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बौद्धिक ज्ञान जीवन-विज्ञान बने | १२७
की जरूरत है । आगे बढ़ने के लिए अब अवकाश नहीं है । शिखर का अंतिम छोर आ गया है । अब पुनः तलहटी पर आना होगा | कभी-कभी ऐसा होता है कि जो शिखर पर उपलब्ध नहीं होता, वह तलहटी में उपलब्ध हो जाता है । हमने कभी इस अतीत का विषयातीत और विचारातीत अवस्था का अनुभव नहीं किया । यही हमारी विषम समस्या है।
अहिंसा ठीक वही समस्या है । यह समस्या इसलिए है कि अहिंसा उपजी है बुद्धि से परे । हम लोग बुद्धि और विचार का जीवन जीना चाहते हैं, इसलिए अहिंसा का स्वर समझ में नहीं आता, गले नहीं उतरता । हम आज हिंसा की भाषा से जितने परिचित हैं, उतने परिचित नहीं हैं अहिंसा की भाषा से । हिंसा की भाषा हमारे लिए जितनी सहज और प्रिय है उतनी सहज और प्रिय नहीं है अहिंसा की भाषा । जहां भी अहिंसा का प्रश्न आता है, वहां तत्काल यह स्वर सुनाई देता है- यह कैसे संभव होगा ? कोई आक्रमण करे और आदमी अहिंसक बनकर बैठा रहे तो क्या होगा ? हर प्रश्न पर 'यह कैसे संभव है'---प्रतिप्रश्न आएगा। क्योंकि हम अहिंसा से पूर्ण परिचित नहीं हैं। जिसके प्रति हमारी आस्था निर्मित न हुई हो, वह बात जब सामने आती है तब हम उसे टालने का पूरा प्रयत्न करते हैं । आज अहिंसा का सारा चिन्तन टाला जा रहा है, नकारा जा रहा है । उसे स्वीकार करने की बात ही नहीं आती । लोग कह देते हैं— यह तो श्रुतिप्रिय है, व्यवहार्य नहीं है । व्यवहार में जीने वाला आदमी व्यावहारिक बात सोचता है | आज व्यावहारिक बात बनी हुई है हिंसा | व्यावहारिक बात लगती है कृत की प्रतिक्रिया करना । हिंसा और प्रतिक्रिया से आदमी बहुत परिचित है | यह स्वभाव-सा बन गया है । अहिंसा में क्रिया है, प्रतिक्रिया नहीं।
प्रत्येक आदमी का अभ्यास, परिचय और संगति हिंसा के साथ जुड़ी हुई है । यदि गहरे में उतर कर देखा जाए तो ज्ञात होगा कि आदमी चौबीस घंटों में अहिंसा का जीवन ज्यादा जीता है और हिंसा का जीवन कम जीता है । मैं सोचता हूं, यदि आदमी एक दिन भी हिंसा का जीवन पूरा जी ले तो दूसरे दिन हिंसा अपनी मौत मर जाएगी । उसकी बात ही समाप्त हो जाएगी । हिंसा अहिंसा के कंधे पर चढ़कर अपने अस्तित्व को कायम रखती है । यह अमरबेल है । अमरबेल का अस्तित्व दूसरे पेड़ों के अस्तित्व पर
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