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बौद्धिक ज्ञान जीवन-विज्ञान बने / १२९
वैसे ही विचार करते-करते विचार भी खो जाता है । उस विचार खो जाने में से कुछ निकलता है वह एक परम तत्त्व होता है । यहां जो ‘परम' की अवधारणा रही है, उसकी पृष्ठभूमि में खो जाने की अवधारणा रही है । मुझे 'परम'और 'शून्य' में कोई अन्तर नहीं लगा । जहां 'परम' हो गया वहां 'शून्य' के सिवाय किसी को 'परम' नहीं कहा जा सकता और ‘परम' के सिवाय किसी को 'शन्य' नहीं कहा जा सकता । पहले दोनों समानान्तर रेखा में मान लिये गए और आगे जाकर दोनों रेखाएं एक बन गयीं ।
जीवन-विज्ञान का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है 'अहिंसा सार्वभौम' । यदि अहिंसा का, आत्मौपम्य का, समता और एकता का अंकर प्रस्फटित नहीं होता है तो जीवन-विज्ञान कुछ भी काम नहीं कर सकता है । जीवन-विज्ञान की प्रक्रिया के ये घटक तत्त्व हैं- दृष्टि-परिवर्तन, भाव-परिवर्तन, विचारपरिवर्तन और आचार-परिवर्तन । यदि ये सारे परिवर्तन नहीं होते हैं तो फिर वह कोरी बौद्धिक बात रह जाती है।
एक व्यक्ति बारह वर्ष तक काशी में पढ़कर घर आया । पत्नी ने स्नान के लिए गर्म पानी तैयार किया । वह उस बर्तन को लेकर स्नान करने के स्थान पर गई । वहां उसने देखा कि हजारों चींटियां हैं । 'वे बेचारी यों ही मरेंगी'- ऐसा सोचकर उसने उस गर्म पानी के बर्तन को दूसरे स्थान पर रख दिया। पति आया । बर्तन को उठाकर मूल स्थान पर ले गया और वहीं स्नान करने लगा । पत्नी आयी, बोली -- मैंने गर्म पानी का यह बर्तन वहां रखा था, यहां कैसे आ गया ? पति ने कहा- तुने गलती की | स्नान का स्थान यही है | मैं पुनः उस बर्तन को यहां उठा लाया । पत्नी बोली---- पहले यहीं रखना चाहती थी, पर यहां चींटियां बहत हैं । आपके स्नान के पानी से वे सब मर जाएंगी । इसलिए मैंने इस स्थान पर रखा । पति बोला- तू पढ़ी-लिखी तो है नहीं, मूर्ख है । क्या मैं चींटियों को जिलाने के लिए जन्मा हूं ? मैं किस-किस की चिन्ता करूं? पत्नी ने कहा- “किं ताए विज्जाए पलाल भूयाए, जो इयं पि न याणाइ, परस्स पीड़ा न कायव्वा ।'
मैं नहीं समझ सकी । बारह वर्ष तक आपने विद्याध्ययन किया । काशी में रहे | उस विद्या से क्या, जिससे इतना भी नहीं समझा कि दूसरों को पीड़ा नहीं पहुंचानी चाहिए । वह विद्या नहीं, वह सार नहीं वह कोरा भूसा
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