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११० / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता प्रतिपादन है । जैन परंपरा में तपस्या और आहारशुद्धि को साधना का महत्त्वपूर्ण अंग माना है । यह इसीलिए कि तपस्या और आहारशुद्धि से कायसिद्धि होती है, शरीर सध जाता है | जब कायसिद्धि हो जाती है तब शक्ति-जागरण के सारे खतरे समाप्त हो जाते हैं । शरीर को दृढ़ और मजबूत बनाए बिना शक्तियों को अवतरित करने का प्रयत्न करना बहुत हानिकारक है । कमजोर शरीर में यदि शक्ति का स्रोत फूटता है तो शरीर चकनाचूर हो जाता है, नष्ट हो जाता है । वह भीतर-ही-भीतर भस्मसात हो जाता है। नाड़ी-संस्थान को शक्तिशाली बनाए बिना शक्ति-जागरण का प्रयत्न करना नादानी है, वज्र मूर्खता है | नाड़ी-शोधन कुंडलिनी-जागरण का महत्त्वपूर्ण घटक है । नाड़ी-शोधन की निश्चित प्रक्रिया है । नाड़ी-शोधन का अर्थ शरीर की नाड़ियों का शोधन नहीं है । उसका अर्थ है- प्राण-प्रवाह की जो नालिकाएं हैं, जो मार्ग हैं, उनका शोधन करना । बीच में आने वाले अवरोधों को साफ करना । नाड़ी-शोधन के बिना शक्ति का जागरण बहुत खतरनाक होता है । शक्ति जाग गई, पर आगे का रास्ता अवरुद्ध है, साफ नहीं है तो वह शक्ति अपना रास्ता बनाने के लिए विस्फोट करेगी, रास्ता मोड़ेगी । उस विस्फोट से भयंकर स्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं।
इन सभी खतरों से बचने के लिए दो उपाय हैं— अनुभवी व्यक्ति का मार्गदर्शन और धैर्य । जो भी शक्ति- जागरण के महत्त्वपूर्ण उपक्रम हैं, उनका अभ्यास स्वतः नहीं करना चाहिए। किसी अनुभवी व्यक्ति के परामर्श और मार्गदर्शन में ही उस साधना को प्रारंभ करना चाहिए । यह इसलिए कि यह अनुभवी व्यक्ति यदा-कदा होने वाले आकस्मिक खतरों से उसे बचाकर उसका मार्ग प्रशस्त करता है।
साधना की सफलता का आदि-बिन्दु भी धैर्य है और अन्तिम बिन्दु भी धैर्य है । धैर्य के अभाव में कुछ भी संभव नहीं होता । आज का आदमी, अधैर्य के दौर से गुजर रहा है। वह इतना अधीर है कि किसी भी स्थिति में वह धैर्य नहीं रख पाता । बीमार है। डॉक्टर दवाई देता है । एक घंटे में यदि आराम नहीं होता है तो डॉक्टर बदल देता है । दिन में पांच डॉक्टर बदल देता है । बड़ी विकट स्थिति है । साधना में अधैर्य बहुत हानिप्रद होता है। वह किसी भी साधना को सफल नहीं होने देता।
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