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स्थूल शरीर का आध्यात्मिक महत्त्व / २१
'पचीस रुपये ।' तत्काल रुपये देकर वह जौहरी उस टुकड़े को लेकर चला गया ।
पहले वाला जौहरी घूम-फिरकर आया । उसे वह चमकता टुकड़ा दिखाई नहीं दिया। उसने पूछा- 'अरे ! वह टुकड़ा कहां गया ?' दूकानदार बोला'बेच दिया ।' जौहरी ने गंभीर होकर कहा—'बेच दिया !' एक टीस-सी सारे शरीर में हो गई ? भारी वेदना हुई | पूछा—'कितने में बेचा ?' दूकानदार ने कहा- 'पचीस रुपये में । तुम बीस रुपये भी नहीं दे रहे थे, मैंने पचीस में बेचा है।'
उस जौहरी ने कहा- 'तुम मूर्ख हो । तुम ठगे गये । वह सवा लाख का हीरा था । तुमने पचीस रुपये में ही बेच दिया ।'
वह बोला— 'मूर्ख मैं तो नहीं हूं | मेरे बाप ने कभी जवाहरात का काम नहीं किया | मैंने भी नहीं किया । ऐसे ही मुझो तो पड़ा हुआ मिला था, उठा लिया । घर का एक पैसा भी नहीं लगा | मैंने पचीस रुपये कमा लिये । मूर्ख हो तुम, मूर्ख है तुम्हारा बाप । जब तुम जानते थे कि सवा लाख का हीरा है और पांच रुपये के लेने-देने में अड़ गये । छोड़कर चले गये, मूर्ख तुम हो या मैं ?'
इस कहानी के आधार पर मूल्यांकन के दृष्टिकोण फलित होते हैं
१. अज्ञानी आदमी द्वारा किया जाने वाला मूल्यांकन | वह वस्तु के यथार्थ मूल्य को जानता ही नहीं, इसलिए अपनी बुद्धि के अनुसार ही उसका मूल्यांकन करता है।
२. ज्ञानी आदमी द्वारा किया जाने वाला मूल्यांकन | जो मूल्य को जानता है, पर सघन मूर्छा के कारण थोड़े के लिए बहुत को गंवा डालता
है।
३. उस व्यक्ति द्वारा किया जाने वाला मूल्यांकन—जो मूल्य को जानता है, उसका यथार्थ मूल्यांकन करता है और उसका उपयोग करता है।
शरीर के लिए भी ये तीन बातें होती हैं । यह शरीर एक पत्थर का टुकड़ा है, मनिहारे के लिए।
यह शरीर एक कीमती हीरा है उस जौहरी के लिए, किन्तु उसमें इतनी मूर्छा है कि उसका मूल्य जानते हुए भी वह उसका कोई उपयोग नहीं करता,
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