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२० / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता
दिशाएं । दोनों मिलते हैं तो बहुत सारे काम सम्पन्न होते हैं । यदि अंगुली
और अंगूठा न हो तो सारी सभ्यता ही ठप्प हो जाए । संस्कृति का विकास इन अंगुलियों और अंगूठे के आधार पर हुआ है । पैर का मूल्य तब समझ में आता है जब चलने की जरूरत होती है । प्रत्येक अवयव का अपना मूल्य है और हम समझते हैं, आंख का मूल्य है, कान का मूल्य है, त्वचा का मूल्य है और मस्तिष्क का मूल्य है | सबका मूल्य है । किन्तु मूल्यांकन का दृष्टिकोण अलग-अलग होता है ।
बहुत प्रसिद्ध कहानी है, सब लोग जानते ही होंगे, फिर भी नयी दृष्टि से उस कहानी को सुनें ।
कहीं मेला लगा । हजारों लोग इकट्ठे हुए । वहां दुकानें भी लगीं । एक मनिहारे ने मनिहारी की दुकान लगाई । उसने कांच का एक टुकड़ा भी सजाकर रखा । वह खूब चमक रहा था । लोग घूमते हैं, देखते हैं । एक जौहरी आया, देखा पत्थर का टुकड़ा बहुत चमक रहा है, दूर से ही देखा
और समझ गया । पास में आया, देखा कि बहुत मूल्यवान् हीरा है, कीमती है । तत्काल बोला—अरे भाई ! क्या लोगे इस कांच के टुकड़े का ? उसने कहा-बीस रुपये लूंगा । ग्राहक ने कहा—पत्थर का टुकड़ा और बीस रुपये ? इतना तो नहीं, दस रुपये ले लो, पन्द्रह रुपये ले लो । दुकानदार ने कापूरे बीस रुपये लूंगा, एक पैसा भी कम नहीं लूंगा | उसने सोचा–नासमझ आदमी है, इधर-उधर घूम आता हूं कहां जाने वाला है ? कौन ले जाता है इस पत्थर के टुकड़े को ? अपने आप देगा । मैं पांच रुपये बचा लूंगा ।
वह चला गया । दो-चार क्षण बीते होंगे, दूसरा जौहरी उधर से आया । देखा, चमकीले टुकड़े पर उसकी आंख टिक गई । उसने पूछा—अरे, क्या
है ?
'पत्थर का टुकड़ा है।' 'क्यों रखा है ?' 'चमकता है, इसलिए ।' 'बेचोगे ?' 'हां ।' 'क्या लोगे ?'
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