मैं इसी आशा को लिये बैठा हूं।'
यह सत्ता का लोभ अवचेतन मन में इतना गहरा उतर गया है कि व्यक्ति सात पीढ़ी की बात सोच लेता है । सत्ता का लोभ केवल व्यर्थता का सूचक है । उसकी सार्थकता बहुत नहीं है |
नीतियां दो प्रकार की होती हैं. अल्पकालीन नीति और दीर्घकालीन नीति । हम दीर्घकालीन नीति के आधार पर सोचें कि यदि हमारा प्रयत्न परिष्कार की दिशा में चलता है तो उसका तात्कालिक बड़ा परिणाम न भी आए, पर वह दीर्घकाल में वटवृक्ष बन जाएगा। आने वाली पीढ़ी उससे बहुत लाभान्वित होगी । यह प्रक्रिया इतनी द्रुतगामी नहीं है, पर है लाभप्रद । हम दीर्घकाल में मिलने वाले लाभों को नजर-अन्दाज न करें । वर्तमान में सुधार करते चलें, आगे अच्छी पृष्ठभूमि का स्वतः निर्माण हो जाएगा। इससे आस्था को बल मिलेगा । आस्था जब टूट जाती है तब मन को टिकने के लिए कोई आलंब ही नहीं प्राप्त होता । आस्था बढ़ती है तो आदमी ऊपर उठता जाता है । मूल प्रश्न है आस्था के निर्माण का । परिष्कार में हमारी आस्था बने । प्रसिद्ध इतिहासकार टायनबी ने लिखा है....मनुष्य के समक्ष दो विकल्प हैंआस्थाहीन रोटी या रोटीहीन आस्था । आस्थाहीन रोटी से मनुष्य का समाधान नहीं होगा । रोटीहीन आस्था से भी समाधान प्राप्त नहीं होता । हमें विकल्प यह खोजना है कि रोटी भी मिले और आस्था भी मिले । यह तीसरा विकल्प बहुत महत्त्वपूर्ण है।
उपसंहार की भाषा में मैं कहना चाहूंगा कि उपासनात्मक धर्म से भ्रष्टाचार का कोई संबंध नहीं है | उपासनात्मक धर्म से भ्रष्टाचार को रोका नहीं जा सकता । भ्रष्टाचार को रोकने का एकमात्र उपाय है आध्यात्मिक धर्म का आचरण | आध्यात्मिक व्यक्ति कभी भ्रष्टाचार नहीं कर सकता । उपासनात्मक धर्म का आचरण करने वाला व्यक्ति भ्रष्टाचार से सर्वथा बच जाता हो, ऐसा नहीं लगता । हम आध्यात्मिकता को पनपाने का प्रयत्न करें, भ्रष्टाचार स्वतः मिट जाएगा।
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