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________________ १२८ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता टिका रहता है । वह बेल दूसरे के शोषण पर अपने अस्तित्व को टिकाए रखती है । दूसरों का शोषण और अपना जीवन-यापन | उसका अपना कुछ भी नहीं है । वह वृक्षों पर ही उत्पन्न होती है, वृक्षों पर ही फैलती है, वृक्ष का शोषण करती जाती है और स्वयं बढ़ती जाती है । इसी प्रकार हिंसा की भी प्रकृति उसी अमरबेल की तरह है। उसके कोई जड़ नहीं होती । उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं होता । वह अहिंसा के पेड़ पर अपना अस्तित्व टिकाए रहती है। यदि हम हिंसा की इस प्रवृत्ति को समझ लें तो अहिंसा सार्वभौम का मार्ग प्रशस्त हो सकता है । पर हम प्रकृति के विश्लेषण में कम जाते हैं | हम न अपनी प्रकृति का विश्लेषण करते हैं और न आचरण की प्रकृति का विश्लेषण करते हैं । बहुत सारी बातों को ऐसे ही स्वीकार कर लेते हैं। सामने कुछ आता है और तत्काल स्वीकार कर लेते हैं । यह सबसे बड़ी कठिनाई है | यह मानता हूं कि विचार का द्वन्द्व है, पर यह प्रकृति-विश्लेषण के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है, उपयोगी है। जैनेन्द्रजी ने काफी गहराई में जाकर विश्लेषण किया है । एक बात बहुत स्पष्ट है कि विचार से निर्विचार में जाने की यह प्रक्रिया है कि विचार करते-करते गहराई में उतरो, निर्विचार अपने आप आ जाएगी । __ जैन ध्यान-योग में धर्म-ध्यान का महत्वपूर्ण स्थान है उसकी प्रक्रिया यही है कि किसी पर्याय का विश्लेषण करना है तो उस पर गहराई से विचार करो । विचार करते-करते वहां पहुंच जाओ, जहां पहुंचने के बाद ऐसा लगे कि अब विचार पूर्ण हो गया है । अब आगे नहीं बढ़ा जा सकता । यह होता कायोत्सर्ग की प्रक्रिया में शरीर की विस्मृति का अभ्यास होता है । साधक को ज्ञान होता है कि शरीर है ही नहीं। ध्यान संप्रदाय का एक साधक आनापानसती का प्रयोग कर रहा था। अचानक वह चिल्ला उठा, “आओ, दौड़ो, दौड़ो ।” अनेक शिष्य एकत्रित हो गए। पूछा- क्या हो गया। उसने कहा- “जाओ, शीघ्रता करो, खोजो, मेरा शरीर कहां खो गया है ? कहां चला गया है ? जल्दी जाओ और उसे खोज कर लाओ।" कायोत्सर्ग या आनापानसती की साधना में जैसे शरीर खो जाता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003111
Book TitleMain Hu Apne Bhagya ka Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size12 MB
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