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तत्त्वज्ञान या जीवन-दर्शन ?
ज्ञान और आचार- ये दो शब्द बहुत पुराने हैं । इन दोनों को बांटा भी जा सकता है और नहीं भी बंटा जा सकता है । ये दो भी हैं और दो नहीं भी हैं | ज्ञान का अर्थ है -- जानना और आचार का अर्थ है- करना । जानना और करना-ये दो होते हैं । जानना जब प्रगाढ़ होता है तब करना अपने आप हो जाता है । प्रसिद्ध सूत्र है- नाणस्स सारो आयारो— ज्ञान का सार आचार है । आचार सार है । दूध का सार है नवनीत । क्या नवनीत दूध से अलग है । नहीं, उसी में समाया हुआ है । इसी प्रकार ज्ञान- तत्त्वज्ञान में जीवन का दर्शन– आचार समाया हुआ है । उसे अलग नहीं किया जा सकता । परन्तु एक ऐसा समय आया कि दही जमाना भूल गया, बिलौना करना भूल गया । मक्खन निकालने की पद्धति विस्मृत हो गई। केवल दूध पीना याद रहा। दूध पीना कोई बुरी बात नहीं है । पर शरीर की पौष्टिकता के लिए चिकनाई भी चाहिए । यदि दूध पीने से सारा काम बन जाता तो कोई हलवा या अन्य पदार्थ बनाकर नहीं खाता; कोई घी नहीं खल्ता । चिकनाई के बिना शरीर रूखा-सूखा हो जाता है | शरीर का रूखापन चिकनाई से मिटता है, इसीलिए आदमी घी खाता है, इसी रूप में मैं देख रहा हूँ तत्त्वज्ञान
और जीवन-दर्शन को | तत्त्वज्ञान बहुत रटा गया, रटा जा रहा है । दूध पीना लाभदायी है । वह जीवनदाता है किन्तु केवल दूध पीने से ही घी का काम नहीं हो रहा है । हम चाहते हैं कि घी का काम भी पूरा हो । दूध के साथ घी का उपयोग भी हो ।
दूध का सार है मक्खन । ज्ञान का सार है. आचार । केवल दूध पीने से मक्खन का काम नहीं होता । केवल ज्ञान से आचार का काम नहीं हो
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