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________________ २५८ । मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता आदमी प्रत्येक बात को गलत ढंग से ग्रहण करता है, मानता है । नीतिकारों का मत है कि अच्छी बात चाहे कोई भी कहे, उसे मान लेनी चाहिए। परन्तु आदमी इस नीतिवाक्य को कहां मानता है ? वह अच्छी बात कहने वाले को कहता है-उपदेश देना सरल है। इस पर अमल करो तो जानूं । उपदेश देना एक ऐसी प्रवृत्ति है जो बिना सीखे भी हस्तगत हो जाती है और प्रायः सभी मनुष्य इसमें निपुण होते हैं । इसके जैसी सरल वस्तु और कोई भी नहीं है । इसमें सोचना-विचारना नहीं पड़ता । यह मिथ्या दृष्टिकोण है । इससे प्रसन्नता प्रकट नहीं हो सकती | प्रसन्नता की दूसरी बाधा है-आकांक्षा । जिसके मन में आकांक्षा रहती है वह प्रसन्न नहीं रह सकता । वह व्यक्ति हर्षित हो सकता है, विषण्ण हो सकता है । जिस व्यक्ति ने हर्ष और विषाद को ही समझा है, वह व्यक्ति प्रसन्नता को नहीं समझ सकता । हमारी जितनी मनोवृत्तियां होती हैं, शरीर में उतने ही केन्द्र होते हैं। यदि हजार प्रकार की मनोवृत्तियां हैं तो शरीर में हजार केन्द्र होंगे और लाख प्रकार की मनोवृत्तियां हैं तो लाख केन्द्र होंगे । हर मनोवृत्ति का एक केन्द्र होता है शरीर में । आज के शरीर शास्त्र में और मनोविज्ञान में इस विषय पर सूक्ष्मता से विचार किया है । हमारे शरीर में 'जीन्स' होते हैं, गुणसूत्र होते हैं क्रोमोसोम होते हैं। ये जीन्स हमारे संस्कार-सूत्र हैं। एक-एक कोशिका एक-एक संस्कार-सूत्र है । यह संसार इतना बड़ा है कि जिसका पार नहीं पाया जा सकता | कोई भी मनोभाव ऐसा नहीं है, जिसका संवाहक केन्द्र शरीर में न हो । इन संस्कारों को, उनके केन्द्रों को बदला जा सकता है । यह तथ्य आज विज्ञान की कसौटी पर खरा उतर चुका है। __ अध्यात्म की दिशा में जाने वाला व्यक्ति यदि अपने पूर्व संस्कारों को नहीं बदलता है तो एक प्रश्नचिह बना रहता है । मैं यह नहीं कहता कि साधु बनते ही, पहले चरण में ही वह वीतराग बन जायेगा। वीतराग बनना बहुत दूर की बात है । किन्तु यदि साधु बनने के बाद एक सूत भी न बदले तो चिन्तनीय होता है | साधक को यह लेखा-जोखा करना चाहिए कि आज कितना बदला,महीने में कितना बदला और वर्ष में कितना बदला । अगर पचास वर्ष बीत जाने पर भी कुछ बदलाव नहीं आया और वैसा का वैसा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003111
Book TitleMain Hu Apne Bhagya ka Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size12 MB
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