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१३० / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता है,पलाल है | दाना है ही नहीं। इतना पढ़-लिखने पर भी आप में यह चेतना नहीं जागी कि दूसरे प्राणी को पीड़ा नहीं देनी चाहिए, तो फिर उस अध्ययन का अर्थ ही क्या हुआ ?
कितने मर्म की बात है ! ज्ञान का सार है संवेदनशीलता । यदि हमारी संवेदनशीलता व्यापक नहीं बनी, दूसरे के प्रति हमारे मन में एकता की अनुभूति नहीं जागी तो बहुत बड़ा बौद्धिक ज्ञान भी जीवन का विज्ञान नहीं बन सकता | यदि इतनी छोटी-सी संवेदना भी जाग जाती है तो हमारा छोटासा ज्ञान भी जीवन का विज्ञान बन जाता है |
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