________________
५६. // मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता
के लिए कोई प्रयत्न नहीं करना होगा। वह अपने आप खुलेगी। उसके खुलते ही सब कुछ भगवानमय लगेगा। अलग से भगवान को प्राप्त करने की आतुरता मिट जाएगी | भगवान का साक्षात्कार स्वयं हो जाएगा। इस प्रकार के साक्षात्कार में न आवेग की जरूरत है और न आंसुओं की और न धर्म की ।"
आज कठिनाई यही है कि आदमी भगवान् को देखना चाहता है, आत्मा को साक्षात् करना चाहता है, पर चाहता है कि इन्हीं दो आंखों से भगवान् को देखूं, आत्मा का साक्षात्कार करूं । प्रियता और अप्रियता की आंख से भगवान कभी नहीं दिखेगा। इन दो आंखों के अतिरिक्त आदमी तीसरी आंख को जानता नहीं। तीसरी आंख है समता की। वहां न प्रियता बसती है और न अप्रियता रहती है। वहां समत्व का साम्राज्य होता है। प्रियता और अप्रियता की भाव- तरंगों से मुक्त होकर जो देखता है वही वास्तव में आत्म-साक्षात्कार करता है । जब तक इस तीसरी आंख की सत्यता स्वीकृत नहीं होती तब तक आत्म-साक्षात्कार की बात वाग्मात्र रह जाती है, वह मूर्त नहीं बनती । हम बदलें । प्रश्न होता हैं क्या बदलें ? हम अपने स्वभाव को बदलें । हमारें स्वभाव का एक पर्याय है चंचलता । आदमी बहुत चंचल होता है । चंचलता के लिए बंदर प्रसिद्ध है, पर आदमी की चंचलता कम नहीं है। वह जितना चंचल और व्यग्र होता है, बंदर उसकी तुलना में कुछ भी चंचल नहीं होता । आदमी एक दिन में, एक घंटे में जितने रूप बदलता है, एक क्षण में जितने रूपांतरण होते हैं, वे बंदर में कहां होते हैं ? प्रातःकाल आदमी का एक रूप होला है, मध्याह्न होते-होते वह दूसरा रूप धारण कर लेता है और सायं वह आमूलचूल परिवर्तन कर लेता है। वह प्रातः काल किसी को मित्र मानता है, मध्याह्न में उसे ही शत्रु मान लेता है। आदमी एक दिन में, एक घंटे में हजारों परिवर्तन कर लेता है। ये सारे आन्तरिक भाव-परिवर्तन हैं । इनसे मुद्राएं भी भिन्न हो जाती हैं। इन भाव - परिवर्तनों के कारण ही मुद्राओं में भिन्नता आती है और फिर फोटो भी भिन्न आते हैं । पहचाना ही नहीं जा सकता कि ये दोनों फोटो एक ही व्यक्ति के हैं । इतना भेद हो जाता है उनमें ।
हमारे भीतर परिवर्तन का एक अजस्र चक्र घूम रहा है। वह निरंतर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org