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५८ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता
की बात, अनाकांक्षा का भाव आता ही नहीं । आदमी स्वीकार के चक्र में फंसा रहता है । अब अस्वीकार को भूल सा गया है। कुछेक विक्षिप्त व्यक्तियों को देखा है जिनमें स्वीकार की भयंकर आदत थी । वे जहां भी जाते, वहां से जो कुछ भूमि पर पड़ा होता, बटोर लाते । सड़क पर चलते। उस पर भी जो कुछ पड़ा मिलता, उसे उठा लेते, जेब में रख लेते और फिर घर पर जाकर जेब खाली कर देते । छापर में एक ऐसा ही व्यक्ति था । उसके घर पर उस कमरे को देखा तो प्रतीत हुआ कि वह कमरा एक बड़ा कबाड़ीखाना है ।
मैं पूछना चाहता हूं, इस माने में कौन आदमी पागल नहीं है ? हम हर बात को स्वीकार कर लेते हैं, पाने को तैयार रहते हैं, सब कुछ बटोरते रहते हैं । अस्वीकार की बात हम जानते ही नहीं । यह पागलपन ही तो है पर यह स्वभाव-सा बन गया है, इसलिए पागलपन लगता नहीं है। आदमी कुछ अतिरिक्त स्वभाव को पागलपन मान लेता है । अपने पागलपन को पागलपन अनुभव नहीं करता ।
पांचवां स्वभाव है — दृष्टिकोण की असमीचीनता । आदमी का यह स्वभाव-सा हो गया है कि वह किसी भी बात को सम्यक् रूप से ग्रहण नहीं करता । उसे उल्टे अर्थ में ही स्वीकार करता है ।
ये सारे स्वभाव ही नहीं हैं, पर स्वभाव बन गए हैं, इसीलिए आदमी का पूरा व्यक्तित्व बहुत जटिल बन गया है । उसकी संरचना बहुत पेचीदा हो गई है ।
प्रेक्षाध्यान का उद्देश्य है---- रूपान्तरण, चेतना का रूपांतरण | प्रेक्षाध्यान के अभ्यास से इन पांचों विभावों, जो स्वभाव बने हुए हैं, में परिवर्तन आता है और तब व्यक्तित्व की यथार्थता प्रकट होती है ।
इन पांचों स्वभावों में गुरु स्वभाव है — चंचलता । इस एक को साध लेने पर शेष चार स्वयं सध जाते हैं । चंचलता के कारण आदमी कहीं एकाग्र नहीं हो पाता । आज राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक समस्याएं उलझ रही हैं । उनका सुलझाव कहीं दृष्टिगत नहीं होता । इसका मूल कारण है व्यक्ति-व्यक्ति की चंचलता । वह व्यक्ति किसी समस्या या विषय पर एकाग्र होना जानता ही नहीं । वह आज एक समस्या को हाथ में लेता है, कल उसे
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