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बौद्धिक ज्ञान जीवन-विज्ञान बने
लाडनूं का प्रज्ञाप्रदीप ! जीवन-विज्ञान शिविर में राजस्थान के अनेक जिलों से आए हुए अध्यापकगण | जीवन-विज्ञान का प्रशिक्षण | एक दिन भारत के प्रसिद्ध विचारक, साहित्यकार और लेखक जैनेन्द्रकुमारजी आ गए । मैंने सोचा, इनके विचार अध्यापकों के बीच सुनें । संयोजना हुई । मैं नहीं कह सकता यह उचित हुआ या नहीं क्योंकि यहां सब लोग निर्विचार की स्थिति में जी रहे हैं और बीच में यह विचार का द्वन्द्व और आ गया । अटपटा ही लगा होगा । जैनेन्द्रजी से विषय के बारे में पूछा गया । उन्होंने कहा- “सत्तर वर्ष की उम्र का आदमी और फिर विषय की याद दिलाते हो । सत्तर से ऊपर का आदमी विषयातीत अवस्था में जाना चाहता है और जीवन-विज्ञान का प्रयोग करने वाले निर्विचार में जाना चाहते हैं, तो यहां अतीत की बात होनी चाहिए थी, पर बात हो गई दर्शन की, विचार की और चिन्तन की।"
__ मेरा अपना विचार है कि जो विचार का जीवन नहीं जीता वह निर्विचार का जीवन नहीं जी सकता । विषयातीत और विचारातीत- यह तो अतीत होता है । अतीत आता है एक बार जी लेने के पश्चात् । जिसने एक बार भी जीया नहीं, जिसने भोग का और समृद्धि का जीवन नहीं जिया वह यदि उससे परे भी हो गया तो उसके मन में कसक रह जाती है कि न जाने भोग कैसा होता होगा ! न जाने समृद्धि का सुख कैसा होता होगा ! किन्तु जो अतीत हो जाए, यथार्थ में अतीत हो जाए, उसके लिए कोई कठिनाई की बात मन में नहीं होती।
आज का आदमी विचार का जीवन अधिक जीता है। आज के जगत् में वैचारिकता अपने चरम बिन्दु पर है । इतना विचार हुआ है कि अब लौटने
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