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चेतना का रूपान्तरण : १/५७
घूमता रहा है। क्षणभर के लिए भी नहीं रुकता । जैसे-जैसे भीतर में भावधारा बदलती जाती है, वैसे-वैसे बाहरी परिवर्तन भी घटित होता जाता है । आकृति भी बदल जाती है। यह सारा परिवर्तन होता है चंचलता के कारण | चंचलता एक स्वभाव है।
दूसरा स्वभाव है—आवेश | आदमी बात-बात में आवेश कर बैठता है । वह धीरे-धीरे आदत बन जाती है | इसका कोई भी अपवाद नहीं है। वह आदत इतनी गहरी हो जाती है कि बात मिठास से प्रारंभ होती है, पर होते-होते कटुता आनी प्रारम्भ हो जाती है । और तब पारिवारिक, वैयक्तिक और कौटुम्बिक समस्याएं उभर आती हैं । बात शुरू होती है शीतलता से और उसका अन्त होता है गरमागरमी से । शीतलनाद से प्रारम्भ और लट्ठनाद से अन्त । यह सब आवेश के कारण होता हैं | आवेश भी एक स्वभाव-सा बन गया है।
तीसरा स्वभाव है--प्रमाद-विस्मृति । भुलक्कड़पन भी एक स्वभाव-सा हो गया है | आदमी इतनी जल्दी भूल जाता है कि उसे कुछ भी याद नहीं रहता । यह विस्मृति अजागरूकता का परिणाम है | प्रमाद के कारण ऐसा होता है । इसको हम 'काई' की उपमा दे सकते हैं।
एक बड़ा तालाब था । वह शैवाल-काई से भरा हुआ था । उसमें एक कछुआ था । एक बार हवा के झोंके से काई हटी, कछुए ने ऊपर देखा। रात का समय था । पूर्णिमा का दिन । पूरा चंद, जगमगाते तारे । इस दृश्य से वह इतना अभिभूत हुआ कि अपने परिवारवालों को यह सुन्दर दृश्य दिखाने के लोभ का संवरण नहीं कर सका । वह गया । परिवार के सभी सदस्यों को साथ ले आया । पर अब आकाश दिखना बंद हो गया था । काई का सधन आवरण पानी पर पुनः छा गया था । सब हताश लौटे ।
इसी प्रकार प्रमाद होता है, स्मति पर आवरण आ जाता है । विस्मति उभर आती है । यह विस्मृति भी एक स्वभाव-सा बन गई है ।
चौधा स्वभाव है-आकांक्षा । आदमी के मन में निरन्तर आकांक्षा जागती रहती हैं। पद और यश की आकांक्षा, बड़प्पन और मान-सम्मान की आकांक्षा, पुत्र और पौत्र की आकांक्षा । आकांक्षा का कहीं अन्त नहीं आता। पाना है, पाना है और पाना है.—यही चाह निरन्तर बनी रहती है। न पाने
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